हिन्दी-साहित्य का पूर्व रूप और आरम्भिक काल / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
हिन्दी-साहित्य का पूर्व रूप और आरम्भिक काल

आविर्भाव-काल ही से किसी भाषा में साहित्य की रचना नहीं होने लगती। भाषा जब सर्वसाधारण में प्रचलित और शब्द-सम्पत्तिा-सम्पन्न बनकर कुछ पुष्टता लाभ करती है, तभी उसमें साहित्य का सृजन होता है। इस साहित्य का आदिम रूप प्राय: छोटे-छोटे गीतों अथवा साधारण पद्यों के रूप में पहले प्रकटित होता है और यथाकाल वही विकसित होकर अपेक्षित विस्तार-लाभ करता है। हिन्दी भाषा के लिए भी यही बात कही जा सकती है। इतिहास बतलाता है कि उसमें आठवीं ईस्वी शताब्दी में साहित्य-रचना होने लगी थी। इस सूत्रा से यदि उसका आविर्भाव-काल छठी या सातवीं शताब्दी मान लिया जाय तो मैं समझता हूँ असंगत न होगा। हमारा विषय साहित्य का विकास ही है इसलिए हम इस विचार में प्रवृत्ता होते हैं कि जिस समय हिन्दी भाषा साहित्य रूप में गृहीत हो रही थी, उस समय की राजनीतिक धार्मिक और सामाजिक परिस्थिति क्या थी।

हमने ऊपर लिखा है हिन्दी-साहित्य का आविर्भाव-काल अष्टम शताब्दी का आरम्भ माना जाता है। इस समय हिन्दी-साहित्य के विस्तार-क्षेत्रा की राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक दशा समुन्नत नहीं थी। सातवें शतक के मधयकाल में ही उत्तारीय भारत का प्रसिध्द शक्तिशाली सम्राट् हर्षवर्धान स्वर्गगामी हो गया था और उसके साम्राज्य के छिन्न-भिन्न होने से देश की उस शक्ति का नाश हो गया था जिसने अनेक राजाओं और महाराजाओं को एकतासूत्रा में बाँधा रखा था। उस समय उत्तारीय भारत में एक प्रकार की अनियन्त्रिात सत्ताा राज्य कर रही थी और स्थान-स्थान पर छोटे-छोटे राजे अपनी-अपनी क्षीण-क्षमता का विस्तार कर रहे थे। यही नहीं, उनमें प्रतिदिन कलह की मात्राा बढ़ रही थी और वे लोग परस्पर एक-दूसरे को द्वेष की दृष्टि से देखते थे। जिससे वह संगठन देश में नहीं था जो उनको सुरक्षित और समुन्नत बनाने के लिए आवश्यक था। यह बात सर्वजन विदित है कि जहाँ छोटे-मोटे राजे परस्पर लड़ते रहते हैं वहाँ की साधारण जनता न तो अपना शान्तिमय जीवन बिता सकती है और न वह विभूति लाभ कर सकती है, जिसे पाकर प्रजा-वृन्द समुन्नति-सोपान पर आरोहण करता रहता है। राजनीतिक अवस्था जैसी दुर्दशाग्रस्त थी, धार्मिक अवस्था उससे भी अधिाक संकटापन्न थी। इन दिनों बौध्द-धार्म का अपने कदाचारों के कारण प्रतिदिन पतन हो रहा था और प्राचीन वैदिक धार्म उत्तारोत्तार बलशाली बन रहा था। इस कारण वैदिक धार्मावलम्बियों और बौध्दों में ऐसा संघर्ष हो रहा था जो देश के लिए वांछनीय नहीं कहा जा सकता।

जिस समय विशाल दो धार्मिक दलों में इस प्रकार द्वन्द्व चल रहा था उस समय उत्तारीय भारत की सामाजिक अवस्था कितनी दयनीय होगी, इसका अनुभव प्रत्येक विचारशील सहज ही कर सकता है। सामाजिकता अधिाकतर धार्मिक भावों और पारस्परिक सम्बन्धा सूत्राों, व्यवहारों एवं रीति-रिवाजों पर निर्भर रहती है। जिस स्थान की धार्मिकता कलह जाल में पड़कर प्रतिदिन उच्छृंखलित और आडम्बरपूर्ण बनती रहती है, जहाँ का पारस्परिक सम्बन्धा, व्यवहार, अथच रीति-नीति कपटचरण का अवलम्बन करती है, वहाँ की सामाजिकता कितनी विपन्न अवस्था को प्राप्त होगी, इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं। भारतवर्ष का पतन उस समय से आज तक जिस प्रकार क्रमश: होता आया है, वही उसका प्रबल प्रमाण है।

जिस समय उत्तारीय भारत इस प्रकार विपत्तिाग्रस्त था उस समय विजयोन्मत्ता अरब-निवासियों की विजय-वैजयन्ती ईरान में फहरा चुकी थी और वे क्रमश: भारत की ओर विभिन्न मार्गों से अग्रसर होने का पथ ढूँढ़ रहे थे। इस समय के बहुत पहले से अरब के व्यापारियों के साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्धा चला आता था और इस सूत्रा से अरब के मुसलमानों को स्वर्णप्रसू भारत-वसुन्धारा का बहुत कुछ ज्ञान था। वे वाणिज्य-विस्तार के लिए भारत के किसी सामुद्रिक प्रदेश में एक बन्दरगाह बनाना चाहते थे। इसलिए सिन्धा प्रदेश पर पहले पहल उनकी ऑंखें गड़ीं और ईस्वी नौवीं शताब्दी में मुहम्मद-बिन-क़ासिम ने नाना प्रपंचों से उस पर अधिाकार कर लिया। कहते बड़ी व्यथा होती है कि वैदिक-धार्मावलम्बियों और बौध्दों का पारस्परिक कलह ही मुसलमानों के इस विजय का कारण हुआ। इस विषय में अरब के ग्रन्थकारों के आधार से मौलाना मुहम्मद सुलेमान नदवी ने अपने व्याख्यान में जो कुछ कहा है, उसके हिन्दी अनुवाद का कुछ अंश 'अरब और भारत के सम्बन्धा' नामक पुस्तक से नीचे उध्दाृत किया जाता है

“सिन्धा का सबसे पहला और पुराना इस्लामी इतिहास जो साधारणत: 'चचनामा' के नाम से प्रसिध्द है (जिसके दूसरे नाम तारीखुल-हिन्द वल् सन्द और मिनहाजुल ममालिक हैं) उसको देखने से भली-भाँति यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उस समय सिन्धा में बौध्दों और ब्राह्मणों के बीच विरोधा और शत्राुता चल रही थी। यह भी पता चलता है कि कुछ घरानों में ये दोनों धार्म इस प्रकार फैले हुए थे कि उनमें से एक हिन्दू था तो दूसरा बौध्द। सिन्धा के राजाओं के विवरण पढ़कर इसी आधार पर मुझे यह निर्णय करना पड़ा है कि राजा चच हिन्दू ब्राह्मण थे। उन्होंने लड़-भिड़कर छोटे-छोटे बौध्द राजाओं को या तो मिटा दिया था या उन्हें अपना करद बना लिया था। यह राजा ई. छठी शताब्दी के अन्त में सिन्धा का शासक था, उसके बाद उसका भाई चन्द्र राजा हुआ। यह बौध्द मत का कट्टर अनुयायी था। जिन लोगों ने पहले अपना धार्म छोड़ दिया था,उन्हें इसने बलपूर्वक बौध्द बनाया था, यह देख हिन्दू ब्राह्मणों ने सिर उठाया, वह विवश होकर लड़ने के लिए निकला, पर सफल नहीं हुआ। उसके बाद चच का लड़का दाहर उसके स्थान पर राजा हुआ।”

