हिन्दी साहित्य का माधयमिक काल / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'
हिन्दी साहित्य का माध्यमिक काल, मेरे विचार से चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से प्रारम्भ होता है। इस समय विजयी मुसलमानों का अधिकार उत्तार भारत के अधिकांश विभागों में हो गया था और दिन-दिन उनकी शक्ति वर्ध्दित हो रही थी। दक्षिण प्रान्त में उन्होंने अपने पाँव बढ़ाये थे और वहाँ भी विजय-श्री उनका साथ दे रही थी। इस समय मुसलमान विजेता अपने प्रभाव विस्तार के साथ भारतवर्ष की भाषाओं से भी स्नेह करने लगे थे और उन युक्तियों को ग्रहण कर रहे थे जिनसे उनके राज्य में स्थायिता हो और वे हिन्दुओं के हृदय पर भी अधिकार कर सकें। इस सूत्रा से अनेक मुस्लिम विद्वानों ने हिन्दी भाषा का अधययन किया, क्योंकि वह देश-भाषा थी। मुसलमानों में राज्य-प्रसार के साथ अपने धर्म-प्रचार की भी उत्कट इच्छा थी। जहाँ वे राज्य-रक्षण अपनार् कर्तव्य समझते, वहीं अपने धर्म के विस्तार का आयोजन भी बड़े आग्रह के साथ करते। उस समय का इतिहास पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि जहाँ विजयी मुसलमानों की तलवार एक प्रान्त के बाद भारत के दूसरे प्रान्तों पर अधिकार कर रही थी, वहीं उनके धर्म-प्रचारक अथवा मुल्ला लोग अपने धर्म की महत्ता बतला कर हिन्दू जनता को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। यह स्वाभाविक है कि विजित जाति विजयी जाति के आचार-विचार और रहन-सहन की ओर खिंच जाती है। क्योंकि अनेक कार्य-सूत्रा से उनका प्रभाव उनके ऊपर पड़ता रहता है। इस समय बौध्द धर्म का प्राय: भारतवर्ष से लोप हो गया था। बहुतों ने या तो मुसलमान धर्म स्वीकार कर लिया था या फिर अपने प्राचीन वैदिक धर्म की शरण ले ली थी। कुछ भारतवर्ष को छोड़कर उन देशों को चले गये थे जहाँ पर बौध्द धर्म उस समय भी सुरक्षित और ऊर्ज्जित अवस्था में था। इस समय भारत में दो ही धर्म मुख्यतया विद्यमान थे, उनमें एक विजित हिन्दू जाति का धर्म था और दूसरा विजयी मुसलमान जाति का। राज-धर्म होने के कारण मुसलमान धर्म को उन्नति के अनेक साधन प्राप्त थे, अतएव वह प्रतिदिन उन्नत हो रहा था और राजाश्रय के अभाव एवं समुन्नति-पथ में प्रतिबन्ध उपस्थित होने के कारण हिन्दू धर्म दिन-दिन क्षीण हो रहा था। इसके अतिरिक्त विविध-राज कृपावलंबित प्रलोभन अपना कार्य अलग कर रहे थे। इस समय सूफी सम्प्रदाय के अनेक मुसलमान फकीरों ने अपना वह राग अलापना प्रारम्भ किया था, जिस पर कुछ हिन्दू बहुत विमुग्धा हुए और अपने वंशगत धर्म को तिलांजलि देकर उस मंत्रा का पाठ किया, जिससे उनको अपने अस्तित्व-लोप का सर्वथा ज्ञान नहीं रहा। ऐसी अवस्था में जहाँ हिन्दुओं की क्षीण शक्ति प्रान्तिक राजा-महाराजाओं के रूप में अपने दिन-दिन धवंस होते छोटे-मोटे राजाओं की रक्षा कर रही थी, वहाँ पुण्यमयी भारत-वसुन्धारा में ऐसे धर्मप्राण आचार्य भी आविर्भूत हुए, जिन्होंने पतनप्राय वैदिक धर्म की बहुत रक्षा की। डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद ने बंगाल प्रान्त में सूफियों में धर्म प्रचार के विषय में अपने (मेडिबल इंडिया) नामक ग्रंथ में जो कुछ लिखा है, उसमें इस समय का सच्चा चित्रा अंकित है। अभिज्ञता के लिए उसका कुछ अंश मैं यहाँ उद्धृत करता हूँ। 1
“चौदहवीं शताब्दी बंगाल में मुसलमान फष्कीरों की क्रियाशीलता के लिए प्रसिध्द थी। पैण्डुआ में अनेक प्रसिध्द और पवित्रा सन्तों का निवास था। इसी कारण इस स्थान का नाम हजशरत पड़2 गया था।
अन्य प्रसिध्द सन्त थे अलाउल हक और उनके पुत्र मूर कष्ुतुबुल-आलम। अलाउल हकष् शेख निजशमुद्दीन औलिया का शिष्य था। बंगाल का हुसेन शाह (1485-1519 ई.) सत्यपीर नामक एक नये पंथ का प्रवर्तक था, जिसका उद्देश्य था हिन्दुओं और मुसलमानों को एक कर देना। सत्यपीर एक समस्त शब्द है, जिसमें सत्य संस्कृत का और पीर अरबी भाषा का शब्द है।”3
यह एक प्रान्त की अवस्था का निदर्शन है। अन्य विजित प्रान्तों की भी ऐसी ही दशा थी। उस समय सूफी सिध्दान्त के मानने वाले महात्माओं के द्वारा उनके उद्देश्यों का प्रचुर प्रचार हो रहा था, और वे लोग दृढ़ता के साथ अपनी संस्थाओं का संचालन कर रहे थे। यह धार्मिक अवस्था की बात हुई, राजनीतिक अवस्था भी उस समय ऐसी ही थी। साम दान दण्ड विभेद से पुष्ट होकर वह भी कार्य-क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार अनेक सूत्रों से कर रही थी। मैं पहले लिख आया हूँ कि जैसा वातावरण होता है साहित्य भी उसी रूप में विकसित होता है। माध्यमिक काल
1-3. The fourteenth century was remarkable for the activity of the Muslim faquirs in Bengal,....There were several saints of reputed sancetity in Pandua, which owing to their presence, came to be called Hazarat....other noted saints were Alaul Haq and his son Nur Qutbul Alam, Alaul Haq was also disciple of Saikh Nizamuddin Aulia, Hussain Shah of Bengal (1493-1519 A. D.) was the founder of a new cult called Satyapir, which aimed at uniting the Hindus and the Muslims Satyapir, was compounded of Satya, a Sanskrit word and Pir which is an Arabic word.
के साहित्य में भी यह बात पाई जाती है। चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से सत्राहवीं शताब्दी तक मुसलमान साम्राज्य दिन-दिन शक्तिशाली होता गया। इसके बाद उसका अचानक ऐसा पतन हुआ कि कुछ वर्षों में ही इतिश्री हो गई। यह एक संयोग की बात है कि हिन्दी-संसार के वे कवि और महाकवि जिनसे हिन्दी-भाषा का मुख उज्ज्वल हुआ इसी काल में हुए। इस माध्यमिक काल में जैसा सुधावर्षण हुआ, जैसी रस धारा बही, जैसे ज्ञानालोक से हिन्दी संसार आलोकित हुआ, जैसा भक्ति-प्रवाह हिन्दी काव्य-क्षेत्र में प्रवाहित हुआ, जैसे समाज के उच्च कोटि के आदर्श उसको प्राप्त हुए, उसका वर्णन बड़ा ही हृदय-ग्राही और मर्म-स्पर्शी होगा। मैंने इस कार्यसिध्दि के लिए ही इस समय की धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक अवस्थाओं का चित्रा यहाँ पर चित्रिात किया है। अब प्रकृत विषय को लीजिए।
चौदहवें शतक में भी कुछ जैन विद्वानों ने हिन्दी भाषा में कविता की है। इनके अतिरिक्त नल्ल सिंह भाट सिरोहिया ने विजयपाल रासो, शारंगधार नामक कवि ने शारंगधार-पध्दति, हम्मीर काव्य और हम्मीर रासो नामक तीन ग्रंथ बनाये, जिनमें से हम्मीर रासो अधिक प्रसिध्द है, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जैसे शब्दों से युक्त भाषा लिखी गयी है, उससे इन लोगों की रचनाओं में हिन्दी का स्वरूप विशेष परिमार्जित मिलता है। प्रमाण्स्वरूप कुछ पद्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं।
कवि शारंगधार (रचनाकाल 1306 ई.)
1. ढोलामारियढिल्लिमहँ मुच्छिउ मेच्छ सरीर।
पुर जज्जल्ला मंत्रिावर चलिय वीर हम्मीर।
चलिअ बीर हम्मीर पाअभर मेंइणि कंपइ।
दिग पग डह अंधार धूलि सुरिरह अच्छा इहि।
ग्रंथ-संघपति समरा रासो, कवि अम्बदेव जैन, (रचना काल 1314 ई.)
2. निसि दीवी झलहलहिं जेम उगियो तारायण।
पावल पारुन पामिय बहई वेगि सुखासण।
आगे बाणिहिं संचरए सँघपति सहु देसल।
बुध्दिवंत बहु पुण्यवंत पर कमिहिं सुनिश्चल।
ग्रंथ थूलि भद्र फागु, कवि जिन पर्सिूंरि (रचनाकाल 1320 ई.)
3. अह सोहग सुन्दर रूपवंत गुण मणिभण्डारो।
कंचण जिमि झलकंत कंति संजम सिरिहारो।
थूलिभद्र मणिराव जाम महि अलो बुहन्तउ।
नयर राम पाउलिय मांहि पहुँतउ बिहरंतउ।
ग्रन्थ विजयपाल रासो (रचना काल 1325 ई.) नल्लसिंह भाट सिरोहिया।
4. दश शत वर्ष निराण मास फागुन गुरु ग्यारसि।
पाय-सिध्द बरदान तेग जद्दव कर धारसि।
जीतिसर्व तुरकान बलख खुरसान सुगजनी।
रूम स्याम अस्फहाँ फ्रंग हवसान सु भजनी।
ईराण तोरि तूराण असि खौसिर बंग ख्रधार सब।
बलवंड पिंड हिंदुवान हद चढिब बीर बिजयपालसब।
जिस क्रम से कविताओं का उध्दरण किया गया है, उसके देखने से ज्ञात हो जायेगा कि उत्तारोत्तार एक से दूसरी कविता की भाषा का अधिकतर परिमार्जित रूप है। शारंगधार की रचना में अधिक मात्रा में अपभ्रंश शब्द हैं। ऐसे शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं। उसके बाद की नम्बर 2 और 3 की रचनाओं में इने-गिने शब्द ही अधिकतर दिखलाई देते हैं। जिससे पता चलता है कि इस शताब्दी की आदि की रचनाओं पर तो अपभ्रंश शब्दों का अवश्य अधिक प्रभाव है। परन्तु बाद की रचनाओं में उनका प्रभाव उत्तारोत्तार कम होता गया है। यहाँ तक कि अमीर खुसरो की रचनाएँ उनसे सर्वथा मुक्त दिखलाई पड़ती हैं।
अमीर खुसरो इस शताब्दी का सर्वप्रधान कवि है। यह अनेक भाषाओं का पंडित था। इसके रचे फारसी भाषा के अनेक ग्रंथ हैं। इसकी हिन्दी रचनाएँ बहुमूल्य हैं। वे इतनी प्रांजल और सुन्दर हैं कि उनको देखकर यह आश्चर्य होता है कि पहले-पहल एक मुसलमान ने किस प्रकार ऐसी परिष्कृत और सुन्दर हिन्दी भाषा लिखी। मैं पहले लिख आया हूँ कि माध्यमिक काल में मुसलमान अनेक उद्देश्यों से हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो गये थे। ऐसे मुसलमानों का अग्र-गण्य मैं अमीर खुसरो को मानता हूँ। इसके पद्यों में जिस प्रकार सुन्दर ब्रजभाषा की रचना का नमूना मिलता है, उसी प्रकार खड़ी बोली की रचना का भी। इस सहृदय कवि की कविताओं को देखकर यह अवगत होता है कि चौदहवीं शताब्दी में भी ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों की कविताओं का समुचित विकास हो चुका था। परन्तु उसके नमूने अन्य कहीं खोजने पर भी नहीं प्राप्त होते। इसलिए इन भाषाओं की परिमार्जित रचनाओं का आदर्श उपस्थित करने का गौरव इस प्रतिभाशाली कवि को ही प्राप्त है। मैं उनकी दोनों प्रकार की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखता हूँ। उनको पढ़कर यह बात निश्चित हो सकेगी कि मेरा कथन कहाँ तक युक्ति-संगत है।
1. एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधा धारा।
चारों ओर वह थाली फिरे , मोती उससे एक न गिरे।
2. आवे तो ऍंधोरी लावे , जावे तो सब सुख ले जावे।
क्या जानूं वह कैसा है , जैसा देखा वैसा है।
3. बात की बात ठठोली की ठठोली।
मरद की गाँठ औरत ने खोली।
4. एक कहानी मैं कहूँ तू सुन ले मेरे पूत।
बिना परों वह उड़ गया , बाँधा गले में सूत।
5. सोभा सदा बढ़ावन हारा , ऑंखिन ते छिन होत न न्यारा।
आये फिर मेरे मनरंजन ऐ सखि साजन ना सखि अंजन।
6. स्यामबरन पीताम्बर काँधो , मुरलीधार नहिं होइ।
बिन मुरली वह नाद करत है , बिरला बूझै कोइ।
7. उज्जल बरन अधीनतन , एक चित्ता दो धयान।
देखत में तो साधु है , निपट पाप को खान।
8. एक नार तरवर से उतरी , मा सो जनम न पायो।
बाप को नांव जो वासे पूछयो आधो नाँव बतायो।
आधो नाँव बतायो खुसरो कौन देस की बोली।
बाको नाँव जो पूछयो मैंने अपने नांव न बोली।
9. एक गुनी ने यह गुन कीना हरियल पिंजरे में दे दीना।
देखो जादूगर का हाल डाले हरा निकाले लाल।
इन पद्यों में नम्बर 1 से 4 तक के पद्य ऐसे हैं जो शुध्द खड़ी बोली में लिखे गये हैं, नम्बर 5 और 6 शुध्द ब्रजभाषा के हैं और नम्बर 7 से 9 तक के ऐसे हैं कि जिनमें खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा दोनों का मिश्रण है। मैं समझता हूँ कि इस अन्तर का कारण उस भेद की अनभिज्ञता है जो खड़ी बोली को ब्रजभाषा से अलग करती है। इसके प्रमाण वे पद्य भी हैं जिनमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है। उस समय खड़ी बोली या ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं था और न ऐसे नियम प्रचलित थे जो एक को दूसरे से अलग करते। वे हिन्दी भाषा के सब प्रकार के प्रयोगों को एक ही समझते थे। इसलिए इतना सूक्ष्म विचार न कर सके। यह संयोग से ही हो गया है कि कुछ पद्य शुध्द खड़ी बोली के और कुछ ब्रजभाषा के बन गये हैं। उनकी दृष्टि इधार नहीं थी। इस समय जब खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा की धाराएँ अलग-अलग बह रही हैं, उनकी रचनाओं की इस त्राुटि पर चाहे विशेष दृष्टि दी जावे, परन्तु उस समय उन्होंने हिन्दी भाषा सम्बन्धी जैसी मर्मज्ञता, योग्यता और निपुणता दिखलाई है, वह उल्लेखनीय है। उनके पहले के कवियों की रचनाओं से उनकी रचनाओं में अधिकतर प्रांजलता है, जो हिन्दी के भण्डार पर उनका प्रशंसनीय अधिकार प्रकट करती है। उनकी रचनाओं में फारसी और अरबी इत्यादि के शब्द भी आये हैं, परन्तु वे इस सुन्दरता से खपाये गये हैं कि जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। चन्द बरदाई के समय से ही हिन्दी भाषा में अरबी,फारसी और तुर्की के शब्द गृहीत होने लगे थे और यह सामयिक प्रभाव का फल था। परन्तु जिस सावधानी और सफाई के साथ उन भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इन्होंने किया है, वह अनुकरणीय है। उन भाषाओं के अधिकतर शब्द अन्य कवियों द्वारा तोड़-मरोड़कर या बिगाड़कर लिखे गये हैं, किन्तु यह कवि प्राय: इन दोषों से मुक्त था। एक विशेषता इनमें यह भी देखी जाती है कि अरबी में इन्होंने हिन्दी पद्यों की रचना सफलतापूर्वक की है, साथ ही फारसी के वाक्यों के साथ हिन्दी वाक्यों को अपने एक पद्य में इस उत्तमता से मिलाया है, जो मुग्धा कर देता है। मैं उस पद्य को यहाँ लिखता हूँ। आप लोग भी उसका रस लें-
“ जेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफुलदुराय नैना बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिज्रां दारमऐजां न लेहु काहें लगाय छतियाँ।
शबाने हिज्रां न दराज़ चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोतह।
सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ ऍंधोरी रतियाँ।
एकाएक अज़दिल दो चश्मे जादू बसद फ़रेबम् बेबुर्द तस्कीं।
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ।
चूँ शमा सोज़ां चूँ ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियाँ बइश्क़ ऑंमह।
न नींद नैना न अंग चैना न आप आवें न भेजैं पतियाँ।
बहक्क रोजे विसाल दिलवर दि दाद मारा फ़रेब खुसरों।
सुपीत मन को दुराय राखूँ जो जान पाऊँ पिया की घतियाँ।
इस पद्य का अरबी शब्द है फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन फ़उल फ़ेलुन फष्ऊल फ़ेलुन। पहले दो चरणों में हिन्दी शब्दों का प्रयोग निर्दोष हुआ है यद्यपि वे शुध्द ब्रज भाषा में लिखे गये हैं। केवल 'नैना' का 'ना' दीर्घ कर दिया गया है। किन्तु यह अपभ्रंश और ब्रज भाषा के नियमानुकूल है। शेष पद्यों की भाषा खड़ी हिन्दी की बोलचाल में है। केवल 'रतियाँ', 'बतियाँ', 'पतियाँ', 'घतियाँ' का प्रयोग ही ऐसा है, जो ब्रजभाषा का कहा जा सकता है। उनके इस प्रकार के मिश्रण के सम्बन्धा में मैं अपनी सम्मति प्रकट कर चुका हूँ। हाँ, मात्रिाक छन्दों के नियमों की दृष्टि से खड़ी बोली के पद्य निर्दोष नहीं हैं। अनेक स्थानों पर लघु के स्थान पर गुरु लिखा गया है यद्यपि वहाँ लघु लिखना चाहिए था। जैसे सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ ऍंधोरी 'रतियाँ' इस पद्य में 'जो' के स्थान पर 'जु' तो के स्थान पर 'त', कैसे के स्थान पर 'कैस' और ऍंधोरी के स्थान पर 'ऍंधोर', पढ़ने से ही छन्द की गति निर्दोष रहेगी। ऐसी ही हिन्दी भाषा के शेष पद्यों की पंक्तियाँ सदोष हैं, परन्तु जब हम वर्तमान काल की उन्नति प्राप्त उर्दू पद्यों को देखते हैं तो उनके इस प्रकार के पद्य-गत हिन्दी भाषा के शब्द-विन्यास को दोषावह नहीं समझते, क्योंकि अरबी शब्दों में हिन्दी शब्दों का व्यवहार प्राय: विवश होकर इसी रूप में करना पड़ता है। वरन् कहना यह पड़ता है कि उर्दू कविता के प्रारम्भ होने से 200 वर्ष पहले ही इस प्रणाली का आविर्भाव कर उन्होंने उर्दू संसार के कवियों को उस मार्ग का प्रदर्शन किया जिस पर चलकर ही आज उर्दू पद्य-साहित्य इतना समुन्नत है। इस दृष्टि से उनकी गृहीत प्रणाली एक प्रकार से अभिनन्दनीय ही ज्ञात होती है, निन्दनीय नहीं। खुसरो ने हिन्दुस्तानी भावों का चित्राण करते हुए कुछ ऐसे गीत भी लिखे हैं जो बहुत ही स्वाभाविक हैं। उनमें से एक देखिए-
ड्डसावन का गीतड्ड
अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया।
बेटी तेरा बाबा तो बुङ्ढा री कि सावन आया।
अम्मा मेरे भाई को भेजो जी कि सावन आया।
बेटी तेरा भाई तो बालारी कि सावन आया।
अम्मा मेरे मामूं को भेजो जी कि सावन आया।
बेटी तेरा मामूँ तो बाँकारी कि सावन आया।
दो दोहे भी देखिए, कितने सुन्दर हैं-
1. खुसरो रैनि सुहाग की , जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को , दोऊ भये इक रंग।
2. गोरी सोवै सेज पर , मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने , रैनि भई चहुँदेस।
इच्छा न होने पर भी खुसरो की कविता के विषय में इतना अधिक लिख गया। बात यह है कि खुसरो की विशेषताओं ने ऐसा करने के लिए विवश किया। यदि उन्होंने सबसे पहले बोलचाल की साफ सुथरी चलती हिन्दी का आदर्श उपस्थित किया तो शब्द भी तुले हुए रक्खे। न तो उनको तोड़ा-मरोड़ा, न बदला और न उनके वर्णों को द्वित्ता बनाकर उन्हें संयुक्त शब्दों का रूप दिया। अपनी रचना में भाव भी वे ही भरे जो देश भाषा के अनुकूल थे। प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। परन्तु वे ऐसे हैं जो सर्वथा हिन्दी के रंग में ढले हुए हैं, जैसे पीत, उज्जल और रैन इत्यादि। प्राकृत में शकार के स्थान पर स हो जाता है। इन्होंने भी अपनी रचना में इस नियम का पालन किया है, जैसे 'सोभा', 'स्याम', 'केस', 'देस'इत्यादि। संस्कृत के तत्सम शब्द भी इनकी रचना में हैं परन्तु चुने हुए। हिन्दी आरम्भिक काल से ही इस प्रणाली को ग्रहण करती आई है। यह बात इनके इस प्रकार के प्रयोगों से भी प्रकट होती है। यह उनके कवि-हृदय की विशेषता है कि जो तत्सम शब्द संस्कृत के इनके पद्य में आये हैं, वे कोमल और हिन्दी के तद्भव शब्दों के जोड़ के हैं जैसे सुख, मुरलीधार, रंजन,अधीन, नाद, धयान, साधु, पाप इत्यादि। ये सब ऐसी ही विशेषताएँ हैं, जो माध्यमिक काल के रचयिताओं में खुसरो को एक विशेष स्थान प्रदान करती हैं। खुसरो का निवास दिल्ली में था। मेरा विचार है कि उसके अथवा मेरठ के आसपास जो बोली उस समय बोली जाती थी, उसी पर दृष्टि रखकर उन्होंने अपनी रचनाएँ कीं। इसीलिए वे अधिकतर बोलचाल की भाषा के अनुकूल हैं और इसी से उनमें विशेष सफाई आ गई है। उनकी कविता में ब्रजभाषा के कुछ शब्दों और क्रियाओं का प्रयोग भी पाया जाता है। जैसे बढ़ावनहारा, वासे, बनायो, वाको, पूछयो, दुराय, बनाय, बतियाँ इत्यादि। मैं समझता हूँ कि इन शब्दों का व्यवहार आकस्मिक है और इस कारण हो गया है कि उस समय ब्रजभाषा फैल चली थी और उसकी मधुरता कवि हृदय को अपनी ओर खींचने लगी थी।
अमीर खुसरो का समकालीन एक और मुल्लादाऊद नामक ब्रजभाषा का कवि हुआ। कहा जाता है कि उसने नूरक एवं चन्दा की प्रेम कथा नामक दो हिन्दी पद्य-ग्रन्थों की रचना की, किन्तु ये दोनों ग्रन्थ अप्राप्त-से हैं। इसलिए इसकी रचना की भाषा के विषय में कुछ लिखना असम्भव है। इसके उपरान्त महात्मा गोरखनाथ का हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में दर्शन होता है। हाल में कुछ लोगों ने इनको ग्यारहवीं ई. शताब्दी का कवि लिखा है, किन्तु अधिकांश सम्मति यही है कि ये चौदहवीं शताब्दी में थे। ये धार्म्माचार्य ही नहीं थे, बहुत बड़े साहित्यिक पुरुष भी थे। इन्होंने संस्कृत भाषा में नौ ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें से'विवेक-मार्तण्ड', 'योग-चिन्तामणि' आदि प्रकाण्ड ग्रन्थ हैं। इनका आविर्भाव नेपाल अथवा उसकी तराई में हुआ। उन दिनों इन स्थानों में विकृत बौध्द धर्म का प्रचार था, जो उस समय नाना कुत्सित विचारों का आधार बन गया था। इन बातों को देखकर उन्होंने उसका निराकरण करके आर्य धर्म के उत्थान में बहुत बड़ा कार्य किया। उन्होंने अपने सिध्दान्त के अनुसार शैव धर्म का प्रचार किया, किन्तु परिमार्जित रूप में। उस समय इनका धर्म इतना आद्रित हुआ कि उनकी पूजा देवतों के समान होने लगी। इनका मन्दिर गोरखपुर में अब तक मौजूद है। गोरखपंथ के प्रवर्तक आप ही हैं। इनके अनुयायी अब तक उत्तार भारत में जहाँ-तहाँ पाये जाते हैं। इनकी रचनाओं एवं शब्दों का मर्म समझने के लिए यह आवश्यक है कि उस काल के बौध्द धर्म की अवस्था आप लोगों के सामने उपस्थित की जावे। इस विषय में 'गंगा' नामक मासिक पत्रिाका के प्रवाह 1, तरंग9 में राहुल सांकृत्यायन नामक एक बौध्द विद्वान् ने जो लेख लिखा है उसी का एक अंश मैं यहाँ प्रस्तुत विषय पर प्रकाश डालने के लिए उद्धृत करता हूँ-
“भारत से बौध्द धर्म का लोप तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में हुआ। उस समय की स्थिति जानने के लिए कुछ प्राचीन इतिहास जानना आवश्यक है।”
'आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी बौध्द सम्प्रदाय वज्रयान-गर्भित महायान के अनुयायी हो गये थे। बुध्द की सीधी-सीधी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनगढ़न्त हजारों लोकोत्तार कथाओं पर मरने लगे थे। बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी वे भैरवी चक्र के मजे उड़ा रहे थे। बड़े-बड़े विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि आधो पागल हो,चौरासी सिध्दों में दाखिल हो, सन्धया-भाषा में निर्गुण गा रहे थे। सातवीं शताब्दी में उड़ीसा के राजा इन्द्रभूति और उसके गुरु सिध्द अनंग, वज्र स्त्रिायों को ही मुक्तिदात्राी प्रज्ञा, पुरुषों को ही मुक्ति का उपाय और शराब को ही अमृत सिध्द करने में अपनी पंडिताई और सिध्दाई खर्च कर रहे थे। आठवीं शताब्दीसे बारहवीं शताब्दी तक का बौध्द धर्म वस्तुत: वज्रयान या भैरवी चक्र का धर्म था। महायान ने ही धारणीयों और पूजाओं से निर्वाण को सुगम कर दिया था। वज्रयान नेतो उसे एकदम सहज कर दिया। इसीलिए आगे चलकर वज्रयान सहजयान भी कहा जाने लगा।'
“वज्रयान के विद्वान् प्रतिभाशाली कवि, चौरासी सिध्द, विलक्षण प्रकार से रहा करते थे। कोई पनही बनाया करता था,इसलिए उसे पनहिया कहते थे, कोई कम्बल ओढ़े रहता था, इसलिए उसे कमरिया कहते थे, कोई डमरू रखने से डमरुआ कहलाता था, कोई ओखली रखने से ओखरिया आदि। ये लोग शराब में मस्त, खोपड़ी का प्याला लिए श्मशान या विकट जंगलों में रहा करते थे। जन-साधारण को जितना ही ये फटकारते थे, उतना ही वे इनके पीछे दौड़ते थे। लोग बोधिसत्तव प्रतिमाओं तथा दूसरे देवताओं की भाँति इन सिध्दों को अद्भुत चमत्कारों और दिव्य शक्तियों के धानी समझते थे। ये लोग खुल्लम-खुल्ला स्त्रिायों और शराब का उपभोग करते थे। राजा अपनी कन्याआें तक को इन्हें प्रदान करते थे। ये लोग त्राोटक या hypnotismकी कुछ प्रक्रियाओं से वाक़िफ थे। इसी बल पर अपने भोले-भाले अनुयाइयों को कभी-कभी कोई-कोई चमत्कार दिखा देते थे। कभी हाथ की सफाई तथा श्लेषयुक्त अस्पष्ट वाक्यों से जनता पर अपनी धाक जमाते थे। इन पाँच शताब्दियों में धीरे-धीरे एक तरह से सारी भारतीय जनता इनके चक्कर में पड़कर कामव्यसनी, मद्यप और मूढ़ विश्वासी बन गयी थी।”
महात्मा गोरखनाथ ही ऐसे पहले ब्राह्मण हैं, जिन्होंने संस्कृत का विद्वान् होने पर भी हिन्दी भाषा के गद्य और पद्य में धार्मिक ग्रन्थ निर्माण किये। जनता पर प्रभाव डालने के लिए उसकी बोल-चाल की भाषा ही विशेष उपयोगिनी होती है। सिध्द लोगों ने इसी सूत्रा से बहुत सफलता लाभ की थी, इसलिए महात्मा गोरखनाथ जी को भी अपने सिध्दान्तों के प्रचार के लिए इस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा। उनके कुछ पद्य देखिए-
आओ भाई धारिधारि जाओ , गोरखबाला भरिभरि लाओ।
झरै न पारा बाजै नाद , ससिहर सूर न वाद विवादड्ड 1 ड्ड
पवनगोटिकारहणिअकास , महियलअंतरिगगन कविलास।
पयाल नी डीबीसुन्नचढ़ाई , कथतगोरखनाथ मछींद्रबताईड्ड 2 ड्ड
चार पहर आलिंगन निद्रा संसार जाई विषिया बाही।
उभयहाथों गोरखनाथ पुकारै तुम्हैंभूलमहारौ माह्याभाईड्ड 3 ड्ड
वामा अंगे सोईबा जम चा भोगिबा सगे न पिवणा पाणी।
इमतो अजरावर होई मछींद्र बोल्यो गोरख वाणीड्ड 4 ड्ड
छाँटै तजौगुरु छाँटै तजौ लोभ माया।
आत्मा परचै राखौ गुरु देव सुन्दर कायाड्ड 5 ड्ड
एतैं कछु कथीला गुरु सर्वे भैला भोलै।
सर्बे कमाई खोई गुरु बाघ नी चै बोलैड्ड 6 ड्ड
हबकि न बोलिबा ठबकि न चलिबा धीरे धारिबा पाँवं।
गरब न करिबा सहजै रहिबा भणत गोरखरावंड्ड 7 ड्ड
हँसिबा खेलिबा गाइबा गीत। दृढ़ करि राखै अपना चीत।
खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये।
गोरख कहे पूता संजमही तरियेड्ड 8 ड्ड
मध्दि निंरतर कीजै वास। निहचल मनुआ थिर ह्नै साँस।
आसण पवन उपद्रह करै। निसदिन आरँभ पचिपचि मरैड्ड 9 ड्ड
इनकी भाषा अमीर खुसरो के समान न तो प्रांजल है, न हिन्दी की बोलचाल के रंग में ढली, फिर भी बहुत सुधारी हुई और हिन्दीपन लिये हुए है। उसके देखने से यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी के आरम्भ में हिन्दी भाषा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो रही थी। गोरखनाथ जी की रचना में विभिन्न प्रान्तों के शब्द भी व्यवहृत हुए हैं, जैसे गुजराती, 'नी' मरहठी 'चा' और राजस्थानी 'बोलिबा' धारिबा, चलिबा इत्यादि। उस समय के महात्माओं की रचना में यह देखा जाता है कि अधिकतर देशाटन करने के कारण उनकी रचनाओं में कतिपय प्रान्तिक शब्द भी आ जाते हैं। यह बात अधिकतर उस काल के और बाद के सन्तों की बानियों में पाई जाती है। मेरा विचार है, गोरखनाथ जी ही इसके आदिम प्र्रवत्ताक हैं,जिसका अनुकरण उनके उपरान्त बहुत कुछ हुआ। इन दो-एक बातों को छोड़कर इनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा की सब विशेषताएँ पाई जाती हैं। उनमें संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिकतर प्रयोग है। जो प्राकृत प्रणाली के अनुकूल नहीं। धार्मिक शिक्षा-प्रसार के लिए अग्रसर होने पर अपनी रचनाओं में उनका संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग करना स्वाभाविक था। हिन्दी कविता में आगे चलकर हमको प्रेमधारा, भक्ति-धारा एवं सगुण-निर्गुण विचारधारा बड़े वेग से प्रवाहित होती दृष्टिगत होती है, किन्तु इन सबसे पहले उसमें ज्ञान और योगधारा उसी सबलता से बही थी, जिसके आचार्य महात्मा गोरखनाथजी हैं। इन्हीं के मार्ग को अवलम्बन कर बाद को अन्य धाराओं का हिन्दी भाषा में विकास हुआ। योग और ज्ञान का विषय भी ऐसा था जिसमें संस्कृत तत्सम शब्दों से अधिकतर काम लेने की आवश्यकता पड़ी। इसीलिए उनकी रचनाओं में सूर्य, 'वाद-विवाद', 'पवन', 'गोटिका', 'गगन', 'आलिंगन', 'निद्रा', 'संसार', 'आत्मा', 'गुरुदेव', 'सुन्दर', 'सर्वे' इत्यादि का प्रयोग देखा जाता है। फिर भी उनमें अपभ्रंश अथवा प्राकृत शब्द मिल ही जाते हैं जैसे 'अकास', 'महियल', 'अजराबर' इत्यादि। हिन्दी तद्भव शब्दों की तो इनकी रचनाओं में भरमार है और यही बात इनकी रचनाओं में हिन्दी-पन की विशेषता का मूल है। वे अपनी रचनाओं में 'ण'के स्थान पर 'न' का ही प्रयोग करते हैं और यह हिन्दी भाषा की विशेषता है। कभी-कभी 'न' के स्थान पर णकार का प्रयोग भी करते हैं। यह अपभ्रंश भाषा का इनकी रचनाओं में अवशिष्टांश है अथवा इनकी भाषा पर पंजाबी भाषा के प्रभाव का सूचक है,जैसे 'पिवण', 'पाणी', 'अणखाए', 'आसण' इत्यादि।
वेदान्त धर्म के प्र्रवत्ताक स्वामी शंकराचार्य थे। उनका वेदान्तवाद अथवा अद्वैतवाद व्यवहार-क्षेत्र में आकर शिवत्व धारण कर लेता है। इसीलिए उनका सम्प्रदाय शैव माना जाता है। भगवान शिव की मूर्ति जहाँ गम्भीर ज्ञानमयी है, वहीं विविधा विचित्रातामयी भी। इसलिए उसमें यदि निर्गुणवादियों के लिए विशेष विभूति विद्यमान है तो सगुणोपासक समूह के लिए भी बहुत कुछ दैवी ऐश्वर्य मौजूद है। यही कारण है कि शैव सम्प्रदाय का वह परम अवलम्ब है। गोरखनाथ की संस्कृत और भाषा की रचनाओं में वेदान्तवाद की विशेष विभूतियाँ जहाँ दृष्टिगत होती हैं, वहीं शिव के उपासना की ऐसी प्रणालियाँ भी उपलब्धा होती हैं, जो सर्वसाधारण को उनकी ओर आकर्षित करती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण गोरखनाथ जी ने शैव धर्म का आश्रय लेकर उस समय हिन्दू धर्म के संरक्षण का भगीरथ प्रयत्न किया और बहुत कुछ सफलता भी लाभ की। नेपाल में आज भी शैव धर्म का बहुत बड़ा प्रभाव है। जिस समय सिध्द लोग अपने आडम्बरों द्वारा सर्व-साधारण को उन्मार्गगामी बना रहे थे, उस समय गोरखनाथ जी ने किस प्रकार सन्मार्ग का प्रचार सर्वसाधारण में किया, उसका प्रमाण उनका धर्म और उनकी वे सुन्दर रचनाएँ हैं जिनमें लोक-हितकारी शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं। गोरखनाथ जी की महत्ता इतनी प्रभावशालिनी थी कि उसने पाप-प( में निमग्न अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) का भी उध्दार किया। जो पद्य ऊपर उद्धृत किये गये हैं,उनमें से तीसरे, चौथे, और पाँचवें तथा छठे पद्यों को देखिए। उनके देखने से आप लोगों को यह ज्ञात हो जायेगा कि उन्होंने किस प्रकार अपने गुरु को सांसारिक व्यसनों से बचने की शिक्षा दी और कैसे उनको स्त्रिायों के प्रपंच से विरत रहने का उपदेश दिया। उन्होंने आत्म-परिचय और अजरामर होने का मार्ग उन्हें बड़े सुन्दर शब्दों में बतलाया और कभी-कभी उनमें आत्मग्लानि उत्पन्न करने की चेष्टा भी की, जैसा छठे पद्य के देखने से प्रकट होता है। उनका यह उद्योग अपने गुरुदेव के विषय में ही नहीं देखा जाता, सर्वसाधारण पर भी उनकी शिक्षाओं ने बड़ा प्रभाव डाला, और इस प्रकार उस समय के पतन-प्राय हिन्दू समाज का बहुत बड़ा उपकार किया। उनकी रचनाओं में योग-सम्बन्धी बहुत-सी बातें पाई जाती हैं। उद्धृत पद्यों में से पहले-दूसरे पद्य ऐसे ही हैं। उनके सातवें, आठवें, नौवें पद्यों में ऐसी शिक्षाएँ हैं जिन्हें सब सन्मार्ग के पथिकों को ग्रहण करना चाहिए। हिन्दी-साहित्य में इस प्रकार की धार्मिक शिक्षाओं के आदि प्रचारक भी गोरखनाथ जी ही हैं। इन सब बातों पर दृष्टि रख उनकी रचनाओं पर विचार करने से वे बहुमूल्य ज्ञात होती हैं और उनसे इस बात का भी पता चलता है कि किस प्रकार आदि में हिन्दी अपने तद्भव रूप में प्रकट हुई।
इसी चौदहवीं ईसवी शताब्दी में विनय-प्रभु जैन और छोटे-छोटे कई दूसरे जैन कवि हो गये हैं, जिनकी रचनाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी ऊपर लिखे गये जैन कवियों की हैं। उनमें कोई विशेषता ऐसी नहीं पाई जाती कि जिससे उनकी पृथक् चर्चा की आवश्यकता हो। इसलिए मैं उन लोगों को छोड़ता हूँ। इसके बाद पन्द्रहवीं शताब्दी प्रारम्भ होती है। चौदहवीं शताब्दी का अन्त और पन्द्रहवीं शताब्दी का आदि मैथिल-कोकिल विद्यापति का काव्यकाल माना जाता है। अतएव अब मैं यह देखूँगा कि उनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा का क्या रूप पाया जाता है। उनकी रचनाओं के विषय में अनेक भाषा-मर्मज्ञों का यह विचार है कि वे मैथिली भाषा की हैं। किन्तु उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि जितना उनमें हिन्दी भाषा के शब्दों का व्यवहार है, उतना मैथिली भाषा के शब्दों का नहीं। अवश्य उनमें मैथिली भाषा के शब्द प्राय: मिल जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा पर यह प्रान्तिकता का प्रभाव है, वैसा ही जैसा आजकल के बिहारियों की लिखी हिन्दी पर बंगाली विद्वान् विद्यापति को बंगभाषा का कवि मानते हैं,यद्यपि उनकी भाषा पर बंगाली भाषा का प्रभाव नाममात्रा को पाया जाता है। ऐसी अवस्था में विद्यापति को हिन्दी भाषा का कवि मानने का अधिक स्वत्व हिन्दी-भाषा-भाषियों ही को है और मैं इसी सूत्रा से उनकी चर्चा यहाँ करता हूँ। उन्होंने अपभ्रंश भाषा में भी दो ग्रंथ लिखे हैं। उनमें से एक का नाम 'कीर्तिलता' और दूसरी का नाम 'कीर्तिपताका' है। कीर्तिलता छप भी गई है। उनकी संस्कृत की रचनाएँ भी हैं जो उनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् सिध्द करती हैं। जब इन बातों पर दृष्टि डालते हैं तो उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा सामने आ जाती है, जो उनके लिए हिन्दी भाषा में सुन्दर रचना करना असम्भव नहीं बतलाती। मेरी ही सम्मति यह नहीं है। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले सभी सज्जनों ने इनको हिन्दी भाषा का कवि माना है। फिर मैं इनको इस गौरव से वंचित करूँ तो कैसे करूँ?
मेरा विचार है कि विद्यापति ने बड़ी ही सरस हिन्दी में अपनी पदावली की रचना की है। उनके पद्यों से रस निचुड़ा पड़ता है। गीत गोविन्दकार वीणापाणि के वरपुत्र जयदेव जी की मधुर कोमल कान्त पदावली पढ़कर जैसा आनन्द अनुभव होता है वैसा ही विद्यापति की पदावलियों का पाठ कर। अपनी कोकिल-कण्ठता ही के कारण वे मैथिल कोकिल कहलाते हैं। उनके समय में हिन्दी भाषा कितनी परिष्कृत और प्रांजल हो गई थी, इसका विशेष ज्ञान उनकी रचनाओं को पढ़कर होता है। उनके कतिपय पद्यों को देखिए-
1. माधाव कत परबोधाब राधा।
हा हरि हा हरि कहतहिं बेरि बेरि अब जिउ करब समाधा।
धारनि धारिये धानि जतनहिं बैसइ पुनहिं उठइ नहिं पारा।
सहजइ बिरहिन जग महँ तापिनि बौरि मदन सर धारा।
अरुण नयन नीर तीतल कलेवर विलुलित दीघल केसा।
मन्दिर बाहिर कर इत संसय सहचरि गनतहिं सेसा।
आनि नलिनि केओ रमनि सुनाओलि केओ देईमुख पर नीरे।
निस बत पेखि केओ सांस निसारै केओ देई मन्द समीरे।
कि कहब खेद भेद जनि अन्तर घन घन उतपत साँस।
भनइ विद्यापति सेहो कलावति जोउ बँधाल आसपास।
2. चानन भेल विषम सररे भूषन भेल भारी।
सपनहुँ हरि नहिं आयल रे गोकुल गिरधारी।
एकसरि ठाढ़ि कदम तर रे पथ हेरथि मुरारी।
हरि बिनु हृदय दगधा भेल रे आमर भेल सारी।
जाह जाह तोहिं ऊधाव हे तोहिं मधुपुर जाहे।
चन्द बदनि नहिं जोवत रे बधा लागत काहे।
3. के पतिया लए जायतरे मोरा पिय पास।
हिय नहिं सहै असह दुखरे भल साओन मास।
एकसर भवन पिया बिनुरे मोरा रहलो न जाय।
सखियन कर दुख दारुनरे जग के पतिआय।
मोर मन हरि हरि लै गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तजि मधुपुर बसि रे कति अपजस लेल।
विद्यापति कवि गाओल रे धानि धारु पिय आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।
इन पद्यों को पढ़कर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनमें मैथिली शब्दों का प्रयोग कम नहीं है। विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं। डॉक्टर ग्रियर्सन साहब ने भी इनको मैथिल कवि कहा है। 1बँगला के अधिकांश विद्वान् एक स्वर से उनको मैथिल भाषा का कवि ही बतलाते हैं और इसी आधार पर उनको बँगला का कवि मानते हैं क्योंकि बँगला का आधार मैथिली का पूर्व रूप है। वे मिथिला-निवासी थे भी। इसलिए उनका मैथिल कवि होना युक्ति-संगत है। परन्तु प्रथम तो मैथिली भाषा अधिकतर पूर्वी हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप है, दूसरे विद्यापति की पदावली में हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिकता, सरसता एवं निपुणता के साथ हुआ है। इसलिए उसको हिन्दी भाषा की रचना स्वीकार करना ही पड़ता है। जो पद्य ऊपर लिखे गये हैं वे
1. देखिए वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ् हिन्दुस्तान पृष्ठ 9 पंक्ति 34
हमारे कथन के प्रमाण हैं। इनमें मैथिली भाषा का रंग है, किन्तु उससे कहीं अधिक हिन्दी भाषा की छटा दिखाई पड़ती हैं। इस विषय में दो एक हिन्दी विद्वानों की सम्मति भी देखिए। अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में (59, 60 पृष्ठ) पं. रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं-
“विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को मागधी से निकली होने के कारण हिन्दी से अलग माना है। पर केवल भाषा शास्त्रा की दृष्टि से कुछ प्रत्ययों के आधार पर ही साहित्य-सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर तक समझी जाती, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली (Vocabulary) पर अवलम्बित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू हिन्दी का एक ही साहित्य माना जाता।
“खड़ी बोली, बाँगड़ई, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, वैसवाड़ी, अवधी इत्यादि में रूपों और प्रत्ययों का परस्पर अधिक भेद होते हुए भी सब हिन्दी के अन्तर्गत मानी जाती हैं! बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया आदि जिलों में आयल-आइल, गयल-गइल, हमरा तोहरा आदि बोले जाने पर भी वहाँ की भाषा हिन्दी के सिवाय दूसरी नहीं कही जाती। कारण है शब्दावली की एकता। अत: जिस प्रकार हिन्दी साहित्य बीसलदेव रासो पर अपना अधिकार रखता है, उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।”
हिन्दी भाषा और साहित्यकार यह लिखते है। 1-
“सारे बिहार-प्रदेश और उसके आसपास संयुक्त प्रदेश, छोटा नागपुर और बंगाल में कुछ दूर तक बिहारी भाषा बोली जाती है। यद्यपि बँगला और उड़िया की भाँति बिहारी भाषा भी मागधा अपभ्रंश से ही निकली है तथापि अनेक कारणों से इसकी गणना हिन्दी में होती है और ठीक होती है।”
“बिहारी भाषा में मैथिली, मगही और भोजपुरी तीन बोलियाँ हैं। मिथिला या तिरहुत और उसके आसपास के कुछ स्थानों में मैथिली बोली जाती है। पर उसका विशुध्द रूप दरभंगे में पाया जाता है। इस भाषा के प्राचीन कवियों में विद्यापति ठाकुर बहुत ही प्रसिध्द और श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिनकी कविता का अब तक बहुत आदर होता है। इस कविता का अधिकांश सभी बातों में प्राय: हिन्दी ही है।”
आजकल बिहार हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्त माना जाता है। वहाँ के विद्यालयों और साहित्यिक समाचार पत्रों अथच मासिक पुस्तकों में हिन्दी भाषा का ही प्रचार है। ग्रन्थ रचनाएँ भी प्राय: हिन्दी भाषा में ही होती हैं और वहाँ के पठित-समाज की भाषा भी हिन्दी ही है। ऐसी अवस्था में बिहारी भाषा पर हिन्दी भाषा का कितना अधिकार है, यह अप्रकट नहीं।
मैं समझता हूँ विद्यापति की रचनाओं पर हिन्दी भाषा का कितना स्वत्व है,
1. देखिए 'हिन्दी भाषा और साहित्य' का पृष्ठ 39
इस विषय में पर्याप्त लिखा जा चुका। मैंने उनकी रचना इसीलिए यहाँ उपस्थित की है, कि जिससे आप लोगों को यह ज्ञात हो सके कि उस समय हिन्दी भाषा का क्या रूप था। उनकी कविता को देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके समय में हिन्दी भाषा प्राय: प्राकृत शब्दों से मुक्त हो गई थी और उसमें बड़ी सरस रचनाएँ होने लगी थीं। मुझको विश्वास है कि उनकी रचना के अधिकांश शब्दों और प्रयोगों को हिन्दी मानने में किसी को आपत्तिा न होगी। वे ब्रजभाषा के चिर परिचित शब्द हैं जो अपने वास्तविक रूप में पदावली में गृहीत हुए हैं। श्रीमती राधिका की विरह-वेदना का वर्णन होने के कारण उन पर और अधिक ब्रजभाषा की छाप लग गई है। जो शब्द चिद्दित हैं, उन्हें हम ब्रजभाषा का नहीं कह सकते। किन्तु उनमें से भी 'हेरथि' इत्यादि दो-चार शब्दों को छोड़कर शेष को निस्संकोच भाव से अवधी कह सकते हैं और यह अविदित नहीं कि अवधी भाषा हिन्दी का ही रूप है।
मेरा विचार है कि पन्द्रहवें शतक में प्रान्तिक भाषाओं में हिन्दी वाक्यों और शब्दों के प्रवेश का सूत्रापात हो गया था, जो आगे चलकर अधिक विकसित रूप में दृष्टिगत हुआ।
मैं इस प्रणाली का आदि प्रवर्तक विद्यापति को ही मानता हूँ। यदि गुरु गोरखनाथ हिन्दी भाषा में धार्मिक शिक्षा के आदि प्र्रवत्ताक हैं और उसको ज्ञान और योग की पुनीत धाराओं से पवित्रा बनाते हैं तो मैथिल कोकिल उसको ऐसे स्वरों से पूरित करते हैं जिसमें सरस शृंगार-रस की मनोहारिणी धवनि श्रवणगत होती है। सरसपदावली का आश्रय लेकर उन्होंने भगवती राधिका के पवित्रा प्रेमोद्गारों से अपनी लेखनी को रसमय ही नहीं बनाया, साहित्य क्षेत्र में अपूर्व भावों की भी अवतारणा की। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विद्यापति स्वयं इस प्रणाली के उद्भावक हैं या उनके सामने इससे पहले का और कोई आदर्श था। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उनके सामने प्राचीन आदर्श अवश्य था। परन्तु हिन्दी भाषा में राधा-भाव के आदि प्र्रवत्ताक विद्यापति ही हैं। पदावली में राधाकृष्ण के संयोग और वियोग शृंगार का जैसा भावमय और हृदयग्राही वर्णन विद्यापति ने किया है, हिन्दी भाषा में उनसे पहले इस प्रकार का भावुकतामय वर्णन किसी ने नहीं किया।
श्रीमद्भागवत में गोपियों का प्रेम भगवान कृष्ण चन्द्र के प्रति जिस उच्चभाव से वर्णित है, वह अलौकिक है। प्रेम त्यागमय होता है, स्वार्थमय नहीं। रूप-जन्य मोह क्षणिक और अस्थायी होता है। उसमें सुख-लिप्सा होती है, आत्मोत्सर्ग का भाव नहीं पाया जाता। किन्तु वास्तविक प्रेम अपना आदर्श आप होता है। उसमें जितनी स्थायिता होती है, उतना ही त्याग। वह आन्तरिक निस्स्वार्थ भावों पर अवलम्बित रहता है, स्वार्थमय प्रवृत्तिायों पर नहीं। उसमें प्रेमी पर अपने को उत्सर्ग कर देने की शक्ति होती है, और वह इसी में अपनी चरितार्थता समझता है। भागवत में गोपियों को ऐसे ही प्रेम की प्रेमिका वर्णित किया गया है। विद्यापति संस्कृत के विद्वान थे। साथ ही सहृदय और भावुक थे। इसलिए भागवत के आदर्श को अपनी रचनाओं में स्थान देना उनके लिए असम्भव नहीं था। मेरा विचार है कि जयदेवजी की मधुर रचनाओं से भी उनकी कविता बहुत कुछ प्रभावित है,क्योंकि वे उनसे कई शतक पूर्व संस्कृत भाषा में इस प्रकार की सरस पदावली का निर्माण कर चुके थे। श्रीमद्भागवत में श्रीमती राधिका का नाम नहीं मिलता। परन्तु ब्रह्म वर्ैवत्ता पुराण में उनका नाम मिलता है और उसमें वे उसी रूप में अंकित की गई हैं जिस रूप में गीत गोविन्दकार ने उनको ग्रहण किया है। यह सत्य है कि गीत गोविन्द में सरल शृंगार ही का श्रोत बहता है, परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि जयदेव जी नेउस ग्रन्थ की रचना भक्ति भाव से की है और वे भगवती राधिका और भगवान कृष्ण में उतना ही पूज्य भाव रखते थे, जितना कोई बल्लभाचार्य के सम्प्रदाय का भक्त रख सकता है। उनके ग्रन्थ में ही इसके प्रमाण विद्यमान हैं। विद्यापति की रचनाओं के देखने से पाया जाता है कि जयदेवजी का यह भक्ति-भाव उनमें भी भरित था। 1 डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन लिखते हैं : “मैथिली भाषा में अमूल्य पदावली-रचना केलिए ही उनका (विद्यापति का) श्रेष्ठ गौरव है। अपने समस्त पदों में उन्होंने श्रीमती राधिका का प्रेम भगवान कृष्णचन्द्र के प्रति वर्णन किया है। इस रूपक के द्वारा उन्होंने यह विज्ञापित किया है कि किस प्रकार आत्मा का परमात्मा के प्रति प्रेम सम्बन्धा है।”
विद्यापति शैव थे। इसलिए सम्भव है कि यह तर्क उपस्थित किया जाय कि एक शैव की राधा-कृष्ण की मूर्ति में भक्ति कैसी? किन्तु इस विचार में संकीर्णता है। कवि का हृदय इतना संकीर्ण नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदास यदि सीताराम के अनन्य उपासक होकर भगवान भूतनाथ की भक्ति कर सकते हैं तो शिव के अनन्य भक्त होकर कविवर विद्यापति राधा-कृष्ण की भक्ति क्यों नहीं कर सकते। वास्तव बात यह है कि अधिकांश गृहस्थ हिन्दू विद्वान् प×चदेवोपासक होता है। उसमें वह भेद-भावना नहीं होती जो किसी कट्टर शैव या वैष्णव में पाई जाती है। मैं समझता हूँ, विद्यापति इस दोष से मुक्त थे और इसीलिए उनको इस प्रकार राधा-कृष्ण का प्रेम वर्णन करने में कोई बाधा नहीं हुई। उनके पद्यों में ही युगल मूर्ति के भक्ति भाव के प्रमाण मौजूद हैं। उनके पद में जो माधार्ुय्य विद्यमान है उसको माधार्ुय्य-उपासना का मर्मज्ञ ही प्राप्त कर सकता है। मैं सोचता हूँ कि उस समय पौराणिक धर्म विशेषकर श्रीमद्भागवत जैसे वैष्णव ग्रन्थों के प्रभाव से वैष्णव धर्म का जो उत्थान देश में नाना रूपों से हो रहा था, उसी के प्रभाव से बंगाल प्रान्त में चण्डीदास की, और बिहार-भूमि में विद्यापति की रचनाएँ प्रभावित हैं।
1. "But his chief glory consists in his matchless sonnets (Pad s) in the Maithili dialect dealing allegorically with the relations of the soul to God under the form of love which Radha dore to Krishna."
