हिंदी सिनेमा और दलित चेतना / जितेन्द्र विसारिया / पृष्ठ 7

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हिंदी सिनेमा और दलित चेतना (2001-2009)
लेखक: जितेन्द्र विसारिया

‘लज्जा’ (2001) भारतीय समाज में नारी दुर्दशा को केन्द्र में रखकर बनी राजकुमार संतोषी निर्देशित यह फिल्म बताती है कि स्त्री चाहे विदेश में सर्विस कर रहे एक एन.आर. आई की पत्नी हो या किसी पिछड़े इलाके की दलित महिला, वह हर जगह उपेक्षित और अपमानित है। वैदेही, जानकी, मैथिली और रामदुलारी चार स्त्रियाँ जो स्त्रियों के भारतीय आदर्श सीता के ही अन्य रूप हैं के आधार पर चार आधुनिक स्त्रियों वैदेही (मनीषा कोइराला), जानकी (माधुरी दक्षित), मैथिली (महिमा चैधरी) और रामदुलारी (रेखा) के शोषण, उत्पीड़न और विद्रोह की कथा कहती इस फिल्म में दलित बागी ‘फुलवा’ की भूमिका में अजय देवगन की भूमिका भी सराहनीय थी।

‘लगान’ (2001) यों आशुतोष गोवारीकर निर्देशित और आमिर खान और ग्रेसी सिंह की मुख्य भूमिकाओं वाली यह फिल्म काल्पनिक इतिहास के माध्यम से लोगों के क्रिकेट जुनून को भुनाने का सफल प्रयास था, किन्तु उसके बीच में दलित पात्र कचरा (आदित्य लखिया) की भूमिका को भी इस परिपेक्ष्य में देखा जा सकता है कि दलित भले ही ब्राह्मणवाद का शिकार रहा हो, किन्तु वक्त पड़ने पर मिली छूटों में उन्होंने सवर्णों के कंधे से कंधा मिलाकर अपनी हिम्मत और बहादुरी का भी परिचय दिया है।

‘मातृभूमि’ (2003) ‘नेशन विदाउट वूमन’ मनीष झा निर्देशित यह फिल्म भी समाज में स्त्री उत्पीड़न की मार्मिक दास्तान बयान करती है। कन्या भ्रूण हत्या को केन्द्र में रखकर लिखी गई इस कहानी का प्रारंभ बेटे की इच्छा के चलते एक पिता द्वारा अपनी नवजात बेटी को दूध के टब में डालकर मार डालने के कई साल बाद (सन् 2050) की परस्थितियों का वर्णन है, जब हमारे समाज में स्त्रियाँ की संख्या न्यून हो जाएगी। फिल्म में बिहार का एक पुरूष बाहुल्य गाँव दिखया गया है, जिसमें हिंसा और पाशविकता उनकी प्रवृत्ति बन चुकी है। गाँव के गँवार और आक्रमक युवा; समलैंगिक और अप्राकृतिक यौन संबंधों के बाबजूद, पत्नियों के लिए बेताव हैं। कुछ लोग गलत फायदा भी उठाते हुए लड़की के भेष में लड़के को दुल्हन बनाकर, मोटी रकम ऐंठ ले जाते हैं।