“ऐतिहासिक अनुमानों से यह जान पड़ता है कि जिस समय मुसलमान लोग सिन्धा की सीमा पर थे, उस समय देश में इन दोनों धाम्र्मों में भारी लड़ाई हो रही थी और बौध्द लोग ब्राह्मणों का सामना करने में अपने आपको असमर्थ देखकर मुसलमानों की ओर मेल और प्रेम का हाथ बढ़ा रहे थे। हम देखते हैं कि ठीक जिस समय मुहम्मद-बिन-क़ासिम की विजयी सेना नयरूँ नगर में पहुँचती है, उस समय वहाँ के निवासियों ने अपने बौध्द पुजारियों को उपस्थित किया था। उस समय पता चला था कि इन्होंने अपने विशेष दूत इराक़ के हज्जाज़ के पास भेजकर उससे अभय दान प्राप्त कर लिया था, इसलिए नयरूँ के लोगों ने मुहम्मद का बहुत अच्छा स्वागत किया। उसके लिए रसद की व्यवस्था की। अपने नगर में उसका प्रवेश कराया और मेल के नियमों का पूरा-पूरा पालन किया। इसके बाद जब इस्लामी सेना सिन्धा की लहर को पार करके सदउसान पहुँचती है,तब फिर बौध्द लोग शान्ति के दूत बनते हैं। इसी प्रकार सेवस्तान में होता है कि बौध्द लोग अपने राजा विजयराम को छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक मुसलमानों का साथ देते हैं और उनका मान हृदय से करते हैं।” ऐसा जान पड़ता है कि जब सिन्धा के बौध्दों ने एक ओर मुसलमानों को और दूसरी ओर ब्राह्मण्ाों को तौला, तब उन्हें मुसलमान अच्छे जान पड़े। दूसरा कारण यह हो सकता है कि इससे पहले तुर्किस्तान और अफगानिस्तान के बौध्दों के साथ मुसलमानों ने जो अच्छा व्यवहार किया था और उनमें से बहुत अधिाक लोगों ने जिस शीघ्रता से इस्लाम धार्म ग्रहण किया था, उसका प्रभाव इस देश के बौध्दों पर भी पड़ा था।”

सिन्धा पर अधिाकार होने के बाद अरब विजेताओं ने भारत के विभिन्न प्रान्तों पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया। इस कारण से उस समय भारत का कुछ उत्तारीय और दक्षिणी प्रान्त रणक्षेत्रा बन गया और ऐसी अवस्था में आक्रमित प्रान्तों में युध्दोन्माद का आविर्भाव होना स्वाभाविक था। ये झगड़े नौवीं और दशवीं शताब्दी में उत्तारोत्तार वृध्दि पाते रहे। इसीलिए हिन्दी-साहित्य की अधिाकांश आदिम रचनाएँ वीर-गाथाओं से ही सम्बन्धा रखती हैं। इन दोनों शताब्दियों में जितने साहित्य-ग्रन्थ रचे गये, उनमें से अधिाकतर में रण-भेदी-निनाद ही श्रवणगत होता है। खुमानरासो आदि इसके प्रमाण हैं। वीर गाथाओं का काल आगे भी बढ़ता है और तेरहवीं शताब्दी तक पहुँचता है। कारण इसका यह है कि विजयी मुसलमानों की विजय-सीमा ज्यों-ज्यों बढ़ती गई त्यों-त्यों वे प्रबल होते गये और क्रमश: भारत के अनेक प्रदेश उनके अधिाकार में आते गये, क्योंकि उस समय हिन्दू जाति असंगठित थी और उसमें कोई ऐसा शक्ति-सम्पन्न सम्राट् नहीं था जो जाति-मात्रा को केन्द्रीभूत कर दुर्दान्त यवन दल का दलन करता। इसलिए विजयोत्साही मुसलमान विजेताओं और विजित भारतीयों का युध्द क्रम लगातार चलता ही रहा और इसी आधार से वीर गाथाओं की रचना भी होती रही क्योंकि उस समय हिन्दी जाति की लुप्त-शक्ति को जागरित करने की आवश्यकता थी। मेरे इस कथन का यह भाव नहीं है कि नौ सौ से तेरहवीं शताब्दी तक साहित्य के दूसरे ग्रन्थ रचे ही नहीं गये, वरन् मेरा कथन यह है कि इस काल के जितने प्रसिध्द और मान्य काव्य-ग्रन्थ हैं, उनमें वीर-गाथामय ग्रन्थों ही की अधिाकता और विशेषता है। हिन्दी साहित्य का पहला उल्लेखनीय ग्रन्थ खुमान रासो है, जो नौवें शतक में लिखा गया। इसके पहले का पुष्प कवि कृत एक अलंकार ग्रन्थ बतलाया जाता है, जो आठवीं शताब्दी में रचा गया है। किन्तु उसका उल्लेख मात्रा है, ग्रन्थ का पता अब तक नहीं चला। यह नहीं कहा जा सकता कि पुष्प का अलंकार ग्रन्थ किस रस में लिखा गया। कविराज भूषण के “शिवराज भूषण” ग्रन्थ के समान उसका ग्रन्थ भी केवल वीर रसात्मक हो सकता है। यदि अनुमान सत्य हो तो यह कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा के साहित्य का आरम्भ वीर रस से ही होता है, कारण वे ही हैं जिनका निर्देश मैंने ऊपर किया है। ब्रह्मभट्ट कवि का खुमान रासो, चन्द कवि कृत पृथ्वीराज रासो, जनिक का आल्हा खंड, नरपति नाल्ह कृत वीसलदेव रासो और सारंगधार-कृत हम्मीर रासो नामक उल्लेखनीय ग्रन्थ भी इसके प्रमाण हैं।

आरम्भिक काल मैंने आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक माना है। इन पाँच सौ वर्षों में वीर-गाथा-कार कवियों और लेखकों के अतिरिक्त अन्य विषयों के ग्रन्थकार और रचयिता भी हुए हैं, अतएव मैं उन पर भी विचार करना चाहता हूँ। जिससे यह निश्चित हो सके कि हिन्दी-साहित्य की आरम्भिक रचनाओं के विषयमें मेरा जो कथन है वह कहाँ तक युक्तिसंगत है। मिश्र-बन्धाुओं का विवरण यह है। 1

दसवीं शताब्दी में भुआल कवि ने भगवद्गीता का अनुवाद पद्यबध्द हिन्दी भाषा में किया। यह ग्रन्थ उपलब्धा है।

ग्यारहवीं शताब्दी में कालिंजर के राजा नन्द ने कुछ कविताएँ की हैं, किन्तु पुस्तक अब अप्राप्य है।

बारहवीं शताब्दी में जैन श्वेताम्बराचार्य जिन वल्लभ सूरी ने “वृध्द नवकार” नामक ग्रन्थ बनाया जो जैन हिन्दी साहित्य में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसी शताब्दी में महाराष्ट्र में चालुक्य वंशी सोमेश्वर नामक राजा, मसऊद कुतुब अली,

1. देखिए 'मिश्र बंधु विनोद', पृ. 92

साँईदान चारण और अकरम फैज ने भी रचनाएँ कीं। इनमे से सोमेश्वर, मसऊद और कुतुब अली के ग्रन्थ नहीं मिलते। शेष लोगों में से साँईंदान चारण ने “सामन्तसार” नामक ग्रन्थ की रचना और अकरम फ़ैज़ ने 'र्'वत्तामाल” नामक ग्रन्थ बनाया एवं संस्कृत के वृत्तारत्नाकर नामक ग्रन्थ का अनुवाद किया।

डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन ने भी इस काल के कुछ कवियों के नाम लिखे हैं। 1 वे हैं केदार, कुमारपाल और अनन्यदास। 1.केदार कवि का समय सन् 1150 ई. के लगभग है। डॉक्टर साहब ने इसके किसी ग्रन्थ का नाम नहीं लिखा, किन्तु कहा जाता है कि इसने “जय-चन्द्रप्रकाश” नामक महाकाव्य की रचना की थी, जो अब नहीं मिलता। 2. कुमारपाल बारहवें शतक में हुआ। इसने “कुमारपाल चरित्रा” की रचना की, जो उपलब्धा है। 3. अनन्यदास बारहवीं शताब्दी में हुआ, इसका “अनन्य-जोग” नामक ग्रन्थ प्राप्य है।