-Modern Vernacular Literature of Hindustan By Dr. Grierson.
जो कुछ अब तक विद्यापति के विषय में लिखा गया उससे यह पाया जाता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उन्होंने अपनी अभूतपूर्व कविताओं की रचना करके जहाँ पदावली-रचना की प्रणाली हिन्दी भाषा में चलायी, वहाँ उसको राधा-कृष्ण की प्रेममयी लीलाओं के सरस वर्णन से भी अलंकृत किया। हिन्दी में भावमय शृंगारिक रचनाओं का आरम्भ भी उन्हीं से होता है और उन्हीं से ऐसे सरस सुन्दर पद-विन्यास हिन्दी को प्राप्त हुए हैं जैसे उसको आज तक कतिपय हिन्दी आकाश के उज्ज्वल नक्षत्रों से ही प्राप्त हो सके हैं।
यह पन्द्रहवीं शताब्दी कबीर साहब की कविताओं का रचना-काल भी है। कबीर साहब की रचनाओं के विषय में अनेक तर्क-वितर्क हैं। उनकी जो रचनाएँ उपलब्धा हैं उनमें बड़ी विभिन्नता है। इस विभिन्नता का कारण यह है कि वे स्वयं लिखे-पढ़े न थे। इसलिए अपने हाथ से वे अपनी रचनाओं को न लिख सके। अन्य के हाथों में पड़कर उनकी रचनाओं का अनेक रूपों में परिणत होना स्वाभाविक था। आजकल जितनी रचनाएँ उनके नाम से उपलब्धा होती हैं उनमें भी मीन-मेख है। कहा जाता है कि सत्यलोक पधार जाने के बाद उनकी रचनाओं में लोगों ने मनगढ़न्त बहुत- सी रचनाएँ मिला दी हैं और इसी सूत्रा से उनकी रचना की भाषा में भी विभिन्नता दृष्टिगत होती है। ऐसी अवस्था में उनकी रचनाओं को उपस्थित कर इस बात की मीमांसा करना कि पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी का क्या रूप था, दुस्तर है। मैं पहले लिख आया हूँ कि भ्रमणशील सन्तों की बानियों में भाषा की एकरूपता नहीं पाई जाती। कारण यह है कि नाना प्रदेशों में भ्रमण करने के कारण उनकी भाषा में अनेक प्रान्तिक शब्द मिले पाये जाते हैं। कबीर साहब की रचना में अधिकतर इस तरह की बातें मिलती हैं। इन सब उलझनों के होने पर भी कबीर साहब की रचनाओं की चर्चा इसलिए आवश्यक ज्ञात होती है कि वे इस काल के एक प्रसिध्द सन्त हैं और उनकी वानियों का प्रभाव बहुत ही व्यापक बतलाया गया है। कबीर साहब की रचनाओं में रहस्यवाद भी पाया जाता है, जिसको अधिकांश लोग उनके चमत्कारों से सम्बन्धिात करते हैं और यह कहते हैं कि ऐसी रचनाएँ उनका निजस्व हैं, जो हिन्दी संसार की किसी कवि की कृति में नहीं पाई जाती। इस सूत्रा से भी कबीर साहब की रचनाओं के विषय में कुछ लिखना उचित ज्ञात होता है, क्योंकि यह निश्चित करना है कि इस कथन में कितनी सत्यता है। विचारना यह है कि क्या वास्तव में रहस्यवाद कबीर साहब की उपज है या इसका भी कोई आधार है।
काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 'कबीर-ग्रंथावली' नामक एक ग्रन्थ कुछ वर्ष हुए, एक प्राचीन ग्रन्थ के आधार से प्रकाशित किया है। यह प्राचीन ग्रन्थ सम्वत् 1561 का लिखा हुआ है और अब तक उक्त सभा के पुस्तकालय में सुरक्षित है। जो ग्रन्थ सभा से प्रकाशित हुआ है, उससे इसलिए कुछ पद्य आगे उद्धृत किये जाते हैं, जिससे उनकी रचना की भाषा के विषय में कुछ विचार किया जा सके-
1. षूणैं पराया न छुटियो , सुणिरे जीव अबूझ।
कबिरा मरि मैदान में इन्द्रय्यांसूं जूझ।
2. गगनदमामा बाजिया परया निसाणै घाव।
खेत बुहारया सूरिवाँ मुझ मरने का चाव।
3. काम क्रोधा सूँ झूझणां चौड़े माड़या खेत।
सूरै सार सँवाहिया पहरया सहज सँजोग।
4. अब तो झूझ्याँ हा बणै मुणि चाल्याँघर दूरि।
सिर साहब कौं सौंपता सोच न कीजै सूरि।
5. जाइ पूछौ उस घाइलैं दिवसपीड़ निस जाग।
बाहण हारा जाणि है कै जाणै जिस लाग।
6. हरिया जाणै रूखणा उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जाणई कबहूँ बूठा मेंह।
7. पारब्रह्म बूठा मोतियाँ घड़ बाँधी सिष राँह।
सबुरा सबुरा चुणि लिया चूक परी निगुराँह।
8. अवधू कामधोनु गहि बाँधी रे।
भाँड़ा भंजन करै सबहिन का कछू न सूझै ऑंधीरे।
जो ब्यावै तो दूधा न देई ग्याभण अमृत सरवै।
कौली घाल्यां बीदरि चालै ज्यूँ घेरौं त्यूँ दरवै।
तिहीं धोन थैं इच्छयाँ पूगी पाकड़ि खूँटै बाँधी रे।
ग्वाड़ा माँ है आनँद उपनौ खूँटै दोऊ बाँधी रे।
साँई माई सास पुनि साईं साईं याकी नारी।
कहै कबीर परमपद पाया संतो लेहु बिचारी।
कबीर साहब ने स्वयं कहा है 'बोली मेरी पुरुब की', जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचना पूर्वी हिन्दी में हुई है और इन कारणों से यह बात पुष्ट होती है कि वे पूर्व के रहने वाले थे और उनकी जनम भूमि काशी थी। काशी और उसके आसपास के जिलों में भोजपुरी और अवधी-भाषा ही अधिकतर बोली जाती है। इसलिए उनकी भाषा का पूर्वी भाषा होना निश्चित है और ऐसी अवस्था में उनकी रचनाओं को पूर्वी भाषा में ही होना चाहिए। यह सत्य है कि उन्होंने बहुत अधिक देशाटन किया था और इससे उनकी भाषा पर दूसरे प्रान्तों की कुछ बोलियों का भी थोड़ा-बहुत प्रभाव हो सकता है। किन्तु इससे उनकी मुख्य भाषा में इतना अन्तर नहीं पड़ सकता कि वह बिलकुल अन्य प्रान्त की भाषा बन जाये। सभा द्वारा जो पुस्तक प्रकाशित हुई है उसकी भाषा ऐसी ही है जो पूर्व की भाषा नहीं कही जा सकती, उसमें पंजाबी और राजस्थानी भाषा का पुट अधिकतर पाया जाता है। ऊपर के पद्य इसके प्रमाण हैं। कुछ लोगों का विचार है कि कबीर साहब के इस कथन का कि 'बोली मेरी पुरुब की' यह अर्थ है कि मेरी भाषा पूर्व काल की है, अर्थात् सृष्टि के आदि की। किन्तु यह कथन कहाँ तक संगत है,इसको विद्वज्जन स्वयं समझ सकते हैं। सृष्टि के आदि की बोली से यदि यह प्रयोजन है कि उनकी शिक्षाएँ आदिम हैं तो भी वह स्वीकार-योग्य नहीं, क्योंकि उनकी जितनी शिक्षाएँ हैं उन सबमें परम्परागत विचार की ही झलक है। यदि सृष्टि की आदि की बोली का यह भाव है कि उस काल की भाषा में कबीर साहब की रचनाएँ हैं तो यह भी युक्ति संगत नहीं, क्योंकि जिस भाषा में उनकी रचनाएँ हैं वह कई सहò वर्षों के विकास और परिवर्तनों का परिणाम है। इसलिए यह कथन मान्य नहीं। वास्तव बात यह है कि कबीर साहब की रचनाएँ पूर्व की बोली में ही हैं और यही उनके उक्त कथन का भाव है। अधिकांश रचनाएँ उनकी ऐसी ही हैं भी। सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ के पहले उनकी जितनी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं या हस्तलिखित मिलती हैं, या जन साधारण में प्रचलित हैं, उन सबकी भाषा अधिकांश पूर्वी ही है। हाँ, सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ का कुछ अंश अवश्य इस विचार का बाधाक है, परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि जिस प्राचीन-लिखित ग्रन्थ के आधार से सभा की पुस्तक प्रकाशित हुई है,उसके लेखक के प्रमाद ही से कबीर साहब की कुछ रचनाओं की भाषा में विशेष कर बहुसंख्यक दोहों में उल्लेख-योग्य अंतर पड़ गया है। प्राय: लेखक जिस प्रान्त का होता है अपने संस्कार के अनुसार वह लेख्यमान ग्रन्थ की भाषा में अवश्य कुछ न कुछ अन्तर डाल देता है। यही इस ग्रन्थ लेखन के समय भी हुआ ज्ञात होता है अन्यथा कबीर साहब की भाषा का इतना रूपान्तर न होता।
मैं कबीर साहब की भाषा के विषय में विचार उन्हीं रचनाओं के आधार पर करूँगा जो सैकड़ों वर्ष से मुख्य रूप में उनके प्रसिध्द धर्म स्थानों के ग्रन्थों में पाई जाती हैं अथवा सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में संगृहीत मिलती हैं। यह ग्रन्थ सत्राहवीं ईस्वी शताब्दी में श्री गुरु अर्जुन द्वारा संकलित किया गया है। इसलिए इसकी प्रामाणिकता विश्वसनीय है। कुछ ऐसी रचनाएँ देखिए-
1. गंगा के सँग सरिता बिगरी ,
सो सरिता गंगा होइ निबरी।
बिगरेउ कबीरा राम दोहाई ,
साचु भयो अन कतहिं न जाई।
चन्दन के सँग तरवर बिगरेउ ,
सो तरुवरु चंदन होइ निबरेउ
पारस के सँग ताँबा बिगरेउ ,
सो ताँबा कंचन होइ निबरेउ।
संतन संग कबिरा बिगरेउ ,
सो कबीर रामै होइ निबरेउ।
2. माथे तिलकु हथि माला बाना ,
लोगनु राम खिलौना जाना।
जउ हउँ बउरा तउ राम तोरा ,
लोग मरम कह जानइँ मोरा।
तोरउँ न पाती पूजउँ न देवा ,
राम भगति बिनु निहफल सेवा।
सति गुरु पूजउँ सदा मनावउँ ,
ऐसी सेव दरगह सुख पावउँ।
लोग कहै कबीर बउराना
कबीर का मरम राम पहिचाना।
3. जब लग मेरी मेरी करै ,
तब लग काजु एक नहिं सरै।
जब मेरी मेरी मिटि जाइ ,
तब प्रभु काजु सँवारहि आइ।
ऐसा गियानु बिचारु मना ,
हरि किन सुमिरहु दुख भंजना।
जब लग सिंघ रहै बन माहिं ,
तब लगु बनु फूलै ही नाहिं।
जब ही सियारु सिंघ कौ खाइ ,
फूलि रही सगली बनराइ।
जीतो बूड़ै हारो तिरै ,
गुरु परसादी वारि उतरै।
दास कबीर कहइ समझाइ ,
केवल राम रहहु जिउलाइ।
4. सभुकोइ चलन कहत हैं ऊहां ,
ना जानौं वैकुण्ठु है कहाँ।
आप आप का मरम न जाना ,
बात नहीं वैकुण्ठ बखाना।
जब लगु मन बैकुण्ठ की आस ,
तब लग नाहीं चरन निवास।
खाईं कोटु न परल पगारा ,
ना जानउँ बैकुण्ठ दुवारा।
कहि कबीर अब कहिये काहि ,
साधु संगति बैकुण्ठै आहि।
सभा की प्रकाशित ग्रन्थावली में भी इस प्रकार की रचनाएँ मिलती हैं। मैं यहाँ यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में कबीर साहब की जितनी रचनाएँ संगृहीत हैं वे सब उक्त ग्रन्थावली में ले ली गई हैं। उनमें वैसा परिवर्तन नहीं पाया जाता है जैसा सभा के सुरक्षित ग्रन्थ की रचनाओं में मिलता है। मैं यह भी कहूँगा कि उक्त सुरक्षित ग्रन्थ की पदावली उतनी परिवर्तित नहीं है जितने दोहे। अधिकांश पदावली में कबीर साहब की रचना का वही रूप मिलता है जैसा कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में पाया जाता है। मैं इसी पदावली में से तीन पद्य नीचे लिखता हूँ-
1. हम न मरैं मरिहैं संसारा ,
हमकूं मिल्या जियावन हारा।
अब न मरौं मरनै मन माना ,
तेई मुए जिन राम न जाना।
साकत मरै संत जन जीवै ,
भरि भरि राम रसायन पीवै।
हरि मरिहैं तो हमहूं मरिहैं ,
हरि न मरैं हम काहे कूं मरिहैं।
कहै कबीर मन मनहिं मिलावा ,
अमर भये सुख सागर पावा।
2. काहे रे मन दह दिसि धावै ,
विषया सँगि संतोष न पावै।
जहाँ जहाँ कलपै तहाँ तहाँ बँधाना ,
रतन को थाल कियो तै रँधाना।
जो पै सुख पइयत इन माहीं ,
तौ राज छाड़ि कत बन को जाहीं।
आनन्द सहत तजौ विष नारी ,
अब क्या झीषै पतित भिषारी।
कह कबीर यहु सुख दिन चारि ,
तजि बिषया भजि चरन मुरारि।
3. बिनसि जाइ कागद की गुड़िया ,
जब लग पवन तबै लगि उड़िया।
गुड़िया को सबद अनाहद बोलै ,
खसम लिये कर डोरी डोलै।
पवन थक्यो गुड़िया ठहरानी ,
सीस धुनै धुनि रोवै प्रानी।
कहै कबीर भजि सारँग पानी ,
नहिं तर ह्नै है खैंचा तानी।
मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उद्धृत किये हैं और जो पद्य कबीर ग्रन्थावली से लिये हैं, उनकी भाषा एक है, और मैं कबीर साहब की वास्तविक भाषा में लिखा गया इन पद्यों को ही समझता हूँ। वास्तव बात यह है कि कबीर ग्रन्थावली की अधिकांश रचनाएँ इसी भाषा की हैं। उसके अधिकतर पद ऐसी ही भाषा में लिखे पाये जाते हैं। बहुत से दोहों की भाषा का रूप भी यही है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि कबीर साहब की रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के अनुकूल हैं। आप देखते आये हैं कि क्रमश: हिन्दी भाषा परिमार्जित होती आई है। जैसा उसका परिमार्जित रूप पन्द्रहवीं शताब्दी की अन्य रचनाओं में मिलता है वैसा ही कबीर साहब की रचनाओं में भी पाया जाता है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि उनकी रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के भाषा जनित परिवर्तन सम्बन्धी नियमों से मुक्त नहीं हैं, वरन क्रमिक परिवर्तन की प्रमाण भूत हैं। हाँ, उनमें कहीं-कहीं प्रान्तिकता अवश्य पाई जाती है और पश्चिमी हिन्दी से पूर्वी हिन्दी का प्रभाव उनकी रचना पर अधिक देखा जाता है। किन्तु यह आश्चर्यजनक नहीं। क्योंकि प्रान्तिक भाषा में कविता करने का सूत्रापात विद्यापति के समय में ही हुआ था, जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है।
मैं यह स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब की रचनाओं में पंजाबी और राजस्थानी भाषा के कुछ शब्दों, क्रियाओं और कारकों का प्रयोग मिल जाता है। किन्तु, उसका कारण उनका विस्तृत देशाटन है, जैसा मैं पहले कह भी चुका हूँ। अपनी मुख्य भाषा में इस प्रकार के कुछ शब्दों का प्रयोग करते सभी संत कवियों को देखा जाता है और यह इतना असंगत नहीं जितना अन्य भाषा के शब्दों का उतना प्रयोग जो कवि की मुख्य भाषा के वास्तविक रूप को संदिग्धा बना देता है। मैंने कबीर ग्रन्थावली से जो एक पद और सात दोहे पहले उठाये हैं, उनकी भाषा ऐसी है जो कबीर साहब की मुख्य भाषा की मुख्यता का लोप कर देती है। इसीलिए मैं उनको शुध्द रूप में लिखा गया नहीं समझता। परन्तु उनकी जो ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें उनका मुख्य रूप सुरक्षित है और कतिपय शब्द मात्रा अन्य भाषा के आ गये हैं, उन्हें मैं उन्हीं की रचना मानता हूँ और समझता हूँ कि वे किसी अल्पज्ञ लेखक की अनधिकार चेष्टा से सुरक्षित हैं। उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखिए-
1. दाता तरवर दया फल उपकारी जीवन्त।
पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त।
2. कबीर संगत साधु की कदे न निरफल होय।
चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय।
3. कायथ कागद काढ़िया लेखै बार न पार।
जब लग साँस सरीर में तब लग राम सँभार।
4. हरजी यहै विचारिया , साखी कहै कबीर।
भवसागर मैं जीव हैं , जे कोइ पकड़ै तीर।
5. ऐसी वाणी बोलिये , मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै , औरन को सुख होइ।
इन पद्यों के जिन शब्दों पर चिद्द बना दिये गये हैं वे पंजाबी या राजस्थानी हैं। इस प्रकार का प्रयोग कबीर साहब की रचनाओं में प्राय: मिलता है। ऐसे आकस्मिक प्रयोग उनकी मुख्य भाषा को संदिग्धा नहीं बनाते, क्योंकि जिस पद्य में किसी भाषा का मुख्य रूप सुरक्षित रहता है, उस पद्य में आये हुए अन्य भाषा के दो-एक शब्द एक प्रकार से उसी भाषा के अंग बन जाते हैं। अवधी अथवा ब्रजभाषा में 'वाणी' को 'बानी' ही लिखा जाता है, क्योंकि इन दोनों भाषाओं में 'ण' का अभाव है। पंजाब प्रान्त के लेखक प्राय: 'न' के स्थान पर 'ण' प्रयोग कर देते हैं, क्योंकि उस प्रान्त में प्राय: नकार णकार हो जाता है। वे'बानी' को 'बाणी' 'आसन' को 'आसण' 'पवन' को 'पवण' इत्यादि ही बोलते और लिखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि कबीर साहब के पद्यों में आये हुए नकार पंजाब के लेखकों की लेखनी द्वारा णकार बन जावें तो कोई आश्चर्य नहीं। आदि ग्रन्थ-साहब में भी देखा जाता है कि प्राय: कबीर साहब की रचनाओं के नकार ने णकार का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, यद्यपि इस विशाल ग्रन्थ में उनकी भाषा अधिकतर सुरक्षित है। इस प्रकार के साधारण परिवर्तन का भी मुख्य भाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं में जहाँ ऐसा परिवर्तन दृष्टिगत हो, उसके विषय में यह न मान लेना चाहिए कि जो शब्द हिन्दी रूप में लिखा जा सकता था, उसको उन्होंने ही पंजाबी रूप में दिया है, वरन सच तो यह है कि उस परिवर्तन में पंजाबी लेखक की लेखनी की लीला ही दृष्टिगत होती है।
कबीर साहब कवि नहीं थे, वे भारत की जनता के सामने एक पीर के रूप में आये। उनके प्रधान शिष्य धर्मदास कहते हैं-
आठवीं आरती पीर कहाये। मगहर अमी नदी बहाये।
मलूकदास कहते हैं-
तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर 1
1. हिन्दुस्तानी, अक्टूबर सन् 1932, पृ. 451
झाँसी के शेख़ तक़ी ऊंजी और जौनपुर के पीर लोग जो काम उस समय मुसलमान धर्म के प्रचार के लिए कर रहे थे,काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही कार्य में निरत थे। अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप में मुसलमान धर्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धर्म की रचना करके हिन्दू मुसलमान को एक करने के लिए उद्योगशील थे। ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसैन शाह कर रहे थे जो एक मुसलमान पीर थे और जिसने अपने नवीन धर्म का नाम सत्यपीर रख लिया था। कबीर साहेब के समान वह भी हिन्दू मुसलमानों के एकीकरण में लग्न थे। उस समय भारतवर्ष में इन पीरों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वे बड़ी श्रध्दा की दृष्टि से देखे जाते थे। गुरु नानकदेव ने भी इन पीरों का नाम अपने इस वाक्य में 'सुणिये सिध्द-पीर सुरिनाथ' आदर से लिया है। जो पद उन्होंने सिध्द, नाथ और सूरि को दिया है वही पीर को भी। पहले आप पढ़ आये हैं कि उस समय सिध्दों का कितना महत्तव और प्रभाव था। नाथों का महत्तव भी गुरु गोरखनाथजी की चर्चा में प्रकट हो चुका है। सूरि जैनियों के आचार्य कहलाते थे और उस समय दक्षिण में उनकी महत्ता भी कम नहीं थी। इन लोगों के साथ गुरु नानक देव ने जो पीर का नाम लिया है, इसके द्वारा उस समय इनकी कितनी महत्ता थी, यह बात भली-भाँति प्रकट होती है। इस पीर नाम का सामना करने ही के लिए हिन्दू आचार्य उस समय गुरु नाम धारण करने लग गये थे। इसका सूत्रापात गुरु गोरखनाथ जी ने किया था। गुरु नानकदेव के इस वाक्य में गुरु ईसर गुरु गोरख बरम्हा गुरु पारबती माई इसका संकेत है। गुरु नानक के सम्प्रदाय के आचार्यों के नाम के साथ जो गुरु शब्द का प्रयोग होता है, उसका उद्देश्य भी यही है। वास्तव में उस समय के हिन्दू आचार्यों को हिन्दू धर्म की रक्षा करने के लिए अनेक मार्ग ग्रहण करने पड़े थे। क्योंकि बिना इसके न तो हिन्दू धर्म सुरक्षित रह सकता था, न पीरों के सम्मुख उनको सफलता प्राप्त हो सकती थी। क्योंकि वे राजधर्म के प्रचारक थे। कबीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी और बुध्दि बड़ी ही प्रखर। उन्होंने इस बात को समझ लिया था। अतएव उन दोनों से भिन्न तीसरा मार्ग ग्रहण किया था। परन्तु कार्य उन्होंने वही किया जो उस समय मुसलमान पीर कर रहे थे अर्थात् हिन्दुओं को किसी प्रकार हिन्दू धर्म से अलग करके अपने नव प्रवर्तित धर्म में आकर्षित कर लेना उनका उद्देश्य था। इस उद्देश्य-सिध्दि के लिए उन्होंने अपने को ईश्वर का दूत बतलाया और अपने ही मुख से अपने महत्तव की घोषण् बड़ी ही सबल भाषा में की। निम्नलिखित पद्य इसके प्रमाण हैं-
काशी में हम प्रगट भये हैं रामानन्द चेताये।
समरथ का परवाना लाये हंस उबारन आये।
कबीर शब्दावली , प्रथम भाग पृ. 71
सोरह संख्य के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया
कबीर बीजक , पृ. 20
तेहि पीछे हम आइया सत्य शब्द के हेत।
कहते मोहिं भयल युग चारी
समझत नाहिं मोहि सुत नारी।
कह कबीर हम युग युग कही।
जबहीं चेतो तबहीं सही।
कबीर बीजक , पृ. 125, 592
जो कोई होय सत्य का किनका सो हमको पतिआई।
और न मिलै कोटि करि थाकै बहुरि काल घर जाई।
कबीर बीजक , पृ. 20
जम्बू द्वीप के तुम सब हंसा गहिलो शब्द हमार।
दास कबीरा अबकी दीहल निरगुन कै टकसार।
जहिया किरतिम ना हता धारती हता न नीर।
उतपति परलै ना हती तबकी कही कबीर।
ई जग तो जँहड़े गया भया योग ना भोग।
तिल तिल झारि कबीर लिय तिलठी झारै लोग।
कबीर बीजक , पृ. 80, 598, 632
सुर नर मुनि जन औलिया , यह सब उरली तीर।
अलह राम की गम नहीं , तहँ घर किया कबीर।
साखी संग्रह , पृ. 125
वे अपनी महत्ता बतलाकर ही मौन नहीं हुए वरन हिन्दुओं के समस्त धार्मिक ग्रन्थों और देवताओं की बहुत बड़ी कुत्सा भी की। इस प्रकार के उनके कुछ पद्य प्रमाण-स्वरूप नीचे लिखे जाते हैं-
योग यज्ञ जप संयमा तीरथ ब्रतदाना
नवधा वेद किताब है झूठे का बाना।
कबीर बीजक , पृ. 411
चार वेद षट् शा ò ऊ औ दश अष्ट पुरान।
आसा दै जग बाँधिया तीनों लोक भुलान।
कबीर बीजक , पृ. 14
औ भूले षट दर्शन भाई। पाख्रड भेष रहा लपटाई।
ताकर हाल होय अघकूचा। छदर्शन में जौन बिगूचा।
कबीर बीजक , पृ. 97
ब्रह्मा बिस्नु महेसर कहिये इनसिर लागी काई।
इनहिं भरोसे मत कोइ रहियो इनहूँ मुक्ति न पाई।
कबीर शब्दावली , द्वितीय भाग , पृ. 19
माया ते मन ऊपजै मन ते दश अवतार।
ब्रह्म बिस्नु धोखे गये भरम परा संसार।
कबीर बीजक , पृ. 650
चार वेद ब्रह्मा निज ठाना।
मुक्ति का मर्म उनहुँ नहिं जाना।
कबीर बीजक , पृ. 104
भगवान कृष्णचन्द्र और हिन्दू देवताओं के विषय में जैसे घृणित भाव उन्होंने फैलाये, उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं। परन्तु मैं उनको यहाँ उठाना नहीं चाहता, क्योंकि उन पदों में अश्लीलता की पराकाष्ठा है। उनकी रचनाओं में योग, निर्गुण-ब्रह्म और उपदेश एवं शिक्षा सम्बन्धी बड़े हृदयग्राही वर्णन हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने इस विषय में गुरु गोरखनाथ और उनके उत्ताराधिकारी महात्माओं का बहुत कुछ अनुकरण किया है। गुरु गोरखनाथ का ज्ञानवाद और योगवाद ही कबीर साहब के निर्गुणवाद का स्वरूप ग्रहण करता है। मैं अपने इस कथन की पुष्टि के लिए गुरु गोरखनाथ की पूर्वोद्धृत रचनाओं की ओर आप लोगों की दृष्टि फेरता हूँ और उनके समकालीन एवं उत्ताराधिकारी नाथ सम्प्रदाय के आचार्यों की कुछ रचनाएँ भी नीचे लिखता हूँ-
1. थोड़ो खाय तो कलपै झलपै , घड़ों खाय तो रोगी।
दुहूँ पर वाकी संधि विचारै , ते को बिरला जोगीड्ड
यहु संसार कुवधि का खेत , जब लगि जीवै तब लगि चेत।
आख्याँ देखै काण सुणै , जैसा बाहै तैसा लुणैड्ड
- जलंधार नाथ
2. मारिबा तौ मनमीर मारिबा , लूटिबा पवन भँडार।
साधिबा तौ पंचतत्ता साधिबा , सेइबा तौ निरंजन निरंकार
माली लौं भल माली लौं , सींचै सहज कियारी।
उनमनि कलाएक पहूपनि , पाइले आवा गबन निवारीड्ड
- चौरंगी नाथ
3. आछै आछै महिरे मंडल कोई सूरा।
मारया मनुवाँ नएँ समझावै रे लोड्ड
देवता ने दाणवां एणे मनवैं व्याह्या।
मनवा ने कोई ल्यावैं रे लोड्ड
जोति देखि देखो पड़ेरे पतंगा।
नादै लीन कुरंगा रे लोड्ड
एहि रस लुब्धाी मैगल मातो।
स्वादि पुरुष तैं भौंरा रे लोड्ड
- कणोरी पाव
4. किसका बेटा किसकी बहू , आपसवारथ मिलिया सहू।
जेता पूला तेती आल , चरपट कहै सब आल जंजालड्ड
चरपट चीर चक्रमन कंथा , चित्ता चमाऊँ करना।
ऐसी करनी करो रे अवधू , ज्यो बहुरि न होई मरनाड्ड
- चरपट नाथ
5. साधी सूधी के गुरु मेरे , बाई सूंव्यंद गगन मैं फेरे।
मनका बाकुल चिड़ियाँ बोलै , साधी ऊपर क्यों मन डोलैंड्ड
बाई बंधया सयल जग , बाई किनहुं न बंधा।
बाइबिहूण ढहिपरै , जोरै कोई न संधिड्ड
- चुणाकर नाथ
कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं से स्वयं उनकी रचनाएँ प्रभावित हैं न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तर्क के निराकरण् के लिए मैं प्रकट कर देना चाहता हूँ कि जलंधार नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे! चौरंगीनाथ गोरखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधारनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणाककरनाथ भी इन्हीं के समकालीन थे1। इसलिए इन लोगों का कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है। कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर, जो रहस्यवाद से सम्बन्धा रखती हैं, बौध्द धर्म के उन सिध्दों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है,जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ। कबीर साहब की बहुत-सी रचनाएँ ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अर्थ प्राय: किये जाते हैं। जैसे-
1. देखिए नागरी प्रचारिणी पत्रिाका भाग 11, अंक 4 में प्रकाशित 'योग-प्रवाह' नामक लेख।
घर घर मुसरी मंगल गावै , कछुवा संख बजावै।
पहिरि चोलना गदहा नाचै , भैंसा भगत करावैड्ड
इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है, किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। बौध्द सिध्दों की भी ऐसी द्वयर्थक अनेक रचनाएँ हैं। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनाएँ हैं, वे सिध्दों की रचनाओं के अनुकरण से लिखी गई हैं। सिध्दों ने योग और ज्ञान सम्बन्धी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् 1931 की सरस्वती के अंक में प्रकाशित चौरासी सिध्द नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय-बोधा के लिए उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ-
“इन सिध्दों की कविताएँ एक विचित्रा आशय की भाषा को लेकर होती हैं। इस भाषा को संध्या भाषा कहते हैं, जिसका अर्थ ऍंधेरे (वाम मार्ग) में तथा उँजाले (ज्ञान मार्ग, निर्गुण) दोनों में लग सके। संध्या भाषा को आजकल के छाया वाद या रहस्यवाद की भाषा समझ सकते हैं।”
“भावना और शब्द-साखी में कबीर से लेकर राधास्वामी तक के सभी सन्त चौरासी सिध्दों के ही वंशज कहे जा सकते हैं। कबीर का प्रभाव जैसे दूसरे संतों पर पड़ा और फिर उन्होंने अपनी अगली पीढ़ी पर जैसे प्रभाव डाला, इसको शृंखलाबध्द करना कठिन नहीं है। परन्तु कबीर का सम्बन्धा सिध्दों से मिलाना उतना आसान नहीं है, यद्यपि भावनाएँ, रहस्योक्तियाँ, उल्टी बोलियों की समानताएँ बहुत स्पष्ट हैं।”
इसी सिलसिले में सिध्दों की रचनाएँ भी देख लीजिए-
मूल
1. निसि अंधारी सुसार चारा।
अमिय भखअ मूषा करअ अहारा।
मार रे जोइया मूषा पवना।
जेण तृटअ अवणा गवणा।
भव विदारअ मूसा रवण अगति।
चंचल मूसा कलियाँ नाश करवाती।
काला मूसा ऊहण बाण।
गअणे उठि चरअ अमण धाण।
तब से मूषा उंचल पाँचल।
सद्गुरु वोहे करिह सुनिच्चल।
जबे मूषा एरचा तूटअ।
भुसुक भणअ तबै बांधान फिटअ।
- भुसुक
छाया
निसि ऍंधियारी सँसारा सँचारा।
अमिय भक्ख मूसा करत अहारा।
मार रे जोगिया मूसा पवना।
जेहिते टूटै अवना गवना।
भव विदार मूसा खनै खाता।
चंचल मूसा करि नाश जाता।
काला मूसा उरधा नवन।
गगने दीठि करै मन बिनु धयान।
तबसो मूसा चंचल वंचल।
सतगुरु बोधो करु सो निहचल।
जबहिं मूसा आचार टूटइ।
भुसुक भनत तब बन्धान पू फाटइ।
मूल
जयि तुज्झे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना।
नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा।
जीवन्ते भेला बिहणि मयेलण अणि।
हण बिनु मासे भुसुक प िर्बंन पइ सहिणि।
माआ जाल पसरयो ऊरे बाधोलि माया हरिणि।
सद गुरु बोहें बूझिे कासूं कहिनि।
- भुसुक
छाया
जो तोहिं भुसुक जाना मारहु पंच जना।
नलिनी बन पइसंते होहिसि एक मना।
जीवत भइल बिहान मरि गइल रजनी।
हाड़ बिनु मासे भुसुक पदम बन पइसयि।
माया जाल पसारे ऊरे बाँधोलि माया हरिणी।
सदगुरु बोधो बूझी कासों कथनी।
- भुसुक
अणिमिषि लोअण चित्ता निरोधो पवन णिरुहइ सिरिगुरु बोहें
पवन बहइ सो निश्चल जब्बें जोइ कालु करइ किरेतब्बें।
छाया
अनिमिष लोचन चित्ता निरोधाइ श्री गुरु बोधो।
पवन बहै सो निश्चल जबै जोगी काल करै का तबै।
- सरहपा
मूल-
आगम बेअ पुराणे पंडिउ मान बहन्ति।
पक्कसिरी फल अलिअ जिमि बाहेरित भ्रमयंति।
अर्थ : आगम वेद पुराण में पंडित अभिमान करते हैं। पके श्री फल के बाहर जैसे भ्रमर भ्रमण करते हैं। करहपा1
कबीर साहब स्वामी रामानन्द के चेले और वैष्णव धार्मावलम्बी बतलाये जातेहैं। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है वे कहते हैं-'कबीर गुरु बनारसी सिक्ख समुन्दर तीर'। उन्होंने वैष्णवत्व का पक्ष लेकर शाक्तों को खरी-खोटी भी सुनाई है।-यथा
मेरे संगी द्वै जणा एक वैष्णव एक राम।
वो है दाता मुक्ति का वो सुमिरावै नाम।
कबीर धानि ते सुन्दरी जिन जाया बैस्नव पूत।
राम सुमिरि निरभय हुआ सब जग गया अऊत।
साकत सुनहा दोनों भाई। एक निंदै एक भौंकत जाई।
किन्तु क्या उनका यह भाव स्थिर रहा? मेरा विचार है, नहीं, वह बराबर बदलता रहा। इसका प्रमाण स्वयं उनकी रचनाएँ हैं। उन्होंने गोरखनाथ की गोष्ठी नामक एक ग्रन्थ की रचना भी की है। वे शेख तक़ी के पास भी जिज्ञासु बनकर जाते थे और ऊँजी के पीर से भी शिक्षा लेते थे। ऐसा करना अनुचित नहीं। ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनेक महात्माओं का सत्संग करना निन्दनीय नहीं-किन्तु यह देखा जाता है कि कबीर साहब कभी वैष्णव हैं, कभी पीर, कभी योगी और कभी सूफी और कभी वेदान्त के अनुरागी। उनका यह बहुरूप श्रध्दालु के लिए भले ही उनकी महत्ता का परिचायक हो, परन्तु एक समीक्षक की दृष्टि इस प्रणाली को संदिग्धा हो कर अवश्य देखेगी। मेरा विचार है कि अपने सिध्दान्त के प्रचार के लिए उन्होंने समय-समय पर उपयुक्त पध्दति ग्रहण की है और जनता के मानस पर अपनी सर्वज्ञता
1. देखिए, सरस्वती, जून सन 1931 का पृ. 715, 717, 718, 719
की धाक जमा कर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का विशेष धयान रखा है। इसीलिए वे अनेक रूप रूपाय हैं। मैंने उनकी रचनाओं का आधार ढूँढ़ने की जो चेष्टा की है, उसका केवल इतना ही उद्देश्य है कि यह निश्चित हो सके कि वास्तव में उनकी रचनाएँ उनके कथनानुसार अभूतपूर्व और अलौकिक हैं या उनका श्रोत किसी पूर्ववर्ती ज्ञान-सरोवर से ही प्रसूत है। 'सरस्वती' में'चौरासी सिध्द' नामक लेख के लेखक बौध्द विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने कबीर साहब की रचनाओं पर सिध्दों की छाप बतलाते हुए यह लिखा है कि “कबीर का सम्बन्धा सिध्दों से मिलाना उतना आसान
नहीं है।” किन्तु मैं समझता हूँ कि यह आसान है, यदि सिध्दों के साथ नाथ-सम्प्रदाय वालों को भी सम्मिलित कर लिया जाय। मैं नहीं कह सकता कि इस बहुत ही स्पष्ट विकास की ओर उनकी दृष्टि क्यों नहीं गई।
महात्मा ज्ञानेश्वर ने अपने ज्ञानेश्वरी नामक ग्रन्थ में अपनी गुरु-परम्परा यह दी है-1. आदिनाथ, 2. मत्स्येन्द्रनाथ 3.गोरखनाथ, 4. गहनी नाथ, 5. निवृत्तिानाथ, 6. ज्ञानेश्वर1 ज्ञानेश्वर के शिष्य थे नामदेव2। उनका समय है 1370 ई. से 1440 ई. तक। इसलिए उनका कबीर साहब से पहले होना निश्चित है। उन्होंने स्वयं अपने मुख से उनको महात्मा माना है। वे लिखते हैं-
“ जागे सुक ऊधाव औ अक्रूर।
हनुमत जागे लै लंगूर। “
संकर जागे चरन सेब।
कलि जागे नामा जयदेव।
सिक्खों के ग्रन्थ साहब में भी उनके कुछ पद्य संग्रहीत हैं। ज्ञानेश्वर जैसे महात्मा से दीक्षित होकर उनकी वैष्णवता कैसी उच्च कोटि की थी और वे कैसे महापुरुष थे, उसे निम्नलिखित शब्द बतलाते हैं-
बदो क्यों न होड़ माधो मोसों।
ठाकुर ते जन जनते ठाकुर खेल परयो है तोसों।
आपन देव देहरा आपन आप लगावै पूजा।
जलते तरँग ते है जल कहन सुनन को दूजा।
आपहि गावै आपहि नाचै आप बजावै तूरा।
कहत नामदेव तू मेरे ठाकुर जन ऊरा तू पूराड्ड
दामिनि दमकि घटा घहरानी बिरह उठे घनघोर।
चित चातक ह्नै दादुर बोलै ओहि बन बोलत मोर।
1. देखिए, हिन्दुस्तानी, जनवरी सन् 1932 के पृ. 32 में डॉक्टर हरि रामचन्द्र दिवेकर एम‑ए‑डी‑लिट‑कालेख।
2. देखिए, मिश्रबन्धाु विनोद, प्रथम भाग का पृ. 223।
प्रीतम को पतिया लिख भेजौं प्रेम प्रीति मसि लाय।
वेगि मिलोजन नामदेव को जनम अकारथ जाय।
हिन्दू पूजै देहरा , मुस्सलमान मसीत।
नामा सोई सेविया , ना देहरा न मसीत।
मेरा विचार है कि कबीर साहब की रचनाएँ नामदेव के प्रभाव से अधिक प्रभावित हैं। फिर यह कहना कि सिध्दों के साथ कबीर की शृंखला मिलाना आसान नहीं, कहाँ तक संगत है। गुरु गोरखनाथ के मानस के साथ अपने मानस को सम्बन्धिात कर कबीर साहब उनकी महत्ता किस प्रकार स्वीकार करते हैं, उसको उनका यह कथन प्रकट करता है-
गोरख भरथरि गोपीचंदा। तामनसों मिलि-करैं अनंदा।
अकल निरंजन सकल सरीरा। तामन सों मिलि रहा कबीरा।
वास्तव बात यह है कि कबीर साहब के लगभग समस्त सिध्दांत और विचार वैष्णव-धर्म और महात्मा गोरखनाथ के ज्ञान-मार्ग और योग मार्ग अथच उनकी परम्परा के महात्माओं की अनुभूतियों पर ही अधिकतर अवलम्बित हैं और उन सिध्दों के विचारों से भी सम्बन्धा रखते हैं, जिनकी चर्चा ऊपर की गई है।
सारांश यह है कि जैसे स्वयं कबीर साहब सामयिकता के अवतार और नवीन धर्म-प्रवर्तन के इच्छुक हैं, वैसे ही उनकी रचनाएँ भी पूर्ववर्ती सिध्द और महात्माओं के भावों और विचारों से ओत-प्रोत हैं। किन्तु उनमें कुछ व्यक्तिगत विलक्षणताएँ अवश्य थीं, जिनका विकास उनकी रचनाओं में भी दृष्टिगत होता है। उनकी इन्हीं विशेषताओं ने उन्हें कुछ लोगों की दृष्टि में निर्गुण धारा का प्र्रवत्ताक बना रखा है। परन्तु यदि सूक्ष्म दृष्टि और विवेचनात्मक बुध्दि से निरीक्षण किया जाय तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिन सिध्दान्तों के कारण उनके सिर पर सन्तमत के प्र्रवत्ताक होने का सेहरा बाँधा जाता है वे सिध्दान्त परम्परागत और नवीनतम ही है। हाँ, उनको जनता के सामने उपस्थित करने में उन्होंने कुछ चमत्कार अवश्य दिखलाया। कबीर साहब के रहस्यवाद को पढ़कर कुछ श्रध्दालु यह कहते हैं कि ईश्वर-विद्या के अद्वितीय मर्मज्ञ थे। वे भी अपने को ऐसा ही समझते हैं। लिखते हैं-
सुर नर मुनि जन औलिया ए सब उरली तीर।
अलह राम की गम नहीं , तहँ घर किया कबीर।
किसी के श्रध्दा विश्वास के विषय में मुझको कुछ वक्तव्य नहीं। कबीर साहब स्वयं अपने विषय में जो कुछ कहते हैं,उसका उद्देश्य क्या था, इस पर मैं बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूँ। इष्ट सिध्दि के लिए वे जो पथ ग्रहण करना उचित समझते थे, ग्रहण कर लेते थे। प्रत्येक धर्म प्र्रवत्ताक में यह बात देखी जाती है। इसलिए इस विषय में अधिक लिखना पिष्टपेषण है,किन्तु यह मैं स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब हिन्दी संसार में रहस्यवाद के प्रधान स्तम्भ हैं। उनका रहस्यवाद कुछ पूर्व महज्जनों की रचनाओं पर आधारित हो, परन्तु उनके द्वारा वह बहुत कुछ पूर्णता को प्राप्त हो गया। उनकी ऐसी रचनाओं में बड़ी ही विलक्षणता और गम्भीरता दृष्टिगत होती है। कुछ पद्य देखिए-
1. ऐसा लो तत ऐसा लो मैं केहि विधि कथौं गँभीरा लो।
बाहर कहूँ तो सत गुरु लाजै भीतर कहूँ तो झूठा लो।
बाहर भीतर सकल निरन्तर गुरु परतापै दीठा लो।
दृष्टि न मुष्टि न अगम अगोचर पुस्तक लखा न जाई लो।
जिन पहचाना तिन भल जाना कहे न कोऊ पतिआई लो।
मीन चले जल मारग जोवै परम तत्तव धौं कैसा लो।
हुपुपबास हूँ ते अति झीना परम तत्तव धौं ऐसा लो।
आकासे उड़ि गयो बिहंगम पाछे खोज न दरसी लो।
कहै कबीर सतगुरु दाया तें बिरला सतपद परसी लो।
2. साधो सतगुरु अलख लखाया जब आप आप दरसाया।
बीज मधय ज्यों बृच्छा दरसै वृच्छा मध्दे छाया।
परमातम में आतम तैसे आतम मध्दे माया।
ज्यों नभ मध्दे सुन्न देखिए सुन्न अंड आकारा।
निह अच्छर ते अच्छर तैसे अच्छर छर बिस्तारा।
ज्यों रवि मध्दे किरन देखिए किरन मधय परकासा।
परमातम में जीव ब्रह्म इमि जीव मधय तिमि साँसा।
स्वाँसा मधये सब्द देखिए अर्थ सब्द के माहीं।
ब्रह्म ते जीव जीव ते मन यों न्यारा मिला सदाहीं।
आपहि बीज वृच्छ अंकूरा आप फूल फल छाया।
आपहिं सूर किरन परकासा आप ब्रह्म जिव माया।
अंडाकार सुन्न नभ आपै स्वाँस सब्द अरु छाया।
निह अच्छर अच्छर छर आपै मन जिउ ब्रह्म समाया।
आतम में परमातम दरसै परमातम में झांई।
झांई में परछांई दरसै लखै कबीरा सांई।
3. जीवन को मरिबो भलो , जे मरि जानै कोय।
मरने पहिले जे मरैं , तो अजरावर होय।
मन मारा ममता मुई , अहं गई सब छूट।
जोगी था सो रम रहा , आसणि रही विभूति।
मरता मरता जगमुआ , औसर मुआ न कोय।
कबिरा ऐसे मर मुआ , बहुरि न मरना होय।
रहस्यवाद की ऐसी सुन्दर रचनाओं के रचयिता होकर भी कहीं-कहीं कबीर साहब ने ऐसी बातें कहीं हैं जो बिलकुल ऊटपटांग और निरर्थक मालूम होती हैं। इस पद को देखिए-
ठगिनी क्या नैना झमकावै।
कबिरा तेरे हाथ न आवै।
कद्दू काटि मृदंग बनाया नीबू काटि मँजीरा।
सात तरोई मंगल गावैं नाचै बालम खीरा।
भैंस पदमिनी आसिक चूहा मेड़क ताल लगावै।
चोला पहिरि गदहिया नाचै ऊँट बिसुनपद गावै।
आम डार चढ़ि कछुआ तोड़ै गिलहरि चुनचुनि लावै।
कहै कबीर सुनो भाई साधो बगुला भोग लगावै।
ऐसे पदों के अनर्गल अर्थ करने वाले मिल जाते हैं। परन्तु उनमें वास्तवता नहीं, धींगा-धींगी होती है। मेरा विचार है उन्होंने ऐसी रचनाएँ जनता को विचित्राता-समुद्र में निमग्न कर अपनी ओर आकर्षित करने ही के लिए की हैं। उनकी उलटवाँसियाँ भी विचित्राताओं से भरी हैं। दो पद्य उनके भी देखिए-
देखौ लोगो घर की सगाई।
माय धारै पितुधिय सँग जाई।
सासु ननद मिलि अदल चलाई।
मादरिया गृह बेटी जाई।
हम बहनोई राम मोर सारा।
हमहिं बाप हरि पुत्र हमारा।
कहै कबीर हरी के बूता।
राम रमैं ते कुकुरी के पूता।
- कबीर बीजक , पृ. 393
देखि देखि जिय अचरज होई।
यह पद बूझै बिरला कोई।
धारती उलटि अकासहिं जाई।
चिंउटी के मुख हस्ति समाई।
बिन पौनेजहँ परबत उड़ै।
जीव जन्तु सब बिरछा बुड़ै।
सूखे सरवर उठै हिलोर।
बिन जल चकवा करै कलोल।
बैठा पंडित पढै पुरान।
बिन देखे का करै बखान।
कह कबीर जो पद को जान।
सोई सन्त सदा परमान।
- कबीर बीजक , पृ. 394
