हिंदी सिनेमा और दलित चेतना / जितेन्द्र विसारिया / पृष्ठ 8

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » संकलनकर्ता » अशोक कुमार शुक्ला  » संग्रह: हिंदी सिनेमा और दलित चेतना
हिंदी सिनेमा और दलित चेतना (2010-2012)
लेखक: जितेन्द्र विसारिया

‘पीपली लाइव’ (2010) अनुषा रिज़वी और महमूद फारुकी निर्देशित यह फिल्म क़र्ज़ में डूबे एक दलित किसान के आत्महत्या करने के निर्णय पर मीडिया और प्रशासन द्वारा हुल्लड़ मचाये जाने से तंग घर उसके घर से गायब हो जाने को लेकर एक व्यंग्यात्मक फिल्म है।

‘रावण’ (2010) मणिरत्नम दक्षिण के फिल्मकार हैं और दक्षिण में रावण को उत्तर की भाँति प्रतिनायक के रूप में नहीं देखा जाता है। उसने सीता का अपहरण काम वासना से प्रेरित न होकर अपनी बहन के अपमान के प्रतिशोध स्वरूप किया था। वह अंत तक सीता के साथ दुष्कृत्य नहीं करता, किन्तु राम फिर भी सीता के चरित्र पर संदेह करते हैं। नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में रावण की भूमिका में जहाँ अभिषेक बच्चन थे तो सीता की भूमिका में उनकी पत्नी ऐश्वर्या राय।

‘आक्रोश’ (2010) मूलतः आॅनर किलिंग की एक सत्य घटना पर आधारित इस फिल्म में बिहार की घोर जातिवादी पृष्ठभूमि, सांमतीय अत्याचार, और पुलिसिया तानाशाही के बीच, एक सवर्ण युवती गीता (बिपाशा बसुु) और दलित पुलिस अफसर प्रताप कुमार के प्रेम, संघर्ष और पुर्नमिलन की सार्थक कहानी भी समानंतर दिशा में साथ-साथ चलती है।

‘आरक्षण’ (2011) प्रकाश झा निर्देशित और अमिताभ बच्चन, सैफ अली खान, मनोज बाजपेयी, दीपिका पादुकोण और प्रतीक बब्बर अभिनीत यह फिल्म ‘आरक्षण’ जैसे संवेदनशील मुद््दे को विभिन्न कोणों से दिखाती मध्यांतर के बाद बगैर किसी निष्कर्ष पहुँचे, निजी कोचिंग प्रणाली की ओर मुड़ जाती है। कहानी म.प्र. की राजधानी भोपाल के एक काॅलेज में साथ-साथ पढ़ रहे दो घनिष्ट दलित-सवर्ण मित्र दीपक (सैफ अली खान) और सिद्धार्थ (प्रतीक बब्बर) की है। आरक्षण जैसे विवादास्पद मुद्दे पर सुप्रीमकोर्ट का निर्णय सार्वजनिक होता है और उनके बीच दरार पैदा हो जाती है और वे अपने-अपने जातिय हितों को लेकर आमने-सामने होते हैं। तमाम उतार चढ़ाव और अपनी-अपनी जातियों के प्रतिनिधियों, नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की काली करतूतों के बीच अंत में समीप होते हैं डाॅ. प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन) के प्रभाववश, जो बगैर किसी भेदभाव के हर वर्ग, जाति और धर्म के विद्यार्थी को बेहतर शिक्षा मुहैया कराने को कृतसंकल्प हैं।