पं. रामचन्द्र शुक्ल ने अपने “हिन्दी-साहित्य का इतिहास” नामक ग्रन्थ में एक नवीनकवि मधाुकर का भी नाम बतलाया है, जो बारहवीं शताब्दी में था। वे कहते हैं, इसने “जय मयंकजस चन्द्रिका” नामक ग्रन्थ की रचना की, किन्तु वह ग्रन्थ प्राप्य नहीं है।

जिन ग्रन्थकारों का नाम ऊपर लिया गया, इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनके किसी ग्रन्थ का नाम तक नहीं बतलाया गया,कुछ ऐसे हैं जिसके ग्रन्थों का नाम लिखा गया पर वे अप्राप्य हैं, जिन लोगों के ग्रन्थ मिलते हैं, जिनका नाम भी बतलाया गया, वे उस कोटि के कवि और ग्रन्थकार नहीं ज्ञात होते, जिनकी रचनाओं का विशेष स्थान होता है। भुआल कवि की भगवद्गीता ही को लीजिए। प्रथम तो वह अनुवाद है, दूसरे उसके अनुवाद की भाषा ऐसी है कि जिस पर दृष्टि रखकर पं. रामचन्द्र शुक्ल2 उसे दसवीं शताब्दी का ग्रन्थ मानने को तैयार नहीं हैं। अन्य प्राप्य ग्रन्थों के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं; उनमें कोई ऐसा नहीं जो उल्लेखयोग्य हो अथवा जिसने ऐसी ख्याति लाभ की हो जैसी वीर गाथा सम्बन्धाी ग्रन्थों को प्राप्त है। किम्वा जिनमें वे विशेषताएँ हों जो किसी काव्य अथवा कृति को विद्वन्मण्डली में वा सुपठित जनता की दृष्टि में समादृत बनाती हों। इसलिए मेरा यह कथन ही युक्ति-संगत ज्ञात होता है कि हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल में वीर गाथा सम्बन्धाी ग्रन्थों की ही प्रधानता रही और इन बातों पर दृष्टि रखकर डॉ. जी. ए. ग्रियर्सन आदि विद्वानों ने जो आरम्भ काल को वीर गाथा-काल माना है, वह असंगत नहीं। इन समस्त ग्रन्थों में 'खुमान रासो' ही ऐसा है जो सबसे प्रचीन और उपलब्धा ग्रन्थ है, उसमें वीर-रस की ही प्रधानता है, अतएव यह कौन नहीं स्वीकार करेगा कि हिन्दी साहित्य की आदि रचना वीर-गाथा से ही प्रारम्भ होती है।

1. देखिए माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ दी हिन्दुस्तान, पृ. 2

2. देखिए हिन्दी-साहित्य का इतिहास, पृ. 30

कहा जाता है कि खुमान रासो में सोलहवीं शताब्दी तक की रचनाएँ सम्मिलित हैं, जैसा कि ग्रियर्सन साहब के निम्नलिखित उध्दरण से सिध्द होता है। 1

“यह (खुमान रासो) मेवाड़ का अत्यन्त प्राचीन पद्य-बध्द इतिहास है, नौवींशताब्दी में लिखा गया है। इसमें खुमान रावत और उनके परिवार का वर्णन है। महाराणा प्रताप के समय में (सन् 1575) इसमें बहुत से परिवर्तन किये गये।र् वत्तामान रूप में इसमें अकबर के साथ प्रतापसिंह के युध्दों का वर्णन भी मिलता है। तेरहवीं शताब्दी में चित्ताौड़ पर किये गये अलाउद्दीन ख़िलजी के आक्रमण का भी इसमें विस्तृतवर्णनहै।”

परन्तु इस कथन का यह अर्थ नहीं है कि खुमान रासो की आदिम रचना की भाषा आदि भी बदल दी गई है। ग्रियर्सन साहब के लेख से इतना ही प्रकट होता है कि उसमें अलाउद्दीन खिलजी और अकबर के समय तक की कथाएँ भी सम्मिलित कर दी गई हैं। ऐसी अवस्था में न तो उसके आदिम रचना होने का महत्तव नष्ट होता है और न उसकी भाषा को सन्दिग्धा कहा जा सकता है। जिस समय उसकी रचना हुई थी, उस काल का वातावरण ही ऐसा था कि इस प्रकार के ग्रन्थों की सृष्टि होती। क्योंकि यह असम्भव था कि उत्तारोत्तार मुसलमान पवित्रा भारत वसुन्धारा के विभागों को अधिाकृत करते जावें और जिन सहृदय हिन्दुओं में देशानुराग था, वे अपने सजातियों को देश और जाति-रक्षा के लिए विविधा रचनाओं द्वारा उत्तोजित और उत्साहित भी न करें। यह सत्य है कि भारतवर्ष की सार्वजनिक शक्ति किसी काल में मुसलमानों का विरोधा करने के लिए कटिबध्द नहीं हुई, और न समस्त हिंदू जाति कभी उनसे लोहा लेने के लिए केन्द्रीभूत हुई। किन्तु यह भी सत्य है कि मुसलमानों की विजय-प्राप्ति में कम बाधाएँ नहीं उपस्थित की गईं और यह इस प्रकार की कृतियों और रचनाओं का ही अंशत: परिणाम था। जिस काल में हिन्दू-जाति की संगठन-शक्ति सब प्रकार छिन्न-भिन्न थी, उस समय वीरगाथा सम्बन्धी रचनाओं ने जो कुछ लाभ पहुँचाया, उसको अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर मैं पहले कह आया हूँ कि वे तात्कालिक वातावरण और संघर्षण से ही उत्पन्न हुई थीं। वास्तव बात यह है कि सामाजिक रुचियों और भावों ही का परिणाम किसी काल का साहित्य होता है। उनका वीररस प्रधान होना भी हमारे कथन की पुष्टि करताहै।

अब मैं भाषा विकास सम्बन्धाी विषय पर प्रकाश डालना चाहता हूँ, अतएव इसी कार्य में प्रवृत्ता होता हूँ। भाषा-विकास के प्रकरण में मैं यह लिख आया हूँ कि

1. "This is the most ancient poetic chronicle of Mewar, and was written in the ninth century. It gives a history of Khuman Raut and of his family. It was recast during the reign of Partap Singh (fl. 1575), and, as we now have it, carrie, the narrative down to the wars of that prince with Akbaras devoting a great portion to the seige of Chitour by Alauddin Khilji in the thirteenth century," Modern Vernacular Literature Hindustan, p. 3.

अपभ्रंश भाषा से क्रमश: विकसित होकर हिन्दी भाषा वर्तमान रूप में परिणत हुई। इसलिए पहले मैं कुछ पद्य आप लोगों के सामने रखता हूँ जो अपभ्रंश भाषा के हैं। इन पद्यों की रचना-प्रणाली और उनके शब्द-विन्यास का ज्ञान हो जाने पर आप लोग उस रीति से अभिज्ञ हो जावेंगे जिसको ग्रहण कर हिन्दी साहित्यकारों ने हिन्दी भाषा को आधाुनिक रूप दिया। अपभ्रंश के निम्नलिखित पद्यों को देखिए-

1. बिट्टीए मइ भणिय तुहुँ मा कुरु बुङ्की दिट्ठि।

पुत्तिा सकर्णी भल्लि जिवँ मारइ हियइ पविट्ठिड्ड

बिट्टीए = बिटिया। मइ = मैंने। भणिय = कहा। तुहुँ = तू। मा = मत। कुरु = कर। बङ्कीं = बाँकी। दिट्ठी = दृष्टि। पुत्तिा = पुत्राी। सकर्णी = कानवाली, नुकीली। भल्लि = भाला। जिवँ = जैसे। मारइ = मारती है। हियइ = हिये में। पविट्ठि = प्रविष्ट होकर, पैठकर।

बेटी! मैंने कहा, तू बाँकी दृष्टि न कर, हे पुत्रिा! नुकीला भाला हृदय में पैठ कर मार देता है।

2. जे महुँ दियणा दियहड़ा दइये पवसन्तेण।

तात गणन्तिय अंगुलिउ जज्जरियाउ नहेणड्ड

जे = जो। महुँ = हमको। दियणा = दिया। दियहड़ा = दिवस। दइये = दयित, प्यारा। पवसन्तेण = प्रवास में जाता हुआ। ताण = तिन्हें, तिनको। गणन्तिय = गिनती हुई। अंगुलिउ = ऍंगुली। जज्जरियाउ = जर्जरित हो गई। नहेण = नखसेड्ड