कबीर साहब ने निर्गुण का राग अलापते हुए भी अपनी रचनाओं में सगुणता की धारा बहाई है। कभी वे परमात्मा के सामने स्वामी सेवक के भाव में आते हैं, कभी स्त्राी पुरुष अथवा पुरुष प्रेमी और प्रेमिका के रूप में, कभी ईश्वर को माता-पिता मानकर आप बालक बनते हैं और कभी उसको जगन्नियंता मानकर अपने को एक क्षुद्र जीव स्वीकार करते हैं। इन भावों की उनकी जितनी रचनाएँ हैं, सरस और सुन्दर हैं और उनमें यथेष्ट हृदयग्राहिता है। जनता के सामने कभी वे उपदेशक और शिक्षक के रूप में दिखलाई देते हैं, कभी सुधारक बनकर। मिथ्याचारों का खंडन वे बडे क़टु शब्दों में करते हैं और जिस पर टूट पड़ते हैं उसकी गत बना देते हैं। उनकी यह नाना-रूपता इष्ट-साधान की सहचरी है। उनकी रचनाओं में जहाँ सत्यता की ज्योति मिलती है, वहीं कटुता की पराकाष्ठा भी दृष्टिगत होती है। वास्तव बात यह है कि हिन्दी संसार में उनकी रचनाएँ विचित्रातामयी हैं। उनका शब्द-विन्यास बहुधा असंयत और उद्वेजक है, कहीं-कहीं वह अधिकतर उच्छृंखल है, छन्दों के नियम की रक्षा भी उसमें प्राय: नहीं मिलती। फिर भी उनकी कुछ रचनाओं में वह मन मोहकता, भावुकता, और विचार की प्रांजलता मिलती है जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है।
कबीर साहब के समकालीन कुछ ऐसे सन्त और महात्मा हैं जिनकी चर्चा हुए बिना पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी की न तो सामयिक अवस्था पर पूरा प्रकाश पड़ेगा न साहित्यिक परिवर्तनों पर। अतएव अब मैं कुछ उनके विषय में भी लिखना चाहता हूँ। किन्तु उनके यथार्थ परिचय के लिए यह आवश्यक है कि स्वामी रामानन्द के उस समय के धार्मिक परिवर्तनों और सामाजिक सुधारों से अभिज्ञता प्राप्त कर ली जावे। इसलिए पहले मैं इस महापुरुष के विषय में ही कुछ लिखता हूँ। जिस समय स्वामी शंकराचार्य के अद्वैतवाद ने भारतवर्ष में वैदिक-धर्म का पुनरुज्जीवन किया और जब उसकी विजय-वैजयन्ती हिमालय से कुमारी अन्तरीप तक फहरा रही थी। उस समय केवल ज्ञान मार्ग से संतोष न प्राप्त कर अनेक सन्त-महात्मा एक ऐसी भक्ति-धारा की खोज में थे जो दार्शनिक जीवन को सरस बना सके। निर्गुण ब्रह्म अनुभव गम्य भले ही हो किन्तु वह सर्वसाधारण का बोधागम्य नहीं था। बड़े-बड़े महात्माओं की विचारधारा जिस पंथ में चलकर पद-पद पर कुण्ठित होती थी, उस पथ का पथिक होना साधारण विद्या-बुध्दि के मनुष्य के लिए असम्भव था। आधयात्मिक आनन्द के उपभोग का अधिकारी तत्तवज्ञ ही हो सकता है, अल्पज्ञ नहीं। इसके लिए किसी प्रत्यक्ष आधार वा अवलम्बन का होना आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि संसार की स्वाभाविकता किसी ऐसे आधार का आश्रय ग्रहण करना चाहती है जो उसका जीवन-सहचर हो। समाधि में समाधिस्थ होकर ब्रह्मानन्द सुख का अनुभव करना लोकोत्तार हो, परन्तु उससे वह मनुष्य क्या लाभ उठा सकता है, जो न तो ऐसी साधानाएँ कर सकता है जो सर्वसाधारण के लिए सुलभ हों और न ऐसी सिध्दि प्राप्त कर सकता है जो उसको सांसारिक नाना कष्टों से छुटकारा दे सके। लोक साधारणत: पारमार्थिक नहीं है, वह अधिकतर स्वार्थ ही का दास है। वह सुख का कामुक और कष्टों से निस्तार पाने का अधिक इच्छुक होता है। वह अपनी कामना की पूर्ति के लिए ऐसी साधानाएँ करना चाहता है जो सीधी और सरल हों और जिनमें पद-पद पर जटिलताएँ सामने आकर न खड़ी हो जाएँ। परमात्मा सर्वलोक का स्वामी हो, प्राणी मात्रा का लालन-पालन करता हो, परन्तु उसका इतना ही होना पर्याप्त नहीं। लोक चाहता है कि वह दीनबन्धाु,दु:खभंजन, आनन्दस्वरूप और विपत्तिा में सहायक भी हो। मानवता की इस प्रवृत्तिा को संसार की महान आत्माओं ने प्रत्येक समय समझा है और देशकालानुसार उसके संतोष उत्पादन की चेष्टा भी की है। यदि भारतवर्ष के धार्मिक परिवर्तनों पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो उनमें इस प्रकार के अनेकश: उदाहरण् प्राप्त होंगे। जब स्वामी शंकराचार्य के सर्वोच्च ज्ञान का अधिकारी सामयिक महात्माओं ने देशकालानुसार सर्वसाधारण जनता को नहीं पाया, तो उन्होंने ऐसा मार्ग ग्रहण करने की चेष्टा की जिससे उन प्राणियों का भी यथार्थहित हो सके, जो तत्तवबोधा के उच्च सोपान पर चढ़ने की योग्यता नहीं रखते। इसीलिए निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण ब्रह्म की कल्पना होती आई है और इसी हेतु से एक अनिर्वचनीय शक्ति के स्थान पर ऐसी शक्ति की उद्भावना महज्जन करते आये हैं जो बोधागम्य हो और मानव-जीवन का स्वाभाविक सहचर बन सके। ज्ञान में गहनता है, साथ ही जटिलता भी। भक्ति में सरलता और सहृदयता है। इसीलिए ज्ञान से भक्ति अधिकतर बोधासुलभ है। अपने-अपने स्थान पर दोनों ही का महत्तव है। इसीलिए हिन्दू धर्म में अधिकारी भेद की व्यवस्था है। ज्ञानाश्रयी सिध्दान्त जब व्यावहारिक बनते हैं तो उनको भक्ति को साथ लेना पड़ता है, क्योंकि संसार अधिकतर क्रियामय जीवन का प्रेमिक है। जिन महात्माओं ने इन रहस्यों को समझ कर यथाकाल दोनों की व्यवस्था उचित रूप से की, उन्हीं महात्माओं में स्वामी रामानुज का स्थान है। उन्होंने स्वामी शंकराचार्य के ज्ञान-मार्ग को भक्तिमय बना दिया और उनके अद्वैतवाद को विशिष्टताद्वैत का रूप दिया। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करते हुए भी उसके सगुण रूप को ग्रहण किया और बतलाया कि यदि यह सत्य है कि'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन' तो विश्व को हम ब्रह्म का स्वरूप क्यों न मानें और क्यों न भक्ति से आर्द्र होकर उसकी उचित परिचर्या में लगें? उन्होंने इस विश्वात्मक सत्ता को विष्णु-स्वरूप बतलाया जिसकी सहकारिणी शक्ति लक्ष्मी है, विष्णु त्रिागुणात्मक हैं और उनमें सृजन, पालन और संहार तीनों शक्तिाँ विद्यमान हैं। वे कोटि काम कमनीय और अव्यक्त होने पर भी नील नभोमण्डल-समान श्याम हैं। वे चतुर्भुज अर्थात् चार हाथ से सृष्टिकार्य परायण हैं और अनन्त ज्ञानमय होने के कारण चतुर्वेदजनक हैं। वे सत्यावलम्बी के रक्षक और पापपरायण प्राणियों के शासक हैं। उनकी दीन-वत्सलता जहाँ अलौकिक है वहीं विपत्तिा निवारण उनका स्वाभाविक धर्म। वे शरणागतपालक और पतित जनपावन हैं। उनका स्थान बैकुण्ठ है, जो सर्वदैव अकुण्ठ रहता है और जिसमें वे उन लोगों को स्थान देते हैं जो प्रेम के पावन पथ पर चलने में कुण्ठित नहीं होते। उनकी सहधार्मिणी लोक-विमोहिनी शक्ति रमा है। जो उन्हीं के समान सांसारिक प्रत्येक कार्य में रमणशीला है। परमात्मा के ऐसे सगुण रूप को सांसारिक प्राणियों के सामने लाकर स्वामी रामानुज ने समयानुसार भारतीयजन का जो हित-साधान किया, उसका प्रमाण उनके धर्म की व्यापकता है, जो आजकल भारत वसुंधारा में विस्तृत रूप में व्याप्त है। उनका आविर्भावकाल ग्यारहवीं ईस्वी शताब्दी है। स्वामी रामानन्द उनकी गद्दी के पाँचवें अधिकारी थे। स्वामी रामानन्द ने वैष्णव धर्म को कुछ विशेष नियमों से नियमित बनाया। इसका कारण तात्कालिक समाज था। स्वामी रामानन्द का आविर्भाव-काल चौदहवीं शताब्दी है। इस समय मुसलमान धर्म वर्ध्दनोन्मुख था। मुख्यत: नीच जातियों में उसका प्रचार बड़े वेग से हो रहा था। वैदिक धर्म में समदर्शिता की पर्याप्त शिक्षा होने पर भी कुछ रूढ़ियों के कारण इस भाव का विकास नहीं हो पाता था। इसके विरुध्द मुसलमान पीर वचन-द्वारा ही नहीं, आचरण द्वारा भी यह दिखला रहे थे कि किस प्रकार मनुष्य मात्रा परस्पर भाई हैं। स्वधार्मी होने पर धर्म-क्षेत्र में वे किसी से कोई भिन्नता नहीं रखते थे। स्वामी रामानन्द ने वैष्णव धर्म की इस न्यूनता को समझा और शास्त्राों की उन आज्ञाओं को व्यावहारिक रूप दिया जो इस प्रकार कीथीं-
' शुनी चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: '
' आत्मवत् सर्व भूतेषु य: पश्यति स पण्डित: '
उनके विशाल हृदय ने वैष्णव धर्म को समयानुसार बहुत उदार बनाया और उन बंधानों को दृढ़ता के साथ तोड़ा जो मानव-मात्रा के परस्पर सम्मिलन में बाधाक थे। वे उस समय मुक्त कंठ से यही कथन करते दृष्टिगत होते हैं-
' जाति पांति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई। '
उन्होंने विष्णु के अव्यक्त रूप को व्यक्त रूप दिया और भगवान रामचन्द्र में विष्णु भगवान के समस्त गुणों का आरोप कर उन्हें विष्णु भगवान का अवतार बतलाया। पहले जो विष्णु भगवान कल्पना-क्षेत्र में विराजमान थे, उनको राम रूप में लाकर उन्होंने जिज्ञासुओं के सम्मुख उपस्थित किया और उनके उदार चरित्रों के आधार से मानव जाति को, विशेष कर हिन्दू जाति को, उस लोक धर्म की शिक्षा दी जो काल पाकर उसके लिए संजीवनी शक्ति बन गई। वैष्णव धर्म में जितनी जटिलताएँ थीं, उनको उन्होंने इस प्रकार व्यवहार-सुलभ बनाया कि उसकी ओर लोग बड़े उल्लास के साथ आकर्षित हो गये। उनके हृदय की विशालता देखिए कि जो जातियाँ ठुकराई हुई थीं, उन्हीं में से उन्होंने ऐसे लोगों को चुना जो हिन्दू-संसार-गगन में चमकते तारे बन कर चमके। उन्हीं के आधयात्मिक बल का वह महत्तव है कि जिससे कबीर कबीर बन गये। ये थे कौन?एक जुलाहे, हिन्दू भी नहीं, मुसलमान। रविदास का जन्म चमार के घर में हुआ था। सेन नाई और धान्ना जाट थे। परन्तु स्वामी रामानन्द के प्रभाव से ही आज दिन सन्त समाज में इनको उच्चस्थान प्राप्त है। सिक्खों के ग्रन्थ साहब में जिन सोलह प्रधान भक्तों की बानी संगृहीत है उनमें ये लोग भी हैं। कहा जाता है, उन्होंने अपने बारह शिष्य ऐसी ही जातियों में से चुन लिये जिनकी पतितों में गणना थी। इस पन्द्रहवीं शताब्दी में स्वामी रामानन्द ने ही वह भक्ति श्रोत बहाया जिसमें प्रवाहित होकर ऐसे लोग भी उस स्थान पर पहुँचे जिस स्थान पर पहुँचकर लोग सन्तपद के अधिकारी होते हैं। स्वामी रामानन्द जी के प्रधान शिष्य कबीर साहब की रचनाओं को मैं उपस्थित कर चुका हूँ। अब उनके अन्य शिष्यों की कुछ रचनाएँ भी देखिए-
1. नरहरि चंचल है मति मेरी
कैसे भगति करूँ मैं तेरी।
तू मोहिं देखै हौं तोहिं देखूँ ,
प्रीति परस्पर होई।
तू मोहिं देखे तोहि न देखूँ ,
यह पति सब विधि खोई।
सब घट अन्तर रमसि निरन्तर ,
मैं देखन नहिं जाना।
गुन सब तोर मोर सब अवगुन ,
कृत उपकार न माना।
मैं तैं तोर मोर असमझिसों ,
कैसे करि निस्तारा।
कह रैदास कृष्ण करुणा मय ,
जय जय जगत अधारा।
2. फल कारन फूलै बनराई।
उपजै फल तब पुहुप बिलाई।
राखहिं कारन करम कराई।
उपजै ज्ञान तो करम नसाई।
जल में जैसे तूंबा तिरै।
परिचै पिंड जीव नहिं मरै।
जब लगि नदी न समुद्र समावै।
तब लगि बढ़े हंकारा।
जब मनमिल्यो राम सागर सों ,
तब यह मिटी पुकारा।
- रैदास।
3. एक बूंद जल कारने चातक दुख पावै।
प्रान गये सागर मिलै पुनि काम न आवे।
प्रान जो थाके थिर नहीं कैसे बिरमाओं।
बूड़ि मुये नौका मिलै कहु काहि चढ़ाओंड्ड
मैं नाहीं कछु हौं नहीं कछु आहि न मोरा।
औसर लज्जा राखिलेहु सदना जन तोराड्ड
- सदना।
4. भ्रमत फिरत बहुत जनम बिलाने तनु मनु धानु नहिं धीरे।
लालच बिखु काम लुबधा राता मन बिसरे प्रभु हीरे।
बिखु फल मीठ लगे मन बउरे चार विचार न जान्या।
गुनते प्रीति बढ़ी अन भाँती जनम मरन फिर तान्या।
जुगति जानि नहिं रिदै निवासी जलत जाल जम फंदपरे।
बिखु फल संचि भरे मन ऐसे परम पुरख प्रभु मन बिसरे।
ग्यान प्रवेसु गुरहिंधान दीया धयानु मानु मन एक भये।
प्रेम भगति मानी सुख जान्यात्रिापति अघाने मुकतिभये।
जोति समाय समाने जाकै अछली प्रभु पहिचान्या।
धान्नै धान पाया धारणीधार मिलि जनसंत समान्या।
- धान्ना।
5. धूप , दीप , घृत साजि आरती बारने जाऊँ कमलापती।
मंगला हरि मंगला नित मंगल राजा राम राय को।
उत्ताम दियरा निरमल बाती तुहीं निरंजन कमला पाती।
राम भगति रामानन्दु जानै पूरन परमानंद बखानै।
मदन मूरति भय तारि गुविन्दे। सैन भण्य भजु परमानन्दे।
- सैन
पीपा गागनरौनगढ़ के एक राजा थे। वे भी स्वामी रामानंद के शिष्य थे। एक पद उनका भी देखिए-
1. काया देवा काया देवल काया जंगम जाती।
काया धूप दीप नैवेदा काया पूजौं पाती।
काया बहु ख्रड खोजते नवनिध्दीपाई।
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दोहाई।
जो ब्रह्मण्डे सोई पिंडे जो खोजे सो पावै।
पीपा प्रणवै परमतत्ताु है सतगुरु होय लखावै।
- पीपा
गोविंद गोविंद गोविंद सँग नामदेव मन लीना।
आठ दाम को छीपरो होइयो लाखीना।
बुनना तनना त्याग कै प्रीति चरन कबीरा।
नीचु कुला जोलाहरा भयो गुनिय गहीरा।
रविदास ढोवन्ता ढोर नित जिन त्यागी माया।
परगट होआ साधा सँग हरि दरसन पाया।
सैन नाई बुतकारिया ओहु घर घर सुनिया।
हिरदै बसिया पारब्रह्म भक्ता महिं गनिया।
यहि विधि सुनिकै जाटरो उठि भक्ती लागा।
मिले प्रतक्ख गुसाइयाँ धान्ना बड़ भागा।
- धान्ना
इन रचनाओं पर सामयिकता की छाप तो लगी ही है। परन्तु उनमें आपको स्वामी रामानन्द जी की महान शिक्षाओं का प्रभाव भी विकसित रूप में दृष्टिगत होगा। ये रचनाएँ आपको यह भी बतलाएँगी कि पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा का विकास लगभग एक ही रूप में हुआ। इसके अतिरिक्त इनके देखने से यह भी पता चलेगा कि किस प्रकार इस शताब्दी में निर्गुणवाद और भक्ति रस की धाराएँ बहीं, जो उत्तारवर्ती काल में विविधा रूप में प्रवाहित होकर हिन्दू जाति के सूखते धर्म-भाव के पौधों को हरा-भरा बनाने में समर्थ हुईं। इसी शताब्दी में पंजाब प्रान्त में गुरु नानक देव का आविर्भाव हुआ। आप बेदी खत्री और अपने समय के प्रसिध्द धर्म-प्रचारक थे। कुछ लोगों ने इनको कबीर साहब से प्रभावित बतलाया है। किसी-किसी ने तो उनको इनका शिष्य तक लिख दिया है। किन्तु यह सत्य नहीं है। इस विषय में बहुत वाद-विवाद हो चुका है। मैं उनको यहाँ लिखना बाहुल्य-मात्रा समझता हूँ, किन्तु यह निश्चित बात है कि कबीर साहब का गुरु नानक देव पर कुछ प्रभाव नहीं था। प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कबीर साहब पीर थे और गुरु नानक देव गुरु। वे एक नवीन धर्म का प्रचार करना चाहते थे और ये हिन्दू धर्म के संरक्षण के लिए यत्नवान थे। इस बात के प्रकट करने के लिए ही उन्होंने महात्मा गोरखनाथ के उद्भावित गुरु नाम का अपने नाम के साथ संयोजन किया था। उनके उपरान्त उनकी गद्दी पर दस महापुरुष बैठे। वे दसों गुरु कहलाये। पाँच गद्दी के बाद तो इन गुरुओं में से कई ने हिन्दू धर्म बलिवेदी पर अपने को उत्सर्ग भी किया। जब कबीर साहब ने हिन्दू धर्म याजकों और पंडितों की कुत्सा करने ही में अपना गौरव समझा, उस समय गुरु नानकदेव पंडितों को इन शब्दों में स्मरण करते थे-
स्वामी पंडिता तुमदेहुमती , केहि विधि मिलिए प्रानपती।
गुरु नानकदेव की रचनाओं में वेद शास्त्रा की उतनी ही मर्य्यादा दृष्टिगत होती है जितनी एक हिन्दू की कृति में होनी चाहिए। उसके विरुध्द कबीर साहब उनको उन शब्दों में स्मरण करते हैं जो भद्रता की सीमा को भी उल्लंघन कर जाते हैं। अतएव यह समझना कि गुरु नानकदेव उसी पथ के पथिक थे जिस पथ के पथिक कबीर साहब थे बहुत बड़ी भ्रान्ति है। गुरु नानकदेव का आविर्भाव यदि उस समय पंजाब प्रान्त में न होता तो उस प्रान्त से हिन्दू धर्म का विलोप-साधान पीरों के लिए बहुत आसान हो जाता। गुरु नानकदेव की अधिकांश रचनाएँ पंजाबी में ही हैं। परन्तु प्राय: सब हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने गुरु नानकदेव को हिन्दी का कवि माना है। कारण इसका यह है कि उनके बाद उनकी गद्दी पर नौ गुरु और बैठे। इनमें से पाँच गुरुओं ने जितनी रचनाएँ की हैं, उन सब लोगों ने भी अपनी पदावली में नानक नाम ही दिया है। इसलिए भ्रान्ति से अन्य गुरुओं की रचनाओं को भी गुरु नानक की रचना मान ली गई है। गुरु तेगबहादुर नौवें गुरु थे। वे सत्राहवीं ई. शताब्दी में हुए हैं। उनकी रचनाएँ उस समय की हिन्दी में ही हुई हैं। वे ही अधिक प्रचलित भी हैं। इसीलिए उनकी रचनाओं को गुरु नानकदेव की रचना मान ली गई है, और इसी से उस भ्रान्ति की उत्पत्तिा हुई है जो उनको हिन्दी भाषा का कवि बनाती है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि गुरु नानकदेव के कुछ पद्य अवश्य ऐसी भाषा में लिखे गये हैं जो पन्द्रहवीं शताब्दी की हिन्दी से सादृश्य रखते हैं। परन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी हैं, और उनमें भी पंजाबीपन का रंग कुछ-न-कुछ पाया जाता है। मैं विषय को स्पष्ट करने के लिए उनका एक पद्य पंजाबी भाषा का और दूसरा हिन्दी भाषा का नीचे लिखता हूँ-
1. पवणु गुरुपाणी पिता माता धारति महत्ताु।
दिवस रात दुइदाई दाया खेलै सकल जगत्ताु।
चँगियाइयां बुरियाइयां वाचै धारमु हदूरि।
करनी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि।
जिन्नी नाम धोयाइया गये मसक्कति घालि।
नानक ते मुख उज्जले केती छुट्टी नालि।
2. गुरु परसादी बूझिले तउ होइ निबेरा।
घर घर नाम निरंजना सो ठाकुर मेरा।
बिनु गुरु सबद न छूटिये देखहु बीचारा।
जे लख करम कमावहीं बिनु गुरु ऍंधियारा।
अंधो अकली बाहरे क्या तिन सों कहिये।
बिनु गुरुपंथ न सूझई किस बिधा निरबहिये।
आवत कौ जाता कहैं जाते कौ आया।
परकी कौ अपनी कहैं अपनो नहिं भाया।
मीठे को कड़घआ कहैं कड़घए कौ मीठा।
राते की निन्दा करहिं ऐसा कलि महिं दीठा।
चेरी की सेवा करहिं ठाकुरु नहिं दीसै।
पोखर नीरु बिरोलिये माखनु नहिं रीसै।
इसु पद जो अरथाइ ले सो गुरू हमारा।
नानक चीने आप को सो अपर अपारा।
गुरु नानकदेव की मातृभाषा पंजाबी थी। इसके अतिरिक्त मुख्यत: पंजाब प्रान्त की हिन्दू जनता की जागृति के लिए ही उनको धर्म क्षेत्र में उतरना पड़ा था। इसलिए पंजाबी भाषा में उनकी अधिकांश रचनाओं का होना स्वाभाविक था। परन्तु जिस समय उनका आविर्भाव हुआ था उसकी यह विशेषता देखी जाती है कि उस समय प्रत्येक प्रान्त के हिन्दू धर्म प्रचारक और सुकवि हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो रहे थे। यदि बंगाल प्रान्त के चण्डीदास और बिहार प्रान्त के विद्यापति हिन्दी भाषा को अपनी रचनाओं में स्थान देने के लिए आकर्षित हुए तो महाराष्ट्र प्रान्त में नामदेव जी को भी तात्कालिक हिन्दी भाषा में उत्तामोत्ताम धार्मिक रचनाएँ करते देखा जाता है। ऐसी अवस्था में गुरु नानक देव जी का भी हिन्दी भाषा की ओर आकृष्ट होना आश्चर्यजनक नहीं। उनके इसी भाव का द्योतक उनका हिन्दी भाषा का पद्य है, पहले पद्य में भी, जो पंजाबी भाषा का है,हिन्दी शब्दों का प्रयोग देखा जाता है और उनकी यह प्रणाली उनके हिन्दी भाषा के अनुराग की स्पष्ट सूचक है। उनके बाद उनके जितने उत्ताराधिकारी हुए उनमें यह प्रवृत्तिा उत्तारोत्तार बढ़ती दृष्टिगत होती है। दूसरी, तीसरी और चौथी गद्दियों के गुरुओं की रचनाएँ अधिकांश हिन्दी शब्दों से गर्भित हैं। पाँचवीं गद्दी के अधिकारी गुरु अर्जुन जी की रचनाएँ तो सामयिक हिन्दी भाषा का ही उदाहरण हैं। नौवीं गद्दी के अधिकारी गुरु तेगबहादुर के भजन तो बिलकुल हिन्दी भाषा में ही लिखे गये हैं। उनके पुत्र दसवीं गद्दी के अधिकारी गुरु गोविन्दसिंह ने हिन्दी भाषा में एक विशाल ग्रन्थ ही लिख डाला जो आदिग्रन्थ साहब के ही बराबर है और दशम ग्रन्थ कहलाता है। यथा स्थान इस विषय का वर्णन विशेषरूप से आपको आगे मिलेगा। इस समय मैं कुछ पद्य दूसरी गद्दी से लेकर पाँचवीं गद्दी और नौवीं गद्दी के अधिकारियों के नीचे लिखता हूँ। आप देखें उनमें किस प्रकार उत्तारोत्तार हिन्दी भाषा को अधिक स्थान मिलता गया है।
जासुख तासहु रागियो दुख भी संभालै ओइ।
नानक कहै सियाणिये यों कन्त मिलावा होइड्ड
- गुरु अंगद
तू आपे आप सभु करता कोई दूजाहोयसु औरो कहिये।
हरि आपे बोले आपि बुलावे हरि।
आपे जलि थलि रवि रहिये।
हरि आपे मारे हरि आपे छोडे मनहरि सरणी पड़ि रहिये।
हरि बिनु कोई मारि जीवालि न सक्कै
मन है निचिंद निस्चलु होइ रहिये।
उठंदिया बहंदिया सुतिया सदा हरि नाम धयाइये।
जन नानक गुरु मुख हरि लहिये।
- गुरु अमरदास
हौं क्या सालाहीकिरम जन्तु बव्ी तेरी बडियाई।
तू अगम दयालु अगम्मु है आपि लेहि मिलाई।
मैं तुझ बिन बेला को नहीं , तू अंति सखाई।
जो तेरी सरणागति तिन लेहि छुड़ाई।
नानक बे परवाहु है किसु तिल न तमाई।
संगति संत मिलाये। हरि सरि निरमलि नाये।
निरमलि जलि नाये मैलु गँवाये भये पवित्रा सरीरा।
दुर मति मैल गई भ्रम भागा हौं मैं विनठी पीरा।
नदरि प्रभू सत संगति पाई निज घर होआ बासा।
हरि मंगल रसि रसन रसाये नानक नाम प्रगासा।
- गुरु रामदास जी
गावहु राम के गुण गीत।
नाम जपत परम सुख पाइये आवागवणु मिटै मेरे मीत।
गुण गावत होवत परगास , चरण कमल महँ होय निवास।
सत संगति महँ होइ उधार , नानक भव जल उतरसि पार।
- गुरु अर्जुन जी
प्रानी नारायन सुधि लेह।
छिनु छिनु औधि घटै निसि बासरु वृथा जात है देह।
तरुनापो बिखियन स्यों खोयो बालापन अज्ञाना।
बिरधा भयो अजहूँ नहिं समझै कौन कुमति उरझाना।
मानुस जन्म दियो जेहिं ठाकुर सो तैं क्यों बिसरायो।
मुकति होति नर जाके सुमरे निमख न ताको गायो।
माया को मदु कहा करतु है संग न काहू जाई।
नानक कहत चेतु चिन्तामणि होइ है अन्त सहाई।
- गुरु तेग बहादुर
इसी स्थान पर मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि इस पन्द्रहवीं शताब्दी में जिस निर्गुणवाद धारा की अधिक चर्चा की जाती है, वास्तव में वह धारा उस काल से प्रारम्भ होती है जिस समय स्वामी शंकराचार्य ने वेदान्तवाद का प्रचार किया। उनकी निर्गुण धारा का रूप वास्तविकता की दृष्टि से सर्वोत्ताम है किन्तु वह इतनी उच्च है कि सर्वसाधारण की बोधागम्य नहीं। मैक्समूलर ने एक स्थान पर लिखा है कि ईश्वरी विद्या के विषय में स्वामी शंकराचार्य जितना ऊँचा नहीं उठा जा सकता। गुरु गोरखनाथ जी ने इस निर्गुणवाद की जटिलताओं को बहुत कुछ सरलता का रूप दिया और भगवान शिव की उपासना का प्रचार करके अव्यक्त विषयों को व्यक्त रूप देने की प्रशंसनीय चेष्टा की। उसका विकास ज्ञानदेव और नामदेव की रचनाओं में अधिकतर बोधागम्य रूप में देखा जाता है। पन्द्रहवीं सदी के सन्तमत के प्रचारकों में विशेष कर कबीर साहब की उक्तियों में वह निर्गुणवाद कुछ और स्पष्ट हुआ, किन्तु वह पौराणिक भावों से ओतप्रोत है। पौराणिक धर्म का उत्थान गुप्त सम्राटों के समय में अर्थात् तीसरी और चौथी ईस्वी शताब्दी में हुआ और उत्तारोत्तार वृध्दि पाकर ईस्वी दसवीं शताब्दी में वह प्रबल बन गया था। यही कारण है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में जितने धार्मिक प्रचार हुए वे सब पौराणिक धर्म पर अवलंबित हैं। कबीर साहब के निर्गुणवाद पर भी उसकी छाप लगी हुई है, अन्तर केवल इतना ही है कि उनके निर्गुणवाद पर सूफियों के ईश्वरवाद की भी छाया पड़ी है। वैष्णव धर्म में जैसा निर्गुणवाद है और उसके साथ जैसा सगुणवाद सम्मिलित है कबीर साहब का निर्गुणवाद ब्रह्म-सम्बन्धी सिध्दान्त भी लगभग वैसा ही है। कारण इसका यह है कि उनकी अधिकांश शिक्षाएँ वैष्णव धर्म से प्रभावित हैं और ऐसा होना इसलिए अनिवार्य था कि स्वामी रामानन्द का उन पर बहुत बड़ा प्रभाव था। कबीर साहब का निर्गुण ब्रह्म अनिर्वचनीय ही नहीं है, वह भक्तवत्सल है और पतित पावन भी है। प्रेमातिरेक में वे उसके दास बनते हैं और वह उनका स्वामी; वे उसके पुत्र बनते हैं और वह उनका पिता; वे उसकी प्रेमिका बनते हैं और वह उनका प्रेमी। वे नरक और आवागमन से भीत होकर उसकी शरण में जाते हैं और वह उध्दारक बनकर उनका उध्दार करता है। वे कहते हैं कि वह विपत्तिा में त्राण देता है, भवसागर से पार करता है और अशरण का शरण बनता है और इन बातों को पौराणिक आख्यानों और उदाहरणों द्वारा प्रमाणित करते हैं। जब वे और ऊँचा उठते हैं तो उसको सर्व जगत में व्याप्त पाते हैं और विश्व की विभूतियों में नाना रूपों में उसे विकसित देखकर अलौकिक आनन्द का अनुभव करते हैं। कभी जब आत्मविश्वास का उदय होता है, तब वह आत्मज्ञान अथवा आत्मा ही में परमात्मा को देखने का उद्योग करते हैं और कभी समाधि में बैठकर योग के अनेक साधानों द्वारा ब्रह्मानन्द-सुख-भोगी बनते हैं। कभी मुक्ति की कामना करते हैं, कभी मुक्ति को तुच्छ गिनकर भगवद्भक्ति को ही प्रधानता देते हैं। कभी संकेत और इंगितों द्वारा लोकातीत की अलौकिकता बतलाने में रत देखे जाते हैं, कभी अनिर्वचनीय की अनिर्वचनीयता देख मौनता मंत्रा ग्रहण करना ही समुचित समझते हैं। सारांश यह कि निर्गुण और सगुण के विषय में जो विचार-परम्परा पुराणवादियों और वेदान्तियों की देखी जाती है, पद-पद पर वे उसी का अनुसरण करते दृष्टिगत होते हैं। कोई पुराण ऐसा नहीं है जिसमें परमात्मा का वर्णन इसी रूप में न किया गया हो। पुराण्ों का सद्गुणवाद जैसा प्रबल है वैसा ही निर्गुणवाद भी। वे भी वेदान्त के भावों से प्रभावित हैं और वैष्णव पुराणों में उनका बड़ा ही हृदयग्राही विवेचन है। परन्तु वे जानते हैं कि निर्गुणवाद के तत्तवों को समझाना कतिपय तत्तवज्ञों का ही काम है। इसलिए उनमें सगुणवाद का ही विस्तार है, क्योंकि यह बोधा-सुलभ है। बिना उपासना किये उपासक सिध्दि नहीं पाता। उपासना-सोपान पर चढ़कर ही साधाक उस प्रभु के सामीप्य लाभ का अधिकारी बनता है जो ज्ञान-गिरा-गोतीत है। उपासना के लिए उपास्य की प्रयोजनीयता अविदित नहीं। यदि उपास्य अचिन्तनीय, अव्यक्त, अथवा ज्ञान का विषय नहीं तो उसमें भावों का आरोप नहीं हो सकता। ऐसी अवस्था में भक्ति किसकी होगी? प्रेम किससे किया जायगा और किसके गुणों का मनन चिन्तन करके मनुष्य अपनी आत्मा को उन्नत बना सकेगा। इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर परमात्मा के सगुण स्वरूप की कल्पना है। जो यह समझता है कि बिना सगुणोपासना किये हम परमात्मा के निर्गुण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, वह उसी जिज्ञासु के समान है जो विश्व-नियन्ता का परिचय प्राप्त करना चाहता है किन्तु यह जानता ही नहीं कि विश्व क्या है। पुराण सगुणपथ का पथिक बनाकर निर्गुण की प्राप्ति कराते हैं, किन्तु बड़ी बुध्दिमत्ता और विवेक के साथ। यही कारण है कि मुख से निर्गुणवाद का गीत गाने वाले भी अन्त में पुराणशैली की परिधि के अन्तर्गत हो जाते हैं। चाहे कबीर साहेब हों, अथवा पन्द्रहवीं सदी के दूसरे निर्गुणवादी, उन सबके मार्ग-प्रदर्शक गुप्त या प्रकट रूप से पुराण ही हैं। हम देखते हैं कि निर्गुणवाद का नाद करने वाले जब बिना किसी प्रतीक के अवलम्बित पथ पर चलने में असमर्थ होते हैं तो गुरुदेव ही को ईश्वर स्वरूप मानकर उपासना में अग्रसर होते हैं, यह क्या है? सगुण की उपासना ही तो है। आजकल निर्गुणवादियों में यह प्रवृत्तिा अधिक प्रबल हो गई है। निर्गुणवादियों के एक नवीन संप्रदाय ने तो ईश्वर से मुँह मोड़कर खुल्लमखुल्ला गुरु को ही ईश्वर मान लिया है। चाहे जितना रूप बदला जाय, परन्तु यह भी पौराणिक सिध्दान्तों का ही अनुगमन है, क्योंकि वे कहते हैं-
गुरुर्ब्रह्मा , गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: ,
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:।
पन्द्रहवीं शताब्दी में मुसलमानों का प्रभाव भारतवर्ष पर बहुत पड़ रहा था। उनकी राज्य-सत्ता उस समय तो प्रबल थी ही,उनके धर्मयाजक अथवा पीर भी अपने धर्म के विस्तार में तन, मन से निरत थे। इसलिए हिन्दू जाति पर उनके विचारों और भावों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ रहा था। मुसलमान धर्म अवतारवाद, मूर्ति-पूजा और देववाद का कट्टर विरोधी है, और अपने विचारानुसार एकेश्वरवाद का प्रबल प्रचारक। यही कारण है कि उस समय के कबीर साहब जैसे कुछ धर्म प्रचारकों को निर्गुणवाद का राग अलापते देखा जाता है। क्योंकि समय उनकी अनुकूलता करता था और वे समय की गति पहचानकर स्वधर्म प्रचार में सफलता लाभ करने के कामुक थे। परन्तु सगुणवाद का विरोधी होने पर भी वे कभी सन्तों को ईश्वर का स्वरूप कहते थे और कभी गुरु को। कबीर साहब स्वयं कहते हैं-
निराकार की आरसी साधों ही की देह।
लखा जो चाहै अलख को इनही में लखि लेह।
कबिरा ते नर अंधा हैं गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहिं ठौर।
तीन लोक नौ खंड में गुरु ते बड़ा न कोय।
करता करै न करि सकै गुरु करै सो होय।
यह क्या है? रूपान्तर से सगुणवाद का प्रतिपादन है और प्रच्छन्न रूप से उस उद्देश्य का प्रतिपालन है जिसकी जननी पौराणिकता है।
इस शताब्दी में कुछ और ऐसे कवि हुए हैं जो कबीर साहब के पुत्र या शिष्य हैं, जैसे कमाल भग्गादास, धारमदास और श्रुति गोपाल। इन लोगों की रचनाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी पन्द्रहवीं शताब्दी की हिन्दी रचनाएँ अब तक उपस्थित की गई हैं। विषय भी इन लोगों का धार्मिक ही है। इसलिए इन लोगों की रचनाओं को लेकर कुछ विवेचन करना बाहुल्य मात्रा होगा। चरणदास, दयासागर और जयसागर जैन भी इसी शताब्दी में हुए हैं। परन्तु उनकी रचनाएँ भी लगभग वैसी ही हैं और समय के प्रवाहानुसार धर्म-सम्बन्धी ही हैं। इसलिए उनको भी छोड़ता हूँ। हाँ-इस शताब्दी का एक दामो नामक कवि ऐसा है जिसने सामयिक प्रवाह के प्रतिकूल 'पदमावती' नामक प्रेम कहानी की रचना की है। उसके ग्रंथ की कुछ पंक्तियाँ ये हैं-
सुणौ कथा रसलीन विलास।
योगी मरण (अउर) बनबास।
पदमावती बहुत दुख सहई।
मेलो करि कवि दामो कइर्ह।
इस पद्य की भाषा प्रांजल है और वैसी ही है जैसा स्वरूप पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी को प्राप्त हुआ था। केवल 'सुणौ' शब्द राजस्थानी है जो प्रान्तिक रचना होने के कारण उसमें आ गया।
(2)
सोलहवीं ई. शताब्दी को हम हिन्दी भाषा का स्वर्णयुग कह सकते हैं। इसी शताब्दी के आरम्भ में मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने प्रसिध्द 'पदमावत' नामक ग्रन्थ की रचना की जो अवधी भाषा का आदिम ग्रन्थ है। इसी शताब्दी में हिन्दी-साहित्य गगन के उस सूर्य और चन्द्रमा का उदय हुआ, जिनकी आभा से वह आज तक उद्भासित है। आचार्य केशव, जो हिन्दी साहित्य के भामह और मम्मट हैं, उनका आविर्भाव भी इसी शताब्दी में हुआ और अकबर के राजस्व का वह उल्लेखनीय समय भी, जो मुसलमान साम्राज्य का उच्चतम काल कहा जाता है, इस शताब्दी का ही अधिकांश भाग है। इस शताब्दी में अवधी और ब्रज भाषा का जैसा शृंगार हुआ फिर कभी वैसा गौरव उनको नहीं प्राप्त हुआ। इस शताब्दी के हिन्दी साहित्य के विकास पर प्रकाश डालने के पहले मुझको एक बहुत बड़े धार्मिक परिवर्तन का वर्णन कर देना आवश्यक ज्ञात होता है। क्योंकि, ब्रज-भाषा के उत्थान और उसके बहुप्रान्तव्यापी होने का आधार वही है।
मैं पहले कह चुका हूँ कि किस प्रकार सूफी सम्प्रदाय वाले प्रेम मार्ग का विस्तार मुसलमानों की साम्राज्य-वृध्दि के साथ कर रहे थे और कैसे उनके इन मधुर भावों का प्रभाव भारतीय जनता पर पड़ रहा था। सूफी सम्प्रदाय वाले संसार की समस्त विभूतियों में ईश्वरीय सत्ता का विकास देखते हैं। वे परमात्मा की कल्पना प्रेम स्वरूप के रूप में करते हैं और अपने को उसका प्रेमिक मानकर प्रेम सम्बन्धी भावों को बड़ी ही मधुरता और सरसता से वर्णन करते हैं। उसके सम्मिलन के लिए जो उत्सुकता उनके हृदय में उत्पन्न होती है। उसका बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रा उनकी रचनाओं में अंकित है। उनकी विरह वेदनाएँ भी बहुत ही विमुग्धाकारी और हृदयद्रवीभूत करने वाली हैं। वे जब अपनी उस अवस्था का वर्णन करते हैं जिस समय उनको इस बात का अनुभव होता है कि वे उससे किसी अवस्था विशेष के कारण पृथक हो गये हैं तो उसमें बड़ी मर्म-वेधिनी उक्तियाँ होती हैं, जो मनों को बेतरह अपनी ओर खींचती हैं। उस समय उनके प्रेम-मार्ग के इन बड़े विमोहक भावों ने हिन्दू जनता को बहुत कुछ अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। पर हिन्दुओं के किसी धर्म सम्प्रदाय में ऐसी मधुरतम कल्पनाओं का आविष्कार तब तक नहीं हुआ था, जो सफलता के साथ उनका प्रतिकार कर सके। हिन्दू धर्म का भक्ति-मार्ग उच्च कोटि का है और बहुत ही सरस और मधुर भी है, परन्तु उतना सुलभ नहीं, उसमें कुछ गहनता भी है। वह सर्वसाधारण के लिए उतना मोहक नहीं जितना प्रेम। भक्ति में उच्चता है और वह महत्तामय उच्चकोटि के व्यक्तियों पर ही आधारित है। उसमें विशेषता के साथ त्यागमय धार्मिकता है परन्तु प्रेम में साधारणता है और उसमें सांसारिकता भी पाई जाती है। व्यापक प्रेम या प्रीति की पराकाष्ठा ही भक्ति है। इसीलिए भक्ति से उसमें अधिक व्यावहारिकता है और इस व्यावहारिकता के कारण ही मानव-समाज पर उसका अधिक अधिकार है। प्रेम के आदर्श की न्यूनता हिन्दू संसार में किसी काल में नहीं रही। प्रेम की महत्ता और उसकी लोकप्रियता के आदर्श का अभाव हिन्दू संस्कृति में कभी नहीं हुआ। परन्तु यह समय ऐसा था कि जब उसके व्यापक और महान आदर्शों को ऐसे मधुर और मोहक रूप में उपस्थित करने की आवश्यकता थी, जो सर्वसाधारण् को अपनी ओर आकर्षित कर सके, और सूफी सम्प्रदाय के उन प्रभावों को विफल बनावे जो उसके चारों और अविरामगति से विस्तृत हो रहे थे। मानव सम्प्रदाय में भक्ति-भावना जितनी प्रबल है, उतनी प्रेम भावना नहीं। भगवान रामचन्द्र मर्यादा पुरुषोत्ताम हैं और इसी रूप में वे हिन्दू संसार के सामने आते हैं। उनका कार्यक्षेत्र भी ऐसा है जहाँ धीरता, गम्भीरता, कर्मशीलता, कार्य करती दृष्टिगत होती है। उनके आदर्श उच्च हैं, साथ ही अतीव संयत। या तो वे कर्म्म-क्षेत्र में विचरण करते देखे जाते हैं या धर्म-क्षेत्र में। इसीलिए उनमें मधुर भाव की उपासना पहले नहीं लाई जा सकी जो बाद को गृहीत हुई। सबसे पहले समयानुसार इस ओर मधवाचार्य जी की दृष्टि गई। उन्होंने श्रीमद्भागवत के आधार से भगवान् श्रीकृष्ण की मधुर भावनामय उपासना की नींव डाली। पहले वे स्वामी शंकराचार्य के और रामानुज सम्प्रदाय के सिध्दान्तों ही की ओर आकर्षित थे। परन्तु श्रीमद्भागत की भक्ति-भावना ही उनके हृदय में स्थान पा सकी और उन्होंने दक्षिण प्रान्त में इस प्रकार की उपासना का आजीवन प्रचार किया। इनकी उपासना-पध्दति में भगवान कृष्णचन्द्र प्रेम के महान् आदर्श के रूप में गृहीत हुए हैं और गोपिकाएँ उनकी प्रेमिका के रूप में। जो सम्बन्धा गोपिकाओं का भगवान श्रीकृष्ण के साथ प्रेम के नाते स्थापित होता है, भगवान के साथ भक्त का वही सम्बन्धा वर्णित करके उन्होंने अपनी उपासना-पध्दति ग्रहण की। इसीलिए उनका सिध्दान्त द्वैतवाद कहलाता है। उन्हीं के सिध्दान्तों का प्रचार विष्णुस्वामी और निम्बार्काचार्य ने किया, केवल इतना अन्तर अवश्य हुआ कि गोपियों का स्थान उन्होंने श्रीमती राधिका को दिया। स्वामी बल्लभाचार्य ने इसी उपासना की नींव उत्तार-भारत और गुजरात में बड़ी ही दृढ़ता के साथ डाली और थोड़े परिवर्तन के साथ इस मधुर भावना का प्रसार बड़ी ही सरसता से भारतवर्ष के अनेक भागों में किया। स्वामी बल्लभाचार्य ने बालकृष्ण की उपासना ही को प्रधानता दी है इसीलिए उनका दार्शनिक सिध्दान्त शुध्दाद्वैतवाद कहलाता है। परन्तु जैसा मैंने ऊपर अंकित किया, समय की गति देखकर उनको राधाकृष्ण की युगलमूर्ति की उपासना ही को प्रधानता देनी पड़ी। उस समय यह उपासना पध्दति बहुत अधिक प्रचलित और आद्रित भी हुई। क्योंकि इस प्रणाली में सूफियों के उस प्रेम और प्रेमिक-भाव का उत्तामोत्ताम प्रतिकार था जिसका प्रचार वे उस समय भारत के विभिन्न भागों में तत्परता के साथ कर रहे थे। सूफियों के सम्प्रदाय में परमात्मा प्रेमपात्रा के रूप में देखा जाता है और सूफीभक्त अपने को उसके प्रेमिक के रूप में अंकित करते हैं। यह प्रणाली भारत के लिए इसलिए अधिक उपयोगिनी नहीं सिध्द हो सकती थी जितनी कि स्वामी बल्लभाचार्य की उद्भावित पध्दति। कारण इसका यह है कि पुरुष के प्रति पुरुष के प्रेम में वह स्वारस्य नहीं है जो पुरुष के प्रति स्त्राी के प्रेम में। भारत की यह चिर प्रचलित परंपरा और इस देश का ही आदर्श है कि स्त्रिायाँ पुरुषों पर आसक्त दिखलायी जाती हैं इसलिए श्रीमती राधिका को भगवान कृष्णचन्द्र पर उत्सर्गीकृत-जीवन बनाकर स्वामी वल्लभाचार्य या उनके पहले के आचार्यों ने जिस मर्मज्ञता का परिचय दिया और परमात्मा की जिस उपासना-पध्दति का आदर्श उपस्थित किया वह अभूतपूर्व और अधिकतर भाव-प्रवण है। योरोप का प्रसिध्द विद्वान् न्यूमैन क्या कहता है, उसे सुनिये1 “पुरुषों में तुम कितने ही पौरुष-विकास-सम्पन्न क्यों न हो, उच्चतर आधयात्मिक आनन्द की ओर प्रगति करने के लिए तुम्हारी आत्मा को नारीरूप ही ग्रहण करना होगा।”
भगवान के बालभाव की उपासना की कल्पना बड़ी ही मधुर है, साथ ही सर्वथा नवीन। स्वामी बल्लभाचार्य को छोड़कर यह उपासना पध्दति किसी के धयान में नहीं आई। जो धर्म अवतारवाद का मर्म नहीं समझ सकते, वे बालभाव की उपासना की कल्पना कर भी नहीं सकते। संसार के कुछ धाम्र्मों में परमात्मा को पिता और अपने को पुत्र मानकर उपासना करने की प्रणाली है। पर परमात्मा को बाल स्वरूप मानकर इसी भाव से उसकी उपासना करने की उद्भावना स्वामी वल्लभाचार्य का ही आविष्कार है। उपासना का प्रयोजन यह है कि परमात्मा के अशेष गुणों का मनन और चिन्तन करके तदनुरूप अपने को बनाना, आर्य धर्म का यह सिध्दान्त वाक्य है 'यच्चिन्तति तद्भवति' मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बनता है। पौराणिक धर्म के नाम जपने की बड़ी महिमा है। निर्गुणवादियों में यह सिध्दान्त बहुत व्यापक रूप में गृहीत है।
1. -"If my soul is to go on into high spiritual blessedness, it must become a woman; yes, however, manly thou may be among men."-Newwman.]