‘जयभीम काॅमरेड’ (2011) आनंद पटवर्धन निर्देशित यह बहुप्रशंसित फिल्म 1997 में मुम्बई की एक दलित बस्ती मेें बाबा साहेब आम्बेडकर की मूर्ति के विरूपित करने के विरोध में खड़े हुए 10 दलित युवकों की पुलिस ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। पुलिस की इस नृशंसता और प्रशासन की चुप्पी से आहत वहाँ के एक वामपंथी दलित कवि विलास घोगड़े विरोध स्वरूप स्वयं को गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी। फिल्म मरे हुए विलास के सीने पर जयभीम लिखा नीला झंडा मिलना इस बात का प्रतीक है कि सवर्ण बाहुल्य वामपंथ में दलित और जाति का मुद्दा आज भी उपेक्षित है और हारकर दलितों को अंत में अम्बेडकरी विचारधारा की ओर लौटने को बेवश हैं।

‘षूद्र: द राइजिंग’ (2012) अपने नाम अनुकूल यह फिल्म हिन्दी सिनेमा की एक शताब्दी बाद दलितों के फिल्म निर्माण के क्षेत्र में आगमन के रूप में कोट की जा सकती है। भारतरत्न बाबा साहेब अम्बेडकर को समर्पित और संजीव जायसवाल निर्देशित यह फिल्म प्राचीन भारत में आर्यो के आगमन के बाद शूद्रो पर लादी गई तमाम अशक्ताओं और उनके आधार पर सदियों चले जघन्य अत्याचारों की एक लोमहर्षक श्रंखला प्रस्तुत करती है। भारतीय लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा जाने वाला मीडिया किस प्रकार दलित विरोधी है, यह इस फिल्म के निर्माण और प्रदर्शन में डाली गई सफल रुकावटों से एक बार फिर सिद्ध हो गया। वितरक फिल्म के प्रदर्शन अधिकार खरीदने को तैयार नहीं और सिनेमाघर फिल्म दिखाने को...!

चक्रव्यूह (2012) भुखमरी, बेरोजगारी और विस्थापन के बीच आदिवासियों का उनके जल, जंगल, ज़मीन से बेदख़ल करना, दूसरी ओर नक्सली सफाये के नाम पर सरकार के हरित मृगया (ग्रीन हंट) अभियान में पुलिस द्वारा आदिवासियों का सफाया। ‘आरक्षण’ के बाद नक्सलवाद के प्रति हमारी दृष्टि साफ करती प्रकाश झा की इस महत्वपूर्ण फिल्म, पुलिस मुखबिर से नक्सली बने युवक कबीर (अभय देओल) के माध्यम से, अंततः लाल सलाम के पक्ष में ही अपना झुकाव प्रदर्शित करती है। अन्य कलाकार थे-अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी, अंजलि पाटिल और ईशा गुप्ता इत्यादि।

अंत में कुछ अपवादों को छोड़कर गंगा सहाय मीणा के शब्दों में कहूँ तो-

‘‘दलित-आदिवासियों को सिनेमा में लाने की कोशिशें मुख्यतः सुधारवादी और रूमानी दृष्टिकोण से प्रेरित थीं। दलित जीवन की वास्तविक समस्याएँ सम्पूर्णता में आना अभी शेष है।... आए दिन दलितों के घर जलाए जा रहे हैं, आदिवासियों को उनके जल, जंगल और ज़मीन छीने जा रहे हैं, लेकिन हमारा सिनेमा इस पर मौन है। इसकी सबसे बड़ी वजह सिनेमा पर बाजार और पूँजी का नियंत्रण तो है ही, सिनेमा जगत में दलित-आदिवासियों की अनुपस्थिति भी है। जैसे स्वयं दलित-आदिवासियों ने साहित्य, राजनीति और सामाजिक आन्दोलनों के क्षेत्र में आकर अपनी आवाज बुलंद की, वैसे ही सिनेमा के क्षेत्र में भी उन्हें स्वयं आकर हस्तक्षेप करना पड़ेगा, तभी सिनेमा की वास्तविक तस्वीर बदल सकती है।

जितेन्द्र विसारिया कृत हिंदी सिनेमा और दलित चेतना समाप्त

सम्पर्क ठ-15 गौतम नगर साठ फीट रोड थाठीपुर ग्वालियर-474011 (म.प्र.) मोबाइलः 91-989337530