प्रवास करते हुए प्यारे ने जो दिन मुझको दिये उनको उँगलियों पर गिनने से वे नखों से जर्जर हो गईंड्ड

3. सायर उप्परि तणु धारइ तलि घल्लै रैणाइँ।

सामि सुभुच्चुभि परिहरइ सम्माणे खल्लाइँड्ड

सायर = सागर। उप्परि = ऊपर। तणु = तृण। धारइ = रखता है। तलि = नीचे। घल्लै = डालता है। रैणाइँ = रत्नों को। सामि = स्वामी। सुभुच्चुभि = सुन्दर भृत्य को। परिहरइ = त्यागता है। सम्माणे = सम्मान करता है। खल्लाइँ = खलों को।

सागर ऊपर तृण धारण करता है और नीचे रत्नों को डाल देता है। इसी प्रकार स्वामी सुन्दर भृत्यों को छोड़ देता है और खलों का सम्मान करता है।

4. वायसु उववन्तिए पिउ दिट्ठउ सहसत्तिा।

अध्दा बलया महिहि गय अध्दा फुट्टु तड़त्तिाड्ड

वायसु = कौवा। उववन्तिए = उड़ाती हुई। पिउ = पति। दिट्ठउ = देखा। सहसत्तिा = सहसा इति, एक-ब-एक। अध्दा = आधा। बलया = कड़ा (चूड़ी)। महिहि = पृथ्वी पर। गय = गिर गई। फुट्टु = फूट गई। तड़त्तिा = तड़ से।

कौआ उड़ाने वाली स्त्राी ने सहसा प्यारे को देखा, आधाी चूड़ी पृथ्वी पर गिर गई और आधाी तड़ से टूट गई।

5. भमरु म रुणिझुणि अण्णदइ सा दिसि जोइ मरोइ।

सा मालइ देसन्तरिय जसु तुहुँ मरइ वियोइड्ड

भमरु = भ्रमर। म = मत। रुणिझुणि = रुनझुन शब्द कर। अण्णदइ = अरण्य में। सा = वह। दिशि = दिशा। जोइ = देखकर। रोइ = रो। मालइ = मालती। देसन्तरिय = देशान्तरित हो गई। जसु = जिसके लिए। तुहुँ = तू। मरइ = मरता है। वियोइ = वियोग में।

भ्रमर! अरण्य में रुनझुन मत कर। उस दिशा को देखकर मत रो। वह मालती देशान्तरित हो गई जिसके वियोग में तू मरता हैड्ड

सबसे प्राचीन पुस्तक पुण्ड या पुष्प के अलंकार ग्रन्थ अथवा खुमान रासो के पद्यों का कोई उदाहरण अब तक प्राप्त नहीं हो सका। इसलिए इनकी रचनाओं के विषय में कुछ लिखना असम्भव है। भुआल कवि का गीता का अनुवाद दसवें शतक का बतलाया जाता है, परन्तु उसकी भाषा बिलकुल माधयमिक काल की मालूम होती है। इसलिए पं. रामचन्द्र शुक्ल से सहमत होकर मैं उसको आरम्भिक काल का कवि नहीं मानता। सबसे पहले आरम्भिक काल की प्राप्य रचना का उदाहरण, मेरे विचारानुसार, जिन बल्लभ सूरि का है, जो बारहवें शतक के आरम्भ में हुआ। उसकी रचना के कुछ पद्य ये हैं-

किं कप्पतरुरे अयाण चिन्तउ मणभिन्तरि।

किं चिंतामणि कामधोनु आराहउ बहुपरि।

चित्रााबेली काज किसे देसंतर लंघउ।

रयण रासि कारण विसेइ सायर उल्लंघउ।

इस पद्य को आप ऊपर के उन पद्यों से मिलाइए जो अपभ्रंश भाषा के हैं, तो यह ज्ञात हो जायगा कि किस प्रकार अपभ्रंश से क्रमश: हिन्दी भाषा का विकास हो रहा था। प्राकृत और अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार हो जाता है। इस पद्य में भी आप देखेंगे कि 'अयाण' 'मण', 'रयण' आदि में इसी प्रकार का प्रयोग हुआ है। अपभ्रंश पाँचवें पद्य में 'देसन्तरिय' का जैसा प्रयोग हुआ है, इस पद्य के 'देसन्तर' का भी वैसा ही प्रयोग है। 'भिंतरि', 'लंघउ', 'उल्लंघउ', 'सायर' इत्यादि शब्दों का भी व्यवहार अपभ्रंश रचना के अनुसार ही हुआ है। प्राकृत में, और अपभ्रंश में भी 'धा' का 'ह' हो जाता है। इस पद्य में भी'आराधाउ' का 'आराहउ' लिखा गया। 'कल्पतरु' के स्थान पर 'कप्पतरु' का प्रयोग भी प्राकृत भाषा के नियमानुसार है। यह सब होने पर भी उक्त पद्य में हिन्दीपन की झलक भी 'कामधोनु' 'काज' और 'किसे' आदि शब्दों में मिलती है, जो विकास प्रणाली का प्रत्यक्ष उदाहरण्ा है।

इसी शताब्दी के दूसरे कवि नरपति नाल्ह की भी कुछ रचनाओं को देखिए। यह कवि बीसलदेव रासो नामक ग्रन्थ का रचयिता है। अधिाकतर विद्वानों ने इसकी रचना को कुछ तर्क-वितर्क के साथ बारहवें शतक का माना है।

“ एक उड़ीसा को धानी बचन हमारइ तू मानि जु मानि।

ज्यों थारइ सांभर उग्गहइ राजा उणि भरि उगहइ हीरा खानि

जीभ न जीभ विगोयनो दव दाधा का कुपली मेल्हइ।

जीभ का दाधा नुपाँगुरइ नाल्हकहइ सुण जइ सब कोइ। “

इस पद्य में भी अपभ्रंश की झलक बहुत कुछ मौजूद है। इसमें अधिाकांश राजस्थानी भाषा का रंग है। इसी कारण अपभ्रंश की भाषा से वह बहुत कुछ मिलती-जुलती है। अब तक राजस्थानी भाषा पर अपभ्रंश भाषा का बहुत कुछ प्रभाव अवशिष्ट है। फिर भी उसमें ब्रजभाषा के शब्दों का इतना मेल है कि उसको अन्य भाषा नहीं कह सकते। पंडित रामचन्द्र शुक्ल वीसलदेव रासो की भाषा के विषय में यह लिखते हैं-

“भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं राजस्थानी है, जैसे 'सूकइ छै' (सूखता है), पाटण थीं (पाटन से),भोजतण (भोज का), खंड-खंड रा (खंड-खंड का), इत्यादि। इस ग्रन्थ से एक बात का आभास अवश्य मिलता है। वह यह कि शिष्ट काव्य-भाषा में ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूप का ही राजस्थान में भी व्यवहार होता था। साहित्य की सामान्य भाषा हिन्दी ही थी, जो पिंगल भाषा कहलाती थी। वीसलदेव रासो में बीच-बीच में बराबर इस साहित्यिक भाषा (हिन्दी) को मिलाने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है। भाषा की प्राचीनता पर विचार करने से पहले यह बात धयान में रखनी चाहिए कि गाने की चीज होने के कारण इसकी भाषा में समयानुसार बहुत कुछ फेरफार होता आया। पर लिखित रूप में रक्षित होने के कारण इसका पुराना ढाँचा बहुत कुछ बचा हुआ है। उदाहरण के लिए देखिए 'मेलवि' = मिलाकर, जोड़कर। चितई = चित्ता में। रणि = रण में। प्रापिजयि = प्राप्त हो या किया जाय। ईणी विधिा = इस विधिा। ईसउ = ऐसा। बालहो = बाला का। इसी प्रकार नयर (नज़र), पसाउ (प्रसाद), पयोहर (पयोधार) आदि प्राकृत शब्द भी हैं, जिनका प्रयोग कविता में अपभ्रंश काल से लेकर पीछे तक होता रहा।”1