उद्देश्य इसका यही है कि बिना नाम के परिचय नहीं होता, और बिना परिचय के गुण-ग्रहण की संभावना नहीं। किन्तु नाम जपने का लक्ष्य भी तादात्म्य और गुण-ग्रहण ही है, अन्यथा उपासना व्यर्थ हो जाती है। इसीलिए भगवद्गीता का यह महावाक्य है, 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तान् तथैव भजाम्यहम्'। मुझको जो जिस रूप में भजता है, मैं उसको उसी रूप में प्राप्त होता हूँ। बालभाव की उपासना का अर्थ है बालकों के समान निरीह, निर्दोष और सरल अवस्था को प्राप्त करना। कहा जाता है, बालक सदैव स्वर्गीय वातावरण में विचरता रहता है, इस कथन का मर्म यह है कि वह समस्त सांसारिक बन्धानों और झगड़ों से मुक्त होता है और उसके भावों में एक स्वर्गीय मधुरता विद्यमान रहती है। बालभाव की उपासना में माधार्ुय्य-भावना की चरम सीमा दृष्टिगत होती है। परन्तु इस अवस्था का प्राप्त करना सहज नहीं। बाल्यावस्था के बाद जो अवस्थाएँ सामने आती हैं,उनको बिलकुल भूल जाना बहुत बड़ी साधाना से सम्बन्धा रखता है। भारतवर्ष में सौ-डेढ़ सौ वर्ष के भीतर अनेक महात्माओं का आविर्भाव हुआ है। उनमें से एक परमहंस रामकृष्ण को कभी बालभाव में मग्न देखा जाता था। परन्तु उनको भी यह अवस्था कुछ काल के लिए ही प्राप्त होती थी। सदैव इस दशा में वे नहीं रह सकते थे। इसी असम्भवता के कारण स्वामी वल्लभाचार्य प्रचारित बालभाव उपासना की पध्दति को व्यापकता नहीं प्राप्त हुई। उनकी प्रेमिका और प्रेमिक भाव की उपासना ही व्यापक रूप से गृहीत हुई और आज भी उसकी मधुरता उसके अधिकारियों को विमुग्धा कर रही है। अद्वैतवाद में साधाक को अपनी सत्ता को विलोप कर देना पड़ता है, क्योंकि द्वैत का भाव उत्पन्न होते ही अद्वैत भाव सुरक्षित नहीं रह सकता। इसीलिए इस मार्ग पर चलना अत्यन्त दुर्लभ है। कोई-कोई सच्चा उच्च कोटि का ज्ञानमार्गी ही उस पध्दति का अधिकारी हो सकता है। भक्ति मार्ग में अपनी सत्ता को सर्वथा लोप करना नहीं पड़ता। परन्तु, मर्यादा पद-पद पर उसकी सहचरी रहती है, क्योंकि भक्ति महत्ता के अभाव में उत्पन्न नहीं होती और महान् पुरुष के साथ मर्यादा का उल्लंघन नहीं हो सकता। इसलिए मानवी सत्ता भक्ति-मार्ग में बन्धानों से मुक्त नहीं होती और अनेक अवस्थाओं में उसकी वांछित स्वतंत्राता में बाधा भी पड़ती रहती है। प्रेम-पथ इन बन्धानों से मुक्त रहता है। उसमें अपनी सत्ता तो बहुत कुछ सुरक्षित रहती ही है उसकी स्वतंत्राता में भी उतनी बाधा नहीं पड़ती। प्रेमिका प्रेम-पात्रा को यथावसर टेढ़ी-मेढ़ी बातें भी कह देती हैं और दिल खोलकर उपालम्भ देने में भी संकुचित नहीं होती। ऐसा वह प्रेमातिरेक के वश में होकर ही करती है। दम्भ अथवा अभिमान से नहीं। यही कारण है कि यह उपासनापध्दति अधिकतर गृहीत हुई और माधुर्य भावना कही गई। आज दिन भारतवर्ष काकौन-सा प्रदेश है, जिसमें वल्लभाचार्य सम्प्रदाय के मन्दिर नहीं और जिसमें राधा-कृष्ण की मूर्ति विराजमान नहीं? रामावत सम्प्रदाय भी इस माधुर्य भाव की उपासना से प्रभावित हुआ और उसमें भी आजकल सखी भाव की सृष्टि होकर यह पध्दति गृहीत हो गईहै।
भगवान कृष्णचन्द्र जैसे विलक्षण प्रेमस्वरूप प्रेमिक हैं। श्रीमती राधिका वैसी ही प्रेम-प्रतिमा। असंख्य ब्रह्माण्ड के अधिप आकाश का जो वर्ण है, वही वर्ण प्रेमावतार श्रीकृष्णचन्द्र का है, जो इस बात का सूचक है कि जो इस रंग में सच्चे जी से रँगा उसने माधुर्य समुद्र में ही प्रवेश किया, आजन्म उसमें ही निमग्न रहा। श्यामायमाना वसुन्धारा में भी वही छटा दृष्टिगत होती है और विश्वविरामदायिनी रजनी में भी वे विश्वरूप हैं, इसलिए सूर्य, शशांक, वद्दि नयन हैं; मयूर-मुकुट-मण्डित, बनमाली, एवं गिरिधार भी हैं। ब्रह्माण्ड की चोटी के धवन्यात्मक स्वर से उनको मुरलिका स्वरित है, जिसको सुन सलिल-प्रवाह रुक जाता है,पवन नर्तन करने लगता है, दिशाएँ प्रफुल्ल हो जाती हैं और वृक्ष का पत्ता-पत्ता तक आनन्द से आन्दोलित होने लगता है। वे लोक ललाम हैं। अतएव कोटिकाम कमनीय हैं, वे सच्चिदानन्द हैं, इसलिए संसार सुख के सर्वस्व हैं, माधुर्यमय विभूति के मूल हैं, एवं लोक-लीलाओं के लोकोत्तार आधार। उन्हीं की तद्गता प्रेमिका और आराधिका श्रीमती राधिका हैं। वे भी उन्हीं के समान लोकोत्तार सुन्दरी और अलौकिक शक्तिशालिनी हैं। उनका संयोगमय जीवन बड़ा ही भावमय, उदात्ता और सहृदय-हृदय-संवेद्य है। उनकी रागात्मिका प्रकृति जितनी ही लोक-रंजिनी है उतनी ही चमत्कारमयी। वे इतनी प्रेमपरायणा हैं कि प्रियतम का क्षणिक वियोग भी सह्य नहीं, किन्तु इतनी आत्मावलंबिनी हैं कि वियोग अवस्था उपस्थित होने पर वे विश्वमात्रा में अपने आराधयदेव की विभूतियों को अवलोकन करती हैं और इस प्रकार अपने उन्मत्ताप्राय हृदय में वह रसधारा बहाती हैं जिसको सुधाधारा से भी सरस कह सकते हैं। उनकी वियोग वेदनाएँ पत्थर को भी द्रवीभूत करती हैं, किन्तु इस सिध्दान्त का अनुभव कराती हैं कि 'प्रेम की पीड़ाएँ बड़ी मधुर होती हैं।'
-(Love's pain is very sweet)
महाप्रभु वल्लभाचार्य का सिध्दान्त इन्हीं युगल मूर्तियों पर अवलम्बित है। इसीलिए वह इतना हृदयग्राही, मनोहर और व्यापक है कि वही विविधा विदेशी भाव-प्रवाह में बहती हुई हिन्दू जनता का प्रधान पोत बना। उनके इस लोक-मोहक सिध्दान्त के मूर्तिमन्त अवतार चैतन्य देव थे। यह भी हिन्दू जनता का सौभाग्य है कि वे भी उसी समय में अवतीर्ण हुए और अपने आचरणों द्वारा उन्होंने ऐसा आदर्श उपस्थित किया, जिससे इस युगल-मूर्ति के प्रेम प्रवाह में बंगाल प्रान्त निमग्न हो गया। उनके विषय में बंगाल प्रान्त के प्रसिध्द विद्वान् और प्रतिष्ठित लेखक दिनेशचन्द्र सेन बी. ए. क्या कहते हैं, सुनिये-
“यदि चैतन्यदेव न जन्म लेते तो श्रीराधा का जलद-जाल को देखकर नेत्रों से अश्रु बहाना, कृष्ण का कोमल अंग समझ कर कुसुमलता का आलिंगन करना,टकटकी बाँधाकर मयूर-मयूरी के कण्ठ को देखते रह जाना, और नव-परिचय का सुमधुर भावावेश
कवि की कल्पना बन जाती एवं भाव के उच्छ्वास से उत्पन्न हुई उनकी विभ्रममय आत्मविस्मृति आजकल के असरस युग में कवि-कल्पना कही जाकर उपेक्षित होती। किन्तु चैतन्यदेव ने श्रीमद्भागवत और वैष्णव गीतों की सत्यता प्रमाण्0श्निात कर दी। उन्होंने दिखलाया कि यह विराट् शास्त्रा भक्ति की मित्तिा पर, नयनों के अश्रु पर, और चित्ता की प्रीति पर अचल भाव से खड़ा है। इस शास्त्रा के शोभा सर्वस्व पूर्वराग, विरह, सम्भोग, मिलन इत्यादि से सम्बन्धा रखने वाली जितनी ललित लीलाओं की सरस धाराएँ वही हैं, वे कल्पित नहीं हैं। उनका आस्वादन हुआ है और वे आस्वादन योग्य हैं। प्रेम की अद्भुत स्फूर्ति से चैतन्य देव की देह कदम्ब पुष्प के समान रोमाि×चत बनती, उन्हें समुद्र की लहरें यमुना की लहरें जान पड़तीं, चटक पर्वत गोवर्ध्दन प्रतीत होता, और उनके लिए पृथ्वी कृष्णमय हो जाती। इसी अपूर्व भक्ति और प्रेम की सामग्री के आधार से श्रीमती राधिका सुन्दरी सृष्ट हुई हैं। उनके विरहजन्य कष्ट की एक कणिका धारण करे, अथवा उनके सुख की एक लहरी का अनुभव कर सके, इस प्रकार का नारी-चरित्रा पृथ्वी तल के काव्योद्यान में नहीं पाया जाता”। 1अब तक इस विषय में जो कुछ लिखा गया उससे यह सिध्द होता है कि सोलहवीं शताब्दी में महाप्रभु वल्लभाचार्य ने कृष्ण-प्रेम की जो सरस धारा बहाई वह समयोपयोगी थी और उसका उस काल और उसके बाद के हिन्दी साहित्य पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।
(3)
इस शताब्दी में जिस प्रकार एक नवीन धर्म का प्रवाह प्रवाहित होकर हिन्दू-जाति की धार्मिक प्रवृत्तिा में एक अभिनव स्फूर्ति उत्पन्न करने का साधान हुआ। उसी प्रकार हिन्दी भाषा सम्बन्धी साहित्य में ऐसी दो मुग्धाकारी मूत्तिायाँ भी सामने आईं, जो उसको बहुत बड़ी विशेषता प्रदान करने में समर्थ हुईं। वे दोर् मूत्तिायाँ ब्रजभाषा और अवधी की हैं। इन दोनों उपभाषाओं में जैसा सुन्दर और उच्चकोटि का साहित्य इस शताब्दी में विरचित हुआ फिर अब तक वैसा साहित्य हिन्दू-संसार सर्वसाधारण के सामने उपस्थित नहीं कर सका। इसलिए इस काल के कविगण की चर्चा करने के पहले यह उचित ज्ञात होता है कि इन उपभाषाओं की विशेषता पर कुछ प्रकाश डाला जाये, जिससे इनमें हुई रचनाओं की महत्ता और स्वाभाविकता स्पष्टतया बतलायी जा सके। इस विचार को सामने रखकर अब मैं इनकी विशेष प्रणालियों को यहाँ उपस्थित करता हूँ।
अवधी और ब्रजभाषा की कुछ विशेषताएँ तो ऐसी हैं जो दोनों ही में समान हैं। इसलिए मैं पहले उन्हीं की चर्चा करता हूँ,बाद में उनकी भिन्नताएँ भी बतलाऊँगा। इन दोनों भाषाओं में प्राकृत भाषा के समान संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिकतर
1. देखिए, बंग भाषा और साहित्य का पृ. 243, 244।
नहीं देखा जाता। ये दोनों अर्ध्दतत्सम विशेष कर तद्भव शब्दों ही पर अवलम्बित हैं। सुख, मन, धान जैसे थोड़े से संस्कृत के तत्सम शब्द ही इनमें पाये जाते हैं। स्वरों में ऋ िंऔर लृ लृ का प्रयोग होता ही नहीं। ऋ के स्थान पर रि का ही प्रयोग प्राय: मिलता है। इनमें ऋतु और ऋजु रितु और रिजु बन जाते हैं। हाँ! कृपा जैसे शब्दों में संयुक्त ऋ का व्यवहार अवश्य देखा जाता है। इन दोनों में एक प्रकार से 'श', 'ण', और 'क्ष' का अभाव है। क्रमश: उनके सथान पर स, न, और छ लिखा जाता है। केवल 'श्री' में शकार का उच्चारण सुरक्षित रहता है। ष का प्रयोग होता है, पर पढ़ा वह ख जाता है। युक्त विकर्ष इनका प्रधान गुण है। अर्थात् संयुक्त वर्णों को ये अधिकतर सस्वर कर लेती हैं, जैसे सर्व को सरब, गर्व को गरब, कर्म को करम, धर्म को धारम, स्नेह को सनेह इत्यादि। ऊधर्वगामी रेफ या रकार अवश्य सस्वर हो जाता है, परन्तु जो रकार ऊधर्वगामी नहीं पाद लग्न होता है वह प्राय: संयुक्त रूप ही में देखा जाता है, विशेष कर वह जो आदि अक्षर के साथ सम्मिलित होता है, जैसे क्रम इत्यादि। ऐसे ही कोई-कोई संयुक्त वर्णसस्वर नहीं होता जैसे अस्त का स। यह देखा जाता है कि संयुक्त वर्ण को जहाँ सस्वर करने से शब्दार्थ भ्रामक हो जाता है वहाँ वह सुरक्षित रह जाता है जैसे यदि क्रम को करम और अस्त को असत लिख दिया जाय तो जिस अर्थ में उनका प्रयोग होता है उस अर्थ की उपलब्धिा दुस्तर हो जाती है। दोनों में जितने हलन्त वर्ण संस्कृत के आते हैं, वे सब सस्वर हो जाते हैं, जैसे वरन् का न् इत्यादि। व्यंजनों का प्रत्येक अनुनासिक अथवा पंचम वर्ण दोनों ही में अनुस्वार बन जाता है जैसे अ(, कल(, प(ज, इत्यादि को क्रमश: अंक, कलंक पंकज लिखा जायगा। इसी प्रकार चझल, सझय,किझित इत्यादि क्रमश: चंचल, संचय और किंचित हो जाएँगे। कण्टक, खंडन, मण्डन, पण्डित का रूप क्रमश: कंटक, खंडन,मंडन, पंडित होगा। आनन्द, अन्त और सन्त का रूप क्रमश: आनंद, अंत और संत हो जायगा और सम्पत्तिा, दम्पती, कम्पित इत्यादि क्रमश: संपत्तिा, दंपती और कंपित बन जायँगे। प्राकृत के कुछ प्राचीन शब्द ऐसे हैं जो दोनों में समान रूप से गृहीत हैं जैसे नाह, लोयन, सायर इत्यादि। कुछ शब्दों के मधय का 'व', 'औ', से, और 'य', 'ऐ' से प्राय: बदल जाता है, जैसे पवन का पौन, भवन का भौन, रवन का रौन इत्यादि और नयन का नैन, बयन का बैन, सयन का सैन इत्यादि। परन्तु विकल्प से तत्सम रूप भी कहीं-कहीं वाक्य के स्वारस्य पर दृष्टि रखकर लिख दिया जाता है। अपभ्रंश के प्रथमा, द्वितीया और षष्ठी विभक्तियों का लोप प्राय: देखा जाता है। अवधी और ब्रजभाषा में इनका तो लोप होता ही है, सप्तमी विभक्ति का लोप भी होता है यथावसर अन्य विभक्तियों का भी। अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया के एकवचन में प्राय: उकार का संयोग प्रातिपदिक शब्दों के अंतिम अक्षर में देखा जाता है। अवधी और ब्रजभाषा में भी यह प्रणाली गृहीत है। कभी-कभी विशेषण और अव्ययों में भी वह दिखलाई पड़ता है। गुरु को लघु और लघु को गुरु आवश्यकतानुसार दोनों में कर दिया जाता है। पूर्व कालिक क्रिया बनाने के समय धातु का चिद्द 'ना' दूर करके उसके बाद वाले वर्ण में इकार का प्रयोग दोनों करती हैं, जैसे 'करि', 'धारि', 'सुनि'इत्यादि। यह इकार तुकान्त में दीर्घ भी हो जाता है। ब्रजभाषा में बहुवचन के लिए न का प्रयोग होता है। जैसे 'घोरा' का'घोरान', और 'छोरा' का 'छोरान', परन्तु दूसरा रूप 'घोरन' और 'छोरन' भी बनता है। अवधी में केवल दूसरा ही रूप होता है। गोस्वामी जी लिखते हैं-'तुरत सकल लोगन पँह जाहू', पुरवासिन देखे दोउ भाई ' हरिभक्तन' देखेउ दोउ भ्राता। परन्तु जायसी को न के स्थान पर न्ह का प्रयोग ही बहुधा करते देखा जाता है। प्रकृति के साथ विभक्ति मिलाकर लिखने की प्रणाली दोनों भाषाओं में समान रूप से पाई जाती है। ब्रजभाषा का पुराना रूप 'रामहि', 'बनहि', 'घरहि' और नये 'रामै', 'बनै', 'घरै' इसके प्रमाण हैं। अवधी में भी यह बात देखी जाती है, जैसे 'घरे जात बाटी' का 'घरे', 'नैहरे जोय' 1का नैहरे। 'जाना', 'होना' के भूतकाल के रूप 'गवा' और भवा में से 'व' निकालने पर जैसे अवधी में 'गा' 'भा' रूप बनते हैं वैसे ही ब्रजभाषा में भी गयो,भयो, के 'य' को हटाकर 'गो' 'भो' बनाया जाता है जो बहुवचन में 'गे' 'भे' हो जाता है। ब्रजभाषा के करण का चिद्द 'ते' और अवधी के करण का चिद्द 'से' भूतकालिक कृदन्त में ही लगते हैं, जैसे 'किये ते' और 'किये से' जिनका अर्थ है 'करने से'। ब्रजभाषा और अवधी दोनों में कृदन्त का रूप समान अर्थात् लघ्वन्त होता है, जैसे 'गावत', 'खात', अलसात, 'जम्हात'इत्यादि। अन्तर इतना ही है कि ब्रजभाषा में 'गावतो', 'अलसातो' इत्यादि भी लिख सकते हैं। ब्रजभाषा में धातु के अन्त में'नो' होता है जैसे 'करनो' 'कहनो' आदि; दूसरे के अन्त में 'न' पाया जाता है जैसे 'लेन' 'देन' इत्यादि और तीसरे के अन्त में'बो' होता है, जैसे 'दैबो' 'लैबो'। देना लेना के दीबो, लीबो भी रूप बनते हैं। इन तीनों रूपों में से पहला रूप कारक चिद्द-ग्राही नहीं होता। शेष दो में कारक चिद्द लगते हैं, जैसे लेन को, देन को, लैबे को, दैबे को इत्यादि। अवधी में साधारण क्रिया के अन्त में केवल 'ब' रहता है, जैसे 'आउब' 'जाब' 'करब' इत्यादि। मधयम पुरुष का विधि 'ब', में 'ई' मिलाकर ब्रज के दक्षिण भाग में बुन्देलखंड तक बोलते हैं, जैसे 'आयबी' 'करबी' इत्यादि। यह ब्रजभाषा का व्यापक प्रयोग है।
अब मैं ब्रजभाषा और अवधी के उन प्रयोगों को बतलाता हूँ जिनमें भिन्नता है। ब्रजभाषा में भूतकाल की सकर्मक क्रिया के कत्तर् के साथ 'ने' का चिद्द आता है। हाँ, यह अवश्य है कि इस भाषा के कुछ कवियों ने ही इसका प्रयोग कदाचित किया है। सूरदासादि महाकवियों ने प्राय: ऐसा प्रयोग नहीं किया। अवधी में 'ने' का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता। बचन के सम्बन्धा में यह देखा जाता है कि ब्रजभाषा में एकवचन का बहुवचन सभी अवस्थाओं में होता है, जैसे 'लड़का' का 'लड़के' अलि का अलियाँ इत्यादि। अवधी में एकवचन का बहुवचन कारक चिद्द लगने पर
1. बन में अहिर नैहरे जोय। जल में केवट केहुक न होय।
ही होता है। ब्रजभाषा में भविष्यकाल की क्रिया केवल तिङ्न्त ही नहीं होती, उसमें खड़ी बोली के समान 'ग' का व्यवहार भी होता है। जैसे, 'गावैगो' इत्यादि। परन्तु अवधी में 'करिहइ', 'कहिहइ' आदि तिड्न्त रूप ही बनता है। अवधी इकार-बहुला और ब्रजभाषा यकार-बहुला है। पूर्वकालिक क्रिया का अवधी रूप 'उठाइ', 'लगाइ', 'बनाइ', 'होइ', 'रोइ', इत्यादि होगा। किन्तु ब्रजभाषा का रूप 'उठाय', 'लगाइ', 'लगाय', 'बनाय', 'होय', रोय आदि बनेगा। इसी प्रकार अवधी का 'करिहइ', 'चलिहइ', 'होइहइ'ब्रजभाषा में 'करिहय', 'चलिहय', 'होइहय' हो जायगा। परन्तु अन्तर यह होता है कि लिखने अथवा व्यवहार के समय ब्रजभाषा में 'हय', 'है' हो जाता है। इसलिए उसको 'करिहै', 'चलिहै', 'होयहै' इत्यादि लिखते हैं। इसी प्रकार अवधी का 'इहाँ' ब्रजभाषा में'यहाँ' बन जाता है। अवधी का 'उ' ब्रजभाषा में 'व' हो जाता है जैसे 'उहाँ' का वहाँ और 'हुऑं' का 'ह्नाँ', ब्रजभाषा के शब्द प्राय: खड़ी बोली के समान दीर्घान्त होते हैं। खड़ी बोली की ऐसी पुलिú संज्ञाएँ, जो कि आकारान्त हैं, ब्रजभाषा में ओकारान्त बन जाती हैं। विशेषण एवं सम्बन्धा कारक के सर्वनाम भी इसी रूप में दृष्टिगत होते हैं। जैसे 'रगरो', 'झगरो', 'छोरो', 'थोरो', 'साँवरो', 'गोरो', 'कैसो', 'जैसो', 'तैसो', 'बड़ो', 'छोटो', 'हमारो', 'तुम्हारो', 'आपनो' इत्यादि इसी प्रकार आकारान्त साधारण भूत कालिक कृदन्त क्रियाएँ भी ओकारान्त बनती हैं, जैसे 'आयो', 'दीबो', 'लीबो' इत्यादि। पर अवधी के शब्द अधिकतर लघ्वन्त या अकारान्त होते हैं जिससे लिंग भेद का प्रपंच कम होता है जैसे, 'अस', 'जस', 'तस', 'छोट', 'बड़', 'थोड़', 'गहिर', 'साँवर' 'गोर', 'ऊँच', 'नीच', 'हमार', 'तोहार' इत्यादि। 'मोट', 'दूबर', 'पातर' इत्यादि विशेषण और आपन, मोर, तोर, सर्वनाम एवं 'केर', 'सन', तथा 'कहँ', 'महँ' कारक के चिद्द भी इसके प्रमाण हैं। अवधी में साधारण क्रिया का रूप भी प्राय: लघ्वन्त ही होता है जैसे 'करब', 'धारब', 'हँसब', 'बोलब', इत्यादि। अवधी के 'हियाँ', 'सियार', 'कियारी', 'बियाह', 'बियाज', 'नियाव', 'पियास'आदि शब्द ब्रजभाषा में 'ह्याँ', 'स्यार', 'क्यारी', 'ब्याह', 'ब्याज', 'न्याव', 'प्यास', आदि बन जाते हैं। अर्थात् ऐसे शब्दों के आदि वर्ण का इकार स्वर लोप हो जाता है और वह हलन्त होकर परवर्ण में मिल जाता है। ऐसा अधिकांश उसी शब्द में होता है जिसके मधय में 'या' होता है। 'उ' के पश्चात् 'आ' का उच्चारण भी ब्रजभाषा के अनुकूल नहीं है। अवधी भाषा का 'दुआर' और'कुँआर' ब्रजभाषा में 'द्वार' और 'क्वार' अथवा 'क्वारो' बन जाता है। 'ऐ' और 'औ' का उच्चारण अवधी में 'अइ' और 'अउ' के समान होता है, जैसे 'अउर', 'अइसा', 'कउआ', 'हउआ'। परन्तु ब्रजभाषा में उसका उच्चारण प्राय: ऐ और 'औ' के समान होता है, जैसे 'ऐसा', 'कन्हैया', और 'कौआ' इत्यादि। ब्रजभाषा और अवधी दोनों में वर्तमानकाल और भविष्यकाल के तिङन्त रूप भी मिलते हैं और उनमें लिंग भेद नहीं देखा जाता। किन्तु ब्रजभाषा के वर्तमान कालिक क्रिया के रूप में यह विशेष बात पाई जाती है कि उनमें इस प्रकार की क्रियाएँ 'होना' धातु के रूप के साथ बोली जाती हैं। 'पढ़ना' क्रिया का रूप उत्ताम पुरुष में'पढ़ै हौं', या 'पढ़ईँ हूँ', मधयम पुरुष में 'पढ़ो हो' और अन्य पुरुष में 'पढै है' होगा। अवधी में भी इसी प्रकार का प्रयोग होता है। गोस्वामी जी लिखते हैं-
' गहै घ्राण बिनु बास अशेषा '
' पंगु चढ़ै गिरवर गहन '
परन्तु भविष्य काल के तिङन्त रूप अवधी और ब्रजभाषा में एक ही प्रकार के होंगे। अवधी में होगा 'करिहइ', 'होइहइ'और ब्रजभाषा में होगा करिहइ = करिहै, होइहय = होयहै या ह्नै है। अवधी के उत्ताम पुरुष में होगा 'खइहउँ', किन्तु ब्रजभाषा में होगा 'खयहौं = खैहों। अन्तर केवल यही होगा कि जहाँ अवधी में 'इ' का प्रयोग होगा वहाँ ब्रजभाषा में य का। पहले सर्वनाम में जब कारक-चिद्द लगाया जाता था तब अवधी और ब्रजभाषा दोनों में 'हि' का प्रयोग कारक के पहले होता था। परन्तु अब दोनों में 'हि' को स्थान नहीं मिलता है। जैसे अवधी 'केहिकर' और 'जेहिकर', 'केकर' और 'जेकर' बन गया है,उसी प्रकार ब्रजभाषा का 'काहि को' 'जाहि को' अब 'काको', 'जाको' बोला जाता है। ब्रजभाषा में 'आवहिं', 'जाहिं' का प्रयोग भी मिलता है और उसके दूसरे रूप 'आवैं,' 'जायँ' का भी। कुछ लोगों का विचार है कि पहला रूप प्राचीन है और दूसरा आधुनिक। इसी प्रकार 'इमि', 'जिमि', 'तिमि' के स्थान पर 'यों', 'ज्यों', 'त्यों' का व्यवहार भी देखा जाता है। इनमें भी पहले रूप को प्राचीन और दूसरे को आधुनिक समझते हैं। परन्तु अब तक दोनों रूप ही गृहीत हैं, कुछ लोग आधुनिक काल में दूसरे प्रयोगों को ही अच्छा समझते हैं। कुछ भाषा मर्मज्ञ कहते हैं कि ब्रज की बोल-चाल की भाषा में केवल सर्वनाम के कर्म कारक में'ही' कुछ रह गया है जैसे 'जाहि', 'ताहि' या जिन्हैं, तिन्हैं आदि में। परन्तु दिन-दिन उसका लोप हो रहा है और अब 'जाहि', 'वाहि', के स्थान पर 'जाय' 'वाय' बोलना ही पसंद किया जाता है। किन्तु यह मैं कहूँगा कि 'जाय' 'वाय' आदि को बोलचाल में भले ही स्थान मिल गया हो, पर कविता में अब तक 'जाहि' 'वाहि' का अधिकतर प्रयोग है।
अवधी और ब्रजभाषा की समानता और विशेषताओं के विषय में मैंने अब तक जितना लिखा है वह पर्याप्त नहीं कहा जा सकता, परन्तु अधिकांश ज्ञातव्य बातें मैंने लिख दी हैं। अवधी और ब्रजभाषा के कवियों और महाकवियों की भाषा का परिचय प्राप्त करने और उनके भाषाधिकार का ज्ञान लाभ करने में जो विवेचना की गई है, मैं समझता हूँ उसमें वह कम सहायक न होगी। इसलिए अब मैं प्रकृत विषय की ओर प्रवृत्ता होता हूँ।
(4)
इस शताब्दी के आरम्भ में सबसे पहले जिस सहृदय कवि पर दृष्टि पड़ती है वह पर्िंवत के रचयिता मलिक मुहम्मद जायसी हैं। यह सूफी कवि थे और सूफी सम्प्रदाय के भावों को उत्तामता के साथ जनता के सामने लाने के लिए ही उन्होंने अपने इस प्रसिध्द ग्रन्थ की रचना की है। जिन्होंने इस ग्रन्थ को आद्योपान्त पढ़ा है, वे समझ सकते हैं कि स्थान-स्थान पर उन्होंने किस प्रकार और किस सुन्दरता से सूफी भावों का प्रदर्शन इसमें किया है।
इनके ग्रन्थ के देखने से पाया जाता है कि इनके पहले 'सपनावती' 'मुगधावती', 'मृगावती', 'मधुमालती' और 'प्रेमावती'नामक ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी। इनमें से मृगावती और मधुमालती नामक गन्थ प्राप्त हो चुके हैं। शेष-ग्रन्थों का पता अब तक नहीं चला। 'मृगावती' की रचना कुतबन ने की है और मधुमालती की मंझन नामक कवि ने। इन दोनों का समय पन्द्रहवीं शताब्दी का अन्तिम काल ज्ञात होता है। ये दोनों सूफी कवि थे और इन्होंने भी अपने ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर अपने सम्प्रदाय के सिध्दान्तों का निरूपण बड़ी सरलता के साथ किया है। इन सूफी कवियों में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो लगभग सबमें पाई जाती हैं। पहली बात यह कि सब के ग्रन्थों की भाषा प्राय: अवधी है। सभी ने हिन्दी छन्दों को ही लिया है, और दोहा-चौपाई में ही अपनी रचनाएँ की हैं। प्रेम-कहानी ही का कथन उनका उद्देश्य होता है, क्योंकि उसी के आधार से संयोग, वियोग और प्रेम के रहस्यों का निरूपण वे यथाशक्ति करते हैं, इस प्रेम का नायक और नायिका अधिकांश कोई उच्च कुल का हिन्दू प्राय: कोई राजा या रानी होती है। इन सुकवियों की विशेषता यह है कि वे सद्भाव के साथ अपने ग्रन्थ की रचना करते देखे जाते हैं, कटुता बिलकुल नहीं आने देते। वर्णन में इतनी आत्मीयता होती है कि उनके पढ़ने से यह नहीं ज्ञात होता कि किसी दुर्भावना के वश होकर इनकी रचना की गयी है, या किसी विधार्मी या विजातीय की लेखनी से वह प्रसूत है। प्रेम-मार्गी होने के कारण वे प्रेम मार्ग का निर्वाह ही अपनी रचनाओं में करते हैं और सूफी मत की उदारता पर आरूढ़ होकर उसमें ऐसी आकर्षिणी शक्ति उत्पन्न करते हें जो अन्य लोगों के मानस पर बहुत कुछ प्रभाव डालने में समर्थ होती है। मलिक मुहम्मद जायसी इन सब कवियों में श्रेष्ठ हैं। और उनकी कृतियाँ इस प्रकार के सब कवियों की रचनाओं में विशेषता और उच्चता रखती हैं।
जायसी बड़े सहृदय, कवित्व-शक्ति-सम्पन्न कवि थे। प्रतिभा भी उनकी विलक्षण थी, साथ ही धार्म्मिक कट्टरता उनमें नहीं पायी जाती। वे अपने पीर, पैगम्बर और धर्मगुरु की प्रशंसा करते हैं और यह स्वाभाविकता है, विशेषता उनकी यह है कि वे अन्य धर्म वालों के प्रति उदार हैं और उनको भी आदर की दृष्टि से देखते हैं। उनका हिन्दू-धर्म का ज्ञान भी विस्तृत है। उसके भावों को बड़ी ही मार्मिकता से ग्रहण करते हैं। पात्रों के चरित्रा-चित्राण् में उनकी इतनी तन्मयता मिलती है जो यह प्रतीति उत्पन्न करती है कि वे उस समय सर्वथा उन्हीं के भावों में लीन हो गये हैं। इन कवियों की भाषा अधिकतर साफ-सुथरी है और सरसता उसमें पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है।
पहले कुतबन की रचना ही देखिए। वे लिखते हैं-
साहु हुसेन अहै बड़ राजा , छत्रासिंहासन उनको छाजा।
पंडित औ वुधिवंत सयाना , पढ़ै पुरान अरथ सब जाना।
धारम जुधिष्ठिर उनको छाजा , हमसिरछाँह कियो जगराजा।
दानदेह और गनत न आवै , बलिऔ करन न सरवरि पावै।
नायक के स्वर्गवास हो जाने पर नायिकाओं की दशा का वर्णन वे करते हैं-
रुक्मिनि पुनि वैसहिं मरि गयी , कुलवंती सतसों सति भई।
बाहर वह भीतर वह होई , घर बाहर को रहै न जोई।
विधिकर चरित न जानइ आनू , जो सिरजासो जाहि नियानू।
उर्दू की शाइरी में आप देखेेंगे कि उसके कवि फ़ारस की सभ्यता के ही भक्त हैं। वे जब प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हैं तो फ़ारस के ही दृश्यों को सामने लाते हैं। साक़ी व पैमाना बुलबुल व क़ुमरी, सरो व शमसाद, शमा व फ़ानूस, जबांनाने चमन व उरूसाने गुलशन नरगिस व सुम्बुल, फ़रहाद व मजनूं, मानी वह बहज़ाद, ज़बानेसुरही व खन्दएक़ुलक़ुल वगैर: उनके सरमायये नाज़ हैं। आमतौर से वे इन्हीं पर फ़िदा हैं, शाज़ व नादिर की बात दूसरी है। हज़रत आज़ाद इन्हीं की तरफ़ इशारा करके फ़रमाते हैं-
“इनमें बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो ख़ास फ़ारस और तुर्किस्तान के मुल्कों से तबई और ज़ाती तअल्लुकष् रखती हैं। इसके अलावा वाज़ ख़यालात में अकसर उन दास्तानों या किस्सों के इशारे भी आ गये हैं जो ख़ास मुल्क फ़ारस से तअल्लुक़ रखते हैं। इन ख़यालों ने और वहाँ की तशबीहों ने इस क़दर जोर पकड़ा कि उनके मशाबेह जो यहाँ की बातें थीं, उन्हें बिलकुल मिटा दिया।”1
इन सूफी कवियों की रचनाओं में ये दोष नहीं पाये जाते हैं। वे अपने को भारतवर्ष का समझते हैं और भारतवर्ष के उदाहरण आवश्यकता होने पर सामने लाते हैं। वे जब प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हैं उस समय भी भारत की सामग्रियों से ही काम लेते हैं। कुतुबन ने हुसेन के वर्णन में इसकी धर्मज्ञता की समता युधिष्ठिर से ही की है। दान देने का महत्तव बलि और कर्ण को ही सामने रखकर प्रकट किया है। यद्यपि उसका प्रशंसापात्रा मुसलमान था। ऊपर के पद्यों में दो स्त्रिायों का सती होना और उनकी दशा का वर्णन भी उसने हिन्दू सभ्यता के अनुसार ही किया है।
1. देखिए-चतुर्दश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापतित्व पद से लेखक का भाषण, पृ. 24
इससे सूचित होता है कि इन सूफी कवियों के हृदय में वह विजातीय भाव उस समय घर नहीं कर सका था जो बाद के मुसलमानों में पाया जाता है। शाह हुसेन शेरशाह का पिता था और कुतुबन भी उसी के समय में था। इस समय भी मुसलमानों का प्राबल्य बहुत कुछ था। फिर भी कुतुबन में हिन्दू भावों के साथ जो सहानुभूति देखी जाती है वह प्रेम-मार्गी सूफ़ी की उदारता ही का सूचक है। मंझन और मलिक मुहम्मद जायसी में यह प्रवृत्तिा और स्पष्ट रूप में दृष्टिगत होती है। मैं पहले कह आया हूँ कि सूफी धर्म के विद्वान् संसार की विभूतियों में परमात्मा की सत्ता को छिपी देखते हैं और उन्हीं के आधार से वे उसकी सत्ता का अनुभव करना चाहते हैं। मंझन कवि एक स्थान पर इस भाव को इस प्रकार प्रकट करता है-
देखत ही पहचानेउँ तोही। एही रूप जेहि छंदस्यो मोहो।
एही रूप बुत अहै छिपाना। एही रूप रब सृष्टि समाना।
एही रूप सकती औ सीऊ। एही रूप त्रिाभुवन कर जीऊ।
एही रूप प्रगटे बहु भेसा। एही रूप जग रंक नरेसा।
संयोग (वस्ल) के कामुक सूफ़ी प्रेमिकों ने वियोगावस्था का वर्णन भी बड़ा ही मार्मिक किया है। वियोगावस्था में संयोग कामना कितनी प्रबल हो उठती है, इसका दृश्य प्रतिदिन दृष्टिगत होता रहता है। मानव-प्रेम-कहानियों में भी इसके बड़े सुन्दर वर्णन हैं। सूफ़ियों का वियोग यत: ईश्वर सम्बन्धी होता है, इसलिए यह अधिक उदात्ता और हृदयग्राही हो जाता है और उसकी व्यापकता भी बढ़ जाती है। मंझन इस वियोग का वर्णन निम्नलिखित पद्यों में किस प्रकार करता है, देखिए-
बिरह अवधि अवगाह अपारा।
कोटि माहिं एक परै त पारा।
बिरह कि जगत अबिरथा जाही ?
बिरह रूप यह सृष्टि सबाही।
नयन बिरह अंजन जिन सारा।
बिरह रूप दर्पन संसारा।
कोटि माँहि बिरला जग कोई।
जाहि सरीर बिरह दुख होई।
रतन कि सागर सागरहिं , गज मोती गज कोय।
चँदन कि बन बन उपजइ , बिरह कि तन तन होय ?