गाँव में पाँच लड़कों के धनी पिता रामचरन (सुधीर पाण्डेय) अपने कुल-पुरोहित जगन्नाथ (पीयूष मिश्रा) के माध्यम से, कल्कि (ट्यूलिप जोशी) नामक युवति को पाँच लाख देकर ब्याह/खरीद लाते हैं! रामचरन कल्कि को अपने पाँचों बेटों की ही बहू नहीं बनाता, बल्कि क्रमानुसार सप्ताह में दो दिन वह भी कल्कि के साथ हमबिस्तर होता है!! इस उत्पीड़न उलट राम चरन का छोटा बेटा सूरज (सुशांत सिंह) ही कल्कि से सम्मान और कोमलता का भाव रखता है। स्वाभाविक है कि इससे कल्कि का झुकाव सूरज के प्रति बढ़ जाता है, जिससे सूरज के पिता और बड़े भाईयों को जलन होती है। वे कल्कि की उपेक्षा और सूरज का प्रेम सह नहीं पाते और सूरज की हत्या कर देते हैं!!! इस संबंध में कल्कि अपने पिता को पत्र लिखती है। खबर लगने पर घर आया पिता, विरोध के बजाय कल्कि के ससुर को भी उसका एक पति मानते हुए; एक लाख रुपए और ऐंठ ले जाता है!!! भयभीत कल्कि अपने घरेलू दलित नौकर रघु (विनम्र पंचारिया) के साथ, घर से भागने का प्रयास करती है। घर से भागकर वे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच पाते, उससे पहले ही कल्कि के पाँचों पति रास्ते में रघु को घेरकर निर्मम हत्या कर देते हैं। रास्ते से पकड़कर लाई गई कल्कि को घर नहीं ले जाया जाता, बल्कि गौशाला में गाय की रस्सी से बाँधकर डाल दिया जाता है। एक दलित के साथ भागने के कारण अपवित्र हुई कल्कि कई दिनों-महीनों गौशाला में बलात्कार का शिकार होती रहती है। उसे यह सजा उसके अपने कहे जाने तथाकथित पाँचों पति ही नहीं देते, बल्कि रघु की हत्या के बाद सकते में आए रघु के दलित भाई-बंधु भी देते हैं!!! इन क्रमागत बलात्कारों के बीच कल्कि गर्भवती हो जाती है और इस बात को लेकर विवाद छिड़ता है कि कल्कि से होने वाला बच्चा किसका है। दलित सवर्णों में दंगा होता है और इस दंगे में कोई नहीं बचता, सवर्ण न दलित। शेष बचती है कल्कि, उसकी नवजात बच्ची और सुक्खा (अमीन गाजी) नामक दलित युवक जो रघु के बाद उस घर में नौकर के रूप में आया था।...बड़े शोध और साहस के साथ बनाई गई यह फिल्म स्त्री के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार करने वाले हर-एक वर्ग की खिचाई ही नहीं करती, अपितु यह अपील भी करती है कि स्त्री के बगैर समाज में भंयकर अराजकता और हिंसा भी फैल जाएगी, जो अंततः विनाश का ही कारण बनेगी। अन्य कलाकार थे आदित्य श्रीवास्तव, पीयूष मिश्रा, मुकेश भट्ट, पंकज झा, मुकेश कुमार इत्यादि।

‘एकलव्य: द राॅयल गार्ड’ (2005) विधु विनोद चैपड़ा निर्देशित और अमिताभ बच्चन सैफ अली खान, संजय दत्त, जैकी श्राफ, शर्मीला टैगोर और विद्या बालन की मुख्य भूमिकाओं वाली यह फिल्म पौराणिक पात्र ‘एकलव्य’ को नए संदर्भों में इस प्रश्न के साथ प्रस्तुत करती है कि क्या अपने और अपने समाज के स्वार्थों का बलिदान कर अपना अँगूठा (शक्ति) सदैव के लिए किसी को समर्पित कर देना उचित होगा? राजस्थान की राजपूती पृष्ठभूमि में एक दलित परिवार है जो नौ पीढ़ियों से एक राजपरिवार के संरक्षक का कार्य करता आ रहा है। उसी परिवार का एक किंवदंती पुरुष है एकलव्य (अमिताभ बच्चन) है, जो तमाम अन्तद्र्वन्द्वों से गुजरकर अंत में पौराणिक एकलव्य को गलत सिद्ध करता, अंत अपने पुत्र राज्यवर्धन (सैफअली खान) की रक्षा करने के रूप में अगूँठा दान करने से इंकार कर देता है। दलित पुलिस इंसपेक्टर पन्नालाल चमार की भूमिका में सजंय दत्त का रोल भी काफी विद्रोही बन पड़ा है।