1. देखिए हिन्दी साहित्य के इतिहास का पृष्ठ 30 और 31

आरम्भिक काल का प्रधान कवि चन्द है जो हमारे हिन्दी संसार का चासर है। वह भी इसी शताब्दी में हुआ। मैं कुछ उसकी रचनाएँ भी उपस्थित करना चाहता हूँ, जिससे यह स्पष्टतया प्रकट होगा कि किस प्रकार अपभ्रंश से हिन्दी भाषा रूपान्तरित हुई है। कुछ विद्वानों की यह सम्मति है कि चन्द कवि कृत पृथ्वीराज रासो की रचना पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी की है। पृथ्वीराज रासो में बहुत-सी रचनाएँ ऐसी हैं जो इस विचार को पुष्ट करती हैं। परन्तु मेरा विचार है कि इन प्रक्षिप्त रचनाओं के अतिरिक्त उक्त ग्रंथ में ऐसी रचनाएँ भी हैं जिनको हम बारहवीं शताब्दी की रचना निस्संकोच भाव से मान सकते हैं। इस विषय में बहुत कुछ तर्क-वितर्क हो चुका है और अब तक इसकी समाप्ति नहीं हुई। तथापि ऐतिहासिक विशेषताओं पर दृष्टि रखकर पृथ्वीराज रासो की आदि रचना को बारहवीं शताब्दी का मानना पड़ेगा। बहुत कुछ विचार करने पर मैं इस सिध्दान्त पर पहुँचा हूँ कि पृथ्वीराज रासो में प्राचीनता की जो विशेषताएँ मौजूद हैं, वे वीर गाथा काल की किसी पुस्तक में स्पष्ट रूप से नहीं पायी जातीं। कुछ वर्णन इस ग्रन्थ के ऐसे हैं जिनको प्रत्यक्षदर्शी ही लिख सकता है। कोई इतिहासज्ञ यह नहीं कहता कि चन्द बरदाई पृथ्वीराज के समय में नहीं था। कुछ ऐतिहासिक घटनाएँ इस ग्रन्थ की ऐसी हैं जो पृथ्वीराज और चन्दबरदाई के जीवन से विशेष सम्बन्धा रखती हैं। जब तक उनको असत्य न सिध्द किया जाय तब तक पृथ्वीराज रासो को कृत्रिाम नहीं कहा जा सकता। किसी भाषा की आदिम रचनाओं में जो अप्रांजलता और शब्द विन्यास का असंयत भाव देखा जाता है वह पृथ्वीराज रासो में मिलता है। इसलिए मेरी यह धारणा है कि इस ग्रन्थ का कुछ आदिम अंश अवश्य है जिसमें बाद को बहुत कुछ सम्मिश्रण हुआ। इस आदिम अंश में से ही उदाहरण स्वरूप कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. उड़ि चल्यो अप्प कासी समग्ग

आयो सु गंग तट कज्ज जग्ग

सत अट्ठ खण्ड करि अंग अब्बि , ओमें सु अप्प वर मध्दि हब्बि

मंग्यो सुईस यँहि बर पसाय , सत अध्दपुत्ता अवतरन काय।

2. हय हथ्यि देत संख्य न मन खग्ग मग्ग खूनी बहै।

3. छपी सेन सुरतान , मुट्ठि छुट्टिय चावध्दिसि।

मनु कपाट उध्दरयो , कूह फुट्टिय दिसि विद्दिसि।

मार मार मुष किन्न , लिन्न चावण्ड उपारे।

परे सेन सुरतान , जाम इक्कह परि धारे।

गल वत्थ घत्ता गाढ़ो ग्रहौ , जानि सनेही भिंटयौ।

चामण्डराइ करवर कहर , गौरी दल बल कुट्टियौ।

पहले मैं जिन अपभ्रंश पद्यों को लिख आया हूँ उनसे इनको मिलाइए देखिए, कितना साम्य है। ज्ञात होता है कि ये उन्हीं की छाया हैं। इन पद्यों में यह देखा जाता है कि जहाँ प्राकृत अथवा अपभ्रंश के 'समग्ग' 'कज्ज', 'जग्ग', 'अट्ठ', 'अप्प', 'मध्दि', 'पसाय', 'अध्द', 'पुत्ता', 'हथ्थि', 'खग्ग', 'मग्ग', 'मुट्ठि' आदि प्रातिपदिक शब्द आये हैं वहीं 'छुट्ठि', 'फुट्टिय', 'भिंटयौ', 'कुट्टियौ' आदि क्रियाएँ भी आई हैं। इनमें 'हय', 'कपाट', 'दल', 'बल', इत्यादि संस्कृत के तत्सम शब्द भी मौजूद हैं और यह कवि द्वारा गृहीत उसकी भाषा की विशेषता है। प्राकृत अथवा अपभ्रंश में प्राय: संस्कृत के तत्सम शब्दों का अभाव देखा जाता है। विद्वानों ने प्राकृत और अपभ्रंश की यह विशेषता मानी है कि उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द नहीं आते। परन्तु चन्द की भाषा बतलाती है कि उसने अपने पद्यों में संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोग की चेष्टा भी की है। उसने 'नकार' के स्थान पर'णकार' का प्रयोग प्राय: नहीं किया है और यह भी हिन्दी भाषा का एक विशेष लक्षण है। प्राकृत और अपभ्रंश में नकार का भी एक प्रकार से अभाव है। डिंगल अथवा राजस्थानी में भी प्राय: नकार का प्रयोग नहीं होता देखा जाता। इन पद्यों में कुछ ऐसी क्रियाएँ भी आई हैं जो ब्रजभाषा की मालूम होती हैं, वे हैं 'उड़ि चल्यो', 'आयो', 'करि', आदि और ये सब वे ही विशेषताएँ हैं जो प्राकृत और अपभ्रंश से हिन्दी भाषा को अलग करती और शनै:-शनै: विकसित होने का प्रमाण्ा देती हैं। मैं कुछ ऐसे पद्यों को भी उपस्थित करना चाहता हूँ जिनकी रचना इन पद्यों से सर्वथा भिन्न है। वे पद्य ये हैं-

दूहा

सरस काव्य रचना रचौँ , खल जन सुनि न हसन्त।

जैसे सिंधाुर देखि मग , श्वान स्वभाव भुसन्त।

तौ यनि सुजन निमित्ता गुन , रटये तन मन फूल।

जूं का भय जिय जानि कै , क्यों डारिये दुकूल।

पूरन सकल विलास रस , सरस पुत्रा फल दान।

अन्त होय सह गामिनी , नेह नारि को मान।

जस हीनो नागो गनहु , ढंक्यो जग जस बान।

लम्पट हारै लोह छन , तिय जीतै बिनु बान।

समदर्शी ते निकट है , भुगति मुकति भर पूर।

विषम दरस वा नरन ते , सदा सर्वदा दूर।

मेरा विचार है, ये पद्य सोलहवीं शताब्दी के हैं और बाद को ग्रन्थ की मुख्य रचना में सम्मिलित किये गये हैं। परन्तु कोई भाषा मर्मज्ञ भिन्न प्रकार के दोनों पद्य समूहों को देखकर यह न स्वीकार करेगा कि वे एक काल की ही रचनाएँ हैं। मेरा तो यह विचार है कि ये दोनों भिन्न प्रकार की रचनाएँ ही इस बात का प्रमाण हैं, कि उनके निर्माण-काल में शताब्दियों का अन्तर है। डॉक्टर ग्रियर्सन साहब कहते हैं कि इस ग्रन्थ में 1,00,000 पद्य हैं। 1 क्या पद्यों की यह बहुलता यह नहीं प्रमाणित करती कि इस ग्रन्थ में धीरे-धीरे बहुत अधिाक प्रक्षिप्त अंश सम्मिलित किये गये हैं। हिन्दी भाषा में अब तक इतने बड़े ग्रन्थ का निर्माण नहीं हुआ है। संस्कृत में भी महाभारत को छोड़कर कोई ऐसा विशाल ग्रन्थ नहीं है। महाभारत में भी जब क्रमश: बहुत से सामयिक श्लोक यथा समय सम्मिलित होते गये, तभी उसका विस्तार हुआ। यही बात पृथ्वीराज रासो के विषय में भी कही जा सकती है। जैसे बाद के प्रक्षिप्त अंशों की उपस्थिति में भी महाभारत प्राचीन श्लोकों से रहित नहीं हो गया है, उसी प्रकार रासो में भी प्राचीन रचनाओं का अभाव नहीं है।