अब मलिक मुहम्मद जायसी की कुछ रचनाओं को भी देखिए। प्रेम मार्गी सूफ़ी कवियों में जिस प्रकार वे प्रधान हैं, वैसी ही उनकी रचना में भी प्रधानता है। उनकी प्रेम-कहानी लिखने की प्रणाली जैसी सुन्दर है वैसा ही स्थान-स्थान पर उसमें सूफ़ी भावों का चित्राण भी मनोरम है। वे कवि ही नहीं थे, वरन् उन पीरों में उनकी गणना की जाती है जो उस समय पहुँचे हुए ईश्वर के भक्त समझे जाते थे। इसलिए उनकी रचनाओं में ईश्वर परायणता की झलक भी स्थान-स्थान पर बड़ी ही मधुर दीख पड़ती है। पद्मावत के अतिरिक्त उनका 'अखरावट' नामक भी एक ग्रन्थ है। इसमें उन्होंने प्रेम-मार्ग के सिध्दान्तों और ईश्वर प्राप्ति के साधानों का वर्णन बोधा-सुलभ रीति से किया है। किन्तु उनका विशेष आद्रित ग्रन्थ पदमावत है। अतएव उसमें से विविधा भावों के कुछ पद्य मैं नीचे लिखता हूँ। पहले संसार की असारता का एक पद्य देखिए-
1. तौ लहि साँस पेट महँ अही।
जौ लहि दसा जीउ कै रही।
काल आइ दिखरायी साँटी।
उठि जिउ चला छाँड़ि कै माटी।
काकर लोग कुटुम घर बारू।
काकर अरथ दरब संसारू।
ओही घड़ी सब भयेउ परावा।
आपन सोइ जो परसा खावा।
अहे जे हितू साथ के नेगी।
सबै लाग काढ़ै तेहि बेगी।
हाथ झारि जस चलै जुआरी।
तजा राज होइ चला भिखारी।
जब लगि जीउ रतनसब कहा।
भा बिन जीउ न कौड़ी लहा।
पदमावती एवं नागमती के सती होने के समय का यह पद्य कितना मार्मिकहै-
2. सर रचि दान पुत्र बहु कीन्हा।
सात बार फिर भाँवर लीन्हा।
एक जो भाँवर भईं बियाही।
अब दुसरे होइ गोहन जाहीं।
जियत कंत तुम्ह हम्ह गल लाईं।
मुये कंठ नहिं छोड़हिं साईं।
लेइ सर ऊपर खाट बिछाई।
पौढ़ीं दुवौ कंत गल लाई।
और जो गाँठ कंत तुम जोरी।
आदि अंत लहि जाइ न छोरी।
छार उठाइ लीन्ह एक मूठी।
दीन्ह उड़ाइ पिरथवी झूठी।
यह जग काह जो अथइ न जाथी।
हम तुम नाह दोऊ जग साथी।
लागीं कंठ अंग दै होरी।
छार भईं जरि अंग न मोरी।
3. राती पिउ के नेह की , सरग भयउ रतनार।
जोरे उवा सो अथवा , रहा न कोइ संसार।
4. तुर्की , अरबी , हिन्दवी , भाखा जेती आहि।
जामें मारग प्रेम का , सबै सराहैं ताहि।
उनके कुछ ऐसे पद्यों को भी देखिए जिनमें उनकी सूफ़ियाना रंगत बड़ी सरसता के साथ प्रतिबिम्बित हो रही है-
5. आजु सूर दिन अथयेउ।
आजु रयनि ससि बूड़।
आजु नाथ जिउ दीजिये।
आजु अगिन हम जूड़।
6. उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा।
वेधि रहा सगरौ संसारा।
गगन नखत जो जाहिं न गने।
वैसब बान ओहि के हने।
धारती बान बेधि सब राखी।
साखी ठाढ़ देहिं सब साखी।
रोम रोम मानुस तनु ठाढ़े।
सूतहि सूत बेधा अस गाढ़े।
बरुनि बान अस ओपँह , बेधो रन बन ढाँख।
सौजहि तन सब रोऑं , पंखिहिं तन सब पाँख।
पुहुप सुगंधा करइ यहि आसा।
मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा।
7. पवन जाइ तहँ पहुँचइ चहा।
मारा तैस लोट भुँइ रहा।
अगिनि उठी जरि उठी नियाना।
धुवाँ उठा उठि बीच बिलाना।
पानि उठा उठि जाइ न छूआ।
बहुरा रोइ आइ भूईं चूआ।
8. करि सिंगार तापहं का जाऊं।
ओही देखहुँ ठावहिं ठाऊँ।
जौ पिउ महँ तो उहै पियारा।
तन मन सों नहिं होइ निनारा।
नैन माँह है उहै समाना।
देखहुँ तहाँ नाहिं कोउ आना।
9. देखि एक कौतुक हौं रहा।
रा ऍंतर पट पै नहिं रहा।
सरवर देख एक मैं सोई।
रहा पानि औ पानि न होई।
सरग आइ धारती महँ छावा।
रहा धारति पै धारति न आवा।
पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने इन प्रेम मार्गी सूफी कवियों और मलिक मुहम्मद जायसी के विषय में जो कुछ लिखा है वह अवलोकनीय है। इसलिए मैं यहाँ उसको भी उद्धृत कर देता हूँ-
“कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों का कट्टरपन दूर करने का जो प्रयत्न किया, वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिध्द हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। मनुष्य-मनुष्य के बीच जो रागात्मक सम्बन्धा है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन में जिस हृदय-साम्य का अनुभव मनुष्य कभी-कभी किया करता है, उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। कुतुबन, जायसी आदि इन प्रेम-कहानी के कवियों ने प्रेम का शुध्द मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन-दशाओं को सामने रक्खा, जिनका मनुष्य मात्रा के हृदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिन्दू हृदय और मुसलमान हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटाने वालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिन्दुओं की कहानियाँ हिन्दुओं ही की बोली पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्म-स्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई।”1
1. देखिए, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 103, 104
अब मैं इन प्रेम-मार्गी सूफी कवियों की भाषा पर कुछ विचार करना चाहता हूँ। प्रेममार्गी कवि लगभग सभी मुसलमान और पूर्व के रहने वाले थे। इसलिए इनके ग्रन्थों की भाषा पूर्वी अथवा अवधी है। किन्तु यह देखा जाता है कि वे कभी-कभी ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग भी कर जाते हैं। कारण यह है कि अवधी जहाँ ब्रजभाषा से मिलती है, वहाँ वह उससे बहुत कुछ प्रभावित है। दूसरी बात यह कि अवधी अर्ध्द मागधी ही का रूपान्तर है और अर्ध्द मागधी पर शौरसेनी का बहुत कुछ प्रभाव है। शौरसेनी का ही रूपान्तर ब्रजभाषा है। इसलिए इटावा इत्यादि के पास जहाँ अवधी ब्रजभाषा से मिलती है वहाँ की अवधी यदि ब्रजभाषा से प्रभावित हो तो यह स्वाभाविक है और उन स्थानों के निवासी यदि इस प्रकार की भाषा में रचना करें, तो यह बात लक्ष्य योग्य नहीं। परन्तु देखा तो यह जाता है कि पूर्व प्रान्त के रहने वाले कवि भी अपनी अवधी की रचनाओं में ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग करते हैं। मेरी समझ में इसका कारण यही है कि अवधी और ब्रजभाषा का घनिष्ठ सम्बन्धा है। अधिकांश कवियों को यह ज्ञात भी नहीं होता कि वे किस भाषा के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं और अज्ञातावस्था में एक भाषा के शब्दों का प्रयोग दूसरी भाषा में कर देते हैं। वे अधिक पठित नहीं थे, इसलिए अपने आस-पास की बोलचाल की भाषा में ही रचना करते थे, परन्तु अपने निकटवर्ती प्रान्त के लोगों का कुछ संसर्ग उनका रहता ही था इसलिए उनकी बोलचाल की भाषा का प्रभाव कुछ-न-कुछ पड़ ही जाता था। संकीर्ण स्थलों पर कवि को समुचित शब्द विन्यास के लिए जिस उधोड़बुन में पड़ना होता है वह अविदित नहीं। ऐसी अवस्था में अन्य भाषाओं के कुछ शब्द उपयुक्त स्थलों पर कवियों की भाषा में आये बिना नहीं रहते। जिस समय प्रेममार्गी कवियों ने अपनी रचना प्रारम्भ की थी, उस समय कुछ धार्मिक रुचि, कुछ संस्कृत के विद्वानों के संसर्ग आदि से संस्कृत तत्सम शब्द भी हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। इस कारण इन कवियों की रचनाओं में संस्कृत के तत्सम शब्द भी पाये जाते हैं। इन प्रेममार्गी कवियों में प्रधान मलिक मुहम्मद जायसी हैं। अतएव मैं उन्हीं की रचना को लेकर यह देखना चाहता हूँ कि वे किस प्रकार की हैं। आवश्यकता होने पर अन्य कवियों की रचनाओं पर भी दृष्टि डालने का उद्योग करूँगा। पदमावत के जिन पद्यों को मैंने ऊपर उद्धृत किया है, उन्हें देखिए। मैं पहले लिख आया हूँ कि अवधी और ब्रजभाषा दोनों अधिकतर तद्भव शब्दों में लिखी जाती हैं। उनके पद्यों में यह बात स्पष्ट दिखाई देती है। तत्सम शब्द उनमें 'काल', 'दान', 'बहु', 'आदि', 'संसार', 'प्रेम', 'नाथ', 'सूर' इत्यादि हैं जो इस बात के प्रमाण हैं कि उस समय संस्कृत के तत्सम शब्द हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। मैं यह भी बतला आया हूँ कि इन दोनों भाषाओं में पंचम वर्ण अनुस्वार के रूप में लिखे जाते हैं; कंत, कंठ, अंत और अंग इस बात के प्रमाण हैं। इन दोनों भाषाओं का नियम भी यह है कि इनमें संयुक्त वर्ण सस्वर हो जाते हैं, 'अरथ', 'अगिन', 'सरग', 'मारग', 'रतन' आदि में ऐसा ही हुआ है। यह भी नियम मैं ऊपर बतला आया हूँ कि इन दोनों भाषाओं में शकार का सकार और णकार का नकार और क्षकार का छकार हो जाता है। 'दसा' और'ससि' का 'स', 'पुन्न', का 'न' और 'छार' का 'छ' ऐसे ही परिवर्तन हैं। इन दोनों भाषाओं का यह नियम भी है कि प्रथमा,द्वितीया, षष्ठी, सप्तमी के कारक चिद्द प्राय: लोप होते रहते हैं। इन पद्यों में भी यह बात पाई जाती है। 'आज सूर दिन अथयो', 'आज रयनि ससि बूड़', 'और रहा न कोई संसार' में सप्तमी विभक्ति लुप्त है। 'दिन में' या दिन महँ, 'रयनि में' या 'रयनि महँ'और 'संसार में' या 'संसार महँ' होना चाहिए था। 'हम गल लायो' में द्वितीया का 'को', लागी कंठ में तृतीया का 'से' सा सों नदारद हैं। 'गगन नखत जो जाहिं न गने' और 'रोम रोम 'मानुस तनु' ठाढ़े, में षष्ठी विभक्ति का लोप है, 'गगन नखत' और मानुस तनु के बीच में सम्बन्धा-चिद्द की आवश्यकता है। 'काल आइ दिखराई सांटी', 'जियत कंत तुम हम गल लायों' इन दोनों पद्यों में प्रथमा विभक्ति नहीं आई है। 'काल' और 'तुम' के साथ 'ने' का प्रयोग होना चाहिए था। सच्ची बात यह है कि और विभक्तियाँ तो आती भी हैं, परन्तु प्रथमा की 'ने' विभक्ति अवधी में आती ही नहीं। Ðस्व का दीर्घ और दीर्घ का Ðस्व होना दोनों भाषाओं का गुण है। उपरिलिखित पद्यों में, 'बारू', 'संसारू', 'आना', 'संसारा', 'ठाऊँ Ðस्व से दीर्घ हो गये हैं और अंतरपट',धारति 'बरुनि', 'पानि', 'सिंगार', आदि दीर्घ से Ðस्व बन गये हैं। इन पद्यों में जो प्राकृत भाषा के शब्द आये हैं वे भी धयान देने योग्य हैं जैसे 'नाह', 'तुम्ह', 'हम्ह', 'पुहुप', 'मुक' इत्यादि। इनमें अवधी की जो विशेषताएँ हैं उनको भी देखिए, 'पियारा', 'बियाही' ठेठ अवधी भाषा के प्रयोग हैं। ब्रजभाषा में इनका रूप 'प्यारा' और 'ब्याही' होगा। 'काकर', 'ओही', 'जिउ', 'आपन', 'जस', 'होइ', 'हुत', 'गर', 'जाइ', 'लेई', 'देइ', 'पिउ', 'उवा', 'अथवा', 'उठाई', 'उड़ाइ', 'उहै', 'भुइँ', 'बहुरा', 'रोइ', 'आइ', 'उन्ह', 'बानन्ह', 'अस', 'रोऍं रोऍं', 'ओपहँ', 'हिरकाइ' इत्यादि भी ऐसे शब्द हैं जिनमें अवधी अपने मुख्य रूप में पाई जाती है। जायसी ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली के शब्दों का भी प्रयोग किया है, कहीं वे कुछ परिवर्तित हैं और कहीं अपने असली रूप में मिलते हैं-
बेधि रहा सगरौ संसारा।
भादौं बिरह भयउ अति भारी।
औ किंगरी कर गहेउ बियोगी।
तेइ मोहि पिय मो सौं हरा।
लागेउ माघ परै अब पाला।
ऐस जानि मन गरब न होई।
'सगरौ' ब्रजभाषा का स्पष्ट प्रयोग है। 'सकल' से 'सगर' पद बनता है। प्राकृत नियम के अनुसार 'क' का 'ग' हो जाता है और ब्रजभाषा और अवधी के नियमानुसार 'ल' का 'र'। इसलिए अवधी में उसका पुल्लिंग रूप 'सगर' होगा और स्त्राीलिंग रूप 'सगरी'। एक स्थान पर जायसी लिखते भी हैं-”भई अहा सगरी दुनियाई।” इसलिए 'सगरौ' रूप जब होगा तब ब्रजभाषा ही में होगा। उसके नीचे की चौपाइयों में 'भयउ' और 'गहेउ' पद आया है। ये दोनों शब्द भी ब्रजभाषा के 'भयो' और 'गह्यो' शब्दों के रूपान्तर हैं। 'तेहि मोहि पिय मो सौं हरा' इस पद्य में दो शब्द ब्रजभाषा के हैं एक 'पिय' और दूसरा 'सौं'। 'पिय' शब्द ब्रजभाषा का और 'पिउ' शब्द अवधी का है। पदमावत में वैसे ही दोनों का प्रयोग देखा जाता है जैसे 'प्रेम' शब्द को जायसी अपनी रचना में 'प्रेम' भी लिखते हैं और 'पेम' भी, देखिए-'किरिन करा भा प्रेम ऍंकूरू' और 'पेम सुनत मन भूल न राजा'। 'सौं'शब्द भी ब्रजभाषा से ही अवधी में आया है। विद्वानों ने इस सौं को पश्चिमी अवधी के 'कारण' का चिद्द माना है। पश्चिमी अवधी ब्रजभाषा से प्रभावित है इसलिए उसमें यह सौं शब्द पाया जाता है। ठेठ अवधी के 'करण' का चिद्द है 'से' और'सन'। 'लागेउ माघ परै अब पाला' में 'लागेउ' का अवधी रूप होगा 'लागा'। यह 'लागेउ' ब्रजभाषा के लाग्यो का ही रूपान्तर है।'ऐस जानि मन गरब न होई' ब्रजभाषा का 'ऐसो', 'जैसो', 'तैसो' अवधी में 'अस', 'जस', 'तस' लिखा जाता है। वास्तव में 'ऐस'अवधी शब्द नहीं है। यह ब्रजभाषा से ही उसमें आया है और 'ऐसो' की एक मात्रा कम करके बना लिया गया है। इस शब्द का प्रयोग 'ऐस', 'ऐसे' आदि के रूप में पदमावत में बहुत अधिक पाया जाता है और ऐसे ही 'कैसो', जैसो, तैसो के स्थान पर कैस, जैस, तैस इत्यादि भी। कुछ विद्वानों की सम्मति है कि ऐस, कैस, जैस, तैस आदि भी अवधी ही के रूप हैं, किन्तु मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। सच बात यह है कि ब्रजभाषा के बहुत से शब्द अवधी में पाये जाते हैं, जिनका प्रयोग इन प्रेम-मार्गी कवियों ने स्वतन्त्राता से किया है।
पदमावत में ब्रजभाषा शब्दों के अतिरिक्त अन्य प्रान्तिक भाषाओं के कुछ शब्द भी मिलते हैं। 'स्यों' बुंदेलखंडी है और हिन्दी के 'सह'और से के स्थान पर लिखा जाता है। कविवर केशवदास ने इसका प्रयोग किया है। देखिए-'अलिस्यों सरसीरुह राजत है।'
जायसी को भी इस शब्द का प्रयोग करते देखा जाता है। जैसे “रुण्ड मुण्ड अब टुटहिं स्यों बख्तर और कूँड”, 'बिरिछ उपारि पेड़ि स्यों लेई'। बंगला में 'आछे' 'है' के अर्थ में आता है। इस शब्द का प्रयोग जायसी को भी करते देखा जाता है। जैसे, 'कवँल न आछे आपनि बारी', 'का निचिंत रे मानुष आपनि चीते आछु'। वे अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी इच्छानुसार करते देखे जाते हैं। कुछ ऐसे पद्य नीचे लिखे जाते हैं-
अबूबकर सिद्दीक ' सयाने।
पहले सिदिकष् दीन ओइ आने।
पुनि सो उमर ख़िताब सुहाये।
भा जग अदल दीन जो आये।
सेरसाह देहली सुलतानू A
चारो खण्ड तपै जस भानू।
तहँ लगि राज खरग करि लीन्हा।
इसकंद j जुलकरन जो कीन्हा।
नौसेरवा ¡ जो आदिल कहा।
साहि अदल सरि सोउ न अहा।
जिन शब्दों के नीचे रेखा खींची गई है वे फ़ारसी और अरबी के दुर्बोधा शब्द हैं। एक स्थान पर तो उन्होंने फ़ारसी के'सरतापा' को अपनी कविता में पूरी तरह खपा दिया है, देखिए-
केस मेघावरि सिर ता पाई A
उनको सर्वसाधारण में अप्रचलित संस्कृत भाषा के तत्सम शब्दों का प्रयोग करते भी देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यों के काले शब्दों को देखिए। 'सवै नास्ति वह अहथिर ऐस साज जेहि केर', 'बेनी छोरि झार जो बारा', 'बेधो जनौ मलैगिरि बासा', 'चढ़ा असाढ़ गगन घनगाजा', 'जनु घन महं दामिनी परगसी' 'का सरवर तेहि देहिं मयंकू', 'कनकपाट जनु बैठा राजा', 'मान सरोदक उलथहिं दोऊ' 'उठहिं तुरंग लेहि नहिं बागा', 'अधारसुरंग अमी रस भरे', 'हीरा लेइ सोविद्रुम धारा', 'केहि कहँ कँवल बिगासा, कोमधुकर रस लेइ', 'रसना कहौं जो कह रस बाता', 'क्षुद्र घंटिका मोहहि राजा' 'नाभिकुंड सो मलय समीरू', 'पन्नग पंकजमुख गहे खंजन तहाँ बईठ'।
वे ऐसे शब्दों का व्यवहार भी करते हैं जिनका व्यवहार न तो किसी ग्रन्थ में देखा जाता है, न वे जनता की बोलचाल में गृहीत हैं। ऐसे शब्द या तो कविता-गत संकीर्णता के कारण, वे स्वयं गढ़ लेते हैं, या अनुप्रास का झमेला उन्हें ऐसा करने के लिए विवश करता है। अथवा इस प्रकार की तोड़-मरोड़ एवं उच्छृंखलता को वे अनुचित नहीं समझते। नीचे के पद्यों के वे शब्द इसके प्रमाण हैं, जिन पर चिद्द बना दिये गये हैं-
कीन्हेसि राकस भूत परीता ]
कीन्हेसि भोकस देव दईता A
औ तेहि प्रीति सिहिटि उपराजी
बह अयगाह दीन्ह तेहि हाथी A
उहै धानुस किरसुन पहँ अहा।
बेग आइ पिय बाजहु गाजहु होइ सदूर A
जोबन जनम करै भसमंतू A
कैसे जिये बिछोही पखी A
तन तिनउर भा डोल।
बिरिधा खाई नव जोबन सौ तिरिया सों ऊड़ A
रिकवँछ कीन नाइ कै हींग मरिच औ आद A
बतलाइए, 'प्रेत' के स्थान पर 'परीत', 'दैत्य' के स्थान पर 'दईत', 'सृष्टि' के स्थान पर 'सिहिटि', 'हाथ' के स्थान पर'हाथी', 'कृष्ण' के स्थान पर 'किरसुन', 'शार्दूल' के स्थान पर सदूर, 'भस्म' के स्थान पर 'भसमंतू', 'पंखी' के स्थान पर 'पखी', 'तिनका' के स्थान पर तिनउर, उड़ा के स्थान पर ऊड और आदी के स्थान पर 'आद' लिखना कहाँ तक संगत है, आप लोग स्वयं इसको विचार सकते हैं। इस प्रकार के प्रयोगों का अनुमोदन किसी प्रकार नहीं किया जा सकता। उनको चारणों के ढंग पर भी कुछ शब्दों का व्यवहार करते देखा जाता है, जिनमें राजस्थानी की रंगत पाई जाती है। नीचे कुछ पद्य ऐसे लिखे जाते हैं,जिनमें इस प्रकार के शब्द व्यवहृत हैं। शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं-
दीन्ह रतन बिधि चारि नैन बैन सर्वन्नमुख
गंग जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ।
हँसत दसन अस चमके पाहन उठे छरक्कि
दारिउं सरि जोन कैसका , फाटयो हिया दरक्कि A
' सुक्ख सुहेला उग्गवै दु:ख झरै जिमि मेंह। '
' बीस सहस घुम्मरहिं निसाना। '
जौ लगि सधौ न तप्पु ] करै जो सीस कलप्पु। '
ग्रामीणता के दोष से तो इनका ग्रन्थ भरा पड़ा है। इन्होंने इतने ठेठ ग्रामीण शब्दों का प्रयोग किया है जो किसी प्रकार बोधा सुलभ नहीं। ग्रामीण शब्दों का प्रयोग इसलिए सदोष माना गया है कि उनमें न तो व्यापकता होती है और न वे उतना उपयोगी होते हैं जितना कविता की भाषा के लिए उन्हें होना चाहिए, देखा जाता है, मलिक मुहम्मद जायसी ने इसका विचार बहुत कम किया है। कहीं-कहीं उनकी भाषा बहुत गँवारी हो गयी है जो उनके पद्यों में अरुचि उत्पन्न करने का कारण होती है। नीचे लिखे पद्यों के चिद्दित शब्दों को देखिए-
' मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा। '
' हिलगि मकोय न फारहु कंथा। '
' दीठि दवँगरा मेरवहु एका। '
' औ भिउं जस दुरजोधान मारा। '
' अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधो। '
' तन तन बिरह न उपनै सोई। '
' जौ देखा तीवइ है साँसा। '
' घिरित परेहि रहा तस हाथ पहुँच लगि बूड़। '
मैंने इनकी कविता की भाषा पर विशेष प्रकाश इसलिए डाला है कि जिससे उसके विषय में उचित मीमांसा हो सके। कहा जाता है कि ग्रंथ की भाषा ठेठ अवधी है। परन्तु जितने प्रमाण मैं ऊपर उद्धृत कर आया हूँ उनसे स्पष्ट है कि उसमें अन्य भाषाओं और बोलियों के अतिरिक्त अधिकतर संस्कृत के तत्सम शब्द भी सम्मिलित हैं, जो ठेठ अवधी में कभी व्यवहृत नहीं हुए, ऐसी अवस्था में उसे हम ठेठ अवधी में लिखा गया स्वीकार नहीं कर सकते। हाँ, यह कहना संगत होगा कि पदमावत की मुख्य भाषा अवधी है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि पदमावत के रचयिता ने पहिले पहिल अवधी भाषा लिखने में यह सफलता प्राप्त की, जिसको उनके पूर्ववर्ती कवि कुतुबन और मंझन आदि नहीं प्राप्त कर सके थे। अब तक प्रेम-मार्गी कवियों के जितने ग्रन्थ हिन्दी संसार के सामने आये हैं, उनके आधार से यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि अवधी भाषा का प्रथम कवि होने का सेहरा कुतुबन के सिर है। मैं पहले लिख आया हूँ कि प्रान्तिक भाषा में रचना करने का सूत्रापात मैथिल-कोकिल विद्यापति ने किया। उनके दिखाये मार्ग पर चलकर अवधी में कविता करने वाला पहला पुरुष कुतुबन है। उसकी रचना और उसके बाद की मंझन की कविता पर दृष्टि डालने से यह ज्ञात होता है कि अवधी भाषा में कविता करने का जो मार्ग इन लोगों ने ग्रहण किया था, उसी मार्ग पर मलिक मुहम्मद जायसी भी चले, किन्तु प्रतिभा और भावुकता में उनका स्थान इन लोगों से बहुत ऊँचा है। जिस उच्च कोटि का कवि-कर्म्म पदमावत में दृष्टिगत होता है, उन लोगों के ग्रन्थ में नहीं। उन लोगों की रचनाओं में वह कमी पायी जाती है जो आदिम कृतियों में देखी जाती है। उन लोगों को यदि मार्ग-प्रदर्शन करने का गौरव प्राप्त है तो पदमावत के कवि को उसे पुष्टता प्रदान करने का। यह बात देखी जाती है कि हिन्दी भाषा में हिन्दू जाति की प्रेम-कथाओं को अंकित करने में प्रेम-मार्गी सूफ़ी कवियों ने जैसे हिन्दू भावों को सुरक्षित रखने की चेष्टा की है, वैसे ही मुख्य भाषा को हिन्दी रखने का भी उद्योग किया है और इसी मनोवृत्तिा के कारण उन्होंने आवश्यकतानुसार संस्कृत शब्दों को भी ग्रहण किया। उस समय उर्दू भाषा का जन्म भी नहीं हुआ था। इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में थोड़े से आवश्यक फ़ारसी अरबी शब्दों को ही स्थान दिया, जिससे हिन्दी भाषा का मुख्य रूप से व्याघात नहीं हुआ। जो आधार इस प्रकार पहले निश्चित हुआ था, उसके सबसे प्रभावशाली प्रवर्तक मलिक मुहम्मद जायसी हैं। उनके बाद भी प्रेमकथाएँ अवधी भाषा में लिखी गईं। परन्तु कोई उस उच्च पद को नहीं प्राप्त कर सका जिस पर मलिक मुहम्मद जायसी अब तक आसीन हैं। मैंने ऊपर लिखा है कि जायसी की भाषा कई कारणों से सदोष हो गयी है और उनकी भाषा में ग्रामीण्ता दोष भी प्रवेश कर गया है। परन्तु अवधी भाषा पर उनका जो अधिकार दृष्टिगत होता है और उन्होंने जिस उत्तामता से इस भाषा में रचना करने में योग्यता दिखलाई है, वे उनके उक्त दोषों और त्राुटियों को पूरा प्रतिकार कर देती है। जायसी की भावव्य×जना, मार्मिकता और कवि-सुलभप्रतिभा उल्लेखनीय है। उनकी रचना में हिन्दू भाव की मर्मज्ञता, हिन्दू पुराणों और शास्त्राों से सम्बन्धा रखने वाले विषयों की अभिज्ञता जैसी दृष्टिगत होती है, वह विलक्षण और प्रशंसनीय है। उन्होंने जिस सहानुभूति और निरपेक्षता के साथ हिन्दू-जीवन के रहस्यों का चित्राण किया है और वर्णनीय विषय के अन्तस्तल में प्रवेश करके जैसी सहृदयता दिखलायी है,उसके लिए उनकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। उनकी रहस्यवाद-चित्राण-प्रणाली, वर्णन-शैली उनका निरीक्षण और उनकी कवि कर्म्म कुशलता हिन्दी संसार के लिए गौरव की वस्तु है। मैं समझता हूँ, हिन्दी भाषा जब तक जीवित रहेगी तब तक उसके साहित्य-भण्डार का एक रत्न 'पदमावत' भी रहेगा।
मलिक मुहम्मद जायसी के सम्बन्धा में डॉक्टर ग्रियर्सन की यह सम्मति है1&
“वे (मलिक मुहम्मद जायसी) पदमावत के रचयिता थे, जो, मेरी समझ में, मौलिक विषय पर गौड़ी भाषा में लिखी हुई पहली ही नहीं प्राय: एकमात्रा कविता पुस्तक है। मैं नहीं जानता कि कोई अन्य ग्रन्थ भी ऐसा होगा जो पदमावत की अपेक्षा अधिक परिश्रमपूर्ण अधययन का पात्रा हो। निस्सन्देह परिश्रमपूर्ण अधययन इसके लिए आवश्यक है क्योंकि साधारण विद्यार्थी के लिए इस पुस्तक की एक पंक्ति का भी कठिनाई से ही बोधागम्य होना सम्भव है, क्योंकि यह जनता की ठेठ भाषा में लिखी गयी है। परन्तु काव्यसौन्दर्य और मौलिकता दोनों के उद्देश्य से इस पुस्तक के अधययन में जितना भी परिश्रम किया जाय,उचित है।
मलिक मुहम्मद जायसी के बाद की भी रचनाएँ प्रेम-मार्गी कवियों की मिलती हैं और यह परम्परा अठारहवीं शताब्दी तक चलती देखी है। परन्तु मलिक मुहम्मद जायसी के समान कोई दूसरा कवि प्रेममार्गी कवियों में नहीं उत्पन्न हुआ, इन कवियों
1. "He was the author of the Padmavat (Rag) which is, I believe, the first poem and almost the only one written in a Gaudian vernacular on an original subject. I do not know more deserving of hard study than the Padmavat. It certainly reuqires it, for scarcely a line is inteilligible to the ordirary scholar, it being couched in the veriest language of the people. But it is well worth any amount, both for its originality and for its poetical beauty."
में 'उसमान' सत्राहवीं शताब्दी में और नूर मुहम्मद एवं निसार अठारहवीं में हुए हैं, जिनकी रचनाएँ प्राप्त हुई हैं। सत्राहवीं शताब्दी में शेख नबी और अठारहवीं शताब्दी में क़ासिम शाह और फ़ाजिलशाह भी हुए। इन लोगों ने भी अवधी भाषा में प्रेम मार्गी कवियों की प्रणाली ग्रहण कर रचनाएँ की हैं, किन्तु उनमें कोई विशेषता नहीं है और वे रचनाएँ मुझे हस्तगत भी नहीं हुईं।” इसलिए इनके विषय में विशेष कुछ नहीं लिखा जा सकता है। उसमान 'चित्रावली' नामक ग्रन्थ का रचयिता है। इसकी रचना का कुछ अंश नीचे उद्धृत किया जाता है-
“ सरवर ढूँढ़ि सबै पचि रहीं।
चित्रिानि खोज न पावा कहीं
निकसी तीर भईं वैरागी।
धारे धयान सब बिनवै लागीं।
गुपुत तोहि पावहिं का जानी।
परगट महँ जो रहै छपानी।
चतुरानन पढ़ि चारौ वेदू।
रहा खोजि पै पाव न भेदू।
हम अंधी जेहि आपु न सूझा।
भेद तुम्हार कहाँ लौं बूझा।
कौन सो ठाँउँ जहाँ तुम नाहीं।
हम चख जोति न देखहिं काही।
पावै खोज तुम्हार सो , जेहि दिखरावहु पंथ।
कहा होइ जोगी भये , ओ बहु पढे ग़रंथ। “
नूर मुहम्मद ने 'इन्द्रावती' नामक ग्रंथ की रचना की है। कुछ उनकी रचना का नमूना भी देखिए-
मन दृग सों इक राति मँझारा।
सूझि परा मोहिं सब संसारा।
देखेउँ नीक एक फुलवारी।
देखेउँ तहाँ पुरुष औ नारी।
दोउ मुख सोना बरनि न जाई।
चंद सुरुज उतरे भुइँ आई।
तपी एक देखेउँ तेहि ठाँऊँ।
पूछेउँ तासों तिनकर नाऊँ।
कहाँ अहैं राजा और रानी।
इन्द्रावती औ कुंवर गियानी।
निसार ने 'मसनवी यूसुफ़-जुलेखा' नामक ग्रंथ लिखा है। उसकी कुछ पंक्तियाँ ये हैं-
ऋतु बसंत आये बन फूला।
जोगी जती देखि रँग भूला।
पूरन काम कमान चढ़ावा।
बिरही हिये बान अस लावा।
फूलहिं फूल सुखी गुंजारहिं।
लागे आग अनार के डारहिं।
कुसुम केतकी मालति बासा।
भूले भँवर फिरइँ चहुँ पासा।
मैं का करउँ कहाँ अब जाँऊँ।
मों कहँ नाहिं जगत महँ ठाँऊ।
टेसू फूल तो कीन उँजेरा।
लागे आग जरैं चहुँ ओरा।
तैसे धान बाउर भई , बौरे आम लतान।
मैं बौरी दौरी फिरउँ , सुनि कोयल कै तान।
इस कवि का एक छन्द भी देखिए-
ऋतु असाढ़ घन घेर आयो लाग चमकै दामिनी।
ऋतु सुहावन देखि मन महँ हरष बाढ़ै भामिनी।
ऋतु घमंड सों मेघ धाये दिवस में जस जामिनी।
रैनि दिन करुना करैं घर में अकेली कामिनी।
जो रचनाएँ मैंने ऊपर उद्धृत की हैं उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि प्रेम-मार्गी सभी कवियों ने अवधी भाषा में लिखने की चेष्टा की है और अधिकतर अपनी परम्परा को सुरक्षित रखा है। सबकी भाषा 'पदमावत' का अनुकरण करती है और उस ग्रन्थ की अन्य प्रणाली भी इन रचनाओं में गृहीत मिलती है। रहस्यवाद और सूफी सम्प्रदाय के विचार भी सब रचनाओं में ही कुछ न कुछ दृष्टिगत होते हैं। इसलिए इस निश्चय पर पहुँचना पड़ता है कि मुहम्मद जायसी के परवर्ती कवियों ने कोई नई उद्भावना नहीं की और न अपनी रचनाओं में कोई ऐसी विशेषताएँ दिखलायीं, जिससे साहित्य में उनका विशेष स्थान होता। हाँ,यह अवश्य है कि निसार और फ़ाजिल शाह ने अपने ग्रन्थों के लिए स्वधार्मी पात्रों को चुना। निसार ने यदि यूसुफ़-जुलेखा की कहानी लिखी है तो फ़ाजिल शाह ने नूरशाह और मेहर-मुनीर की। परन्तु इसने अपने ग्रन्थ का हिन्दी नामकरण ही किया है, अर्थात् अपने ग्रन्थ का नाम 'प्रेम-रतन' रखा है।
परवर्ती कवियों की भाषा मुहम्मद जायसी की भाषा से कुछ प्रा×जल अवश्य है और उनकी रचनाओं में संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी अधिक देखा जाता है। परन्तु जो प्रवाह जायसी की रचना में मिलता है, इन लोगों की रचनाओं में नहीं। अवधी भाषा की जो सादगी, सरसता और स्वाभाविकता उनकी कविता में मिलती है, इन लोगों की कविता में नहीं। यह मैं कहूँगा कि परवर्ती कवियों की रचनाओं में गँवारी शब्दों की न्यूनता है किन्तु उनका कुछ झुकाव ब्रजभाषा की प्रणाली और खड़ी बोली के वाक्य-विन्यास और शब्दों की ओर अधिक पाया जाता है। उनकी रचनाओं को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि वह उद्योग करके अपनी भाषा को अवधी बनाना चाहते हैं। उनकी लेखनी स्वत: उसकी ओर प्रवृत्ता नहीं होती, अनुकरण में जो कमी और अवास्तवता होती है, वह उनमें पाई जाती है। फिर भी यह स्वीकार करना पडेग़ा कि उन्होंने हिन्दी भाषा और हिन्दू भावों की ओर अपना अनुराग प्रकट किया है और यथाशक्ति अपने यत्न में सफलता लाभ करने की चेष्टा भी की है।
मैंने मलिक मुहम्मद जायसी के परवर्ती कवियों की चर्चा यहाँ इसलिए कर दी है कि जिससे यह ज्ञात हो सके कि प्रेम-मार्गी कवियों की कविता-धारा कहाँ तक आगे बढ़ी और किस अवस्था में। इनकी चर्चा सत्राहवीं और अठारहवीं शताब्दी के अन्य कवियों के साथ की जा सकती थी किन्तु ऐसा करना यथास्थान न होता, इसलिए यहाँ पर ही जो कुछ उनके विषय में ज्ञातव्य बातें थीं, लिख दी गईं।
यहाँ पर यह प्रकट कर देना भी आवश्यक है कि इसी काल में कुछ और प्रेम-कहानियाँ भी हिन्दुओं द्वारा लिखी गईं। इनमें से लक्ष्मणसेन की बनाई 'पदमावती' की कथा ही उल्लेख योग्य है। उसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। पौराणिक कथाओं के आधार से कुछ अन्य रचनाएँ भी हुई हैं, जैसे ढोलामारू की चउपद्दी इत्यादि परन्तु उनमें अधिकतर पौराणिक प्रणाली ही का अनुकरण किया गया है और कहानी कहने की प्रवृत्तिा ही पाई जाती है। इसलिए उनमें वह विशेषता उपलब्धा नहीं होती जो उनका उल्लेख विशेष रीति से किया जाय। अतएव उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी।
(5)
सोलहवीं शताब्दी में ही हिन्दी-संसार के सामने साहित्य गगन के उन उज्ज्वलतम तीन तारों का उदय हुआ, जिनकी ज्योति से वह आज तक ज्योतिर्मान है। उनके विषय में चिरप्रचलित सर्वसम्मति यह है-
सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केसव दास।
अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करत प्रकास।
काव्य करैया तीन हैं , तुलसी केशव सूर।
कविता खेती इन लुनी , सीला बिनत मजूर।
यह सम्मति कहाँ तक मान्य है, इस विषय में मैं विशेष तर्क-वितर्क नहीं करना चाहता। परन्तु यह मैं अवश्य कहूँगा कि इस प्रकार के सर्वसाधारण के विचार उपेक्षा-योग्य नहीं होते, वे किसी आधार पर होते हैं। इसलिए उनमें तथ्य होता है और उनकी बहुमूल्यता प्राय: असंदिग्धा होती हैं। इन तीनों साहित्य-महारथियों में किसका क्या पद और स्थान है, इस बात को उनका वह प्रभाव ही बतला रहा है जो हिन्दी संसार में व्यापक होकर विद्यमान है। मैं इन तीनों महाकवियों के विषय में जो सम्मति रखता हूँ उसे मेरा वक्तव्य ही प्रकट करेगा, जिसे मैं इनके सम्बन्धा में यथास्थान लिखूँगा। इन तीनों महान् साहित्यकारों में काल की दृष्टि से सूरदास जी का प्रथम स्थान है, तुलसीदास जी का द्वितीय और केशवदास जी का तृतीय। इसलिए इसी क्रम से मैं आगे बढ़ता हूँ।
कविवर सूरदास ब्रजभाषा के प्रथम आचार्य हैं। उन्होंने ही ब्रजभाषा का वह शृंगार किया जैसा शृंगार आज तक अन्य कोई कवि अथवा महाकवि नहीं कर सका। मेरा विचार है कि कविवर सूरदास जी का यह पद हिन्दी-संसार के लिए आदिम और अंतिम दोनों है। हिन्दी भाषा की वर्तमान प्रगति यह बतला रही है कि ब्रजभाषा के जिस उच्चतम आसन पर वे आसीन हैं, सदा वे ही उस आसन पर विराजमान रहेंगे; समय अब उनका समकक्ष भी उत्पन्न न कर सकेगा। कहा जाता है, उनके पहले का'सेन' नामक ब्रजभाषा का एक कवि है। हिन्दी संसार उससे एक प्रकार अपरिचित-सा है। उसका कोई ग्रन्थ भी नहीं बतलाया जाता। कालिदास ने औरंगजेब के समय में हज़ारा नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी। उसमें उन्होंने 'सेन' कवि का एक कवित्ता लिखा है, यह वह है।
जब ते गोपाल मधुबन को सिधारे आली ,
मधुबन भयो मधु दानव विषम सों।
सेन कहै सारिका सिखंडी खंजरीट सुक
मिलि कै कलेस कीनो कालिंदी कदम सों।
जामिनी वरन यह जामिनी मैं जाम जाम
बधिक की जुगुति जनावै टेरि तम सों।
देह करै करज करेजो लियो चाहति है ,
काग भई कोयल कगायो करै हमसों।
कविता अच्छी है, भाषा भी मँजी हुई है। परन्तु इस कवि का काल संदिग्धा है। मिश्र बन्धाुओं ने शिवसिंह सरोज के आधार से उसका काल सन् 1503 ई. बतलाया है। परन्तु वे ही इसको संदिग्धा बतलाते हैं। जो हो, यदि यह कविता कविवर सूरदास जी के पहले की मान भी ली जावे तो इससे उनके आदिम आचार्यत्व को बट्टा नहीं लगता। मेरा विचार है कि सूरदास जी के प्रथम ब्रजभाषा का कोई ऐसा प्रसिध्द कवि नहीं हुआ कि जिसकी कृति ब्रजभाषा कविता का साधारण आदर्श बन सके। दो चार कवित्ता लिखकर और छोटा-मोटा ग्रन्थ बनाकर कोई किसी महाकवि का मार्ग-दर्शक नहीं बन सकता। सूरदास जी से पहले कबीरदास, नामदेव, रविदास आदि सन्तों की बानियों का प्रचार हिन्दू संसार में कुछ न कुछ अवश्य था। संभव है कि ब्रजभाषा के ग्राम्य गीत भी उस समय कुछ अपनी सत्ता रखते हों। परन्तु वे उल्लेख योग्य नहीं। मैं सोचता हूँ कि सूरदास जी की रचनाएँ अपनी स्वतंत्रा सत्ता रखती हैं और वे किसी अन्य की कृति से उतनी प्रभावित नहीं हैं जो वे उनका आधार बन सकें। खुसरो की कविताओं में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ मिली हैं और ये रचनाएँ भी थोड़ी नहीं है। यदि उनकी रचनाओं का आधार हम ब्रजभाषा की किसी प्राचीन रचना को मान सकते हैं तो सूरदास जी की रचनाओं का आधार किसी प्राचीन रचना को क्यों न मानें? मानना चाहिए और मैं मानता हूँ। मेरा कथन इतना ही है कि सूरदास जी के पहले ब्रजभाषा की कोई ऐसी उल्लेख-योग्य रचना नहीं थी जो उनका आदर्शबनसके।
प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी अपना आदर्श आप थे। वे स्वयं-प्रकाश थे। ज्ञात होता है इसीलिए वे हिन्दी-संसार के सर्ूय्य कहे जाते हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य उनको सागर कहा करते थे। इसी आधार पर उनके विशाल ग्रन्थ का नाम सूर-सागर है। वास्तव में वे सागर थे और सागर के समान ही उत्तालतरंग-माला-संकुलित। उनमें गम्भीरता भी वैसी ही पायी जाती है। जैसा प्रवाह,माधुर्य, सौन्दर्य उनकी कृति में पाया जाता है अत्यन्त दुर्लभ है। वे भक्ति-मार्गी थे, अतएव प्रेम-मार्ग का जैसा त्यागमय आदर्श उनकी रचनाओं में दृष्टिगत होता है, वह अभूतपूर्व है। प्रेममार्गी सूफी सम्प्रदाय वालों ने प्रेम पंथ का अवलंबन कर जैसी रस-धारा बहाई उससे कहीं अधिक भावमय मर्मस्पर्शी और मुग्धाकारिणी प्रेम की धाराएँ सूरदास जी ने अथवा उनके उत्ताराधिकारियों ने बहाई हैं। यही कारण है कि वे धाराएँ अन्त में आकर इन्हीं धाराओं में लीन हो गईं। क्योंकि भक्ति मार्गी कृष्णावत सम्प्रदाय की धाराओं के समान व्यापकता उनको नहीं प्राप्त हो सकी। परोक्ष सत्ता सम्बन्धी कल्पनाएँ मधुर और हृदयग्राही हैं और उनमें चमत्कार भी है, किन्तु वे बोधा-सुलभ नहीं। इसके प्रतिकूल वे कल्पनाएँ बहुत ही बोधा-गम्य बनीं और अधिकतर सर्व साधारण् को अपनी ओर आकर्षित कर सकीं जो ऐसी सत्ता के सम्बन्धा में की गयीं, जो परोक्ष-सत्ता पर अवलम्बित होने पर भी संसार में अपरोक्षभाव से अलौकिक मूर्ति धारण कर उपस्थित हुईं। भगवान श्री कृष्ण क्या हैं? परोक्ष सत्ता ही की ऐसी अलौकिकतामयी मूर्ति हैं जिनमें 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' मूर्त होकर विराजमान है। सूफी मत के प्रेम मार्गियों की रचनाओं में यह बात दृष्टिगत हो चुकी है कि वे किसी नायक अथवा नायिका का रूप वर्णन करते-करते उसको परोक्ष-सत्ता ही की विभूति मान लेते हैं और फिर उसके विषय में ऐसी बातें कहने लगते हैं जो विश्व की आधारभूत परोक्ष सत्ता ही से सम्बन्धिात होती हैं। अनेक अवस्थाओं में उनका इस प्रकार का वर्णन बोधा-सुलभ नहीं होता। वरन एक प्रकार से सन्दिग्धा और जटिल बन जाता है। किन्तु भक्ति-मार्गी महात्माओं के वर्णन में यह न्यूनता नहीं पायी जाती। क्योंकि वे पहले ही से अपनी अपरोक्ष सत्ता को परोक्ष सत्ता का ही अंश-विशेष होने का संस्कार सर्व साधारण के हृदय में विविधा युक्तियों से अंकित करते रहते हैं। क्या किसी सूफी प्रेम-मार्गी कवि की रचनाओं में वह अलौकिक मुरली निनाद हुआ, वह लोक-विमुग्धाकर गान हुआ, उस सुरदुर्लभ शक्ति का विकास हुआ, उस शिव संकल्प का समुदय हुआ और उन अचिन्तनीय सत्य भावों का आविर्भाव हुआ जो महामहिम सूरदास जैसे महात्माओं की महान् रचनाओं के अवलम्बन हैं? और यही सब ऐसे प्रबलतम कारण हैं कि इन महापुरुषों की कृतियों का अधिकतर आदर हुआ और वे अधिकतर व्यापक बनीं। इन सफलताओं का आदिम श्रेय हिन्दी साहित्य में प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी ही को प्राप्त है।
