हिंदी सिनेमा और दलित चेतना / जितेन्द्र विसारिया / पृष्ठ 6
|
लेखक: जितेन्द्र विसारिया
इसके बाद का मुख्य दृश्य है नत्थू का सागर से आने के बाद मंदिर में झंडा चढ़ाने के ऐवज में ठाकुर द्वार नत्थू के सिर पर पेशाब करने का। इस दृश्य को फिल्माने में निर्देशक को दिक्कत यह आती है कि किशोर मुरली से अपने सिर पर पेशाब नहीं करवाने पर अड़ जाता है। वह दृश्य बदलने के लिए जोर देता है। जबकि यूनिट के और लोग इसे करवाना चाहते हैं। विकल्पों पर भी बात होती है, कुछ जमता नहीं। इस बीच असली नत्थू आकर निर्देशक से कहता है-साहब, आपका दलित अभिनेता यह दृश्य नहीं करता, तो मैं कर देता हूँ। मेरे सर पर तो सचमुच का मूता गया था-हँसी और आँसू साथ-साथ आते हैं, इस मासूमियत की वेदना और संस्कार की जड़ता पर। हारकर नत्थू के सिर पर पेशाब वाला दृश्य न फिल्माकर उसके बाद वाला दृश्य फिल्माया जाता है। जब ठाकुर नत्थू के सिर पर पेशाब कर देता है। तब नत्थू और उसकी पत्नी रोते हुए आते हैं। नत्थू मरने के लिए भागता है और दुलारी उसे रोकती है। शाट खत्म होते ही असली नत्थू (रघुवीर यादव) कहता है, जब चमक सिंह (ठाकुर) ने हमारे मूड़ पे मूतो हतो तो हमने मरने-वरने की कौनौ बात नहीं कही हती...। ऐ वाली घटना से तो हमें एक बल मिलो हतो...। गाँव के लोग उस घटना के बाद नत्थू को सलाह देते हैं कि वह इस घटना को भूल जाए। नत्थू भड़क उठता है, भूल जाएँ। चूतिया हैं। ठाकुर ने हमारे मूड़ पे नईं सारी दुनिया के मूड़ पर मूतो है...।
डीआईजी सागर (सदाशिव अमरापुरकर) फिल्म यूनिट को अपने घर लंच पर बुलाते हैं। जातिवाद पर बहुत सारी चर्चाओं के बाद बीच में ही डीआईजी साहब का बच्चा रोता हुआ आता है। कारण पूछने पर पता चलता है कि उस बच्चे को स्कूल में चमार कहा था। इस संबोधन से बच्चा अत्यधिक दुखी था। डीआईजी उससे कहते हैं, ये बताओ अगर तुम्हें किसी ने ब्राह्मण कहा होता तो तुम्हें दुख होता क्या? किसी ने तुम्हें ठाकुर कहा होता तो भी तुम रोते क्या? फिर चमार कहने पर क्यों रो रहे हो? आदमी की जाति उसके कर्म से बनती है मेरे पिता मामूली दलित थे, पर आज मैं क्या हूँ, डीआईजी हूँ...। तो सब कर्मों से बनता है...।
‘समर’ दलित विमर्श पर एक बहुकोणीय फिल्म है। खुद एक फिल्म निर्देशक होकर फिल्म वालों पर मारक व्यंग्य केवल श्याम बेनेगल की फिल्म में ही संभव था। फिल्म समाप्त कर यूनिट जब गाँव से जा रही होती है तो वे कितने बेमन से माला पहनते हैं उस बेचारे गाँव वाले से। यानि जुड़ाव महज एक्टिंग (में जान लाने) भर का था। सत्यदेव त्रिपाठी के शब्दों में कहें तो-‘यही दुनिया है। कला की। ग्लैमर की। यही रिश्ता है स्वतांत्र्योत्तर जनतंत्र का गाँव के प्रति। वह पिकनिक के लिए आता है। दलित भी आजकल प्रोजेक्ट के लिए, सेमीनार के लिए, फीचर के लिए यानि हर तरह से कैरियर के उत्थान के लिए याद आता रहा है और अब फिल्म के लिए याद आ गया।[23]
‘बवंडर’ (2000) पिछड़ों द्वारा दलित उत्पीड़न की एक झलक जो हम फिल्म ‘बैंडिंट क्वीन’ में देखतें है, उसका विस्तृत रूप ‘बबंडर’ में देखने को मिलता हैं। राजस्थान के प्रसिद्ध भँवरीदेवी बलात्कार कांड पर बनी जगमोहन मूँदड़ा निर्देशित इस फिल्म में भी संयोग से बलात्कारी गुर्जर जैसी पिछड़ी जाति के ही कुछ लोग थे। राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ अगस्त 2004 (दलित विशेषांक) के संपादकीय में एक स्थान पर लिखा है-‘दलितों से कटा और सवर्णों से उपेक्षित पिछड़े वर्ग का न तो कोई अपना इतिहास है और न आदर्श, वे सवर्णों के ही इतिहास और महापुरुषों को अपना आदर्श मानते हैं और उन्हीं से अपनी प्रेरणाएँ ग्रहण करते हैं।’ ऐसे में संभव है कि सवर्णों की भांति पिछड़े भी दलित उत्पीड़न में भागीदार हैं/या बनते आये हैं। स्थान और नामों के बीच मामूली से परिवर्तन के साथ बनी फिल्म ‘बबंडर’ की कहानी शुरू होती है एक विदेशी पत्रकार एमी (लैला रोज़ेज़) जो राजस्थान के महल, मन्दिर और महाराजाओं पर लिखने के बजाय भँवरीदेवी पर किताब लिखने के लिए अपने मित्र और दुभाषिए (राहुल खन्ना) के साथ, साँवरी (नंदिता दास) के गाँव धावड़ी आती है। जाति से कुम्हार साँवरी देवी का पति सोहन (रघुवीर यादव) एक रिक्शा चालक है और उनकी एक लड़की है कमली। रवि और एमी के धावड़ी पहुँचने पर साँवरी उन्हें पाँच वर्ष पूर्व अपने ऊपर हुए जघन्य अत्याचार की मर्मव्यथा सुनाती है।
चार साल की अबोध उम्र में साँवरी का सोहन के साथ ब्याह हुआ था। अनपढ़ और पूरी तरह परंपरावादी सड़क मजदूर साँवरी का एक प्रमुख गुण अन्याय को सहन न करना भी था, फिर चाहे वह पनघट पर छेड़ने वाला गाँव का गूजर हो या कम मजूरी देने वाला ठेकेदार। साँवरी विरोध किए बगैर चुप न रहती । उसके जीवन में एकाएक तब मोड़ आता है जब पड़ोस की एक बालिका विधवा हो जाती है। वह सामाजिक कार्यकर्ता शोभा (दीप्ति नवल) के संपर्क ढाई सौ रुपए माह की पगार पर ‘साथिन’ संस्था की ज़मीनी कार्यकर्ता बन जाती है। ‘साथिन’ संस्था का कार्य तमाम सामाजिक बुराईयों के साथ-साथ स्त्री शिक्षा और बाल विवाह के विरूद्ध लोगों में जन-जागरुकता पैदा करना है। साँवरी इस काम को बखूबी करती अपने साहस की हद तक चली जाती है। वह गाँव में अखतीज के दिन गुर्जर समुदाय के यहाँ सम्पन्न हो रहे ‘बाल विवाह’ को भी पुलिस और ‘साथिन’ संस्था की मदद से रुकवाती है। एक नीच जाति की लुगाई गुर्जरों के शुभकार्य में विघ्न डाले, यह भला उन्हें कैसे स्वीकार होता। फलस्वरूप गाँव के पाँच गुर्जर मिलकर निकल पड़ते हैं साँवरी और उसके पति को सबक सिखाने। वे सोहन को बंधक बनाकर, बारी-बारी से असहाय साँवरीदेवी का बलात्कार करते हैं।
एक स्त्री का वज़ूद कुचलने के लिए उसे बेइज्जत करना अपना हथियार मानने वाली पुरुष प्रवृत्ति, ‘साथिन’ संस्था के माध्यम से नई दृष्टि पाई साँवरी के आगे मंद पड़ जाती है। सोहन और साँवरी मिलकर पुलिस स्टेशन रिर्पोट लिखवाने जाते हैं । लेकिन दबंगों के प्रभाव में रहने वाली पुलिस उनकी एफ. आई. आर दर्ज़ करने से माना कर देती है। मदद के लिए सामने आती हैं साथिन शोभा। वह साँवरी का मेडीकल करवाने उन्हें अस्पताल ले जाती हैं, किन्तु बगैर कोर्ट आदेश के डाॅक्टर भी साँवरी का मेडिकल करने से मना कर देते हंै। शोभा मदद लेकर अदालत का आदेश निकलवाकर साँवरी का जयपुर से मेडीकल सार्टिफिकेट बनवाती हैं और इस प्रकार घटना के दो दिन बाद उनकी रिर्पोट लिखी जाती है।
रिपोर्ट लिखे जाने के बावजूद बलात्कारियों को गिरफ्तार नहीं किया जाता। वे साँवरी के साथ किए रेप के अनुभव सुनाते खुले आम घूमते हैं। साँवरी के मामले पर राष्ट्र का व्यापक ध्यान जाता है और तब स्वयं प्रधानमंत्री इस केस की जाँच सी.बी.