इस विषय में अनेक विद्वानों की सम्मतियाँ मेरे विचारानुकूल हैं। हाँ, कुछ विद्वान उसको सर्वथा जाली कहते हैं। यह मत-भिन्नता है। डॉ. ग्रियर्सन साहब की इस विषय में क्या सम्मति है और उसकी भाषा के विषय मे। 2 उनका क्या विचार है उसको मैं नीचे उध्दाृत करता हूँ।

“उसकी (चन्दबरदाई की) रचनाओं का मेवाड़ के अमरसिंह ने सत्राहवीं शताब्दी के आरम्भ में संग्रह किया। यह भी असम्भव नहीं है कि उसी समय किसी-किसी अंश को नवीन रूप दे दिया गया हो। जिससे इस सिध्दान्त का भी प्रचार हो गया है कि कुल का कुल ग्रन्थ जाली है।”

“इस कवि (चन्दबरदाई) के ग्र्रन्थों के अधययन ने मुझे उसके कवित्व-सौन्दर्य पर मुग्धा बना दिया है परन्तु मुझे सन्देह है कि राजपूताना की बोलियों से अपरिचित कोई व्यक्ति इसे आनन्दपूर्वक पढ़ सकेगा। तथापि वह भाषा-विज्ञान के विद्यार्थी के लिए अत्यन्त मूल्यवान् है, क्योंकि यूरोपीय अनुसन्धाानकत्तर्ााओं को आधाुनिकतम प्राकृत और प्राचीनतम गौड़ीय कवियों के मधय में रिक्त स्थान की पूर्ति करने वाली कड़ी एकमात्रा यही है। हमारे पास चन्द का मूल ग्रन्थ भले ही न हो, फिर भी उसकी रचनाओं में हमें शुध्द अपभ्रंश, शौरसेनी प्राकृत रूपों से युक्त, गौड़ साहित्य के प्राचीनतम नमूने मिलतेहैं!”3

1. देखिए माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, पृ. 3

2-3. "His poetical works were collected by Amar Singh (e.f. no. 191), of Mewar in the early part of the Seventeenth Century. They were not improbably recast and modernised in parts at the same time, which has given rise to a theory that the whole is a modern forgery."

"My own studies of this poet's work have inspired me with a great admiration for its poetic beauty, but I doubt if anyone not prefectly master of the various Rajputana dialects could even read it with pleasure. It is, however, of the greatest value to the student of philology, for it is at present the only stepping stone available to European explorers in the chasm between the latest Prakrit and the earliest Gaudiam authors. Though we may not possess the actual text to Chand, we have certainly in his writings some of the oldest known Specimens of Gaudian literature, abounding in pure Apabhransha, Shaurseni Prakrit forms."

पद्यों की आदिम रचना इतनी प्रांजल और उतनी प्रौढ़ नहीं होतीं जितनी उत्तारकाल की, यह मैं पहले लिख आया हूँ। चन्द वरदाई की रचनाओं में ये बातें पाई जाती हैं, जो उन्हें आरम्भिक काल की मानने के लिए विवश करती हैं। किसी विषय का दोष गुण उस समय ही यथा-तथ्य सामने आता है, जब उस पर अधिाकतर विचार दृष्टि पड़ने लगती है, नियम उसी समय निर्दोष बन सकते हैं, जब कार्यक्षेत्रा में आने पर उन पर विवेचना का अवसर प्राप्त होता है। आदिम रचनाओं में प्राय: अप्रांजलता और अनियमबध्दता इसलिए पाई जाती है कि उनका पथ विचार-क्षेत्रा में आकर प्रशस्त नहीं हो गया होता और न आलोचना और प्रत्यालोचनाओं के द्वारा उनकी प्रणाली परिमार्जित हो गई होती। जिस काल में पृथ्वीराज रासो की मुख्य रचना प्रारम्भ होती है, उस समय साहित्य की अवस्था ऐसी ही थी और यह दूसरा प्रमाण है जो उसके आदि अंश को आरंभिक काल की कृति बतलाता है। उदाहरण लीजिए-

चले दस्सहस्सं असव्वार जानं।

मदं गल्लितं मत्तासै पंच दंती।

रँगं पंच रंगं ढलक्कन्त ढालं।

सुरं पंच सावद्द वाजित्रा बाजं।

सहस्सं सहन्नाय मृग मोहि राजं।

मँजारी चखी मुष्ष जम्बक्क लारी A

एराकी अरब्बी पटी तेज ताजी।

तुरक्की महाबान कम्मान बाजी।

रजंपुत्ता पज्चास जुध्दे अमोरं।

बजै जीत के नद्द नीसान घोरं।

सामना सूर सब्बय अपार।

झटं जाहु तुम कीर दिल्ली सुदेसं।

कंद्रप्प जाति अवगार रूप।

जो चिद्दित शब्द हैं उनमें कवि की निरंकुशता और मनमानी रीति से शब्द गढ़ लेने की प्रवृत्तिा स्पष्टतया दृष्टिगत होती है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उत्तारकाल की कुछ रचनाओं में भी इस प्रकार का प्रयोग मिलता है किन्तु मैं उसको चन्द वरदाई की ही रचनाओं का अनुकरणमात्रा समझता हूँ। इस निरंकुशता के प्रवर्तक पृथ्वीराज रासोकार ही हैं। यह अप्रांजलता और अनियमबध्दता जो उनकी रचना में आई है उसका कारण उनका आरम्भिक काल का होना है। निम्नलिखित शब्द विदेशी भाषा के हैं-

'असव्वार', 'सहन्नाय', 'अरव्वी', 'तुरक्की', 'कम्मान', इत्यादि।

इनका ग्रहण अनुचित नहीं, परन्तु इनका मनगढ़न्त प्रयोग उचित नहीं। इन शब्दों का शुध्द रूप 'सवार', 'शहनाई', 'अरबी', 'तुरकी', 'कमान' है, किन्तु उनका जो रूप कवि ने बनाया है, वह न तो उस भाषा के व्याकरण पर अवलम्बित है न हिन्दी भाषा अथवा प्राकृत या अपभ्रंश के नियमों के अनुकूल है। ऐसी अवस्था में उनका प्रयोग जिस रूप में हुआ है वह अप्रौढ़ता और अनियमबध्दता का ही परिचायक है, जो तात्कालिक हिन्दी भाषा की अपरिपक्वता का सूचक है। शेष शब्द हिन्दी भाषा अथवा प्राकृत किंवा अपभ्रंश के हैं। उनका भी मनमाना प्रयोग किया गया है, जैसे 'गलित' को 'गल्लित', 'ढलकत' को'ढलक्कंत', 'सब्द' को 'साबद', 'वादित्रा' को 'बाजित्रा', 'मुख' को 'मुष्ष', 'जम्बुक' को 'जम्बक्क', 'राजपूत' को 'रंजपुत्ता', 'पचास'को 'पच्चास', 'नाद' को 'नद्द', 'सब' या 'सब्ब' को 'सब्बय', 'झटिति' या 'झट' 'झटं', 'कंदर्प' को 'कंद्रप्प' इत्यादि। ये शब्द हिन्दी, प्राकृत, अथवा अपभ्रंश व्याकरण के अनुकूल न तो बने हैं और न इनमें साहित्य-सम्बन्धाी को नियमबध्दता पाई जाती है। इसलिए मेरा विचार है कि ये कवि के गढ़े शब्द हैं और इसी कारण से इनकी सृष्टि हुई है कि आरंभिक काल में इस प्रकार की उच्छृंखलता का कोई प्रतिबन्धा नहीं था। अतएव मैं यह कहने के लिए बाधय हूँ कि जिन रचनाओं में इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे अवश्य रासो की आदिम अप्रक्षिप्त रचनाएँ हैं।