‘धर्म’ (2007) भावना तलवार निर्देशित और पकंज कपूर एवं सुप्रिया पाठक अभिनीत यह फिल्म, हिन्दू कट्टरता के बीच साम्प्रदायिक सद्भाव और मानवतावाद की खोज का एक अभिनव प्रयास है। एक उच्च प्रतिष्ठित सनातनी हिन्दू पंडित चतुर्वेदी (पकंज कपूर) का हृदय परिर्वतन तब होता है, जब वह एक मुस्लिम बच्चे के संपर्क में आता है। फिल्म में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता के बीच यह भी दिखाया गया है कि जिस मानवतावाद के मार्ग पर एक धार्मिक हिन्दू बड़े गहरे अन्तद्र्वन्द्व के बाद खड़ा हो पाता है; उस मार्ग पर शास्त्र और स्मृतियों के कोढ़ से दूर दलित एवं स्त्रियाँ, पहले से ही सहज होकर चले आ रहे हैं। फिल्म में पुरोहित का हृदय परिवर्तन वेद-पुराणों के बीच किंचित मात्रा में मिले मानवतावाद के साथ-साथ, जात-पाँत विरोधी कबीर पंथी दलित साधु और अपनी पत्नी के प्रभाववश भी दिखाया गया है।


‘वैलकम टू सज्जन पुर’ (2008) एक षड्यंत्र के तहत और कुछ वास्तविक अर्थों में अभी तक की अधिकांश फिल्मों में, पिछड़ों को दलित विरोधी और उत्पीड़क ही चित्रित किया गया है, किन्तु यह पहला अवसर है जब श्याम बेनेगल की यह महत्वपूर्ण फिल्म दबे रूप में ही सही, दलितों के प्रति पिछड़ों का झुकाव प्रदर्शित करती है। गाँव की अहिरवार (दलित) लड़की का ठाकुर (यशपाल शर्मा) के लड़के द्वार बलात्कार और ठकुराइन द्वारा लड़की हत्या के केस में फँसे होने के परिपेक्ष्य में, नायक आँख चढ़ाकर व्यंग्य में लड़की के बदचलन होने की बात नकारता है, तब उसकी दलित पक्षधरता स्वयं सिद्ध हो जाती है। दूसरे इस फिल्म का एक अन्य एक मजबूत पक्ष दलित, आदिवासी और स्त्रियों की भाँति भारत और संभवतः हर जगह उपेक्षित ‘किन्नर’ हैं, जो हाशिए पर पड़े अन्य समाजों की भाँति अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सचेत ही नहीं, चुनाव जीतकर सŸाा भी प्राप्त करते हैं। ‘चमकू’ (2008) कबीर कौशिक निर्देशित और बाॅबी देओल और प्रियंका चैपड़ा मुख्य भूमिकावाली इस फिल्म में एक नक्सली युवक चमकू के हिंसा के विरुद्ध हृदय परिवर्तन की कहानी है।

‘रेड अलर्ट: द वार विदइन (2009) अनंत नारायण महादेवन निर्देशित और सुनील शेट्टी एवं समीरा रेड्डी अभिनीत यह फिल्म नरसिंहा नाम एक ऐसे आदिवासी युवक की सच्ची कहानी है, जो जंगल में आने-जाने वाले लोगों को खाना बनाकर खिलाता था। एक दिन पुलिस और नक्सलियों की मुठभेड़ में वह नक्सलियों के हाथ लग जाता है। वह न चाहते हुए भी माओवादियों के साथ हिंसात्मक कार्यवाही करने को बेवश है। अन्त में तंग आकर वह गैंग के मुखिया की हत्या कर वहाँ से भाग आता है। अन्य कलाकार थे सीमा विश्वास, भाग्यश्री, नसीरुद्दीन शाह, विनोद खन्ना, आशीष विद्यार्थी, गुलशन ग्रोवर इत्यादि।