मैं समझता हूँ, सूरदास जी का भक्ति-मार्ग और प्रेमपथ श्रीमद्भागवत के सिध्दान्तों पर अवलम्बित है और यह महाप्रभु वल्लभाचार्य के सत्संग और उनकी गुरु-दीक्षा ही का फल है। सूरसागर श्रीमद्भागवत का ही अनुवाद है, परन्तु उसमें जो विशेषताएँ हैं वे सूरदास जी की निजी सम्पत्तिायाँ हैं। यह कहा जाता है कि उनकी प्रणाली 'भक्तवर' जयदेव जी के 'गीत गोविन्द'एवं मैथिल कोकिल विद्यापति की रचनाओं से भी प्रभावित है। कुछ अंश में यह बात भी स्वीकार की जा सकती है, परन्तु सूरदास जी की-सी उदात्ता भक्ति-भावनाएँ इन महाकवियों की रचनाओं में कहाँ हैं? मैं यह मानूँगा कि सूरदास जी की अधिकतर रचनाएँ शृंगार रस-गर्भित हैं। परन्तु उनका विप्रलम्भ शृंगार ही, विशेषकर हृदय-ग्राही और मार्मिक है। कारण इसका यह है कि उस पर प्रेम-मार्ग की महत्ताओं की छाप लगी हुई है। यह सत्य है कि मैथिल कोकिल विद्यापति की विप्रलम्भ शृंगार की रचनाएँ भी बड़ी ही भावमयी हैं, परन्तु क्या उनमें उतनी ही हृदय-वेदनाओं की झलक है जितनी सूरदास जी की रचनाओं में?क्या वे उतनी ही अश्रु-धारा से सिक्त, उतनी ही मानसोन्मादिनी और उतनी ही मर्म्मस्पर्शिनी और हृदयवेधिनी हैं जितनी सूरदास जी की उक्तियाँ? क्या उनमें भी वैसा ही करुण क्रन्दन सुन पड़ता है जैसा सूरदास जी की विरागमयी वचनावली में? इन बातों के अतिरिक्त सूरदास जी की रचनाओं में और भी कई एक विशेषताएँ हैं। उनका बाललीला-वर्णन और बालभावों का चित्राण इतना सुन्दर और स्वाभाविक है कि हिन्दी-साहित्य को उसका गर्व है। कुछ लोगों की सम्मति है कि संसार के साहित्य में ऐसे अपूर्व बालभावों के चित्राण का अभाव है। मैं इस पर अपनी ठीक सम्मति प्रकट करने में असमर्थ हूँ, परन्तु यह अधिकार के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा में ऐसा वर्णन तो है ही नहीं, परन्तु भारतीय अन्य प्रान्तीय भाषाओं में भी वैसा अपूर्व वर्णन उपलब्धा नहीं होता। उनकी विनय और प्रार्थना सम्बन्धी रचनाएँ भी आदर्श हैं और आगे चलकर परवर्ती कवियों के लिए उन्होंने मार्ग-प्रदर्शन का उल्लेखनीय कार्य किया है। मैं इस प्रकार के कुछ पद नीचे लिखता हूँ। उनको देखिए कि उनमें किस प्रकार हृदय खोलकर दिखलाया गया है, उनकी भाषा की प्रांजलता और सरसता भी दर्शनीय है।
1. जनम सिरानो ऐसे ऐसे।
कै घरघर भरमत जदुपति बिन कै सोवत कै बैसे।
के कहुँ खान पान रसनादिक कै कहुँ बाद अनैसे A
कै कहुँ रंक कहूँ ईसरता नट बाजीगर जैसे।
चेत्यो नहीं गयो टरि अवसर मीन बिना जल जैसे।
है गति भई सूर की ऐसी स्याम मिलैं धौं कैसे।
2. प्रभु मोरे औगुन चित न धारो।
समदरसी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो।
एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो।
जब दोनों मिलि एक बरन भये सुरसरि नाम परो।
एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो।
पारस गुन औगुन नहिं चितवै कंचन करत खरो।
यह माया भ्रम जाल कहावै सूरदास सगरो।
अबकी बार मोहिं पार उतारो नहिं प्रन जात टरो।
3. अपनपो आपन ही बिसरो A
जैसे स्वान काँच के मंदिर भ्रमि भ्रमि भूँकि मरो।
ज्यों केहरि प्रतिमा के देखत बरबस कूप पराे।
मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्हीं घरघर द्वार फिरो।
सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो।
4. मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पच्छी फिरि जहाज पै आवै।
कमल नयन को छाँड़ि महातम और देव को धयावै।
पुलिन गंग को छाँड़ि पियासो दुरमति कूप खनावै।
जिन मधुकर अंबुज रस चाख्यो क्यों करील फल खावै।
सूरदास प्रभु कामधोनु तजि छेरी कौन दुहावै।
कुछ पद्य बाल भाव-वर्णन के भी देखिए-
5. मैया मैं नाहीं दधि खायो A
ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायो A
देखु तुही छीके पर भाजन ऊँचे घर लटकायो A
तुही निरखु नान्हें कर अपने मैं कैसे कर पायो A
मुख दधि पोंछ कहत नँदनंदन दोना पीठि दुरायो।
डारि साँट मुसकाइ तबहिं गहि सुत को कंठ लगायो।
6. जसुदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै।
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुआवै।
तू काहें न वेग ही आवै तोको कान्ह बुलावै।
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं कबहुँ अधार फरकावै।
सोवत जानि मौन ह्नै ह्नै रहि करि करि सैन बतावै।
येहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरे गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नँदभामिनि पावै।
7. सोभित कर नवनीत लिये।
घुटुरुन चलत रेनु-मंडित तनु मुख दधि लेप किये।
चारु कपोल लोल लोचन छबि गोरोचन तिलक दिये।
लर लटकत मनो मत्ता मधुपगन माधुरि मधुर पिये।
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत सखि रुचिर हिये।
धान्य सूर एकौ पल यह सुख कहा भये सत कल्प जिये।
मैं ऊपर लिख आया हूँ कि सूरदास जी का शृंगार-रस वर्णन बड़ा विशद है और विप्रलम्भ शृंगार लिखने में तो उन्होंने वह निपुणता दिखलायी जैसी आज तक दृष्टिगत नहीं हुई। कुछ पद्य इस प्रकार के भी देखिए-
8. सुनि राधो यह कहा बिचारै।
वे तेरे रँग तू उनके रँग अपने मुख काहे न निहारै।
जो देखे ते छाँह आपनी स्याम हृदय तव छाया।
ऐसी दसा नंदनंदन की तुम दोउ निरमल काया।
नीलाम्बर स्यामल तन की छबि तुम छबि पीत सुबासड्ड
घर भीतर दामिनी प्रकासत दामिनि घन चहुँ पास।
सुन री सखी विलच्छ कहौं तो सों चाहति हरि को रूप।
सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप।
9. काहे को रोकत मारग सूधो A
सुनहु मधुप निरगुन कंटक सों राजपंथ क्यों रूँधो।
याका s कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधो।
सूर मूर अक्रूर ले गये ब्याज निबेरत ऊधो।
10. बिलग मत मानहु ऊधो प्यारे।
यह मथुरा काजर की ओबरी जे आवहिं ते कारे।
तुम कारे सुफलक सुत कारे कारे स्याम हमारे।
मानो एक माँठ मैं बोरे लै जमुना जो पखारे।
ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर स्याम गुन न्यारे।
11. अरी मोहिं भवन भयानक लागै माई स्याम बिना।
देखहिं जाइ काहि लोचन भरि नंद महरि के ऍंगना।
लै जो गये अक्रूर ताहि को ब्रज के प्रान धाना।
कौन सहाय करै घर अपने मेरे विघन घना।
काहि उठाय गोद करि लीजै करि करि मन मगना।
सूरदास मोहन दरसनु बिनु सुख संपति सपना।
12. खंजन नैन रूप रस माते।
अतिसै चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते।
चलि चलि जात निकट ò वननि के
उलटि पलटि ताटंक फँदाते।
सूरदास अंजन गुन अटके नतरु अबहिं उड़ि जाते।
13. ऊधो ऍंखिया अति अनुरागी।
एक टकमग जोवति अरु रोवति भूलेहुँ पलक न लागी।
बिनु पावस पावस रितु आई देखत हैं बिदमान।
अबधौं कहा कियौ चाहति है छाँड़हु निरगुन ज्ञान।
सुनि प्रिय सखा स्याम सुंदर के जानत सकल सुभाय A
जैसे मिलैं सूर के स्वामी तैसी करहु उपाय।
14. नैना भये अनाथ हमारे।
मदन गोपाल वहां ते सजनी सुनियत दूरि सिधारे।
वे जलसर हम मीन बापुरी कैसे जिवहिं निनारे A
हम चातकी चकोर स्याम घन वदन सुधा निधि प्यारे।
मधुवन बसत आस दरसन की जोइ नैन मग हारे।
सूर के स्याम करी पिय ऐसी मृतक हुते पुनि मारे।
15. सखी री स्याम सवै एकसार।
मीठे बचन सुहाये बोलत अन्तर जारन हार।
भँवर कुरंग काम अरु कोकिल कपटिन की चटसार।
सुनहु साखोरी दोष न काहू जो विधि लिखो लिलार।
उमड़ी घटा नाखि कै पावस प्रेम की प्रीति अपार।
सूरदास सरिता सर पोषत चातक करत पुकार।
भाषा कविवर सूरदास के हाथों में पड़कर धान्य हो गई। आरम्भिक काल से लेकर उनके समय तक आपने हिन्दी भाषा का अनेक रूप अवलोकन किया। परन्तु जो अलौकिकता उनकी भाषा में दृष्टिगत हुई वह असाधारण है। जैसी उसमें प्रांजलता है वैसी ही मिठास है। जितनी ही वह सरस है उतनी ही कोमल। जैसा उसमें प्रवाह है वैसा ही ओज। भावमूर्तिमन्त होकर जैसा उसमें दृष्टिगत होता है, वैसे ही व्यंजना भी उसमें अठखेलियाँ करती अवगत होती है। जैसा शृंगार-रस उसमें सुविकसित दिखलाई पड़ता है, वैसा ही वात्सल्य-रस छलकता मिलता है। जैसी प्रेम की विमुग्धाकारी मूर्ति उसमें आविर्भूत होती है वैसा ही आन्तरिक वेदनाओं का मर्मस्पर्शी रूप सामने आता है। ब्रजभाषा के जो उल्लेखनीय गुण अब तक माने जाते हैं और उसके जिस माधार्ुय्य का गुणगान अब तक किया जाता है, उसका प्रधान अवलम्बन सूरदास जी का ही कवि कर्म है। एक प्रान्त-विशेष की भाषा समुन्नत होकर यदि देश-व्यापिनी हुई तो ब्रजभाषा ही है और ब्रजभाषा को यह गौरव प्रदान करने वाले कविवर सूरदास हैं। उनके हाथों से यह भाषा जैसी मँजी, जितनी मनोहर बनी, और जिस सरसता को उसने प्राप्त किया वह हिन्दी-संसार के लिए गौरव की वस्तु है। मैंने ब्रजभाषा की जो विशेषताएँ पहले बतलायी हैं, वे सब उनकी भाषा में पाई जाती हैं, वरन् यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा के आधार से ही ब्रजभाषा की विशेषताओं की कल्पना हुई। मेरा विचार है कि उन्होंने इस बात पर भी दृष्टि रखी है कि कोई भाषा किस प्रकार व्यापक बन सकती है। उनकी भाषा में ब्रजभाषा का सुन्दर से सुन्दर रूप देखा जाता है। परन्तु ग्रामीणता दोष से वह अधिकतर सुरक्षित है। उसमें अन्य प्रान्तिक भाषाओं के शब्द भी मिल जाते हैं। किन्तु इनकी यह प्रणाली बहुत मर्यादित है। गुरु को लघु और लघु को गुरु करने में उनको संयत देखा जाता है। वे शब्दों को कभी-कभी तोड़ते मरोड़ते भी हैं। किन्तु उनका यह ढंग उद्वेजक नहीं होता। उसमें भी उनकी लेखनी की निपुणता दृष्टिगत होती है। ब्रजभाषा के जो नियम और विशेषताएँ मैं पहले लिख आया हूँ उनकी रचनाओं में उनका पालन किस प्रकार हुआ है, मैं नीचे उसको उद्धृत पद्यों के आधार से लिखता हूँ-
1. उनकी रचनाओं में कोमल शब्द-विन्यास होता है। इसलिए उनमें संयुक्त वर्ण बहुत कम पाये जाते हैं जो वैदर्भी वृत्तिा का प्रधान लक्षण है। यदि कोई संयुक्त वर्ण आ भी जाता है तो वे उसके विषय में युक्त-विकर्ष सिध्दान्त का अधिकतर पालन करते जाते हैं जैसे 'समदरसी', 'महातम', 'दुरलभ', 'दुरमति' इत्यादि। वर्गों के प×चम वर्ण के स्थान पर उनको प्राय: अनुस्वार का प्रयोग करते देखा जाता है। जैसे, 'रंक', 'कंचन', 'गंग', 'अंबुज', 'नंदनंदन', 'कंठ' इत्यादि।
2. णकार, शकार, क्षकार के स्थान पर क्रमश: 'न', 'स' और 'छ' वे लिखते हैं। 'ड' के स्थान पर 'ड़' और 'ल' के स्थान पर 'र' एवं संज्ञाओं के आदि के 'य' के स्थान पर 'ज' लिखते उनको प्राय: देखा जाता है। ऐसा वे ब्रज प्रान्त की बोलचाल की भाषा पर दृष्टि रखकर ही करते हैं। 'बरन', 'रेनु', 'गुन', 'औगुन', 'निरगुन', 'सोभित', 'सत', 'स्याम', 'दसा', 'दरसन', 'अतिसै', 'जसुमति', 'जसुदा', 'जदुपति', 'बिलछि' और 'पच्छी' आदि शब्द इसके प्रमाण हैं।
3. गुरु के स्थान पर लघु और लघु के स्थान पर गुरु भी वे करते हैं। किन्तु बहुत कम। 'माधुरि', 'रँग', 'नहिं', 'दामिनि', 'केहरि', 'मनो', 'भामिनि', 'बिन' इत्यादि शब्दों में गुरु को लघु कर दिया गया है। 'घना', 'मगना' इत्यादि में Ðस्व को दीर्घ कर दिया गया है, अर्थात् 'घन' और 'मगन' के 'न' को 'ना' बनाया गया है।
यह बात भी देखी जाती है कि वे कुछ कारक चिद्दों और प्रत्ययों आदि को लिखते तो शुध्द रूप में हैं, परन्तु पढ़ने में उनका उच्चारण Ðस्व होता है। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो छन्दोभंग होगा। निम्नलिखित पंक्तियों में इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है। चिद्दित कारक चिद्दों और शब्दगत वर्णों को देखिए-
1. ' काहे को रोकत मारग सूधो '
2. ' मेरे लाल को आउ निंदरिया काहे न आनि सुआवै '
3. ' सखी री स्याम सबै एक सार '
4. ' सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप '
5. सूर के स्याम करी पुनि ऐसी मृतक हुते पुनि मारे।
6. ' मानो एक माँठ मैं बोरे लै जमुना जो पखारे ' ।
7. ' समदरसी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो ' ।
8. ' जब दोनों मिलि एक बरन भये सुरसरि नाम परो '
यह प्रणाली कहाँ तक युक्ति-संगत है, इसमें मत भिन्नता है। किन्तु जिस मात्रा में विशेष स्थलों पर सूरदास जी ने ऐसा किया है, मेरा विचार है कि वह ग्राह्य है। क्योंकि इससे एक प्रकार से विशेष शब्द-विकृति की रक्षा होती है। दूसरी बात यह है कि यदि कुछ शब्दों को Ðस्व कर दिया जाय तो उसका अर्थ ही दूसरा हो जाता है। जैसे 'भये' को 'भय' लिखकर यदि छन्दोभंग की रक्षा की जाय तो अर्थापत्तिा सामने आती है। प्राकृत भाषा में भी यह प्रणाली गृहीत देखी जाती है। उर्दू कवियों की पंक्ति-पंक्ति में इस प्रकार का प्रयोग मिलता है। हिन्दी में विशेष अवस्था और अल्प मात्रा ही में कहीं ऐसा किया जाता है। यह पिंगल नियमावली के अन्तर्गत भी है। जैसे विशेष स्थानों में Ðस्व को दीर्घ और दीर्घ को Ðस्व लिखने का नियमहै उसी प्रकार संकीर्ण स्थलों पर Ðस्व को दीर्घ और दीर्घ का Ðस्व पढ़ने की प्रणालीभीहै।
4. प्राकृत और अपभ्रंश में प्राय: कारक चिद्दों का लोप देखा जाता है। सूरदास जी की रचनाओं में भी इस प्रकार की पंक्तियाँ मिलती हैं। कुछ तो कारकों का लोप साधारण बोलचाल की भाषा पर अवलम्बित है और कुछ कवितागत अथवा साहित्यिक प्रयोगों पर, नीेचे लिखे हुए वाक्य इसी प्रकार के हैं-
'जो विधि लिखा लिलार', 'मधुकर अंबुज रस चाख्यो', 'मैं कैसे करि पायो' इन वाक्यों में कत्तर् का ने चिद्द लुप्त है। 'कामधोनु तजि छेरी कौन दुहावे' 'प्रभु मोरे औगुन चित न धारो', 'मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्ही', 'सरिता सर पोषत' इन वाक्यों में कर्म का चिद्द 'को' अन्तर्हित है। 'नान्हे कर अपने मैं कैसे करि पायो' इस वाक्य में करण का 'से' चिद्द लुप्त है।
'जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ' में सम्प्रदान का चिद्द 'को' या 'के लिए' का लोप किया गया है। 'बरबस कूप परो' 'मेरे मुख लपटायो' 'ऊँचे घर लटकायो', 'पालने झुलावे', 'कर नवनीत लिये' इन वाक्यों में अधिकरण के 'में' चिद्द का अभावहै।
5. ब्रजभाषा में कुछ ऐसे शब्द प्रयोग में आते हैं जिनमें विभक्ति वा प्रत्यय शब्द के साथ सम्मिलित होते हैं, अलग नहीं लिखे जाते। कविता में इससे बड़ी सुविधा होती है। इस प्रकार के प्रयोग अधिकतर बोलचाल पर अवलम्बित हैं। पूर्वकालिक क्रिया का चिद्द 'कर' अथवा 'के' हैं। ब्रजभाषा में प्राय: विधि के साथ इकार का प्रयोग कर देने से भी वह क्रिया बन जाती है। जैसे, 'टरि' 'मिलि', 'करि' इत्यादि। संज्ञा के साथ जब ओकार सम्मिलित कर दिया जाता है तो वह प्राय: 'भी' का काम देता है जैसे 'एको', 'दूधो' इत्यादि 'जसुमति मधुरे गावै' में 'मधुर' के साथ मिला हुआ एकार भाव वाचकता का सूचक है। 'दोना पीठि दुरायो' में 'पीठि' के साथ मिलित इकार अधिकरण के 'में' चिद्द का द्योतक है इत्यादि।
6. वैदर्भी वृत्तिा का यह लक्षण है कि उसमें समस्त पद आते ही नहीं। यदि आते हैं तो साधारण समस्त पद आते हैं,लम्बे नहीं। कविवर सूरदास जी की रचना में यह विशेषता पाई जाती है। 'जैसे कमल नयन', 'अम्बुज रस', करीलफल इत्यादि।
7. कोमलता उत्पादन के लिए वे प्राय: 'ड़' और 'ल' के स्थान पर 'र' का प्रयोग करते हैं। जैसे 'घोड़ों' के स्थान पर'घोरो', 'तोड़ो' के स्थान पर 'तोरो', 'छोड़ो' के स्थान पर 'छोरो'। इसी प्रकार 'मूल' के स्थान पर 'मूर' और 'चटसाल' के स्थान पर 'चटसार'। उनकी रचनाओं में विकल्प से 'ड़' का भी प्रयोग देखा जाता है और 'ल' के स्थान पर 'र' का प्रयोग सब स्थानों पर ही नहीं होता। शब्द के मधय का यकार और वकार बहुधा 'ऐ' और 'औ' होता रहता है। जैसा 'नयन', 'बयन', 'सयन' का'नैन', 'बैन', 'सैन' इत्यादि और 'पवन' 'गवन', 'रवन' का 'पौन', 'गौन', 'रौन' इत्यादि। परन्तु उनका तत्सम रूप भी वे लिखते हैं। प्राय: ब्रजभाषा में वह शब्द जिसके आदि में Ðस्व इकार युक्त कोई व्यंजन होता है और उसके बाद 'या' होता है तो आदि व्यंजन का इकार गिर जाता है और वह अपने पर वर्ण 'य' में हलन्त होकर मिल जाता है। जैसे 'सियार' का 'स्यार' 'पियास'का 'प्यास' इत्यादि। किन्तु उनकी रचनाओं में दोनों प्रकार का रूप मिलता है। वे 'प्यास' भी लिखते हैं और पियास भी, 'प्यार'भी लिखते हैं और 'पियार' भी। ऊपर लिखे पद्यों में आप इस प्रकार का प्रयोग देख सकते हैं।
8. सूरदास जी को अपनी रचनाओं में मुहावरों का प्रयोग करते भी देखा जाता है। परन्तु चुने हुए मुहावरे ही उनकी रचना में आते हैं, जिससे उनकी उक्तियाँ बड़ी ही सरस हो जाती हैं। ऊपर के पद्यों में निम्नलिखित मुहावरे आये हैं। जिस स्थान पर ये मुहावरे आये हैं, उन स्थानों को देखकर आप अनुमान कर सकते हैं कि मेरे कथन में कितनी सत्यता है-
1. गोद करि लीजै
2. कैसे करि पायो
3. बिलग मत मानहु
4. लोचन भरि
5. ख्याल परे
9. देखा जाता है कि सूरदास जी कभी-कभी पूर्वी हिन्दी के शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान देते हैं। 'वैसे', 'पियासो'इत्यादि शब्द ऊपर के पद्यों में आप देख चुके हैं। 'सुनो' और 'मेरे' इत्यादि खड़ी बोली के शब्द भी कभी-कभी उनकी रचना में आ जाते हैं। किन्तु उनकी विशेषता यह है कि वे इन शब्दों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार खपाते हैं कि वे उनकी मुख्य भाषा (ब्रजभाषा) के अंग बन जाते हैं। अनेक अवस्थाओं में तो उनका परिचय प्राप्त होना भी दुस्तर हो जाता है। जिस कवि में इस प्रकार की शक्ति हो उसका इस प्रकार का प्रयोग तर्क-योग्य नहीं कहा जा सकता। जो अन्य प्रान्त की भाषाओं के शब्दों अथवा प्रान्तिक बोलियों के वाक्यों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार स्थान देते हैं कि जिनसे वे भद्दी बन जाती हैं अथवा जो उनकी मुख्य भाषा की मुख्यता में बाधा पहुँचाती हैं, उनकी ही कृति तर्क-योग्य कही जा सकती है। दूसरी बात यह है कि जब किसी प्रान्तिक भाषा को व्यापकता प्राप्त होती है तो उसे अपने साहित्य को उन्नत बनाने के लिए संकीर्णता छोड़कर उदारता ग्रहण करनी पड़ती है। जिस भाषा ने इस प्रकार की उदारता ग्रहण की, वही अपनी परिधि से निकलकर व्यापकता प्राप्त कर सकी। आज गोस्वामी तुलसीदास और कविवर सूरदास की रचनाएँ यदि उत्तारीय भारत को छोड़कर दक्षिणीय भारत के कुछ अंशों में भी आद्रित हो रही हैं तो उसका कारण यही है कि उन्होंने अपनी भाषा को उदार बनाया और उसके निजत्व को सुरक्षित रखकर अन्य भाषाओं के शब्दों को भी उसमें स्थान दिया। इस दृष्टि से देखने पर सूरदास जी ने इस विषय में जो कुछ स्वतंत्राता ग्रहण की है वह इस योग्य नहीं कि उस पर उँगली उठाई जासके।
10. प्राकृत भाषा के जो शब्द सुन्दर और सरस होने के कारण ब्रजभाषा की बोलचाल में गृहीत रहे, सूरदास जी की रचनाओं में भी उनका प्रयोग उसी रूप में पाया जाता है। ऐसे शब्द 'सायर', 'लोयन', 'नाह', 'केहरि' इत्यादि हैं। वे अपभ्रंश भाषा के अनुसार कुछ प्रातिपदिक और प्रत्ययों को भी उकार युक्त लिखते हैं जैसे तपु, मुहुँ, आजु, बिनु इत्यादि। ब्रजभाषा और अवधी में अपभ्रंश अथवा प्राकृत भाषा की अनेक विशेषताएँ पायी जाती हैं। ऐसी अवस्था में यदि उसके कुछ शब्द अपने मुख्य रूप में इन भाषाओं में आते हैं तो उनका आना युक्तिसंगत है, क्योंकि इस प्रकार की विशेषताएँ और शब्दावली ही उस घनिष्ठता का परिचय देती रहती हैं। भाषा-शास्त्रा की दृष्टि से इस प्रकार की घनिष्ठता अधिक वांछनीय है।
11. ब्रजभाषा की बोलचाल में कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका उच्चारण कुछ ऐसी विशेषता से किया जाता है कि वे बहुत मधुर बन जाते हैं। इन शब्दों के अन्त में एक वर्ण अथवा 'आ' इस प्रकार बढ़ा दिया जाता है कि जिससे उसका अर्थ तो वही रह जाता है कि जिसमें वह मिलाया जाता है परन्तु ऐसा करने से उसमें एक विचित्रा मिठास आ जाती है। 'सुअना', 'नैना', 'नदिया', 'निंदरिया', 'जियरा', 'हियरा' आदि ऐसे ही शब्द हैं। सूरदासजी इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग अपनी रचना में इस सरसता के साथ करते हैं कि उसका छिपा हुआ रस छलकने लगता है। देखिए-
1. 'सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो'।
2. नैना भये अनाथ हमारे।
3. एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो।
4. 'मेरे लाल को आउ निंदरिया काहे न आनि सुआवै'।
अवधी भाषा के इसी प्रकार के शब्द 'करेजवा' 'बदरवा' इत्यादि हैं। जैसे संस्कृत में स्वार्थे 'क' आता है जैसे 'पुत्रक', 'बालक' इत्यादि। इन दोनों शब्दों में जो अर्थ 'पुत्र' और 'बाल' का है वही अर्थ सम्मिलित 'क' का है, उसका कोई अन्य अर्थ नहीं। इसी प्रकार 'मुखड़ा', 'बछड़ा', 'हियरा', 'जियरा', 'करेजवा', 'बदरवा', 'ऍंसुवा', 'नदिया', 'निदरिया' के 'ड़ा', 'रा', 'वा' और'या' आदि हैं। जो अन्त में आये हैं और अपना पृथक अर्थ नहीं रखते। केवल 'आ' भी आता है, जैसे 'नैना', 'बैना', 'बदरा', 'ऍंचरा' का 'आ'।
12. ब्रजभाषा में बहुवचन के लिए शब्द के अन्त में 'न' और 'नि' आता है। ईकारान्त शब्दों में पूर्ववर्ती वर्ण को Ðस्व करके याँ और अकारान्त शब्दों के अन्त में 'ऐ' आता है। सूरदास जी की रचनाओं में इन सब परिवर्तनों के उदाहरण मिलते हैं,जिनसे उनकी व्यापक दृष्टि का पता चलता है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखिए-
कछुक खात कछु धारनि गिरावत छबि निरखत नँदरनियाँ '
' भरि भरि जमुना उमड़ि चलत है इन नैनन के तीर '
' लोगन के मन हाँसी ' ' सूर परागनि तजति हिये ते
श्री गुपाल अनुरागी। ' ऍंखिया हरिदरसन की प्यासी '
' जलसमूह बरसत दोउ ऑंखैं हूँकत लीने नाउँ '
13. सूरदास की रचना में यह मुख्य बात पाई जाती है कि वे संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग करते हैं। परन्तु विशेषता यह है कि उनके शब्द चुने हुए और ऐसे होते हैं जिनको काव्योपयुक्त कहा जा सकता है। संयुक्त वर्णों को तो मुख्य रूप में वे कभी-कभी संकीर्ण स्थलों पर ही लेते हैं। परन्तु, कोमल, ललित और सरस तत्सम शब्दों को वे निस्संकोच ग्रहण करते हैं और इस प्रकार अपनी भाषा को मधुरतम बना देते हैं। उद्धृत पद्यों में से सातवें पद्य को देखिए। उनकी रचना में जो शब्द जिस भाव की व्यंजना के लिए आते हैं वे ऐसे मनोनीत होते हैं जो अपने स्थान पर बहुत ही उपयुक्त जान पड़ते हैं। अनुप्रास अथवा वर्णमैत्राी जैसी उनकी कृति में मिलती है, अन्यत्रा दुर्लभ है। जो शब्द उनकी रचना में आते हैं, प्रवाह रूप से आते हैं। उनके अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि वे प्रयत्नपूर्वक नहीं स्वाभाविक रीति से आकर अपने स्थान पर विराजमान हैं। रसानुकूल शब्द-चयन उनकी रचना की विशेष सम्पत्तिा है। अधिकतर उनकी रचनाएँ पद के स्वरूप ही में हैं, अतएव झंकार और संगीत उनके व्यवहृत शब्दों के विशेष गुण हैं। इतना होने पर भी जटिलता का लेश नहीं। सब ओर प्रांजल और सरलता ही दृष्टिगत होती है।
14. किसी भाव को यथातथ्य अंकित करना और उसका जीता-जागता चित्रा सामने लाना सूरदास जी की प्रतिभा का प्रधान गुण है। जिस भाव का चित्रा वे सामने रखते हैं उनकी रचनाओं में वह मूर्ति-मन्त होकर दृष्टिगत होता है। प्रार्थना और विनय के पदों में उनके मानसिक भाव किस प्रकार ज्ञान-पथ में विचरण करते हैं और फिर कैसे विश्व-सत्ता के सामने वे विनत हो जाते हैं, इस बात को उनके विनय के पद्यों की पंक्ति-पंक्ति बड़ी ही सरसता से अभिव्यंजित करती पाई जाती है। उद्धृत पद्यों में से संख्या एक से चार तक के पद्य देखिए। उनमें एक ओर यदि मानवों के स्वाभाविक अज्ञान, दुर्बलताओं और भ्रम-प्रमाद पर हृदय मर्माहत होता देखा जाता है तो दूसरी ओर मानसिक करुणा अपने हाथों में विनय की पुष्पांजलि लिये किसी करुणासागर की ओर अग्रसर होती दिखलाई पड़ती है। बालभाव का वर्णन जिन पद्यों में है, (देखिए संख्या 5 से 7 तक) उनमें बालकों के भोले-भाले भाव जिस प्रकार अंकित हैं वे बड़े ही मर्म-स्पर्शी हैं। उनके देखने से ज्ञात होता है कि कवि किस प्रकार हृदय की सरल से सरल वृत्तिायों और मन के सुकुमार भावों के यथातथ्य चित्राण की क्षमता रखता है। बाल-लीला के पदों को पढ़ते समय ऐसा ज्ञात होने लगता है कि जिस समय की लीला का वर्णन है, उस समय कवि खड़ा होकर वहाँ के क्रिया-कलाप को देख रहा था। इन वर्णनों के पढ़ते ही ऑंखों के सामने वहा समाँ आ जाती है, जो उस समय वहाँ मौजूद रहकर कोई देखने वाली ऑंखें ही देख सकती हैं। इस प्रकार का चित्राण सूरदास के ऐसे सहृदय कवि ही कर सकते हैं, अन्यों के लिए यह बात सुगम नहीं। उनका शृंगार-वर्णन पराकाष्ठा को पहुँच गया है। उतना सरस और स्वाभाविक वर्णन हिन्दी-साहित्य में नहीं मिलता, यह मैं कहूँगा कि शृंगार-रस के कुछ वर्णन ऐसे हैं कि यदि वे उस रूप में न लिखे जाते तो अच्छा होता, किन्तु कला की दृष्टि से वे बहुमूल्य हैं। उनका विप्रलम्भ शृंगार ऐसा है जिसके पद-पद से रस निचुड़ता है। संसार के साहित्य-क्षेत्र में प्रेम-धाराएँ विविधा रूप से बहीं, कहीं वे बड़ी ही वेदनामयी हैं, कहीं उन्मादमयी और रोमांचकारी, और कहीं उनमें आत्मविस्मृति और तन्मयता की ऐसीर् मूत्तिा दिखलायी पड़ती है जो अनुभव करने वाले को किसी अलौकिक संसार में पहुँचा देती है। फिर भी सूरदास की इस प्रकार की रचनाएँ पढ़ कर यह भावनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं कि क्या ऐसी ही सरसता और मोहकता उन सब धाराओं में भी होगी? प्रेम-लीलाओं के चित्राण में जैसी निपुणता देखी जाती है, वैसी प्रवीणता उनकी अन्य रचनाओं में नहीं पाई जाती। उनका विप्रलम्भ शृंगार-सम्बन्धी वर्णन बड़ा ही उदात्ता है। उनमें मन के सुकुमार भावों का जैसा अंकन है, जैसी उनमें हृदय को द्रवित करने वाली विभूतियाँ हैं, यदि वे अन्य कहीं होंगी तो इतनी ही होंगी। वे किसी सच्चे प्रेम-पथिक की ही अनुभवनीय हैं, अन्य की नहीं। कोई रहस्यवादी बनता है, और अपरोक्ष सत्ता को लेकर निर्गुण में गुण की कल्पना करता है। परन्तु कल्पना कल्पना ही है, उसमें मानसिक वृत्तिायों का वह सच्चा विकास कहाँ जो वास्तव में किसी सगुण से सम्बन्धा रखती हैं? जो आन्तरिक आनन्द हम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश के अनुभूत विभवों से प्राप्त कर सकते हैं,पंचतन्मात्राओं से नहीं, क्योंकि उनमें सांसारिकता है, इनमें नहीं। हम विचारों को दौड़ा लें, पर विचार किसी आधार पर ही अवलम्बित हो सकते हैं। सांसारिकों को सांसारिकता ही सुलभ हो सकती है। संसार से परे क्या है? उसकी कल्पना वह भले ही कर लें, किन्तु उसका मन उन्हीं में रम सकता है जो सांसारिक विषय हैं। यही कारण है कि जो निर्गुणवादी बनने का दावा करता हैं, वे जब आनन्दमय जीवन की कामना करते हैं तो सगुण भावों का ही आश्रय लेते हैं। सूरदास जी इसके मर्मज्ञ थे। इसलिए उन्होंने सगुण भावों को लेकर ऐसे मोती पिरोये हैं, कि जिनकी बहुमूल्यता चिन्तनीय है, कथनीय नहीं। उन्होंने अपने लक्ष्य को प्रकाश में रखा है, अन्धाकार में नहीं। इसीलिए उनकी रचनाएँ प्रेम-मार्गी अन्य कवियों से सरसता और मोहकता में अधिकतर स्वाभाविक हैं। उनका यह रंग इतना गहरा था कि वे कभी-कभी अपनी धुन में मस्त होकर निर्गुण पर भी कटाक्ष कर जाते हैं। यह उनका प्रमाद नहीं है, वरन् उनकी सगुण परायणता का अनन्य भाव है। मेरा विचार है प्रेममार्ग में उनकी विप्रलम्भ शृंगार की रचनाएँ बड़ा महत्तव रखती हैं। यह कहना कि संसार के साहित्य में उनका स्थान सर्वोच्च है, कदाचित् अच्छा न समझा जावे, परन्तु यह मानना पड़ेगा कि संसार के साहित्य की उच्चतम कृतियों में वे भी समान स्थान लाभ करने की अधिकारिणी हैं।
15. ब्रजभाषा की अधिकांश क्रियाएँ अकारान्त या ओकारान्त हैं। उसके सर्वनामों और कारक-चिद्दों, प्रत्ययों एवं प्रातिपदिक शब्दों के प्रयोग में भी विशेषता है। जो उसको अन्य भाषाओं अथवा प्रान्तिक बोलियों से अलग करती है। सूरदास जी ने अपनी रचना में इनके शुध्द प्रयोगों का बहुत अधिक धयान रखा है। उद्धृत पद्यों के ऐसे अधिकांश शब्दों और क्रियाओं पर चिद्द बना दिये गये हैं। उनके देखने से ज्ञात हो जावेगा कि वे ब्रजभाषा पर कितना प्रभाव रखते थे। उनकी रचना में फ़ारसी अरबी के शब्द भी, सामयिक प्रभाव के कारण आये हैं। परन्तु उनको भी उन्होंने ब्रजभाषा के रंग में ढाल दिया है। इन सब विषयों पर अधिक लिखने से व्यर्थ विस्तार होगा। इसलिए मैं इस बाहुल्य से बचता हूँ। थोड़ा-सा उन पर विचार दृष्टि डालने से ही अधिकांश बातें स्पष्ट हो जाएँगी।
पहले लिख आया हूँ कि सूरदास जी ही ब्रजभाषा के प्रधान आचार्य हैं। वास्तव में बात यह है कि उन्होंने ब्रजभाषा के लिए जो सिध्दान्त साहित्यिक दृष्टि से बनाये और जो मार्ग-प्रदर्शन किया, आज तक उसी को अवलम्बन करके प्रत्येक ब्रजभाषा का कवि साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर होता है। उनके समय से जितने कवि और महाकवि ब्रजभाषा के हुए, वे सब उन्हीं की प्र्रवत्तिात-प्रणाली के अनुग हैं। उन्हीं का पदानुसरण उस काल से अब तक कवि-समूह करता आया है, उनके समय से अब तक का साहित्य उठा लीजिए, उसमें स्वयं-प्रकाश सूर की ही प्रभा विकीर्ण होती दिखलायी पड़ेगी। जो मार्ग उन्होंने दिखलाया वह आजतक यथातथ्य सुरक्षित है। उसमें कोई साहित्यकार थोड़ा परिवर्तन भी नहीं कर सका। कुछ कवियों ने प्रान्त-विशेष के निवासी होने के कारण अपनी रचना में प्रान्तिक शब्दों का प्रयोग किया है। परन्तु वह भी परिमित है। उन्होंने उस प्रधान आदर्श से मुँह नहीं मोड़ा जिसके लिए कविवर सूरदास कवि-समाज में आज तक पूज्य दृष्टि से देखे जाते हैं।
डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन ने उनके विषय में जो कुछ लिखा है, आप लोगों के अवलोकन के लिए उसे भी यहाँ उद्धृत करता हूँ। वे लिखते हैं-
“साहित्य में सूरदास के स्थान के सम्बन्धा में मैं यही कह सकता हूँ कि वह बहुत ऊँचा है। सब तरह की शैलियों में वे अद्वितीय हैं। आवश्यकता पड़ने पर वे जटिल से जटिल शैली में लिख सकते थे और फिर दूसरे ही पद में ऐसी शैली का अवलम्बन कर सकते थे जिसमें प्रकाश की किरणों की-सी स्पष्टता हो। किसी गुण विशेष में अन्य कवि भले ही उनकी बराबरी कर सके हों, किन्तु सूरदास में अन्य समस्त कवियों के सर्वोत्कृष्ट गुणों का एकत्राी भाव है।”1
गोस्वामी तुलसीदास जी की काव्य-कला अमृतमयी है। उससे वह संजीवनी धारा निकली जिसने साहित्य के प्रत्येक अंग को ही नवजीवन नहीं प्रदान किया वरन् मृतकप्राय हिन्दू-समाज के प्रत्येक अंग को वह जीवनी-शक्ति दी, जिससे वह बड़े संकटकाल में भी जीवित रह सकी। इसीलिए वे हिन्दी-संसार के सुधाधार हैं। गोस्वामी जी की दृष्टि इतनी प्रखर थी और सामयिकता की नाड़ी उन्होंने इस मार्मिकता से टटोली कि उनकी रचनाएँ आज भी रुग्ण मानसों के लिए रसायन का काम दे रही हैं। यदि केवल अपने-अलौकिक ग्रन्थ रामचरित मानस का ही उन्होंने निर्माण किया होता तो भी उनकी वह कीर्ति अक्षुण्ण रहती जो आज निर्मल कौमुदी समान भारत-वसुन्धारा में विस्तृत है। किन्तु उनके और भी कई ग्रन्थ ऐसे हैं जिनसे उनकी
1. "Regarding Surdas's place in literature, I commonly add that he justly holds a high one. He excelled in all styles. He could, if occasion required, be more obsoure than the spbynu and in the next verse he as clear as a ray of light. Other poets may have equalled him in some particular quality, but he combined the best qualities of all."
कीर्ति-कौमुदी और अधिक उज्ज्वल हो गई है और इसीलिए वे कौमुदीश हैं। ब्रजभाषा और अवधी दोनों पर उनका समान अधिकार देखा जाता है। जैसी ही अपूर्व रचना वे ब्रजभाषा में करते हैं, वैसी ही अवधी में। रामचरितमानस की रचना अवधी भाषा में ही हुई। किन्तु गोस्वामी जी की अवधी परिमार्जित अवधी है और यही कारण है कि जब मलिक मुहम्मद जायसी की 'पदमावत' की भाषा आजकल कठिनता से समझी जाती है, तब गोस्वामी जी की रामायण को सर्वसाधारण समझ लेते हैं। मलिक मुहम्मद जायसी की भाषा के विषय में मैं ऊपर लिख आया हूँ। वे भी संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हैं किन्तु उनका संस्कृत शब्दों का भण्डार व्यापक नहीं था। इसलिए वे सरस, भावमय एवं कोमल संस्कृत शब्दों के चयन में उतने समर्थ नहीं बन सके, जितने गोस्वामी जी। कहीं-कहीं उन्होंने संस्कृत शब्दों को इतना विकृत कर दिया है कि उसकी पहचान कठिनता से होती है। जैसे 'शार्दूल' का 'सदूर'। परन्तु गोस्वामी जी इस महान दोष से सर्वथा मुक्त हैं। अवधी शब्दों और वाक्यों के विषय में भी उनकी सहृदयता नीर-क्षीर का विवेक करने में हंस की-सी शक्ति रखती है। रामचरितमानस विशाल ग्रन्थ है। परन्तु उसमें ग्रामीण भद्दे शब्द बहुत खोजने पर भी नहीं मिलते। कहीं-कहीं तो अवधी शब्द का व्यवहार उनके द्वारा इस मधुरता से हुआ है कि वे बड़े ही हृदयग्राही बन गये हैं। उनकी दृष्टि विशाल थी और वे इस बात के इच्छुक थे कि उनकी रचना हिन्दू-संसार में नवजीवन का संचार करे। अतएव उन्होंने हिन्दी-भाषा के ऐसे अनेक शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान दिया है जो अवधी भाषा के नहीं कहे जा सकते। उनकी इस दूरदर्शिनी दृष्टि का ही यह फल है कि आज उनके महान् ग्रन्थ की उतनी व्यापकता है, कि उसके लिए 'गेहे गेहे जने जने' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।
गोस्वामी जी जिस समय साहित्य-क्षेत्र में उतरे, उस समय निर्गुणधारा बड़े वेग से बह रही थी। जो जनता को परोक्ष सत्ता की ओर ले जाकर उसके मनों में सांसारिकता से विराग उत्पन्न कर रही थी। विराग वैदिक धर्म का एक अंग है। उसको शास्त्राीय भाषा में निवृत्तिा मार्ग कहते हैं। अवस्था विशेष के लिए ही यह मार्ग निर्दिष्ट है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रवृत्तिा-मार्ग की उपेक्षा कर अनधिकारी भी निवृत्तिा-मार्गी बन जाये। निवृत्तिा-मार्ग का प्रधान गुण है त्याग, जो सर्वसाधारण के लिए सुलभ नहीं। इसीलिए अधिकारी पुरुष ही निवृत्तिामार्गी बन सकता है क्योंकि जो तत्तवज्ञ नहीं, वह निवृत्तिा-मार्ग के नियमों का पालन नहीं कर सकता। निवृत्तिा मार्ग का यह अर्थ नहीं कि मनुष्य घर-बार और बाल-बच्चों का त्याग कर अकर्मण्य बन जाये और तमूरा खड़का कर अपना पेट पालता फिरे। त्याग मानसिक होता है और उसमें वह शक्ति होती है जो देश, जाति, समाज और मानवीय आत्मा को बहुत उन्नत बना देती है। जो अपने गृह को, परिवार को, पड़ोस को,ग्राम को अपनी सहानुभूति, सत्य व्यवहार और त्याग-बल से उन्नत नहीं बना सकता, उसका देश और जाति को ऊँचा उठाने का राग अलापना अपनी आत्मा को ही प्रसारित नहीं करना है, प्रत्युत दूसरों के सामने ऐेसे आदर्श उपस्थित करना है जो लोक-संग्रह का बाधाक है। निर्गुणवादियों ने लोक-संग्रह की ओर दृष्टि डाली ही नहीं। वे संसार की असारता का राग ही गाते और उस लोक की ओर जनता को आकर्षित करने का उद्योग करते देखे जाते हैं, जो सर्वथा अकल्पनीय है। वहाँ सुधा का श्रोत प्रवाहित होता हो, स्वर्गीय गान श्रवणगत होता हो, सुर-दुर्लभ अलौकिक पदार्थ प्राप्त होते हों, वहाँ उन विभूतियों का निवास हो जो अचिन्तनीय कही जा सकती हैं। परन्तु वे जीवों के किस काम की जब उनको वे जीवन समाप्त करके ही प्राप्त कर सकते हैं?मरने के उपरान्त क्या होता है, अब तक इस रहस्य का उद्धाटन नहीं हुआ। फिर केवल उस कल्पना के आधार पर उसको असार कहना, जिसका हमारे जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्धा है, क्या बुध्दिमत्ता है? यदि संसार असार है और उसका त्याग आवश्यक है तो उस सार वस्तु को सामने आना चाहिए कि जो वास्तव में कार्य-क्षेत्र में आकर यह सिध्द कर दे कि संसार की असारता में कोई सन्देह नहीं। हमारे इन तर्कों का यह अर्थ नहीं कि हम परोक्षवाद का खंडन करते हैं, या उन सिध्दान्तों का विरोधा करने के लिए कटिबध्द हैं, जिनके द्वारा मुक्ति, नरक, स्वर्ग आदि की सत्ता स्वीकार की जाती है। यह बड़ा जटिल विषय है। आज तक न इसकी सर्वसम्मत निष्पत्तिा हुई न भविष्यकाल में होने की आशा है। यह विषय सदा ही रहस्य बना रहेगा। मेरा कथन इतना ही है कि सांसारिकता की समुचित रक्षा करके ही परमार्थ-चिन्ता उपयोगी बन सकती है, वरन् सत्य तो यह है कि सांसारिकता समुन्नत त्यागमय जीवन ही परमार्थ है। हम आत्म-हित करते हुए जब लोकहित साधान में समर्थ हों तभी मानव-जीवन सार्थक हो सकता है। यदि विचार-दृष्टि से देखा जावे तो यह स्पष्ट हो जावेगा कि जो आत्म-हित करने में असमर्थ है वह लोक-हित करने में समर्थ नहीं हो सकता। आत्मोन्नति के द्वारा ही मनुष्य लोकहित करने का अधिकारी होता है। देखा जाता है कि जिसके मुख से यह निकलता रहता है कि 'अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम, दास मलूका यों कहै,सब के दाता राम', वह भी हाथ-पाँव डालकर बैठा नहीं रहता। क्योंकि पेट उसको बैठने नहीं देता। हाँ, इस प्रकार के विचारों से समाज में अकर्मण्यता अवश्य उत्पन्न हो जाती है, जिससे अकर्मण्य प्राणी जाति और समाज पर बोझ बन जाते हैं। उचित क्या है? यही कि हम अपने हाथ-पाँव आदि को उन कर्मों में लगावें कि जिनके लिए उनका सृजन है। ऐसा करने से लाभ यह होगा कि हम स्वयं संसार से लाभ उठावेंगे और इस प्रवृत्तिा के अनुसार सांसारिक अन्य प्राणियों को भी लाभ पहुँचा सकेंगे। प्रयोजन यह है कि सांसारिकता की रक्षा करते हुए, लोक में रहकर लोक केर् कर्तव्य का पालन करते हुए, यदि मानव वह विभूति प्राप्त कर सके जो अलौकिक बतलायी जाती है। तब तो उसकी जीवन-यात्रा सुफल होगी, अन्यथा सब प्रकार की असफलता ही सामने आवेगी। रहा यह कि परलोक में क्या होगा उसको यथातथ्य कौन बतला सका?