पृथ्वीराज रासो के कुछ छन्द भी इस बात के प्रमाण हैं कि उसकी मुख्य रचनाएँ बारहवीं शताब्दी की हैं। आजकल हिन्दी साहित्य में गाथा छन्द का व्यवहार नहीं होता, किन्तु चन्दबरदाई इस छन्द से काम लेता है। वैदिककाल से प्रारम्भ करके बौध्दकाल तक गाथा में रचनाएँ हुई हैं, अपभ्रंश काल में भी गाथा में रचना होती देखी जाती है। 1 ऐसी अवस्था में जब देखते हैं कि चन्दबरदाई भी गाथा छन्द का व्यवहार करता है तो इससे क्या पाया जाता है? यही न कि पृथ्वीराज रासो की रचना आरम्भिक काल की ही है, क्योंकि अपभ्रंश के बाद ही हिन्दी भाषा का आरम्भिक-काल प्रारम्भ होता है। रासो का एक गाथा छन्द देखिए, और उसकी भाषा पर भी विचार कीजिए-

पुच्छति बयन सुबाले उच्चरिय करि सच्च सज्जाए।

कवन नाम तुम देस कवन पंथ करै परवेस।

अब तक मैंने पृथ्वीराज रासो के प्राचीन अंश के विषय में जो कुछ लिखा है उससे मैं नहीं कह सकता कि अपने विषय के प्रतिपादन में मुझको कितनी सफलता मिली। यह बड़ा वादग्रस्त विषय है। यदि डॉक्टर ग्रियर्सन की सम्मति पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता के अनुकूल है तो डॉक्टर वूलर की सम्मति उसके प्रतिकूल। वे इस

1. देखिए, पालि प्रकाश, पृष्ठ 62, 63, 64।

ग्रन्थ की यहाँ तक प्रतिकूलता करते हैं कि उसका प्रकाश तक बंद करा देना चाहते हैं। यदि पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंडया अनेक तर्क-वितर्कों से पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता का पक्ष-ग्रहण करते हैं तो जोधापुर के मुरादिदान और उदयपुर के श्यामल दास भी उसका विरोधा करने के लिए कटिबध्द दिखलाई पड़ते हैं। थोड़ा समय हुआ कि रायबहादुर पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने भी अपनी प्रबल युक्तियों से इस ग्रन्थ को सर्वथा जाली कहा है। परन्तु, जब हम देखते हैं कि महामहोपाधयाय पं. हरप्रसाद शास्त्राी सन् 1909 से सन् 1913 तक राजपूताने में प्राचीन ऐतिहासिक काव्यों की खोज करके पृथ्वीराज रासो को प्राचीनता की सनद देते हैं तो इस विवर्ध्दित वाद की विचित्राता ही सामने आती है। इन विद्वान् पुरुषों ने अपने-अपने पक्ष के अनुकूल पर्याप्त प्रमाण दिये हैं। इसलिए इस विषय में अब अधिाक लिखना बाहुल्य मात्रा हो। मैंने भी अपने पक्ष की पुष्टि के लिए उद्योग किया है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि मैंने जो कुछ लिखा है, वह निर्विवाद है। हाँ, एक बात ऐसी है जो मेरे विचार के अधिाकतर अनुकूल है। वह यह कि बहुत कुछ तर्क-वितर्क और विवाद होने पर भी किसी ने चन्दबरदाई को सोलहवें शतक का कवि नहीं माना है। विवाद करने वालों ने भी साहित्य के वर्णन के समय उसको बारहवें शतक में ही स्थान दिया है। यदि पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता की सत्यता में सन्देह है तो उसको बारहवें शतक में क्यों स्थान अब तक मिलता आता है। मेरा विचार है कि इसके पक्ष में ऐसी सत्यता अवश्य है जो इसको बारहवें शतक का काव्य मानने के लिए बाधय करती है। इसके अतिरिक्त जब तक संदिग्धाता है तब तक उस पद से किसी को कैसे गिराया जा सकता है जो कि चिरकाल से उसे प्राप्त है।

चन्दबरदाई का समसामयिक जगनायक अथवा जगनिक नामक एक ऐसा प्रसिध्द कवि है जिसकी वीरगाथामय रचनाओं का इतना अधिाक प्रचार सर्वसाधारण में है जितना उस समय की और किसी-कवि-कृति का अब तक नहीं हुआ। इसकी रचनाएँ आज दिन भी उत्तार भारत के अधिाकांश विभागों के हिन्दुओं की सूखी रगों में रक्त-धारा का प्रवाह करती रहती है। पश्चिमोत्तार प्रान्त के पूर्व और दक्षिण के अंशों में इसके गीतों का अब भी बहुत अधिाक प्रचार है। वर्षाकाल में जिस वीरोन्माद के साथ इस गीति-काव्य का गान ग्रामों के चौपालों और नगरों के जनाकीर्ण स्थानों में होता है, वह किसके हृदय में वीरता का संचार नहीं करता? इसके गीतों में महोबा के राजा के दो प्रधान वीर आल्हा और ऊदल के वीर कम्र्मों का बड़ा ही ओजमय वर्णन है यद्यपि यह बात बड़ी ही मर्म्म-भेदी है कि इन दोनों वीरों के वीर कम्र्मों की इतिश्री गृहकलह में ही हुई। महोबे के प्रसिध्द शासक परमाल और उस काल के प्रधान क्षत्रिाय भूपाल पृथ्वीराज का संघर्ष ही गीति-काव्य का प्रधान विषय है। यह वह संघर्ष था कि जिसका परिणाम पृथ्वीराज का पतन और भारतवर्ष के चिर-सुरक्षित दिल्ली के उस फाटक का भग्न होना था जिसमें प्रवेश करके विजयी मुसलमान जाति भारत की पुण्य भूमि में आठ सौ वर्ष तक शासन कर सकी। तथापि यह बात गर्व के साथ कही जा सकती है कि जैसा वीर रस का ओजस्वी वर्णन इस गीति काव्य में है हिन्दी साहित्य के एक दो प्रसिध्द ग्रन्थों में ही वैसा मिलता है। यह ओजस्विनी रचना, कुछ काल हुआ, आल्हा खंड के नाम से पुस्तकाकार छप चुकी है, परन्तु बहुत ही परिवर्तित रूप में। उसका मुख्य रूप क्या था, इसकी मीमांसा करना दुस्तर है। जिस रूप में यह पुस्तक हिन्दी-साहित्य के सामने आई है उसके आधार से इतना ही कहा जा सकता है कि इस कवि का उस काल की साहित्यिक हिन्दी पर, जैसा चाहिए, वैसा अधिाकार नहीं था। प्राप्त रचनाओं के देखने से यह ज्ञात होता है कि उसमें बुन्देलखंडी भाषा का ही बाहुल्य है। हिन्दी भाषा के विकास पर उससे जैसा चाहिए वैसा प्रकाश नहीं पड़ता, विशेषकर इस कारण से कि मौखिक गीति-काव्य होने से समय के साथ उसकी रचना में भी परिवर्तन होता गया है। किन्तु हिन्दी भाषा के आरम्भिक काल में जो परिवर्तन जो संघर्ष यहाँ के विद्वेषपूण्र्ा राजाओं में परस्पर चल रहा था उसका यह ग्रंथ पूर्ण परिचायक है। इसीलिए इस कवि की रचनाओं की चर्चा यहाँ की गई। मैं समझता हूँ कि जितने ग्रामीण गीत हिन्दी भाषा के सर्वसाधारण में प्रचलित हैं, उनमें जगनायक के आल्हा खंड की प्रधानता है। उसके देखने से यह अवगत होता है कि सर्वसाधारण की बोलचाल में भी कैसी ओजपूर्ण रचना हो सकती है। इस उद्देश्य से भी इस कवि की चर्चा आवश्यक ज्ञात हुई। उसकी रचना के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