आई. से करवाने का आदेश देते हैं। एक महिला संगठन भी साँवरी की मदद करने आगे आता है। परिणाम स्वरूप आरोपी गिरफ्तार भी होते हैं, किन्तु एक स्थानीय विधायक धनराज मीणा (गोविंद नामदेव) और एक पुरोहित नामक वकील के प्रभाववश उनका बाल भी बाँका नहीं होता। एक गुर्जर वकील (गुलशन ग्रोवर) साँवरी के बचाव में आता भी है, किन्तु अपनी जाति के दबावों और आरोपों के चलते वह भी उन्हीं के पक्ष में चला जाता है। न्यायधीश केस को लम्बे समय के टाल देते हैं और केस का फैसला साँवरी के विरुद्ध चला जाता है। अक्षम पुलिस, भृष्ट न्याय प्रणाली और गाँव-समाज के असहयोग करने पर भी न्याय पाने के लिए साँवरी देवी फिर आगे बढ़ती हैं, उनकी वह लड़ाई आज भी जारी है।[24] राजस्थान के सांमतीय और घोर जातिवादी समाज की जड़ें खोदती फिल्म ‘बबंडर’ में ध्यानाकर्षण योग्य पात्र विधायक धनराज मीणा भी है। कहने को वह आदिवासी है, किन्तु पक्ष निबल का नहीं सबल का लेता है। क्या इससे हमें यह नहीं सीखना चाहिए कि सत्ता पाते ही व्यक्ति का वर्ण और वर्ग दोनों बदल जाते हैं। वह न दलित रहता है न सवर्ण रह जाता है तो मात्र शासक बनकर, जिसका ध्येय होता है शासन करना और उस व्यवस्था में बने रहना, फिर भले ही उसके लिए उसे अपनो की ही बलि क्यों न चढ़ानी पड़े। फिल्म में अन्य कलाकार थे-इशरत अली, यशपाल शर्मा, ललित तिवारी, रवि झाँकल, मोहन भंण्डारी इत्यादि।
‘लाल सलाम’ रूपी (नंदिता दास) और डा. कन्ना (शरद कपूर) के माध्यम से आदिवासी जनजातियों की संस्कृति और उनकी जीवनशैली (मुख्तः विवाहपूर्व मुक्त यौन सम्बन्ध) को आधार बनाकर लिखी गई गगन बिहारी बोराटे निर्देशित फिल्म ‘लाल सलाम’ में आदिवासियों के मजबूरी मे नक्सलवादी बनने की कथा भी एक अंग के रूप में आई है। स्थानीय दंबग जातियो, पुलिस और प्रशासन ने उनके जीवन के रास्ते किस तरह बंद कर रखे हैं कि वे पुलिस की गोली से मारे जाने का सच जानते हुए भी नक्सलवाद की राह पकड़ने को मजबूर हैं। अन्य कलाकारों के रूप में मकरंद देश पांडे, विजय राज, राजपाल यादव, अनंत जोग, अखिलेन्द्र मिश्रा, सयाजी शिंदे इत्यादि।
‘डाॅ. बाबासाहेब अंबेडकर (2000) ममूटी और सोनाली कुलकर्णी की मुख्य भूमिकाओं वाली जब्बार पटेल निर्देशित एवं कल्याण मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से बनी यह फिल्म यों तो 1989 में विजय पवार निर्देशित फिल्म ‘भीम गर्जना’ से कई मामलों में भव्य और उत्कृष्ट है, किन्तु वह बाबा साहेब के जीवन की कई तल्ख सच्चाइयाँ और उनके विद्रोही व्यक्तित्व को पूर्ण रूपेण उभारने में कोताही बरती गई है। कांग्रेस के शासन में बनी इस फिल्म की अन्दरूनी सच्चाई की एक झलक हम ‘डाॅ. बाबासाहेब अंबेडकर’ फिल्म स्क्रिप्ट निर्माण समिति के चेयरमैन रहे वयोवृद्ध कांग्रेसी दलित नेता/साहित्यकार माता प्रसाद की आत्मकथा ‘झोंपड़ी से राजभवन’ में पाते हैं। उसमें उन्होंने बाबा साहेब के परिजनों की दखलंदाजियों के साथ-साथ सरकारी हस्तक्षेप की बात करते हुए, 31 दिसंबर 1995 के जनसत्ता का हवाला कुछ इस प्रकार दिया है-‘बंबई, 30 दिसंबर। डाॅ. बाबा साहेब अंबेडकर के जीवन पर फिल्म से जुड़े सारे विवाद सुलझ गए हैं। अब फिल्म में बाबा साहेब को गांधी के विरोधी के रूप में नहीं दिखाया जाएगा। फिल्म में डाॅ. अंबेडकर के जीवन के उन प्रसंगों पर जोर दिया जाएगा, जिनसे उनके और गांधी के बेहतर संबधों का इजहार होता है। फिल्म में उनके और जगजीवन राम के प्रेमपूर्ण संबंध दिखाए जाएंगे और पूरी फिल्म का स्वरूप ऐसा होगा कि डाॅ. अम्बेडकर का समन्वयवादी स्वरूप उभरे।[25]’
इस तथ्य से हम अंदाज लगा सकते हैं कि फिल्म सरकारी सहयोग से बनने वाली फिल्में महान पुरुषों के व्यक्तित्व का सही आकलन न कर पार्टी के एजेंडे के अनुसार गढ़ी जाती हैं। बाबा साहब पर बनी यह फिल्म भी इसका अपवाद नहीं है।