निर्गुणवाद की शिक्षा लगभग ऐसी ही है, जो संसार से विराग उत्पन्न करती रहती है। घर छोड़ो, धान छोड़ो, विभव छोड़ो,कुटुंब परिवार छोड़ो, करो क्या? जप, तप और हरि-भजन। जीवन चार दिन का है, संसार में कोई अपना नहीं। इसलिए सबको छोड़ो और भगवान का नाम जप कर अपना जन्म बनाओ। इस शिक्षा में लोक-संग्रह का भाव कहाँ? इन्हीं शिक्षाओं का यह फल है कि आजकल हिन्दू-समाज में कई लाख ऐसे प्राणी हैं जो अपने को संसार त्यागी समझते हैं और आप कुछ न कर दूसरों के सिर का बोझ बन रहे हैं। उनके बाल-बच्चे अनाथ हों, उनकी स्त्राी भूखों मरे, उनकी बला से। वे देश के काम आवें या न आवें, जाति का उनसे कुछ भला हो या न हो, समाज उनसे छिन्न-भिन्न होता है तो हो, उनको इन बातों से कोई मतलब नहीं,क्योंकि वे भगवान के भक्त बन गये हैं और उनको इन पचड़ों से कोई काम नहीं। संसार में रहकर कैसे जीवन व्यतीत करना चाहिए? कैसे दूसरों के काम आना चाहिए? कैसे कष्टितों का कष्ट-निवारण करना चाहिए? कैसे प्राणिमात्रा का हित करना चाहिए?मानवता किसे कहते हैं? साधुचरित्रा का क्या महत्तव है? महात्मा किसका नाम है? वे न इन सब बातों को जानते और न इन्हें जानने का उद्योग करते हैं। फिर भी वे हरि-भक्त हैं और इस बात का विश्वास रखते हैं कि उनको लेने के लिए सीधो सत्य लोक से विमान आएगा। जिसके ऐसे संस्कार हैं उससे लोक-संग्रह की क्या आशा है? किन्तु कष्ट की बात है कि अधिकांश हमारा संसार-त्यागी समाज ऐसा ही है। क्योंकि उसने त्याग और हरिभजन का मर्म समझा ही नहीं, और क्यों समझता जब परोक्ष सत्ता ही से उसको प्रयोजन है और संसार से उसका कोई सम्बन्धा नहीं।
महाप्रभु वल्लभाचार्य ने हिन्दू-समाज के इस रोग को उस समय पहचाना था और उन्होंने अपने सम्प्रदाय का यह प्रधान सिध्दान्त रखा कि गार्हस्थ्य धर्म में रह कर ही और सांसारिक समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए ही परमार्थ चिन्ता करनी चाहिए, जिससे समाज लोक-संग्रह के मर्म को न समझ कर अस्त-व्यस्त न हो। त्याग का विरोधा उन्होंने नहीं किया, किन्तु त्याग के उस उच्च आदर्श की ओर हिन्दू समाज की दृष्टि आकर्षित की जो मानस-सम्बन्धी सच्चा त्याग है। उनका आदर्श इस श्लोक के अनुसार था-
वनेषु दोषा: प्रभवन्ति रागिणाम् ,
गृहेषु प × चेन्द्रिय निग्रहस्तप:
अकुत्सिते कर्मणि य: प्र्रवत्ताते ,
निवृत्ता रागस्य गृहं तपोवनम्।
रागात्मक जनों के लिए वन भी सदोष बन जाता है। घर में रहकर पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना ही तप है। जो अकुत्सित कर्मों में प्रवृत्ता होता है उसके लिए घर ही तपोवन है। महाप्रभु वल्लभाचार्य की तरह गोस्वामी जी में भी लोक-संग्रह का भाव बड़ा प्रबल था सामयिक मिथ्याचारों और अयथा विचारों से वे संतप्त थे। आर्य-मर्यादा का रक्षण ही उनका धयेय था। वे हिन्दू जाति की रगों में वह लोहू भरना चाहते थे कि जिससे वह सत्य-संकल्प और सदाचारी बनकर वैदिक धर्म की रक्षा के उपयुक्त बन सके। वे यह भलीभाँति जानते थे कि लोक-संग्रह सभ्यता की उच्च सीढ़ियों पर आरोहण किये बिना ठीक-ठाक नहीं हो सकता, वे हिन्दू जनता के हृदय में यह भाव भी भरना चाहते थे कि चरित्रा-बल ही संसार में सिध्दि-लाभ का सर्वोत्ताम साधान है। इसलिए उन्होंने उस ग्रन्थ की रचना की जिसका नाम रामचरितमानस है और जिसमें इन सब बातों की उच्च से उच्च शिक्षा विद्यमान है। उनकी वर्णन-शैली और शब्द-विन्यास इतना प्रबल है कि उनसे कोई हृदय प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। अपने महान् ग्रन्थ में उन्होंने जो आदर्श हिन्दू-समाज के सामने रखे हैं, वे इतने पूर्ण, व्यापक और उच्च हैं जो मानव-समाज की समस्त आवश्यकताओं और न्यूनताओं की पूर्ति करते हैं। भगवान् रामचन्द्र का नाम मर्यादा पुरुषोत्ताम है। उनकी लीलाएँ आचार-व्यवहार और नीति भी मर्यादित हैं। इसलिए रामचरितमानस भी मर्यादामय है। जिस समय साहित्य में मर्यादा का उल्लंघन करना साधारण बात थी, उस समय गोस्वामी जी को ग्रन्थ भर में कहीं मर्यादा का उल्लंघन करते नहीं देखा जाता। कवि कर्म्म में जितने संयत वे देखे जाते हैं, हिन्दी-संसार में कोई कवि या महाकवि उतना संयत नहीं देखा जाता और यह उनके महान् तप और शुध्द विचार तथा उस लगन का ही फल है जो उनको लोक-संग्रह की ओर खींच रहा था।
गोस्वामी जी का प्रधान ग्रंथ रामायण है। उसमें धर्मनीति, समाजनीति, राजनीति का सुन्दर से सुन्दर चित्राण है। गृहमेधियों से लेकर संसार-त्यागी संन्यासियों तक के लिए उसमें उच्च से उच्च शिक्षाएँ मौजूद हैं।र् कर्तव्य-क्षेत्र में उतरकर मानव किस प्रकार उच्च जीवन व्यतीत कर सकता है, जिस प्रकार इस विषय में उसमें उत्ताम से उत्ताम शिक्षाएँ मौजूद हैं, उसी प्रकार परलोक-पथ के पथिकों के लिए भी पुनीत ज्ञान-चर्चा और लोकोत्तार विचार विद्यमान है। हिन्दू-धर्म के विविधा मतों का समन्वय जैसा इस महान् ग्रन्थ में मिलता है वैसा किसी अन्य ग्रन्थ में दृष्टिगत नहीं होता। शैवों और वैष्णवों का कलह सर्व-जन विदित है परन्तु गोस्वामी जी ने उसका जिस प्रकार निराकरण किया उसकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। समस्त वेद,शास्त्रा और पुराणों के उच्च से उच्च भावों का निरूपण इस ग्रन्थ में पाया जाता है और अतीव प्रांजलता के साथ। काव्य और साहित्य का कोई उत्ताम विषय ऐसा नहीं कि जिसका दर्शन इस ग्रन्थ में न होता हो। यह ग्रन्थ सरसता, मधुरता और मनोभावों के चित्राण में जैसा अभूतपूर्व है वैसा ही उपयोगिता में भी अपना उच्च स्थान रखता है। यही कारण है कि तीन सौ वर्ष से वह हिन्दू समाज, विशेषकर उत्तारीय भारत, का आदर्श ग्रन्थ है। जिस समय मुसलमानों का अव्याहत प्रताप था,शास्त्राों के मनन, चिन्तन का मार्ग धीरे-धीरे बन्द हो रहा था, संस्कृत की शिक्षा दुर्लभतर हो रही थी और हिन्दू समाज के लिए सच्चा उपदेशक दुष्प्राप्य था, उस समय इस महान ग्रन्थ का प्रकाश ही उस अन्धाकार का नाश कर रहा था जो अज्ञात रूप में हिन्दुओं के चारों ओर व्याप्त था। आज भी उत्तार भारत के गाँव-गाँव में हिन्दू शास्त्रा के प्रमाण-कोटि में रामायण की चौपाइयाँ गृहीत हैं। प्राय: अंग्रेज विद्वानों ने लिखा है कि योरोप में जो प्रतिष्ठा बाइबिल (Bible) को प्राप्त है, भारतवर्ष में वह गौरव यदि किसी ग्रन्थ को मिला तो वह रामचरितमानस है। एक साधारण कुटी से लेकर राजमहलों तक में यदि किसी ग्रन्थ की पूजा होती है तो वह रामायण ही है। उसका श्रवण, मनन और गान सबसे अधिक अब भी होता है। व्याख्याता अपने व्याख्यानों में रामायण की चौपाइयों का आधार लेकर जनता पर प्रभाव डालने में आज भी अधिक समर्थ होता है। वास्तव बात तो यह है कि आज दिन जो महत्तव इस ग्रन्थ को प्राप्त है वह किसी महान् से महान् संस्कृत ग्रन्थ को भी नहीं। इन बातों पर दृष्टि रखकर जब विचार करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि गोस्वामी जी हिन्दी-साहित्य के सर्वमान्य कवि ही नहीं हैं, हिन्दू-संसार के सर्वपूज्य महात्मा भी हैं।
मैं पहले कविवर सूरदास जी के विषय में अपनी सम्मति प्रकट कर चुका हूँ और अब भी यह मुक्त कंठ से कहता हूँ कि सूरदास जी ने जिस विषय पर लेखनी चलाई है, उसमें उनकी समकक्षता करने वाला हिन्दी-साहित्य में कोई अब तक उत्पन्न नहीं हुआ। किन्तु जैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा गोस्वामी जी में देखी जाती है, सूरदास जी में नहीं।
गोस्वामी जी नवरस-सिध्द महाकवि हैं। सूरदास जी को यह गौरव प्राप्त नहीं। काल की दृष्टि से सूरदास जी तुलसीदास जी से कम नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे के समकक्ष हैं। किन्तु उपयोगिता की दृष्टि से तुलसीदास जी का स्थान अधिक उच्च है। दूसरी विशेषता गोस्वामी जी में यह है कि उनकी रचनाएँ बड़ी ही मर्यादित हैं। वे श्रीमती जानकी जी का वर्णन जहाँ करते हैं, वहाँ उनको जगज्जननी के रूप में ही चित्राण करते हैं। उनकी लेखनी जानकी जी की महत्ता जिस रूप में चित्रिात करती है वह बड़ी ही पवित्रा है। जानकी जी के सौन्दर्य-वर्णन की भी उन्होंने पराकाष्ठा की है। किन्तु उस वर्णन में भी उनका मातृ पद सुरक्षित है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखिए-
1. जो पटतरिय तीय सम सीया।
जग अस जुवति कहाँ कमनीया।
गिरा मुखर तनु अरधा भवानी।
रति अति दुखित अतनु पति जानी।
बिष बारुनी बन्धाु प्रिय जेही।
कहिय रमा सम किमि वैदेही।
जो छबि सुधा पयोनिधि होई।
परम रूपमय कच्छप सोई।
सोभा रजु मंदर सिंगारू।
मथै पानि-पंकज निज मारू।
येहि विधि उपजै लच्छि जब , सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि , कहहिं सीय सम तूल।
सूरदास जी में यह उच्च कोटि की मर्यादा दृष्टिगत नहीं होती। वे जब श्रीमती राधिका के रूप का वर्णन करने लगते हैं तो ऐसे अंगों का भी वर्णन कर जाते हैं जो अवर्णनीय हैं। उनका वर्णन भी इस प्रकार करते हैं। जो संयत नहीं कहा जा सकता। कभी-कभी इस प्रकार का वर्णन अश्लील भी हो जाता है। मैं यह मानूँगा कि प्राचीन काल से कवि-परम्परा कुछ ऐसी ही रही है। संस्कृत के कवियों में भी यह दोष पाया जाता है। कवि-कुल-गुरु कालिदास भी इस दोष से मुक्त न रह सके। रघुवंश में वे इन शब्दों में पार्वती और परमेश्वर की वंदना करते हैं-”वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्ताये! जगत: पितरौ वंदे, पार्वती परमेश्वरौ”। परन्तु उन्होंने ही कुमार-सम्भव के अष्टम सर्ग में भगवान शिव और जगज्जननी पार्वती का विलास ऐसा वर्णन किया है जो अत्यन्त अमर्यादित है। संस्कृत के कई विद्वानों ने उनकी इस विषय मे कुत्सा की है। यह कवि-परम्परा ही का अन्धानुकरण है कि जिससे कवि-कुल-गुरु भी नहीं बच सके, फिर ऐसी अवस्था में सूरदास जी का इस दोष से मुक्त न होना आश्चर्यजनक नहीं। यह गोस्वामी जी की ही प्रतिभा की विशेषता है कि उन्होंने चिरकाल-प्रचलित इस कुप्रथा का त्याग किया और यह उनकी भक्तिमय प्रवृत्तिा का फल है। इस भक्ति के बल से ही उनकी कविता के अनेक अंश अभूतपूर्व और अलौकिक हैं। इस प्रवृत्तिा ने ही उनको बहुत ऊँचा उठाया और इस प्रवृत्तिा के बल से ही इस विषय में वे सूरदास जी पर विजयी हुए। आत्मोन्नति, सदाचार-शिक्षा, समाज-संगठन, आर्य जातीय उच्च भावों के प्रदर्शन, सद्भाव, सत् शिक्षा के प्रचार एवं मानव प्रकृति के अधययन में जो पद तुलसीदास जी को प्राप्त है उस उच्च पद को सूरदास जी नहीं प्राप्त कर सके। दृष्टिकोण की व्यापकता में भी सूरदास का वह स्थान नहीं है जो स्थान गोस्वामी जी का है। मैं यह मानूँगा कि अपने वर्णनीय विषयों में सूरदास जी की दृष्टि बहुत व्यापक है। उन्होंने एक-एक विषय का कई प्रकार से वर्णन किया है। मुरली पर पचासों पद्य लिखे हैं तो नेत्रों के वर्णन में सैकड़ों पद लिख डाले हैं। परन्तु सर्व विषयों में अथवा शास्त्राीय सिध्दान्तों के निरूपण में जैसी विस्तृत दृष्टि गोस्वामी जी की है उनकी नहीं। सूरदास जी का मुरली-निनाद विश्व विमुग्धाकर है। उनकी प्रेम-सम्बन्धी कल्पनाएँ भी बड़ी सरल एवं उदात्ता हैं। परन्तु गोस्वामी जी की मेघ-गम्भीर गिरा का गौरव विश्वजनीन है और स्वर्गीय भी। उनकी भक्ति भावनाएँ भी लोकोत्तार हैं। इसलिए मेरा विचार है कि गोस्वामी जी का पद सूरदास जी से उच्च है।
मैंने पहले यह लिखा है कि अवधी और ब्रजभाषा दोनों पर उनका समान अधिकार था। मैं अपने इस कथन की सत्यता-प्रतिपादन के लिए उनकी रचनाओं में से दोनों प्रकार के पद्यों को नीचे लिखता हूँ। उनको पढ़कर आप लोग स्वयं अनुभव करेंगे कि मेरे कथन में अत्युक्ति नहीं है।
1. फोरइ जोग कपारु अभागा।
भलेउ कहत दुख रउरेहिं लागा।
कहहिं झूठि फुरि बात बनाई।
ते प्रिय तुम्हहिं करुइ मैं माई।
हमहुँ कहब अब ठकुरसोहाती।
नाहिं त मौन रहब दिन राती।
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा।
बवा सो लुनिय लहिय जो दीन्हा।
कोउ नृप होइ हमैं का हानी।
चेरि छाँड़ि अब होब कि रानी।
जारइ जोग सुभाउ हमारा।
अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।
तातें कछुक बात अनुसारी।
छमिय देवि बड़ि चूक हमारी।
तुम्ह पूँछउ मैं कहत डराऊँ।
धारेउ मोर घरफोरी नाऊँ।
रहा प्रथम अब ते दिन बीते।
समउ फिरे रिपु होइँ पिरीते।
जर तुम्हारि चह सवति उखारी।
रूँधाहु करि उपाइ बर बारी।
तुम्हहिं न सोच सोहाग बल , निज बस जानहु राउ।
मन मलीन मुँहु मीठु नृप , राउर सरल सुभाउ।
जौ असत्य कछु कहब बनाई।
तौ विधि देइहि हमहिं सजाई।
रेख ख्रचाइ कहहुँ बल भाखी।
भामिनि भइहु दूधा कै माखी।
काह करउँ सखि सूधा सुभाऊ।
दाहिन बाम न जानउँ काऊ।
नैहर जनम भरब बरु जाई।
जिअत न करब सवति सेवकाई।
- रामायण
2. मोकहँ झूठहिं दोष लगावहिं।
मइया इनहिं बान परगृह की नाना जुगुति बनावहिं।
इन्ह के लिए खेलिबो छोरयो तऊ न उबरन पावहिं।
भाजन फोरि बोरि कर गोरस देन उरहनो आवहिं।
कबहुंक बाल रोवाइ पानि गहि
एहि मिस करि उठि धावहिं।
करहिं आप सिर धारहिं आन के
बचन बिरंचि हरावहिं।
मेरी टेव बूझ हलधार सों संतत संग खेलावहिं।
जे अन्याउ करहिं काहू को ते सिसु मोहिं न भावहिं।
सुनि सुनि बचन-चातुरी
ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं।
बालगोपाल केलि कल कीरति।
तुलसिदास मुनि गावहिं।
3. अबहिं उरहनो दै गई बहुरो फिरि आई।
सुनि मइया तेरी सौं करौं याकी टेव
लरन की सकुच बेंचि सी खाई।
या व्रज में लरिका घने हौं ही अन्याई।
मुँह लाये मूँड़हिं चढ़ी अन्तहु
अहिरिनि तोहिं सूधी करि पाई।
- कृष्ण गीतावली
रामायण का पद्य अवधी बोलचाल का बड़ा ही सुन्दर नमूना है। उसमें भावुकता कितनी है और मानसिक भाव का कितना सुन्दर चित्राण है, इसको प्रत्येक सहृदय समझ सकता है। स्त्राी-सुलभ प्रकृति का इन पद्यों में ऐसा सच्चा चित्रा है कि जिसको बार-बार पढ़कर भी जी नहीं भरता। कृष्ण गीतावली के दोनों पद भी अपने ढंग के बड़े ही अनूठे हैं। उनमें ब्रजभाषा-शब्दों का कितना सुन्दर व्यवहार है और किस प्रकार मुहावरों की छटा है, वह अनुभव की वस्तु है। बालभाव का जैसा चित्रा दोनों पदों में है उसकी जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। गोस्वामीजी की लेखनी का यह महत्तव है कि वे जिस भाव को लिखते हैं। उसका यथातथ्य चित्राण कर देते हैं और यही महाकवि का लक्षण है। गोस्वामीजी ने अपने ग्रन्थों में से रामायण की मुख्य भाषा अवधी रखी है। जानकी मंगल, राम लला नहछू, बरवै रामायण और पार्वती मंगल की भाषा भी अवधी है। कृष्ण गीतावली को उन्होंने शुध्द ब्रजभाषा में लिखाहै। अन्य ग्रन्थों में उन्होंने बड़ी स्वतन्त्राता से काम लिया है। इनमें उन्होंने अपनी इच्छा के अनुसार यथावसर ब्रजभाषा और अवधी दोनों के शब्दों का प्रयोग किया है।
गोस्वामीजी की यह विशेषता भी है कि उनका हिन्दी के उस समय के प्रचलित छन्दों पर समान अधिकार देखा जाता है। यदि उन्होंने दोहा-चौपाई में प्रधान-ग्रन्थ लिखकर पूर्ण सफलता पायी तो कवितावली को कवित्ता और सवैया में एवं गीतावली और विनय-पत्रिाका को पदों में लिखकर मुक्तक विषयों के लिखने में भी अपना पूर्ण अधिकार प्रकट किया। उनके बरबे भी बड़े सुन्दर हैं और उनकी दोहावली के दोहे भी अपूर्व हैं। इस प्रकार की क्षमता असाधारण महाकवियों में ही दृष्टिगत होती है। मैं इन ग्रन्थों के भी थोड़े से पद्य आप लोगों के सामने रखता हूँ। उनको पढ़िए और देखिए कि उनमें प्रस्तुत विषय और भावों के चित्राण में कितनी तन्मयता मिलती है और प्रत्येक छन्द में उनकी भाषा का झंकार किस प्रकार भावों के साथ झंकृत होता रहता है। विषयानुकूल शब्द-चयन में भी वे निपुण थे। नीचे के पद्यों को पढ़कर आप यह समझ सकेंगे कि भाषा पर उनका कितना अधिकार था। वास्तव में भाषा उनकी अनुचरी ज्ञात होती है। वे उसे जब जिस ढंग में ढालना चाहते हैं, ढाल देते हैं-
4. बर दंत की पंगति कुंद कली
अधाराधार पल्लव खोलन की।
चपला चमकै घन बीच जगै
छबि मोतिन माल अमोलन की।
घुँघरारी लटैं लटकैं मुख ऊपर
कुण्डल लोल कपोलन की।
निवछावर प्रान करै तुलसी
बलि जाउँ लला इन बोलन की।
5. हाट बाट कोट ओट अटनि अगार पौरि
खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्हों अति आगि है।
आरत पुकारत सँभारत न कोऊ काहू
व्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चल्यो भागि है।
बालधी फिरावै बार बार झहरावै झरैं
बुँदियाँ-सी लंक पघिराइ पाग पागि है।
तुलसी बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं
चित्राहूं के कपि सों निसाचर न लागि है।
- कवितावली
6. पौढ़िये लाल पालने हौं झुलावौं।
बाल बिनोद मोद मंजुल मनि किलकनि खानि खुलावौं।
तेइ अनुराग ताग गुहिबे कहँ मति मृगनैनि बुलावौं।
तुलसी भनित भली भामिनि उर सो पहिराइ फुलावौं।
चारु चरित रघुवर तेरे तेहि मिलि गाइ चरन चित लावौं।
7. बैठी सगुन मनावति माता।
कब अइहैं मेरे लाल कुसल घर कहहु काग फुरि बाता।
दूधा भात की दोनी दैहों सोने चोंच मढ़ैहौं।
जब सिय सहित बिलोकि नयन भरि राम लखन उर लैहौं।
अवधि समीप जानि जननी जिय अति आतुर अकुलानी।
गनक बुलाइ पाय परि पूछत प्रेम मगन मृदु बानी।
तेहि अवसर कोउ भरत निकट ते समाचार लै आयो।
प्रभु आगमन सुनत तुलसीमनो मरत मीन जल पायो।
- गीतावली
8. बावरो रावरो नाह भवानी।
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु बेद बडरई भानी।
निज घर की बर बात बिलोकहु हो तुम परम सयानी।
सिवकी दई संपदा देखत श्री सारदा सिहानी।
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी सुख की नहीं निसानी।
तिन रंकन को नाक सँवारत हौं आयों नकवानी।
दुख दीनता दुखी इनके दुख जाचकता अकुलानी।
यह अधिकार सौंपिये औरहिं भीख भली मैं जानी।
प्रेम प्रसंसा विनय व्यंग जुत सुनि विधि की बर बानी।
तुलसी मुदित महेस मनहिं मन जगत मातु मुसकानी।
9. अबलौं नसानी अब ना नसैहौं।
राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं।
पायो नाम चारु चिंतामनि उर कर ते न खसैहौं।
स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं।
परबस जानि हस्यो इन इन्द्रिन निज बस ह्नै न हँसैहौं।
मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसैहौं।
- विनयपत्रिाका
10. गरब करहु रघुनन्दन जनि मन माँह।
देखहु आपनि मूरति सिय कै छाँह।
डहकनि है उँजियरिया निसि नहिं घाम।
जगत जरत अस लागइ मोंहि बिनु राम।
अब जीवन कै है कपि आस न कोइ।
कनगुरिया कै मुँदरी कंकन होइ।
स्याम गौर दोउ मूरति लछिमन राम।
इनते भई सित कीरति अति अभिराम।
विरह आग उर ऊपर जब अधिकाइ।
ए ऍंखिया दोउ बैरिन देहिं बुताइ।
सम सुबरन सुखमाकर सुखद न थोर।
सीय अंग सखि कोमल कनक कठोर।
- बरवै रामायण
11. तुलसी पावस के समै धारी कोकिला मौन।
अब तो दादुर बोलिहैं हमैं पूछिहैं कौन।
हृदय कपट बर बेष धारि बचन कहैं गढ़ि छोलि।
अब के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिये मन खोलि।
आवत ही हरखै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसै मेह।
तुलसी मिटै न मोह तम किये कोटि गुन ग्राम।
हृदय कमल फूलै नहीं बिनु रवि कुल रवि राम।
अमिय गारि गारेउ गरल नारि करी करतार।
प्रेम बैर की जननि जुग जानहिं बुधा न गँवार।
- दोहावली
ब्रजभाषा और अवधी के विशेष नियम क्या हैं? मैं इसे पहले विस्तार से लिख चुका हूँ। मलिक मुहम्मद जायसी और सूरदास की भाषा में उक्त भाषाओं के नियमों का प्रयोग भी दिखला चुका हूँ। गोस्वामीजी की रचना में भी अवधी और ब्रजभाषा के नियमों का पालन पूरा-पूरा हुआ है। मैं उनकी रचना की पंक्तियों को लेकर इस बात को प्रमाणित कर सकता हूँ। किन्तु यह बाहुल्य मात्रा होगा। गोस्वामीजी की उद्धृत रचनाओं को पढ़कर आप लोग स्वयं इस बात को समझ सकते हैं कि उन्होंने किस प्रकार दोनों भाषाओं के नियमों का पालन किया। मैं उसका दिग्दर्शन मात्रा ही करूँगा। युक्ति-विकर्ष के प्रमाण भूत ये शब्द हैं, गरब, अरधा, मूरति। कारकों का लोप इन वाक्यांशों में पाया जाता है 'बोरि कर गोरस', 'बाल रोवाइ', 'सिर धारहिं आन के', 'वचन बिरंचि हरावहि', 'पालने पौढ़िये', 'किलकनि खानि', 'तुलसी भनिति', 'सोने चोंच मढ़ैहो', 'रामलखन उर लेहौं', 'वेद बड़ाई', 'जगत मातु'। 'श', 'ण', 'क्ष' इत्यादि के स्थान पर 'स', 'न', 'छ', का व्यवहार 'सिंगारू', 'प्रसंसा', 'परबस', 'सिसु', 'पानि', 'भरन', 'गनक', 'लच्छि' आदि में है। प×चम वर्ण की जगह पर अनुस्वार का प्रयोग 'मंजुल', 'बिरंचि', 'कंचनहि' आदि में मिलेगा। शब्द के आदि के 'य' के स्थान पर 'ज' का व्यवहार जुवति, जागु, जुगुति आदि में आप देखेंगे। संज्ञाओं और विशेषणों के अपभ्रंश के अनुसार, उकारान्त प्रयोग के उदाहरण ये शब्द हैं, कपारु, मुहुँ, मीठु, आदि Ðस्व का दीर्घ और दीर्घ काÐस्व-प्रयोग कमनीया 'बाता', 'जुवति', 'रेख' इत्यादि शब्दों में हुआ है। प्राकृत शब्दों का उसी के रूप में ग्रहण तीय, नाह इत्यादि में है। ब्रजभाषा की रचना में आपको संज्ञाएँ, क्रियाएँ दोनों अधिकतर ओकारान्त मिलेंगी और इसी प्रकार अवधी की संज्ञाएँ और क्रियाएँ नियमानुकूल अकारान्त पायी जाएँगी। उराहनी, बहुरो, पायो, आयो, बड़ो, कहब, रहब, होब, देन, राउर इत्यादि इसके प्रमाण हैं। अधिकतर तद्भव शब्द ही दोनों भाषाओं में आये हैं। परन्तु जहाँ भाषा तत्सम शब्द लाने से ही सुन्दर बनती है, वहाँ गोस्वामीजी ने तत्सम शब्दों का प्रयोग भी किया है। जैसे 'प्रिय', 'कुरूप', 'रिपु', 'असत्य', 'पल्लव' इत्यादि। मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने अधिकता से किया है। परंतु विशेषता यह है कि जिस भाषा में मुहावरे आये हैं उनको उसी भाषा के रूप में लिखा है जैसे 'नयनभरि', 'मुँह लाये', 'मूड़हिं चढ़ी', 'जनम भरव', 'नकबानी आयो', 'ठकुरसुहाती', 'बवा सो लुनिय'इत्यादि। अवधी में स्त्राीलिंग के साथ सम्बन्धा का चिद्द सदा “कै” आता है। गोस्वामीजी की रचनाओं में भी ऐसा ही किया गया है, 'दूधा कै माखी', 'कै छाँह', इत्यादि इसके सबूत हैं। क्रिया बनाने में विधि के साथ इकार का संयोग किया जाता है। उनकी कविता में भी यह बात मिलती है जैसे 'भरि', 'फोरी', 'बोरि' इत्यादि। अनुप्रास के लिए तुकान्त में इस 'इ' को दीर्घ भी कर दिया जाता है। उन्होंने भी ऐसा किया है। 'देखिए 'जानी', 'होई' इत्यादि। ऐसे ही नियम सम्बन्धी अन्य बातें भी आप लोगों को उनमें दृष्टिगत होंगी।
सूरदासजी के हाथों में पड़कर ब्रजभाषा और गोस्वामीजी की लेखनी से लिखी जाकर अवधी प्रौढ़ता को प्राप्त हो गयी। इन दोनों भाषाओं का उच्च से उच्च विकास इन दोनों महाकवियों के द्वारा हुआ। साहित्यिक भाषा में जितना सौन्दर्य-सम्पादन किया जा सकता है, इन दोनों महापुरुषों से इनकी रचनाओं में उसकी भी पराकाष्ठा हो गई। अनुप्रासों और रस एवं भावानुकूल शब्दों का विन्यास जैसा इन कविकर्म्मनिपुण महाकवियों की कृति में पाया जाता है वैसा आज तक की हिन्दी भाषा की समस्त रचनाओं में नहीं पाया जाता। भविष्य में क्या होगा, इस विषय में कुछ कहना असम्भव है। “जिनको सजीव पंक्तियाँ कहते हैं”वे जितनी उन लोगों की कविताओं में मिलती हैं उतनी अब तक की किसी कविता में नहीं मिल सकीं। यदि इन लोगों की शब्द-माला में लालित्य नर्तन करता मिलता है तो भाव क्षुधा-वर्षण करते हैं। जब किसी भाषा की कविता प्रौढ़ता को प्राप्त होती है, उस समय उसमें व्यंजना की प्रधानता हो जाती है। इन लोगों की अधिकांश रचनाओं में भी यही बात देखी जाती है।
गोस्वामीजी के विषय में योरोपीय या अन्य विद्वानों की जो सम्मतियाँ हैं, उनमें से कुछ सम्मतियों को मैं नीचे लिखता हूँ। उनके पढ़ने से आप लोगों को ज्ञात होगा कि गोस्वामीजी के विषय में विदेशी विद्वान् भी कितनी उत्ताम सम्मति और कितना उच्च भाव रखते हैं। प्रोफेसर मोल्टन यह कहते हैं।
“मानव प्रकृति की अत्यन्त सूक्ष्म और गम्भीर ग्रहणशीलता, करुणा से लेकर आनन्द तक के सम्पूर्ण मनोविकारों के प्रति संवेदनशीलता, स्थान-स्थान पर मधयमश्रेणी का भाव जिस पर हँसते हुए महासागर के अनन्त बुद्बुदों की तरह परिहास क्रीड़ा करता है; कल्पना-शक्ति का स्फुरण जिसमें अनुभव और सृष्टि दोनों एक ही मानसिक क्रिया जान पड़ती हैं, साम×जस्य और अनुपात की वह धारणा जो जिसे ही स्पर्श करेगी उसे ही कलात्मक बना देगी; भाषा पर वह अधिकार जो विचार का अनुगामी है और वह भाषा जो स्वयं ही सौन्दर्य है; ये सब काव्य-स्फूर्ति के पृथक्-पृथक तत्तव जिनमें से एक भी विशेष मात्रा में विद्यमान होकर कवि की सृष्टि कर सकता है। तुलसीदास में सम्मिलित रूप में पाये जाते हैं।”1
एक दूसरे सज्जन की यह सम्मति है-
हम पैगम्बर (ईश्वरीय दूत) को उसके कार्यों के परिणामों की कसौटी पर ही कसते हैं। जब मैं यह कहता हूँ कि पूरे नौ करोड़ मनुष्य अपने नैतिक और धार्मिक आचार-सम्बन्धी सिध्दान्तों को तुलसीदास की कृति ही से ग्रहण् करते हैं तो अत्युक्ति नहीं करता, मेरा यह अनुमान साधारण जनसंख्या से कुछ कम ही है। वर्तमान समय में उनका जितना प्रभाव है कि यदि उसके आधार पर हम अपना निर्णय स्थिर करें तो वे एशिया के तीन या चार महान लेखकों में परिगणित होंगे।”2
1. Grasp of human nature the most profound, the most subtle; responsivenesi to emotion throughout the whole scale from tragic pathes to rollicking jollity, with a middle range, over which plays a humour like the innumerable twinklings of a laughing ocean; powers of imagination so instinctive that to percieve and create seem the same mental act; a sense of symmetry and proportion that will make everything it touches into art; mastery of language that is the servant of thought and language that is the beauty in it self; all these separate elements of poetic force, any one of which inconsicuous degree might make a poet, are in Tulsidasa found in complete combination "Prof. Moultons 'World Literature' P. 166."
2. "We judge of a prophet by his fruits and I give much less than usual estimate when I say that fully ninety millions of people have heard the theories of moral and religious conduct upon his writings. Is we take the influence exercised by him at present time as our test, he in one of the three of four great writers of Asia."
R. R. A. S., July 1930, P. 455.
डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन का यह कथन है-
“भारतवर्ष के इतिहास में तुलसीदास का बहुत अधिक महत्तव है। उनके काव्य की साहित्यिक उत्कृष्टता की ओर न भी धयान दें तो भागलपुर से लेकर पंजाब तक और हिमालय से लेकर नर्मदा तक समस्त श्रेणियों के लोगों का उन्हें आदरपूर्वक ग्रहण करना धयान देने योग्य बात है। तीन सौ से भी अधिक वर्षों से उनके काव्य का हिन्दू जनता की बोलचाल, तथा उनके चरित्रा और जीवन से सम्बन्धा है। वह उनकी कृति को केवल उसके काव्य-गत सौन्दर्य के लिए ही नहीं चाहती है, उसे श्रध्दा की दृष्टि से ही नहीं देखती है, उसे धार्मिक ग्रन्थ के रूप में पूज्य समझतीहै। दसकरोड़ जनता के लिए वह बाइबिल (Bible) के समान है और वह उसे उतना ही ईश्वरप्रेरित समझती है जितना अंग्रेज पादरी बाइबिल को समझता है। पंडित लोग भले ही वेदों की चर्चा और उनमें से थोड़े से लोग उनका अधययन भी करें, भले ही कुछ लोग पुराणों के प्रति श्रध्दा-भक्ति भी प्रदर्शित करें किन्तु पठित वा अपठित विशाल जनसमूह वो तुलसी-कृत रामायण ही से अपने आचार-धर्म की शिक्षा ग्रहण करता है। हिन्दुस्तान के लिए यह वास्तव में सौभाग्य की बात है, क्योंकि उसने देश को शैव धर्म के अनाचरणीय क्रिया-कलाप से सुरक्षित रखा है। बंगाल जिस दुर्भाग्य के चक्कर में पड़ गया उससे उत्तारी भारत के मूल त्राण करने वाले तो रामानन्द थे,किन्तु महात्मा तुलसीदास ही का यह काम था कि उन्होंने पूर्व और पश्चिम में उनके मत का प्रचार किया और उसमें स्थायित्व का संचार कर दिया।”1
हिन्दी-संसार ने सूरदासजी और गोस्वामीजी के बाद का स्थान कविवर केशवदासजी को ही दिया है। मैं भी इसी विचार का हूँ।
उनको 'उडुगन' कहा गया है। यदि वे उडुगन हैं तो प्रभात कालिक शुक्र (कवि) के समान प्रभा-विकीर्णकारी हैं। कविकर्म शिक्षा की पूर्ण ज्योति रीति काल के प्रभात
1. "The importance of Tulsidas in the history of India can not be overrated, Pulling the literary merits of his work out of the question, the fact of its universal acceptance by all classes, from Bhagalpur to the Punjab and from the Himalaya to the Narmada is surely worthy of note. It has been interwoven into the, life, character, and speech of the Hindu population for more than three hundred years, and is not only loved and admired by them for its poetic beauty, but is reverened by them as their scriptures. It is the bible of a hundred millions of people, and is looked upon by them as much inspired as the bible is considered by the English clergymen. Pandits may talk of the vedas and of the Upnishadas and a few may even study them, others may say they pin their faith on the puranas : but to the vast majority of the people of Hindustan, learned and unlearned alike, their soul room of conduct is the so called Tulsikrit Ramayan. It is indeed fortunate that is so, for it has saved the country from the tantric obscenities of Shaivism Ram Chandra was the original saviour of Upper India from the fate which has befallen Bengal, but Tulsidas was the great apostle who caried his doctrine east and west and made it an a biding faith."-
Modern Vernacular Literature of Hindustan, P. 42. 43
काल में केशवदास जी से ही हिन्दी संसार को मिली। सब बातों पर विचार करने से यह स्वीकार करना पड़ता है कि साहित्य सम्बन्धी समस्त अंगों की पूर्ति पहले-पहल केशवदास जी ने ही की। इनके पहले कुछ विद्वानों ने रीति-ग्रन्थों की रचना का सूत्रापात किया था किन्तु यह कार्य केशवदास जी की प्रतिभा से ही पूर्णता को प्राप्त हुआ। इतिहास बतलाता है कि आदि में कृपाराम ने ही 'हित तरंगिणी' नामक रस-ग्रन्थ की रचना की। इनका काल सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध्द है। इन्होंने अपने ग्रंथ मेंअपने
समय के पहले के कुछ सुकवियों की कुछ रचनाओं की भी चर्चा की है। किन्तु वे ग्रन्थ अप्राप्य हैं। ग्रन्थकारों के नाम तक पता नहीं मिलता। इन्हीं के समसामयिक गोप नामक कवि और मोहन लाल मिश्र थे। इनमें से गोप नामक कवि ने, रामभूषण और अलंकार-चन्द्रिका नामक ग्रन्थों की रचना की है। नाम से ज्ञात होता है कि ये दोनों ग्रन्थ अलंकार के होंगे। किन्तु ये ग्रन्थ भी नहीं मिलते। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि ये ग्रन्थ कैसे थे, साधारण या विशद। मेरा विचार है कि वे साधारण ग्रन्थ ही थे। अन्यथा इतने शीघ्र लुप्त न हो जाते। मोहन लाल मिश्र ने 'शृंगार-सागर' नामक ग्रंथ की रचना की थी। ग्रन्थ का नाम बतलाता है कि वह रस-सम्बन्धी ग्रन्थ होगा। इन लोगों के उपरान्त केशवदास जी ही कार्य-क्षेत्र में आते हैं। वे संस्कृत के प्रसिध्द विद्वान थे। वंश-परम्परा से उनके कुल में संस्कृत के उद्भट विद्वान् होते आते थे। उनके पितामह पं. कृष्णदत्ता मिश्र संस्कृत के प्रसिध्द नाटक 'प्रबोधा-चन्द्रोदय' के रचयिता थे। उनके पिता पं. काशीनाथ भी संस्कृत भाषा के प्रसिध्द विद्वान थे। उनके बड़े भाई पं. बलभद्र मिश्र संस्कृत के विद्वान तो थे ही, हिन्दी भाषा पर भी बड़ा अधिकार रखते थे। इनका बनाया हुआ नखशिख-सम्बन्धी ग्रंथ अपने विषय का अद्वितीय ग्रन्थ है। ऐसे साहित्य-पारंगत विद्वानों के वंश में जन्म ग्रहण करके केशवदास जी का हिन्दीभाषा के रीति-ग्रन्थों के निर्माण में विशेष सफलता लाभ करना आश्चर्यजनक नहीं। वे संकोच के साथ हिन्दी-क्षेत्र में उतरे, जैसा निम्नलिखित दोहे से प्रकट होता है-
भाषा बोलि न जानहीं , जिनके कुल के दास।
तिन भाषा कविता करी , जड़मति केशवदासड्ड
परन्तु जिस विषय को उन्होंने हाथ में लिया उसको पूर्णता प्रदान की। उनके बनाये हुए 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया'नामक ग्रन्थ रीति-ग्रन्थों के सिरमौर हैं। पहले भी साहित्य विषय के कुछ ग्रन्थ बने थे और उनके उपरान्त भी अनेक रीति ग्रन्थ लिखे गये परन्तु अब तक प्रधानता उन्हीं के ग्रन्थों को प्राप्त है। जब साहित्य-शिक्षा का कोई जिज्ञासु हिन्दी-क्षेत्र में पदार्पण करता है, तब उसको 'रसिक-प्रिया' का रसिक और 'कविप्रिया' का प्रेमिक अवश्य बनना पड़ता है। इससे इन दोनों ग्रन्थों की महत्ता प्रकट है। जिन्होंने इन दोनों ग्रन्थों को पढ़ा है वे जानते हैं कि इनमें कितनी प्रौढ़ता है। रीति-सम्बन्धी सब विषयों का विशद वर्णन थोड़े में जैसा इन ग्रन्थों में मिलता है, अन्यत्रा नहीं। 'रसिक-प्रिया' में शृंगार रस सम्बन्धी समस्त विशेषताओं का उल्लेख बड़े पाण्डित्य के साथ किया गया है। कवि-प्रिया वास्तव में कविप्रिया है, कवि के लिए जितनी बातें ज्ञातव्य हैं उनका विशद निरूपण इस ग्रन्थ में है। मेरा विचार है कि केशवदास की कवि-प्रतिभा का विकास जैसा इन ग्रन्थों में हुआ, दूसरे ग्रन्थों में नहीं। क्या भाषा, क्या भाव, क्या शब्द-विन्यास, क्या भाव-व्यंजना, जिस दृष्टि से देखिए ये दोनों ग्रन्थ अपूर्व हैं। उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त और ग्रन्थों की रचना की है। उनमें सर्वप्रधान रामचन्द्रिका है। यह प्रबन्धा-काव्य है। इस ग्रन्थ के संवाद ऐसे विलक्षण हैं जो अपने उदाहरण आप हैं। इस ग्रन्थ का प्रकृति-वर्णन भी बड़ा ही स्वाभाविक है।
कहा जाता है कि हिन्दी-संसार के कवियों ने प्रकृति-वर्णन के विषय में बड़ी उपेक्षा की है। उन्होंने जब प्रकृति-वर्णन किया है तब उससे उद्दीपन का कार्य ही लिया है। प्रकृति में जो स्वाभाविकता होती है, प्रकृतिगत जो सौन्दर्य होता है, उसमें जो विलक्षणताएँ और मुग्धाकारिताएँ पाई जाती हैं, उनका सच्चा चित्राण हिन्दी-साहित्य में नहीं पाया जाता। किसी नायिका के विरह का अवलम्बन करके ही हिन्दी कवियों और महाकवियों ने प्रकृति-गत विभूतियों का वर्णन किया है। सौन्दर्य-सृष्टि के लिए उन्होंने प्रकृति का निरीक्षण कभी नहीं किया। इस कथन में बहुत कुछ सत्यता का अंश है। कवि-कुलगुरु-वाल्मीकि एवं कविपुंगव कालिदास की रचनाओं में जैसा उच्च कोटि का स्वाभाविक प्रकृति वर्णन मिलता है, निस्सन्देह हिन्दी-साहित्य में उसका अभाव है। यदि हिन्दी-संसार के इस कलंक को कोई कुछ धोता है तो वे कविवर केशवदास के ही कुछ प्राकृतिक वर्णन हैं और वे रामचन्द्रिका ही में मिलते हैं। मैं आगे चलकर इस प्रकार के पद्य उद्धृत करूँगा। यह कहा जाता है कि प्रबंधा-काव्यों को जितना सुशृंखलित होना चाहिए रामचंद्रिका वैसी नहीं है। इसमें स्थान-स्थान पर कथा भागों की शृंखला टूटती रहती है। दूसरी यह बात कही जाती है कि जैसी भावुकता और सहृदयता चाहिए वैसी इस ग्रन्थ में नहीं मिलती। ग्रन्थ क्लिष्ट भी बड़ा है। एक-एक पद्यों का तीन-तीन, चार-चार अर्थ प्रकट करने की चेष्टा करने के कारण इस ग्रन्थ की बहुत-सी रचनाएँ बड़ी ही गूढ़ और जटिल हो गयी हैं, जिससे उनमें प्रसाद गुण का अभाव है। इन विचारों के विषय में मुझे यह कहना है कि किसी भी ग्रन्थ में सर्वांगपूर्णता असम्भव है। उसमें कुछ न कुछ न्यूनता रह ही जाती है। संस्कृत के बड़े-बड़े महाकाव्य भी निर्दोष नहीं रहे। इसके अतिरिक्त आलोचकों की प्रकृति भी एक-सी नहीं होती। रुचि-भिन्नता के कारण किसी को कोई विषय प्यारा लगता है और कोई उसमें अरुचि प्रकट करता है। प्रवृत्तिा के अनुसार ही आलोचना भी होती है। इसलिए सभी आलोचनाओं में यथार्थता नहीं होती। उनमें प्रकृतिगत भावनाओं का विकास भी होता है। इसीलिए एक ही ग्रन्थ के विषय में भिन्न-भिन्न सम्मतियाँ दृष्टिगत होती हैं। केशवदास जी की रामचन्द्रिका के विषय में भी इस प्रकार की विभिन्न आलोचनाएँ हैं। किसी के विशेष विचारों के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है। किन्तु देखना यह है कि रामचन्द्रिका के विषय में उक्त तर्कनाएँ कहाँ तक मान्य हैं। प्रत्येक ग्रन्थकार का कुछ उद्देश्य होता है और उस उद्देश्य के आधार पर ही उसकी रचना आधारित होती है। केशवदास की रचनाओं में, जिन्हें प्रसाद गुण देखना हो वे 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया' को देखें। उनमें जितनी सहृदयता है उतनी ही सरसता है। जितनी सुन्दर उनकी शब्द विन्यास प्रणाली है उतनी ही मधुर है उनकी भाव-व्यंजना। रामचन्द्रिका की रचना पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए हुई है और मैं यह दृढ़ता से कहता हूँ कि हिन्दी-संसार में कोई प्रबन्धा-काव्य इतना पाण्डित्यपूर्ण नहीं है। मैं पहले कह चुका हूँ कि वे संस्कृत के पूर्ण विद्वान थे। उनके सामने शिशुपाल-वधा और 'नैषधा' का आदर्श था। वे उसी प्रकार का काव्य हिन्दी के निर्माण करने के उत्सुक थे। इसीलिए रामचन्द्रिका अधिक गूढ़ है। साहित्य के लिए सब प्रकार के ग्रन्थों की आवश्यकता होती है। यथास्थान सरलता और गूढ़ता दोनों वांछनीय हैं। यदि लघुत्रायी आदरणीय है तो बृहत्त्रायी भी। रघुवंश को यदि आदर की दृष्टि से देखा जाता है तो नैषधा को भी। यद्यपि दोनों की रचना प्रणाली में बहुत अधिक अन्तर है। प्रथम यदि मधुर भाव-व्यंजना के लिए आदरणीय है तो द्वितीय अपनी गम्भीरता के लिए। शेक्सपियर और मिल्टन की रचनाओं के सम्बन्धा में भी यही बात कही जा सकती है। केशवदास जी यदि चाहते तो 'कवि प्रिया' और 'रसिक प्रिया' की प्रणाली ही रामचन्द्रिका में भी ग्रहण कर सकते थे। परन्तु उनको यह इष्ट था कि उनकी एक ऐसी रचना भी हो जिसमें गम्भीरता हो और जो पाण्डित्याभिमानी को भी पाण्डित्य-प्रकाश का अवसर दे अथच उसकी विद्वत्ता को अपनी गम्भीरता की कसौटी पर कस सके। इस बात को हिन्दी के विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। प्रसिध्द कहावत है-'कवि को दीन न चहै बिदाई। पूछै केशव की कविताई।' एक दूसरे कविता-मर्मज्ञ कहते हैं-
उत्ताम पद कबि गंग को , कविता को बलबीर।
केशव अर्थ गँभीरता , सूर तीन गुन धीरड्ड
इन बातों पर दृष्टि रखकर रामचन्द्रिका की गम्भीरता इस योग्य नहीं कि उस पर कटाक्ष किया जावे। जिस उद्देश्य से यह ग्रन्थ लिखा गया है, मैं समझता हूँ, उसकी पूर्ति इस ग्रन्थ द्वारा होती है। इस ग्रन्थ के अनेक अंश सुन्दर, सरस और हृदयग्राही भी हैं और उनमें प्रसाद गुण भी पाया जाता है। हाँ,यह अवश्य है कि वह गम्भीरता के लिए ही प्रसिध्द हैं। मैं समझता हूँ कि हिन्दी संसार में एक ऐसे ग्रन्थ की भी आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति करना केशवदास जी का ही काम था। अब केशवदास जी के कुछ पद्य मैं नीचे लिखता हूँ। इसके बाद भाषा और विशेषताओं के विषय में आप लोगों की दृष्टि उनकी ओर आकर्षित करूँगा-
1. भूषण सकल घनसार ही के घनश्याम ,
कुसुम कलित केश रही छवि छाई सी।
मोतिन की लरी सिरकंठ कंठमाल हार ,
और रूप ज्योति जात हेरत हेराई सी।
चंदन चढ़ाये चारु सुन्दर शरीर सब ,
राखी जनु सुभ्र सोभा बसन बनाई सी।
शारदा सी देखियत देखो जाइ केशो राइ ,
ठाढ़ी वह कुँवरि जुन्हाई मैं अन्हाई सी।
2. मन ऐसो मन मृदु मृदुल मृणालिका के ,
सूत कैसो सुर धवनि मननि हरति है।
दारयो कैसो बीज दाँत पाँत के अरुण ओंठ ,
केशोदास देखि दृग आनँद भरति है।
ऐरी मेरी तेरी मोहिं भावत भलाई तातें ,
बूझत हौं तोहि और बूझति डरति है।
माखन सी जीभ मुखकंज सी कोमलता में ,
काठ सी कठेठी बात कैसे निकरति है।
3. किधौं मुख कमल ये कमला की ज्योति होति
किधौं चारु मुखचन्द्र चन्द्रिका चुराई है।
किधौं मृगलोचन मरीचिका मरीचि कैधौं ,
रूप की रुचिर रुचि सुचि सों दुराई है।
सौरभ की सोभा की दलन घनदामिनी की
केशव चतुर चित ही की चतुराई है।
ऐरी गोरी भोरी तेरी थोरी थोरी हाँसी मेरे ,
मोहन की मोहिनी की गिरा की गुराई है।
4. बिधि के समान हैं बिमानी कृत राज हंस ,
विबुधा बिवुधा जुत मेरु सो अचल है।
दीपत दिपत अति सातो दीप दीपियत ,
दूसरो दिलीप सो सुदक्षिणा को बल है।
सागर उजागर को बहु बाहिनी को पति ,
छनदान प्रिय किधौं सूरज अमल है।
सब विधि समरथ राजै राजा दशरथ ,
भगीरथ पथ गामी गंगा कैसो जल है।
5. तरु तालीस तमाल ताल हिंताल मनोहर।
मंजुल बंजुल लकुच बकुल कुल केर नारियर।
एला ललित लवंग संग पुंगीफल सोहै।
सारी शुक कुल कलित चित्ता कोकिल अलि मोहै।
शुभ राजहंस कलहंस कुल नाचत मत्ता मयूर गन।
अति प्रफुलित फलित सदा रहै केशवदास विचित्राबन।
6. चढ़ो गगन तरु धाय , दिनकर बानर अरुण मुख।
कीन्हों झुकि झहराय , सकल तारका कुसुम बिन।
7. अरुण गात अति प्रात , पिर्निं प्राणनाथ भय।
मानहुँ केशवदास , कोकनद कोक प्रेममय।
परिपूरण सिंदूर पूर , कैधौं मंगल घट।
किधौं शक्र को क्षत्रा , मढ़यो माणिक मयूख पट।
कैशौणित कलित कपाल यह किल कापालिक कालको ,
यह ललित लाल कैधौं लसत दिग्भामिनि के भालको ,
8. श्रीपुर में बनमधय हौं , तू मग करी अनीति।
कहि मुँदरी अब तियन की , को करि है परतीति।