कूदे लाखन तब हौदा से , औ धारती मैं पहुँचे आइ।

गगरी भर के फूल मँगाओ सो भुरुही को दओ पियाइ।

भांग मिठाई तुरतै दइ दइ , दुहरे घोट अफीमन क्यार।

राती भाती हथिनी करि कै दुहरे ऑंदू दये डराय।

चहुँ ओर घेरे पृथीराज हैं , भुरुही रखि हौ धार्म हमार।

खैंचि सरोही लाखन लीन्ही समुहें गोलगये समियाय।

साँकर फेरै भुरुही दल में , सब दल काट करो खरियान।

जैसे भेड़हा भेड़न पैठे , जैसे सिंह बिड़ारै गाय।

वह गत कीनी लाखन ने , नद्दी बितवै के मैदान।

देवि दाहिनी भइ लाखन को , मुरचा हटौ पिथौरा क्यार।

उस समय युध्दोन्माद का क्या रूप था और किस प्रकार मुसलमानों के साथ ही नहीं, हिन्दू राजाओं में भी परस्पर संघर्ष चल रहा था, इस गीतिकाव्य में इसका अच्छा चित्राण है। इसलिए उपयोगिता की ही दृष्टि से नहीं, जातीय दुर्बलताओं का ज्ञान कराने के लिए भी यह ग्रन्थ रक्षणीय और संग्रहणीय है। इन पद्यों की वर्तमान भाषा यह स्पष्टतया बतलाती है कि वह बारहवीं ई. शताब्दी की नहीं है। हमने तेरहवीं शताब्दी तक आरम्भिक काल माना है। इसीलिए हम इस शतक के कुछ कवियों की रचनाएँ लेकर भी यह देखना चाहते हैं कि उन पर भाषा सम्बन्धाी विकास का क्या प्रभाव पड़ा। इस शतक के प्रधान कवि अनन्यदास, धार्मसूरि, विजयसूरि एवं विनय चन्द्र सूरि जैन हैं। इनमें से अनन्यदास की रचना का कोई उदाहरण नहीं मिला। धार्मसूरि जैन ने जम्बू स्वामी रासा नामक एक ग्रन्थ लिखा है उसके कुछ पद्य ये हैं (रचनाकाल 209 ईस्वी)-

करि सानिधिा सरसत्तिा देवि जीयरै कहाणउँ।

जम्बू स्वामिहिं गुण गहण संखेबि बखाणउँ।

जम्बु दीबि सिरि भरत खित्तिा तिहि नयर पहाणउँ।

राजग्रह नामेण नयर पुहुवी बक्खाणउँ।

राज करइ सेणिय नरिन्द नरखरहं नुसारो।

तासु वट तणय बुध्दिवन्त मति अभय कुमारो।

विजय सेन सूरि ने 'रेवंतगिरि रासा' की रचना की है। (रचनाकाल, 1231 ई‑) कुछ उनके पद्य भी देखिए-

परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि।

भणि सुरास रेवंतगिरि अम्बकिदिवि सुमिरेवि।

गामा गर पुर वरग गहण सरि वरिसर सुपयेसु।

देवि भूमि दिसि पच्छिमंह मणहर सोरठ देसु।

जिणु तहिं मंडण मंडणउ मर गय मउव् महन्तु।

निर्म्मल सामल सिहिर भर रेहै गिरि रेवन्तु।

तसु मुंहुं दंसणु दस दिसवि देसि दिसन्तर संग।

आबइ भाइ रसाल मण उडुलि रंग तरंग।

विनय चन्द्रसूरि ने नेमनाथ चौपई और एक और ग्रन्थ लिखा है (रचनाकाल 1299 ई.), कुछ उनके पद्य देखिए-

“ बोलइ राजल तउ इह बयणू। नत्थि नेंमबर समवर रयणू A

धारइ तेजु गहगण सलिताउ। गयणि नउग्गइ दिणयर जाउ

सखी भणय सामिणि मन झूरि। दुज्जण तणमनवंछितपूरि “ ।

ऊपर के पद्यों में जो शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं, वे प्राकृत अथवा अपभ्रंश के हैं। इससे प्रकट होता है कि तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश शब्दों का हिन्दी रचनाओं में अधिाकतर प्रचलन था। अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग अधिाकतर देखा जाता है। उल्लिखित पद्यों में भी नकार के स्थान पर णकार का बहुल प्रयोग पाया जाता है।

जैसे तणय, मणहर, मण,गयण, दिणयर, दुज्जण इत्यादि। अपभ्रंश भाषा का यह नियम है कि अकारान्त शब्द के प्रथम और द्वितीया का एक वचन उकारयुक्त होता है। 1इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है जैसे देसु, महन्तु, रेवन्तु, तेजु इत्यादि। प्राकृत और अपभ्रंश में शकार और षकार का बिलकुल प्रयोग नहीं होता, उसके स्थान पर सकार प्रयुक्त होता है2। जैसे श्रमण: समणो, शिष्य: सिस्सो। इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है। परमेसर, देस, सामल दस, दिवसि, देसि, दिसन्तरु, देसणु इत्यादि। अपभ्रंश का यह नियम है कि अनेक स्थानों में दीर्घ स्वर Ðस्व एवं Ðस्व स्वर दीर्घ हो जाता है। इन पद्यों में बयणू,और रयणू का ऐसा ही प्रयोग है। इनमें जो हिन्दी के शब्द आये हैं जैसे करि, राज कर सारो, तासु, मुँह, दस, आबइ, रंग,बोलइ, धारइ, मन इत्यादि। इसी प्रकार जो संस्कृत के तत्सम शब्द आए हैं, जैसे गुण, राजग्रह, मति, अभय, पंकज, गिरि,सरि, सर, भूमि, रसाल, तरंग, सम, सखी, इत्यादि वे विशेष चिन्तनीय हैं। हिन्दी शब्द यह सूचित कर रहे हैं कि किस प्रकार वे धीरे-धीरे अपभ्रंश भाषा में अधिाकार प्राप्त कर रहे थे। संस्कृत के तत्सम शब्द यह बतलाते हैं कि उस समय प्राकृत नियमों के प्रतिकूल वे हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। इन पद्यों में यह बात विशेष दृष्टि देने योग्य है कि इनमें एक शब्द के विभिन्न प्रयोग मिलते हैं जैसे मन के मण आदि। प्राय: 'न' के स्थान पर णकार का प्रयोग देखा जाता है, जैसे कि ऊपर लिखा जा चुका है, परन्तु न का सर्वथा त्याग भी नहीं है। जैसे नयर नायेण, नेमि इत्यादि।

मैं समझता हूँ, आरम्भिक काल में किस प्रकार अपभ्रंश भाषा परिवर्तित होकर हिन्दी भाषा में परिणत हुई, इसका पर्याप्त उदाहरण दिया जा चुका। उस समय की परिस्थिति के अनुकूल जो सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए, उनका वर्णन भी जितना अपेक्षित था उतना किया गया। आरम्भिक काल में कुछ ऐसे ग्रन्थ भी लिखे गये हैं, जिनका सम्बन्धा वीरगाथाओं से नहीं है, परन्तु प्रथम तो उन ग्रंथों का नाम मात्रा लिया गया है, दूसरे जो ग्रन्थ उपलब्धा हैं वे थोडे हैं और उनकी प्राय: रचनाएँ ऐसी हैं जो उस काल की नहीं, वरन् माधयमिक काल की ज्ञात होती हैं। इसलिए उनका कोई उध्दरण नहीं दिया गया। अन्त में मैंने जैन सूरियों की जो तीन रचनाएँ उध्दाृत की हैं वे वीर-रस की नहीं हैं। तथापि मैंने उनको उपस्थित किया केवल इस उद्देश्य से कि जिसमें यह प्रकट हो सके कि वीर-गाथा सम्बन्धाी रचनाओं में ही नहीं आरम्भिक काल में ओज लाने के लिए प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग किया गया है, अन्य रचनाओं में भी इस प्रकार के प्रयोग मिलते हैं, जो यह बतलाते हैं कि उस काल की वास्तविक भाषा वही थी जो विकसित होकर अपभ्रंश से हिन्दीभाषा के परवर्ती रूप की ओर अग्रसर हो रही थी।

1-2. देखिए, पाली प्रकाश, पृ. 2