9. फलफूलन पूरे तरुवर रूरे कोकिल कुल कलरव बोलैं।
अति मत्तामयूरी पियरस पूरी बनबन प्रति नाचत डोलैं ,
सारी शुक पंडित गुनगन मंडित भावनमय अर्थ बखानैं
देखे रघुनायक सीय सहायक मनहुँ मदन रति मधुजानैं
10. मन्द मन्द धुनि सों घन गाजै।
तूर तार जनु आवझ बाजैं।
ठौर ठौर चपला चमकैं यों।
इन्द्रलोक तिय नाचति है ज्यों।
सोहैं घन स्यामल घोर घने।
मोहैं तिनमें बक पाँति मने।
शंखावलि पी बहुधा जलस्यों।
मानो तिनको उगिलै बलस्यों।
शोभा अति शक्र शरासन में।
नाना दुति दीसति है घन में।
रत्नावलि सी दिवि द्वार भनो।
बरखागम बाँधिय देव मनो।
घन घोर घने दसहूं दिसि छाये।
मघवा जनु सूरज पै चढ़ि आये।
अपराधा बिना छिति के तन ताये।
तिन पीड़न पीड़ित ह्नै उठि धाये।
अति गाजत बाजत दुंदुभि मानो।
निरघात सबै पविपात बखानो।
धानु है यह गौरमदाइन नाहीं।
सर जाल बहै जलधार वृथाहीं।
भट चातक दादुर मोर न बोले।
चपला चमकै न फिरै खग खोले।
दुति वन्तन को विपदा बहु कीन्हीं।
धारनी कहं चन्द्रवधू धर दीन्हीं।
11. सुभसर सोभै , मुनिमन लोभै।
सरसिज फूले , अलि रस भूले।
जलचर डोलैं बहुत खग बोलैं।
वरणि न जाहीं , उर उरझाहीं।
12. आरक्त पत्रा सुभ चित्रा पुत्री
मनो विराजै अति चारु भेषा।
सम्पूर्ण सिंदूर प्रभा बसै घौं
गणेश-भाल-स्थल चन्द्र रेखा।
केशवदास जी की भाषा के विषय में विचार करने के पहले मैं यह प्र्रकट कर देना चाहता हूँ कि इनके ग्रन्थ में जो मुद्रित होकर प्राप्त होते हैं, यह देखा जाता है कि एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूप हैं। इससे किसी सिध्दान्त पर पहुँचना बड़ा दुस्तर है। फिर भी सब बातों पर विचार करके और व्यापक प्रयोग पर दृष्टि रखकर मैं जिस सिध्दान्त पर पहुँचा हूँ, उसको आप लोगों के सामने प्रकट करता हूँ। केशवदास जी के ग्रन्थों की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है। परन्तु बुन्देलखंडी शब्दों का प्रयोग भी उनमें पाया जाता है। यह स्वाभाविकता है। जिस प्रान्त में वे रहते थे उस प्रान्त के कुछ शब्दों का उनकी रचना में स्थान पाना आश्चर्यजनक नहीं। इस दोष से कोई कवि या महाकवि मुक्त नहीं। बुन्देलखंडी भाषा लगभग ब्रजभाषा ही है और उसकी गणना भी पश्चिमी हिन्दी में ही है। हाँ, थोड़े से शब्दों या प्रयोगों में भेद अवश्य है। परन्तु इससे ब्रजभाषा की प्रधानता में कोई अन्तर नहीं आता। केशवदास जी ने यथास्थान बुन्देलखंडी शब्दों का जो अपने ग्रन्थ में प्रयोग किया है, मेरा विचार है कि इसी दृष्टि से। ब्रजभाषा के जो नियम हैं वे सब उनकी रचना में पाये जाते हैं। इसलिए उन नियमों पर उनकी रचना को कसना व्यर्थ विस्तार होगा। मैं उन्हीं बातों का उल्लेख करूँगा जो ब्रजभाषा से कुछ भिन्नता रखती हैं।
मैं पहले कह चुका हूँ कि केशवदास जी संस्कृत के पंडित थे। ऐसी अवस्था में उनका संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुध्द रूप में लिखने के लिए सचेष्ट रहना स्वाभाविक है। वे अपनी रचनाओं में यथाशक्ति संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुध्द रूप में लिखना ही पसन्द करते हैं। यदि कोई कारण-विशेष उनके सामने उपस्थित न हो जावे। एक बात और है। वह यह कि बुन्देलखंड में णकार और शकार का प्रयोग प्राय: बोल-चाल में अपने शुध्द रूप में किया जाता है। इसलिए भी उन्होंने संस्कृत के उन तत्सम शब्दों को जिनमें णकार और शकार आते हैं प्राय: शुध्द रूप में ही लिखने की चेष्टा की है। उसी अवस्था में उनको बदला है जब उनके परिवर्तन से या तो पद्य में कोई सौन्दर्य आता है या अनुप्रास की आवश्यकता उन्हें विवश करती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने ब्रजभाषा और अवधी के नियमों का पूरा पालन किया है किन्तु जब उन्होंने किसी अन्य प्रान्त का शब्द लिया तो उसको उसी रूप में लिखा। वे रामायण के अरण्य कांड में एक स्थान पर रावण के विषय में लिखतेहैं-
'इत उत चितै चला भणिआई'। 'भणिआ' शब्द बुन्देलखंडी है। उसका अर्थ है 'चोर' 'भणिआई' का अर्थ है 'चोरी'। गोस्वामीजी चाहते तो उसको 'भनिआई' अवधी के नियमानुसार बना लेते, परन्तु ऐसा करने में अर्थ-बोधा में बाधा पड़ती। एक तो शब्द दूसरे प्रान्त का, दूसरे यदि वह अपने वास्तव रूप में न हो तो उसका अर्थ-बोधा सुलभ कैसे होगा? इसलिए उसका अपने मुख्य रूप में लिखा जाना ही युक्तिसंगत था। गोस्वामी जी ने ऐसा ही किया। केशवदास जी की दृष्टि भी इसी बात पर थी इसीलिए उन्होंने वह मार्ग ग्रहण किया जिसकी चर्चा मैंने अभी की है। कुछ पद्य मैं लिखकर अपने कथन को पुष्ट करना चाहता हूँ। देखिए-
1. सब शृंगार मनो रति मन्मथ मोहै।
2. सबै सिंगार सदेह सकल सुख सुखमा मंडित।
3. मनो शची विधि रची विविधा विधि वर्णत पंडित।
4. जानै को केसव केतिक बार मैं सेस के सीसन दीन्ह उसासी।
ऊपर की दो पंक्तियों में एक में 'शृंगार' और दूसरी में 'सिंगार' आया है। 'शृंगार' संस्कृत का तत्सम शब्द है। अतएव अपने सिध्दान्तानुसार उसको उन्होंने शुध्द रूप में लिखा है, क्योंकि शुध्द रूप में लिखने से छन्द की गति में कोई बाधा नहीं पड़ी। परन्तु दूसरी पंक्ति में उन्होंने उसका वह रूप लिखा है जो ब्रजभाषा का रूप है। दोनों पंक्तियाँ एक ही पद्य की हैं। फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? कारण स्पष्ट है। 'शृंगार' में पाँच मात्राएँ हैं और 'सिंगार' में चार मात्राएँ हैं। दूसरे चरण में 'शृंगार' खप नहीं सकता था। क्योंकि एक मात्रा अधिक हो जाती। इसलिए उन्हें उसको ब्रजभाषा ही के रूप में रखना पड़ा। अपने-अपने नियमानुसार दोनों रूप शुध्द हैं। चौथे पद्य में उन्होंने अपने नाम को दन्त्य 'स' से ही लिखा, यद्यपि वे अपने नाम में तालव्य'श' लिखना ही पसन्द करते हैं, यहाँ भी यह प्रश्न होगा कि फिर कारण क्या? इसी पंक्ति में 'सेस' और 'सीसन' शब्द भी आये हैं जिनका शुध्द रूप 'शेष' और 'शीशन' है। इस शुध्द रूप में लिखने में भी छन्द की गति में कोई बाधा नहीं पड़ती। क्योंकि मात्रा में न्यूनाधिक्य नहीं। फिर भी उन्होंने उसको ब्रजभाषा के रूप में ही लिखा। इसका कारण भी विचारणीय है, वास्तव बात यह है कि उनके कवि हृदय ने अनुप्रास का लोभ संवरण नहीं किया। अतएव उन्होंने उनको ब्रजभाषा के रूप ही में लिखना पसंद किया। 'केसव' 'सेस' और 'सीसन' ने दन्त्य 'स' के सहित 'उसासी' के साथ आकर जो स्वारस्य उत्पन्न किया है वह उन शब्दों के तत्सम रूप में लिखे जाने से नष्ट हो जाता। इसलिए उनको इस पद्य में तत्सम रूप में नहीं देख पाते। ऐसी ही और बातें बतलाई जा सकती हैं कि जिनके कारण केशवदास जी एक ही शब्द को भिन्न रूपों में लिखते हैं। इससे यह न समझना चाहिए कि उनका कोई सिध्दान्त नहीं, वे जब जिस रूप में चाहते हैं किसी शब्द को लिख देते हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने जो कुछ किया है, नियम के अन्तर्गत ही रहकर किया है। दो ही रूप उनकी रचना में आते हैं या तो संस्कृत शब्द अपने तत्सम रूप में आता है अथवा ब्रजभाषा के तद्भव रूप में, और यह दोनों रूप नियम के अन्तर्गत हैं। ऐसी अवस्था में यह सोचना कि शब्द-व्यवहार में उनका कोई सिध्दान्त नहीं, युक्ति-संगत नहीं।
मैंने यह कहा कि उनके ग्रन्थ की मुख्य भाषा ब्रजभाषा ही है। इसका प्रमाण समस्त उद्धृत पद्यों में मौजूद है। उनमें अधिकांश ब्रजभाषा के नियमों का पालन है। युक्त-विकर्ष, कारकलोप, 'णकार', 'शकार', 'क्षकार' के स्थान पर 'न', 'स' और 'छ'का प्रयोग, प्राकृत भाषा के प्राचीन शब्दों का व्यवहार, प×चम वर्ण के स्थान पर अधिकांश अनुस्वार का ग्रहण इत्यादि जितनी विशेष बातें ब्रजभाषा की हैं, वे सब उनकी रचना में पाई जाती हैं। उद्धृत पद्यों में से पहले, दूसरे और तीसरे नम्बर पर लिखे गये कवित्ताों में तो ब्रजभाषा की सभी विशेषताएँ मूर्तिमन्त होकर विराजमान हैं। हाँ, कुछ तत्सम शब्द अपने शुध्द रूप में अवश्य आये हैं। इसका हेतु मैं ऊपर लिख चुका हूँ। उनकी रचना में 'गौरमदाइन', 'स्यों', 'बोक', 'बारोठा', 'समदौ', 'भाँडयो'आदि शब्द भी आते हैं।
नीचे लिखी हुई पंक्तियाँ इसके प्रमाण हैं-
1. देवन स्यों जनु देवसभा शुभ सीय स्वयम्बर देखन आई।
2. “ दुहिता समदौ सुख पाय अबै। “
3. कहूँ भाँड़ भांडयो करैं मान पावैं।
4. कहूँ बोक बाँके कहूँ मेष सूरे।
5. धानु है यह गौरमदाइन नाहीं।
6. ' बारोठे को चार कहि करि केशव अनुरूप ' ।
ये बुन्देलखंडी शब्द हैं। उनके प्रान्त की बोलचाल में ये शब्द प्रचलित हैं। इसलिए विशेष स्थलों पर उनको इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते देखा जाता है। किन्तु फिर भी इस प्रकार के प्रयोग मर्य्यादित हैं और संकीर्ण स्थलों पर ही किये गये हैं। इसलिए मैं उनको कटाक्ष योग्य नहीं मानता। उनकी रचना में एक विशेषता यह है कि वे तत्सम शब्दों को यदि किसी स्थान पर युक्त-विकर्ष के साथ लिखते हैं तो भी उसमें थोड़ा ही परिवर्तन करते हैं। जब उनको क्रिया का स्वरूप देते हैं तो भी यही प्रणाली ग्रहण करते हैं। देखिए-
1. इनहीं के तपतेज तेज बढ़ि है तन तूरण A
इन्हीं के तपतेज होहिंगे मंगल पूरण A
2. रामचन्द्र सीता सहित शोभत हैं तेहि ठौर।
3. मनो शची विधि रची विविधा विधि वर्णत पंडित।
'तूरण', 'पूरण', 'शोभत', 'वर्णत' इत्यादि शब्द इसके प्रमाण हैं। ब्रजभाषा के नियमानुसार इनको 'तूरन', 'पूरन', 'सोभत', 'बरनत' लिखना चाहिए था। किन्तु उन्होंने इनको इस रूप में नहीं लिखा। इसका कारण् भी उनका संस्कृत तत्सम शब्दानुराग है। बुन्देलखंडी भाषा में 'हुतो' एकवचन पुंल्लिंग में और 'हते' बहुवचन पुंल्लिंग में बोला जाता है। इनका स्त्राीलिंग रूप 'हतों'और 'हती' होगा। ब्रजभाषा में ए दोनों तो लिखे जाते ही हैं, 'हुतो' और 'हुती' भी लिखा जाता है। वे भी दोनों रूपों का व्यवहार करते हैं। जैसे 'सुता विरोचन की हुती दीरघजिह्ना नाम।'
उनको अवधी के 'इहाँ', 'उहाँ', 'दिखाउ', 'रिझाउ', 'दीन', 'कीन' इत्यादि का प्रयोग करते भी देखा जाता है। वे 'होइ' भी लिखते हैं, 'होय' भी, देखिए-
1. एक इहाँऊँ उहाँ अतिदीन सुदेत दुहूँ दिसि के जनगारी।
2. प्रभाउ आपनो दिखाउ छोंड़ि वाजि भाइ कै।
3. रिझाउ रामपुत्र मोहिं राम लै छुड़ाइ कै।
4. अन्न देइ सीख देइ राखि ले प्राण जात।
5. हँसि बंधु त्यों दृगदीन। श्रुतिनासिका बिनु कीन।
6. कीधौं वह लक्षमण होइ नहीं।
इसका कारण यही मालूम होता है कि उस काल हिन्दी भाषा के बड़े-बड़े कवियों का विचार साहित्यिक भाषा को व्यापक बनाने की ओर था। इसलिए वे लोग कम से कम अवधी और ब्रजभाषा में कतिपय आवश्यक और उपयुक्त शब्दों के व्यवहार में कोई भेद नहीं रखना चाहते थे। इस काल के महाकवि सूर, तुलसी और केशव को इसी ढंग से ढला देखा जाता है। उन्होंने अपनी रचना एक विशेष भाषा में ही अर्थात् अवधी या ब्रजभाषा में की है। परन्तु एक-दूसरे में इतना विभेद नहीं स्वीकार किया कि उनके प्रचलित शब्दों का व्यवहार विशेष अवस्थाओं और संकीर्ण स्थलों पर न किया जावे। इन महाकवियों के अतिरिक्त उस काल के अन्य कवियों का झुकाव भी इस ओर देखा जाता है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से यह बात ज्ञात होगी।
केशवदासजी की रचनाओं में पांडित्य कितना है, इसके परिचय के लिए आप लोग उद्धृत पद्यों में से चौथे पद्य को देखिए। उसमें इस प्रकार के वाक्यों का प्रयोग है जो दो अर्थ रखते हैं। मैं उनको स्पष्ट किये देता हूँ। चौथे पद्य में उन्होंने महाराज दशरथ को विधि के समान कहा है, क्योंकि दोनों ही 'विमानी कृत राजहंस' हैं। इसका पहला अर्थ जो विधिपरक है यह है कि राजहंस उनका वाहन (विमान) है। दूसरा अर्थ जो महाराज दशरथपरक है, यह है कि उन्होंने राजाओं की आत्मा (हंस) को मानरहित बना दिया, अर्थात् सदा वे उनके चित्ता पर चढ़े रहते हैं। सुमेरु पर्वत अचल है। दूसरे पद्य में उसी के समान उन्होंने महाराज दशरथ को भी अचल बनाया। भाव इसका यह है कि वे स्र्वकर्तव्य-पालन में दृढ़ हैं। दूसरी बात यह है कि यदि वह विविधा 'विबुधा-जुत' है, अर्थात् विविधा देवता उस पर रहते हैं तो महाराज दशरथ जी के साथ विविधा विद्वान् रहते हैं। 'विबुधा'का दोनों अर्थ है, देवता और विद्वान। दूसरे चरण में 'सुदक्षिणा' शब्द का दो अर्थ है। राजा दशरथ को अपने पूर्व पुरुष 'दिलीप'के समान बनाया गया है। इस उपपत्तिा के साथ कि यदि उनके साथ उनकी पत्नी सुदक्षिणा थीं, जिनका उनको बल था, तो उनको भी सुन्दर दक्षिणा का अर्थात् सत्पात्रा में दान देने का बल है। तीसरे चरण में उनको सागर समान कहा है, इसलिए कि दोनों ही 'वाहिनी' के पति और गम्भीर हैं। 'वाहिनी' का अर्थ सरिता और सेना दोनों हैं। इसी चरण में उनको सूर्य के समान अचल कहा है। इस कारण कि 'छनदान प्रिय' दोनों हैं। इसलिए कि महाराज दशरथ को तो क्षण-क्षण अथवा पर्व-पर्व पर दान देना प्रिय है और सूर्य 'छनदा' (क्षणदा) न-प्रिय है अर्थात् रात्रिा उसको प्यारी नहीं है। चौथे चरण में महाराज दशरथ को उन्होंने गंगा-जल बनाया है, क्योंकि दोनों भगीरथ-पथ गामी हैं। महाराज दशरथ के पूर्व पुरुष महाराज भगीरथ थे अतएव उनका भगीरथ पथावलम्बी होना स्वाभाविक है। इस अंतिम उपमा में बड़ी ही सुन्दर व्यंजना है। गंगा-जल का पवित्रा और उज्ज्वल अथच सद्भाव के साथ चुपचाप भगीरथ पथावलम्बी होना पुराण-प्रसिध्द बात है। इस व्यंजना द्वारा महाराज दशरथ के भावों को व्यंजित करके कवि ने कितनी भावुकता दिखलाई है, इसको प्रत्येक हृदयवान भली-भाँति समझ सकता है। अन्य उपमाओं में भी इसी प्रकार की व्यंजना है, परन्तु उनका स्पष्टीकरण व्यर्थ विस्तार का हेतु होगा। इस प्रकार के पद्यों से 'रामचन्द्रिका' भरी पड़ा है। कोई पृष्ठ इस ग्रन्थ का शायद ही ऐसा होगा कि जिसमें इस प्रकार के पद्य न हों। दो अर्थ वाला, पद्य आपने देखा, उसमें कितना विस्तार है। तीन-तीन चार-चार अर्थ वाले पद्य कितने विचित्रा होंगे, उनका अनुभव आप इस पद्य से ही कर सकते हैं। मैं उन पद्यों में से भी कुछ पद्य आप लोगों के सामने रख सकता था। परन्तु उसकी लम्बी-चौड़ी व्याख्या से आप लोग तो घबराएँगे ही, मैं भी घबराता हूँ। इसलिए उनको छोड़ता हूँ। केशवदास जी के पांडित्य के समर्थक सब हिन्दी-साहित्य के मर्मज्ञ हैं। इस दृष्टि से भी मुझे इस विषय का त्याग करना पड़ता है।
केशवदास जी का प्रकृति-वर्णन कैसा है, इसके लिए मैं आप लोगों से उद्धृत पद्यों में से नम्बर 5, 6, 7, 9, 10, 11 की रचनाओं को विशेष धयानपूर्वक अवलोकन करने का अनुरोधा करता हूँ। इन पद्यों में जहाँ स्वाभाविकता है वहाँ गम्भीरता भी है। कोई-कोई पद्य बड़े स्वाभाविक हैं और किसी-किसी पद्य का चित्राण इतना अपूर्व है कि वह अपने चित्रों को ऑंख के सामने ला देता है।
'रामचन्द्रिका' अनेक प्रकार के छन्दों के लिए भी प्रसिध्द है। इतने छन्दों में आज तक हिन्दी भाषा का कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया। नाना प्रकार के हिन्दी के छन्द तो इस ग्रन्थ में हैं ही। केशवदास जी ने इसमें कई संस्कृत वृत्ताों को भी लिखा है। संस्कृत वृत्ताों की भाषा भी अधिकांश संस्कृत गर्भित है, वरन उसको एक प्रकार से संस्कृत की ही रचना कही जा सकती है। उद्धृत पद्यों में से बारहवाँ पद्य इसका प्रमाण है। भिन्न तुकान्त छन्दों की रचना का हिन्दी-साहित्य में अभाव है। परन्तु केशवदासजी ने रामचन्द्रिका में इस प्रकार का एक छन्द भी लिखा है, जो यह है-
मालिनी
गुणगण मणि माला चित्ता चातर्ुय्य शाला।
जनक सुखद गीता पुत्रिाका पाय सीता।
अखिल भुवन भत्तर् ब्रह्म रुद्रादि कत्तर्।
थिरचर अभिरामी कीय जामातु नामी।
संस्कृत वृत्ताों का व्यवहार सबसे पहले चन्दबरदाई ने किया है। उनका वह छन्द यह है-
“ हरित कनक कांति कापि चंपेव गौरा।
रसित पदुम गंधा फुल्ल राजीव नेत्रा।
उरज जलज शोभा नाभि कोषं सरोजं।
चरण-कमल हस्ती लीलया राजहंसी। “
इसके बाद गोस्वामीजी को संस्कृत छन्दों में संस्कृतगर्भित रचना करते देखा जाता है। विनयपत्रिाका का पूर्वार्ध्द तो संस्कृत-गर्भित रचनाओं से भरा हुआ है। गोस्वामीजी के अनुकरण से अथवा अपने संस्कृत-साहित्य के प्रेम के कारण केशवदासजी को भी संस्कृत गर्भित रचना संस्कृत वृत्ताों में करते देखते हैं। इनके भी कोई-कोई पद्य ऐसे हैं जिनको लगभग संस्कृत का ही कह सकते हैं। इन्होंने 300 वर्ष पहले भिन्न तुकान्त छन्द की नींव भी डाली, और वे ऐसा संस्कृत वृत्ताों के अनुकरण से ही कर सके।
( क)
इस सोलहवीं शताब्दी में और भी कितने ही प्रसिध्द कवि हिन्दी भाषा के हो गये हैं। उनकी रचनाओं को उपस्थित किया जाना इसलिए आवश्यक है कि जिससे इस शताब्दी की व्यापक भाषा पर पूर्णतया विचार किया जा सके। इसी शताब्दी में एक भक्त स्त्राी भी कवयित्राी के रूप में सामने आती हैं और वे हैं मीराबाई। पहले मैं उनकी रचनाओं को आपके सामने उपस्थित करता हूँ। मीराबाई बहुत प्रसिध्द महिला हैं। वे चित्ताौड़ के राणा की पुत्रवधू थीं। परन्तु उनमें त्याग इतना था कि उन्होंने अपना समस्त जीवन भक्ति भाव में ही बिताया। उनके भजनों में इतनी प्रबलता से प्रेम-धारा बहती है कि उससे आर्द्र हुए बिना कोई सहृदय नहीं रह सकता। वे सच्ची वैष्णव महिला थीं और उनके भजनों के पद-पद से उनका धार्म्मानुराग टपकता है इसीलिए उनकी गणना भगवद्भक्त स्त्रिायों में होती है। उस काल के प्रसिध्द सन्तों और महात्माओं में से उनका सम्मान किसी से कम नहीं है। उनकी रचनाएँ देखिए-
1. “ मेरे तो गिरधार गुपाल दूसरा न कोई।
दूसरा न कोई साधो सकल लोक जोई।
भाई तजा बन्धाु तजा तजा सगा सोई।
साधु संग बैठि बैठि लोक लाज खोई।
भगत देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
ऍंसुअन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
दधि मथ घृत काढ़ि लियो डार दई छोई।
राणा विष प्यालो भेज्यो पीय मगन होई।
अब तो बात फैलि गई जाणै सब कोई।
मीरा राम लगण लागी होणी होय सो होई। “
2. एरी मैं तो प्रेम दिवाणी मेरा दरद न जाणे कोय।
सूली ऊपर सेज हमारी किस विधा सोणा होय।
गगन मंडल पै सेज पिया की किस विधि मिलना होय।
घायल की गति घायल जानै की जिन लाई होय।
जौहरी की गति जौहरी जाने की जिन जौहर होय।
दरद की मारी बन बन डोलूँ वैद मिला नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटैगी (जब) बैद सँवालिया होय।
3. बसो मेरे नैनन में नँदलाल।
मोहनि मूरति साँवरि सूरति नैना बने विसाल।
अधार सुधारस मुरली राजति उर बैजन्ती माल।
छुद्र घंटिका कटि तट शोभित नूपुर शब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई भक्त बछल गोपाल।
4. बंसी वारो आये म्हारे देस।
थारी साँवरी सूरत बारी बैस।
आऊँ आऊँ कर गया साँवरा कर गया कौल अनेक।
गिनते गिनते घिस गई उँगली घिस गई उँगली की रेख।
मैं बैरागिन आदि की थारे म्हारे कद को सँदेस।
जोगिण हुई जंगल सब हेरूं तेरा नाम न पाया भेस।
तेरी सूरत के कारणे धार लिया भगवा भेस।
मोर मुकुट पीताम्बर सोहै घूँघरवाला केस।
मीरा को प्रभु गिरधार मिलि गये दूना बढ़ा सनेस।
सरस कविता के लिए इस शताब्दी में अष्टछाप के वैष्णवों का विशेष स्थान है। इनमें से चार महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य थे-सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, तथा कुंभनदास और शेष चार नन्ददास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी तथा गोविन्दस्वामी, गोस्वामी विट्ठलनाथ के प्रमुख सेवकों में से थे। इनमें से सूरदास जी की रचनाओं को आप लोग देख चुके हैं,अन्यों की रचनाओं को भी देखिए-
कृष्णदासजी जाति के शूद्र थे किन्तु अपने भक्ति-बल से अष्टछाप के वैष्णवों में स्थान प्राप्त किया था। उनके रचित 1. 'जुगलमान चरित्रा', 2. 'भक्तमाल पर टीका', 3. 'भ्रमरगीत' और, 4. 'प्रेम सत्तव निरूप' नामक ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। उनका रचा एक पद देखिए-
“ मो मन गिरधार छबि पै अटक्यो।
ललित त्रिाभंग चाल पै चलिकै
चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो।
सजल श्याम घन बरन लीन ह्नै
फिरि चित अनत न भटक्यो।
कृष्णदास किये प्रान निछावर
यह तन जग सिर पटक्यो। “
परमानन्दजी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनमें भक्ति-विषयक तन्मयता बहुत थी। 'परमानंद सागर' नामक इनका एक प्रसिध्द ग्रन्थ है। इनका एक शब्द सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में भी है। वह यह है-
तैं नर का पुराण सुनि कीना।
अनपायनी भगति नहिं उपजी भूखे दान न दीना।
काम न बिसरयो , क्रोधा न बिसरयो , लोभ न छूटयो देवा।
हिंसा तो मन ते नहिं छूटी बिफल भई सब सेवा।
बाट पारि घर मूँसि बिरानो पेट भरै अपराधी।
जेहि परलोक जाय अपकीरति सोई अविद्या साधो।
हिंसा तो मन ते नहिं छूटी जीव दया नहिं पाली।
परमानंद साधु संगति मिलि कथा पुनीत न चाली।
उनका एक पद और देखिए-
“ ब्रज के विरही लोग बिचारे।
बिन गोपाल ठगे से ठाढ़े अति दुर्बल तन हारे।
मातु जसोदा पंथ निहारत निरखत साँझ सकारे।
जो कोई कान्ह कान्ह कहि बोलत ऍंखियन बहत पनारे।
यह मथुरा काजर की रेखा जे निकसे ते कारे।
परमानंद स्वामि बिनु ऐसे जस चन्दा बिनु तारे। “
कुंभनदास जी गौरवा ब्राह्मण थे। इनमें त्याग-वृत्तिा अधिक थी। एक बार अकबर के बुलाने पर फतेहपुर सीकरी गये, परन्तु उनको व्यथित होकर यह कहना पड़ा-
“ भक्तन को कहा सीकरी सों काम।
आवत जात पनहियाँ टूटी बिसरि गयो हरिनाम।
जाको मुख देखे दुख लागै तिनको करिबे परी सलाम।
कुंभन दास लाल गिरधार बिन और सबै बेकाम। “
इनके किसी ग्रन्थ का पता नहीं चलता। एक पद्य और देखिए-
जो पै चोप मिलन को होय।
तो क्यों रहै ताहि बिन देखे लाख करौ किन कोय।
जो ए बिरह परस्पर व्यापै जो कछु जीवन बनै।
लोक लाज कुल की मरजादा एकौ चित्ता न गनै।
कुंभनदास जाहि तन लागी और न कछू सुहाय।
गिरधार लाल ताहि बिन देखे छिन छिन कलप बिहाय।
अष्टछाप के वैष्णवों में कवित्व शक्ति में सूरदास जी के उपरान्त नंददास जी का ही स्थान है। आपकी सरस रचनाओं पर ब्रजभाषा गर्व कर सकती है। कहा जाता है कि आप गोस्वामी तुलसीदास जी के छोटे भाई थे। इसकी सत्यता में संदेह भी किया जाता है। जो हो, परन्तु पद-लालित्य के नाते वे गोस्वामी जी के सहोदर अवश्य हैं। हिन्दी-संसार में उनके विषय में एक कहावत प्रचलित है-”और कवि गढ़िया नंददास जड़िया।” मेरा विचार है कि यह कथन सत्य है। उन्होंने अठारह ग्रन्थों की रचना की है। 'रास पंचाधयायी' से इनकी कुछ रचनाएँ यहाँ उद्धृत की जाती हैं-
“ परम दुसह श्री कृष्ण बिरह दुख व्याप्यो तिन में।
कोटि बरस लगि नरक भोग दुख भुगते छिन में।
सुभग सरित के तीर धीर बलबीर गये तहँ।
कोमल मलय समीर छविन की महा भीर जहँ।
कुसुम धूरि धूँधारि कुंज छबि पुंजनि छाई।
गुंजत मंजु मलिंद बेनु जनु बजत सुहाई।
इत महकति मालती चारु चम्पक चित चोरत।
उत घनसारु तुसारु मलय मंदारु झकोरत।
नव मर्कत मनि स्याम कनक मनिमय ब्रजबाला।
वृन्दावन गुन रीझि मनहुँ पहिराई माला।
चतुर्भुजदास जी कुम्भन दास जी के पुत्र थे। वे बाल्यकाल ही से कृष्ण-लीला-गान में मत्ता रहते थे। लीला सम्बन्धी उनकी अनेक रचनाएँ हैं। उन्होंने 'द्वादशयश', 'भक्ति प्रताप', और 'हित जू को मंगल' नामक तीन ग्रन्थ बनाये। उनकी रचना देखिए-
“ जसोदा कहा कहौं बात ?
तुम्हरे सुत के करतब मोपै कहत कहे नहिं जात।
भाजन फोरि , ढारि सब गोरस , लै माखन दधि खात।
जौ बरजौं तौ ऑंखि दिखावै , रंचहुँ नाहिं सकात।
दास चतुर्भुज गिरिधार गुन हौं कहति कहति सकुचात। “
छीतस्वामी मथुरा के चौबे थे। जादू टोना से इनको बड़ा प्रेम था। मथुरा में पाँच चौबे गुण्डे माने जाते थे। ये उनके प्रधान थे। परन्तु श्री विट्ठलनाथजी के सत्संग से उनके हृदय में भगवद्भक्ति का ऐसा प्रवाह बहा कि उनकी गणना अष्टछाप के वैष्णवों में हुई। इनका ग्रंथ कोई नहीं मिलता, फुटकर रचनाएँ मिलती हैं। इनमें से एक पद्य नीचे दिया जाता है-
“ भई अब गिरधार सो पहिचान।
कपट रूप छलबे आये हो पुरुषोत्ताम नहिं जान।
छोटो बड़ो कछू नहिं जान्यो छाय रह्यो अज्ञान।
छीत स्वामि देखत अपनायो बिट्ठल कृपा-निधान। “
गोविन्दस्वामी सनाढय ब्राह्मण थे। उनकी भक्ति प्रसिध्द है। वे बड़े आनन्दी जीव थे। बिट्ठलनाथ जी के मुख से भागवत के भगवल्लीला सम्बन्धी पदों को सुन कर कभी-कभी उन्मत्ता हो जाते थे। इनके भी फुटकर पद ही प्राप्त होते हैं। उनमें से एक यह है-
प्रात समै उठि जसुमति जननी ,
गिरधार सुत को उबटि न्हवावति।
करि शृंगार बसन भूषन सजि ,
फूलन रचि रचि पाग बनावति।
छुटे बंद बागे अति सोभित
बिच बिच चोव अरगजा लावति।
सूथन लाल फूँदना सोभित आजु
कि छवि कछु कहत न आवति।
विविधा कुसुम की माला उर धारि
श्री कर मुरली बेत गहावति।
लै दरपन देखे श्री मुख को
गोविंदप्रभु चरनन सिर नावति।
अष्टछाप के वैष्णवों के अतिरिक्त ब्रजमंडल में दो ऐसे महापुरुष हो गये हैं जिनकी महात्माओं में गणना है। एक हैं स्वामी हित हरिवंश और दूसरे स्वामी हरिदास। हित हरिवंश जी ने राधा-वल्लभी सम्प्रदाय स्थापित किया था। इन्होंने 'राधा सुधानिधि' नामक एक काव्य की रचना भी की है। उनके ब्रजभाषा के 84 पद्य बहुत प्रसिध्द हैं। वास्तव में उनमें बड़ी सरसता है। उनके पद्यों में संस्कृत शब्द अधिक आते हैं। किन्तु उनका प्रयोग वे बड़ी रुचिरता से करते हैं। कुछ रचनाएँ उनकी देखिए-
1. आजु बन नीको रास बनायो।
पुलिन पवित्रा सुभग जमुना तट मोहन बेनु बजायो।
कल कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि खग मृग सचुपायो।
जुवतिन मंडल मधय श्याम घन सारँग राग जमायो।
ताल मृदंग उपंग मुरज डफ मिलि रस सिंधु बहायो।
सकल उदार नृपति चूड़ामणि सुख बारिद बरखायो।
बरखत कुसुम मुदित नभ नायक इन्द्र निसान बजायो।
हित हरिबंस रसिक राधापति जस बितान जग छायो।
2. तनहिं राखु सतसंग में , मनहिं प्रेम रस भेव।
सुख चाहत हरिबंस हित , कृष्ण कल्पतरु सेव।
रसना कटौ जु अनरटौ , निरखि अनफुटौ नैन।
श्रवण फुटौ जो अन सुनौ , बिन राधा जसु बैन।
स्वामी हरिदास ब्राह्मण थे। कोई इन्हें सारस्वत कहता है, कोई सनाढय। ये बहुत बड़े त्यागी और विरक्त थे। ये निम्बार्क सम्प्रदाय के महात्मा थे। इनके शिष्यों में अनेक सुकवि और महात्मा हो गये हैं। ये गान-विद्या के आचार्य थे। तानसेन और बैजू बावरा दोनों इनके शिष्य थे। ये वृन्दावन में ही रहते थे और बड़ी ही तदीयता के साथ अपना जीवन व्यतीत करते थे। इनके पद्यों के तीन-चार संग्रह बतलाये जाते हैं। उनके कुछ पद देखिए-
1. “ गहो मन सब रस को रस सार।
लोक वेद कुल कर्मै तजिये भजिये नित्य बिहार।
गृह कामिनि कंचन धान त्यागो सुमिरो श्याम उदार।
गति हरिदास रीति संतन की गादी को अधिकार। “
2. “ हरि के नाम को आलस क्यों करत है रे।
काल फिरत सर साधो।
हीरा बहुत जवाहिर संचे कहा भयो हस्ती दर बाँधो।
बेर कुबेर कछू नहिं जानत चढ़े फिरत हैं काँधो।
कहि हरिदास कछू न चलत जब आवत अंतक ऑंधो। “
( ख)
अब मैं अकबर के दरबारी कवियों की चर्चा करूँगा। इनके दरबार में भी उस समय अच्छे-अच्छे सुकवि थे। मंत्रिायों में रहीम ख़ानख़ाना, बीरबल और टोडरमल भी कविता करते थे। दरबारी कवियों में गंग और नरहरि का नाम बहुत प्रसिध्द है। रहीम ख़ानख़ाना मुसलमान थे। परन्तु हिन्दी भाषा के बड़े सरस हृदय कवि थे। उनकी रचनाएँ बड़े आदर की दृष्टि से देखी जाती हैं। वे बड़े उदार भी थे और सहृदय कवियों को लाखों दे देते थे। उन्होंने फ़ारसी में भी रचनाएँ की थीं। उनका 'दीवान फ़ारसी'और 'वायाते बाबरी' का फ़ारसी अनुवाद बहुत प्रसिध्द है। हिन्दी में भी उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की है। उनकी कुछ हिन्दी रचनाएँ देखिए-
1. कहि रहीम इक दीप तें , प्रगट सबै दुति होय।
तन सनेह कैसे दुरै , जरु दृग दीपक दोयड्ड
2. छार मुंड मेलतु रहतु , कहि रहीम केहि काज।
जेहि रज रिषि-पत्नी तरी , सो ढूँढ़त गजराजड्ड
3. रहिमन राज सराहिये , जो ससि के अस होय।
रवि को कहा सराहिये , जो उगै तरैयन खोयड्ड
4. यों रहीम सुख होत है , बढ़त देखि निज गोत।
ज्यों बड़री अखियाँन लखि , ऑंखिन को सुख होतड्ड
5. ज्यों रहीम गति दीप की , कुल कपूत गति सोय।
बारे उँजियारो लगै , बढ़े ऍंधोरो होयड्ड
6. बालम अस मन मिलयउँ जस पय पानि।
हंसिनि भई सवतिया लइ बिलगानि।
भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वति ताप।
एक घरी भरि सजनी रहु चुपचाप।
सघन कुंज अमरैया सीतल छाँहि।
झगरति आइ कोइलिया पुनि उड़ि जाहिं।
लहरत लहर लहरिया लहर बहार।
मोतिन जरी किनरिया बिथुरे बार।
7. कलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था।
चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था।
कटि तट बिच मेला पीत सेला नवेला।
अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला।
टोडरमल अकबर के कर-विभाग के प्रधानमंत्राी थे। बही-खाता का प्रचार सबसे पहले इन्हीं के द्वारा हुआ। हिन्दी दफ्तर को पहले पहल इन्होंने ही फारसी में किया। ये प्रधान कवि नहीं हैं और न इनका कोई ग्रन्थ है। स्फुट कविताएँ इनकी मिल जाती हैं। इनकी एक रचना देखिए-
गुन बिनु धान जैसे गुरु बिन ज्ञान जैसे।
मान बिनु दान जैसे जल बिनु सर है।
कंठ बिनु गीत जैसे हित बिनु प्रीति जैसे।
वेश्या रस रीति जैसे फल बिनु तर है।
तार बिनु जंत्रा जैसे स्याने बिनु मंत्रा जैसे।
नर बिनु नारि जैसे पुत्र बिनु घर है।
टोडर सुकबि तैसे मन में विचार देखो।
धर्म बिनु धान जैसे पच्छी बिना पर हैड्ड
बीरबल अकबर के प्रधानमंत्रिायों में से थे। ये जाति के ब्राह्मण थे, बड़े वीर भी थे। कविता के रसिक थे और स्वयं कविता करते थे। अपने समय में कविजन के कल्पतरु थे। प्रत्युत्पन्नमति ऐसे थे कि अकबर की दृष्टि में इसी कारण उनका विशेष आदर था। बड़े सरस हृदय थे और ललित कविता भी करते थे। दो-एक पद्य देखिए-
1. उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर
उरग पै केकिन के लपटैं लहकि है।
केकिन के सुरति हिये की ना कछू है भय
एकी करि केहरि न बोलत बहकि है।
कहै कवि ब्रह्म बारि हेरत हरिन फिरैं
बैहर बहति बड़े जोर सों जहकि है।
तरनि के तावन तवा-सी भई भूमि रही
दसहूँ दिसान में दवारि सी दहकि है।
2. पेट में पौढ़ि के पौढ़े मही पर
पालना पौढ़ि के बाल कहाये।
आई जबै तरुनाई तिया सँग
सेज पै पौढ़ि के रंग मचाये।
छीर-समुद्र के पौढ़नहार को
ब्रह्म कबौं चित तें नहिं धयाये।
पौढ़त पौढ़त पौढ़त ही सों
चिता पर पौढ़न के दिन आये।
नरहरि अकबरी दरबार के प्रसिध्द कवि थे। वे ज़िला फ़तहपुर-असनी गाँव के निवासी थे। शायद जाति के बंदीजन थे, कहा जाता है कि इनके एक छप्पय पर रीझकर अकबर ने अपने समय में गायकुशी बंद कर दी थी। वह छप्पय यहहै-
अरिहुं दन्ततृन धारैं ताहि मारत न सबल कोइ।
हम संतत तृन चरहिं बचन उच्चरहिं दीन होइ।
अमृत पय नित ò वहिं बच्छ महि थम्भन जावहिं।
हिन्दुहिं मधुर न देहिं कटुक तुरकहिं न पियावहिं।
कह नरहरि कवि अकबर सुनो।
बिनवत गऊ जोरे करन।
अपराधा कौन मोहि मारियतु
मुयेहुं चाम सेवत चरन।
एक पद्य उनका और देखिए-
सरवर नीर न पीवहीं स्वाति बुन्द की आस।
केहरि कबहुँ न तृन चरै जो ब्रत करै पचास।
जो व्रत करै पचास विपुल गज-जूह बिदारै।
धान ह्नै गर्व न करै निधान नहिं दीन उचारै।
नरहरि कुल क सुभाउ मिटै नहिं जब लगि जीवै।
बरु चातक मरि जाय नीर सरवर नहिं पीवै।
कवि गंग अकबर-दरबार के एक नामी कवि थे। रचना जो इनकी मिलती है वह प्रौढ़ है। इनका कोई ग्रन्थ अब तक नहीं मिला है परन्तु जो स्फुट पद्य पाये गये हैं, उनसे उनकी योग्यता का पूरा परिचय मिलता है। किसी-किसी की यह सम्मति है कि इनका अन्तिम समय बड़ा दुखद था। कहा जाता है कि वे हाथी के पैरों से शैंदवा दिये गये। भिखारीदास का एक दोहा है जिसमें उन्होंने गोस्वामी तुलसीदासजी के साथ इनकी भी प्रशंसा की है और इनको अच्छा कवि माना है। वह दोहा यहहै-
तुलसी गंग दुवौ भये , सुकबिन के सरदार।
इनकी कविता में मिली , भाषा विविधा प्रकारड्ड
रहीम ख़ाँ ख़ानखाना इनका बड़ा आदर करते थे, कवि गंग ने उनकी प्रशंसा में कुछ रचनाएँ भी की हैं। उनकी कुछ कविताएँ नीचे लिखी जाती हैं-
बैठी थी सखिन संग पिय को गवन सुन्यो ,
सुख के समूह में वियोग आग भर की।
गंग कहै त्रिाविधि सुगंधा लै पवन बह्यो ,
लागत ही ताके तन भई बिथा जर की।
प्यारी को परसि पौन गयो मानसर पहँ
लागत ही औरे गति भई मानसर की।
जलचर जरे औ सेवार जरि छार भयो ,
जल जरि गयो पंक सूख्यो भूमि दरकीड्ड
मृगहूँ ते सरस विराजत बिसाल दृग ,
देखिए न अस दुति कोलहू के दल मैं।
गंग घन दुज से लसत तन आभूषन ,
ठाढ़े द्रुम छाँह देख ह्नै गई विकल मैं।
चख चित चाय भरे शोभा के समुद्र माहिं
रही ना सँभार दसा औरै भई पल मैं।
मन मेरो गरुओ गयो री बूड़ि मैं न पायो ,
नैन मेरे हरुये तिरत रूप जल में।
इन प्रसिध्द कवियों के अतिरिक्त इस सोलहवीं सदी में नरोत्तामदास नामक एक बड़े सहृदय कवि हो गये हैं। वे जिला सीतापुर के रहने वाले ब्राह्मण थे। इनके दो ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। एक 'सुदामा-चरित्रा' और दूसरा 'धा्रुव-चरित्रा'। ये दोनों खंड काव्य हैं। इनमें से सुदामा-चरित्रा की कविता बड़ी ही सरस है। उसमें से दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं-
1. कोदो समाँ जुरतो भरि पेट न
चाहति तौ दधि दूधा मिठौती।
सीत न बीतत जो सिसियात
तौ हौं हठती पै तुम्हैं न हठौती।
जो जनती न हितू हरि से तो मैं
काहे को द्वारिका ठेलि पठौती।
या घरसे कबहूँ न गयो पिय
टूटो तवा अरु फूटी कठौती।
2. काहे बेहाल बिवाइन सों पुनि
कंटक जाल लगे पग जोये।
हाय महादुख पायौ सखा तुम
आये इतै न कितै दिन खोये।
देखि सुदामा की दीन दसा
करुना करिकै करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयौ
नहिं नैनन के जल सों पग धोये।
केशवदास जी के बड़े भ्राता बलभद्र जी की चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ-आप संस्कृत भाषा के प्रसिध्द विद्वान थे। आपकी संस्कृत रचनाएँ अधिक हैं। भागवत भाष्य और बलभद्री व्याकरण आपके उत्ताम ग्रन्थ हैं। इनकी बनाई हुई हनुमन्नाटक एवं गोवर्धान-सप्तशती की टीकाएँ भी बड़ी विशद हैं। संस्कृत के इतने बड़े विद्वान् होने पर भी आपने हिन्दी भाषा में दो ग्रन्थ लिखे,एक का नाम है दूषण-विचार और दूसरा है नख-शिख। दूषण्-विचार सुना है कि बड़ा उपयोगी ग्रंथ है, परन्तु मैंने इस ग्रन्थ को नहीं देखा। नख-शिख सुंदर ग्रंथ है, और इसकी रचना बड़ी प्रौढ़ है। इसके जोड़ का नृपशंभु का नख-शिख नामक ग्रन्थ है,परंतु यह ग्रन्थ उक्त ग्रन्थ के अनुकरण से ही लिखा गया है-और भी नख-शिख के ग्रन्थ हैं, परन्तु बलभद्र जी के नख-शिख की समता कोई नहीं कर सका। उसके दो पद्य नीचे लिखे जातेहैं-
पाटल नयन कोकनद के से दल दोऊ
बलभद्र बासर उनीदी लखी बाल मैं।
शोभा के सरोवर मैं बाड़व की आभा कैधों
देवधुनि भारती मिली है पुन्य काल मैं।
काम कैवरत कैधों नासिका उव्प बैठयो
खेलत सिकार तरुनी के मुखताल मैं।
लोचन सितासित मैं लोहित लकीर मानो
बाँधो जुग मीन लाल रेसम के जाल मेंड्ड 1 ड्ड
मरकत के सूत कैधों पन्नग के पूत अति
राजत अभूत तमराज के से तार हैं।
मखतूल गुन-ग्राम सोभित सरस श्याम
काम मृग कानन कै कुहू के कुमार हैं।
कोप की किरिन कै जलज-नाल नील तंतु
उपमा अनंत चारु चँवर सिंगार हैं।
कारे सटकारे भींजे सोंधो सों सुंगधा बास
ऐसे बलभद्र नव बाला तेरे बार हैंड्ड 2 ड्ड
इसी समय में हरिनाथ, तानसेन, प्रवीणराय, होलराय, करनेस, लालनदास, मनोहर, रसिक आदि ऐसे कवि भी साहित्य क्षेत्र में आये, जो बहुत प्रसिध्द नहीं हैं, परन्तु उनकी रचनाएँ सुन्दर और भावमयी हैं। सबकी रचनाओं के नमूने के लिए इस ग्रंथ में स्थान का संकोच है। जो रचनाएँ अधिक मधुर हैं और जिनमें कुछ विशेषता है, उनमें से कुछ नीचे लिखी जाती हैं-
बलि बोई कीरति-लता , कर्ण करी द्वैपात।
सींची मान महीप ने जब देखी कुम्हलातड्ड
जाति जाति ते गुन अधिक सुन्यो न कबहूँ कान।
सेतु बाँधि रघुबर तरे हेलादे नृप मानड्ड
- हरिनाथ
खात हैं हराम दाम करत हराम काम
धाम धाम तिनहीं के अपजस छावैंगे।
दोजख में जैहैं तब काटि काटि कीड़े खैहैं
खोपड़ी को गूद काक टोंटन उड़ावैंगे।
कहै करनेस अबै घूस खात लाजै नाहिं
रोजा औ नेवाज अंत काम नहिं आवैंगे।
कबिन के मामिले में करै जौन खामी।
तौन निमकहरामी मरे कफन न पावैंगे।
- करनेस
दीप कैसी जाकी जोति जगर मगर होति
गुलाबबास बादर मैं दामिनी अलूदा है।
जाफरानी फूलन मैं जैसे हेमलता लसै
तामैं उग्यो चन्द्र लेन रूप अजमूदा है।
लालन जू लालन के रंग से निचोरि रँगी
सुरंग मजीठ ही कै रंगन जमूदा है।
बकि न बहूदा लखि छबिन को तूदा ओप
अतर अलूदा अंगना का अंग ऊदा है।
- लालनदास
स्वामी हितहरिवंश की शिष्य-परम्परा और शिष्यों में तथा हरिदास स्वामी आदि महात्माओं के संसर्ग से अनेक सहृदय कवि इस शतक में उत्पन्न हुए, उनकी रचनाएँ बड़ी सरस हैं। उनमें से हितरूप लाल, गदाधार भट्ट, भगवान हित, नागरीदास,बिहारिन दास, भट्ट महाराज, व्यासजी, सेवक जी, हरिवंश अली और बिट्ठल बिपुल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनमें से कुछ लोगों की रचनाएँ भी देखिए-
बिथुरी सुथरी अलकैं झलकैं
बिच आनि कपोल परीं जुछली।
मुसुकात जबै दसनावलि देखि
लजात तबै तब कुन्द कली।
अति चंचल नैन फिरैं चहुघाँ नित
पोखत लाल है भांति भली।
तिनके पद-पंकज को मकरंद
सुनित्य लहै हरिबंस अली।
- हरिबंस अली
जैसे गुरु तैसे गोपाल।
हरि तौ तबहीं मिलिहैं जबहीं श्रीगुरु होयँ कृपाल।
गुरु रूठे गोपाल रूठिहैं वृथा जात है काल।
एक पिता बिन गनिका सुत को कौन करे प्रतिपाल।
- व्यासजी
सजनी नवल कुंज बन फूले।
अलिकुल संकुल करत कुलाहल सौरभ मनमथ भूले।
हरखि हिडोरे रसिक रास बर जुगुल परस्पर झूले।
बिट्ठल बिपुल बिनोद देखि नभ देव बिमानन भूले।
यह बिट्ठल विपुलजी का पद्य है। स्वामी हरिदासजी के आप शिष्य थे, उनका स्वर्गारोहण होने पर आप ही उनकी गद्दी पर बैठे। गुरु के चरणों में आपका इतना अनुराग था कि उनके शरीर का पात होने पर उन्होंने अपनी ऑंखों पर पट्टी बाँधा ली। एक रास के समय कहा जाता है कि स्वयं श्रीकृष्ण जी ने उनकी ऑंखों की पट्टी खोली। एक बार रास में आप इतने प्रेमोन्मत्ता हुए कि तत्काल देहान्त हो गया।
बने बन ललित त्रिाभंग बिहारी।
बंसीधुनि मनु बंसी लाई आई गोपकुमारी।
अरप्यो चारु चरन पद ऊपर लकुट कच्छ तरधारी।
श्री भट मुकुट चटक लटकनि मैं अटकि रहे दृग प्यारी।
- श्री भट्ट
रक्त पीतसित असित लसत अंबुज बन सोभा।
टोल टोल मद लोल भ्रमत मधुकर मधु लोभा।
सारस अरु कलहंस कोक कोलाहल कारी।
पुलिन पवित्रा विचित्रा रचित सुन्दर मनहारी।
- गदाधार भट्ट
सबै प्रेम के साधान तरु हरि।
निकसत उमग प्रगट अंकुर बर पात पुराने परिहरि।
गुन सुनि भई दास की आसा दरस्यो परस्यो भावै।
जब दरस्यो तब बोलै चाहै बोले हूँ हँसि आवै।
- बिहारी दास
जसुमति आनँद कन्द नचावति।
पुलकि पुलकि हुलसाति देखि मुख अति सुख पुंजहिं पावति।
बाल जुवा वृध्दा किसोर मिलि चुटकी दै दै गावति।
नुपुर सुर मिश्रित धुनि उपजति सुर विरंचि विसमावति।
कुंचित ग्रंथिक अलक मनोहर झपकि वदन पर आवति।
जन भगवान मनहुँ घन विधु मिलि चाँदनि मकर लजावति।
- हित भगवान
दिन कैसे भरूँरी माई बिन देखे प्रान अधार।
ललित तृभंगी छैल छबीलो पीतम नंद कुमार।
सुन री सखी कदमतर ठाढ़ो मुरली मंद बजावै।
गनिगनि प्यारी गुनगन गावै चितवत चितहि रिझावै।
जियरा धारत न धीरज सजनी कठिन लगन की पीर।
रूप लाल हित आगर नागर सागर सुख की सीर।
- हितरूप लाल
इन महात्माओं में अधिकतर ग्रन्थकार हैं, और एक-एक ने कई-कई ग्रंथ लिखे हैं, इन सब बातों की चर्चा करने से अधिक विस्तार और विषयान्तर होगा अतएव मैं इस विषय को यहीं छोड़ता हूँ। नाभादासजी के गुरु अग्रदास जी भी इसी शताब्दी में हुए। आपने भी कई ग्रन्थों की रचना की है, 'राम भजन मंजरी' और 'भाषा हितोपदेश' उनके सुन्दर ग्रंथ हैं। एक कविता उनकी भी देखिए-
कुण्डल ललित कपोल जुगुल अरु परम सुदेसा।
तिनको निरखि प्रकास लजत राकेस दिनेसा।
मेचक कुटिल बिसाल सरोरुह नैन सुहाये।
मुख पंकज के निकट मनो अलि छौना आये।
इन उध्दरणों को देखकर आप सोचते होंगे, कि यह व्यर्थ विस्तार किया गया है, परन्तु आवश्यकताओं ने मुझको ऐसा करने के लिए विवश किया। मैं यह दिखलाना चाहता हूँ कि सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी-भाषा कैसे समुन्नत हुई, किस प्रकार ब्रजभाषा को प्रधानता मिली और उसका क्या स्वरूप स्थिर हुआ। अतएव मुझको सब प्रकार की रचनाओं का संकलन करना पड़ा। इस शताब्दी में अवधी और ब्रजभाषा दोनों का सर्वांगीण शृंगार हुआ, दोनों में ऐसे लोकोत्तार ग्रन्थ लिखे गये, जैसे आज तक दृष्टिगोचर न हो सके। परन्तु एक बात देखी जाती है, वह यह कि ब्रजभाषा का विकास बाद की शताब्दियों में भी बहुत कुछ हुआ, वह आगे चलकर भी अच्छी तरह फली-फूली और फैली, किन्तु अवधी को यह गौरव नहीं प्राप्त हुआ। प्रेम-मार्गी सूफियों के कुछ ग्रंथ गोस्वामी जी के पश्चात् भी अवधी भाषा में लिखे गये हैं, परन्तु प्रथम तो उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है, दूसरे ब्रजभाषा की ग्रन्थावली के सामने वे शून्य के बराबर हैं। बाबा रघुनाथ दास का विश्राम-सागर भी अवधी भाषा में लिखा गया है, और इसमें सन्देह नहीं कि यह भी अवधी भाषा का उत्ताम ग्रन्थ है। उसका प्रचार भी हुआ। परन्तु इन कतिपय ग्रंथों के द्वारा उस न्यूनता की पूर्ति नहीं होती जो ब्रजभाषा की विशाल ग्रंथमालाओं के सामने अवधी को प्राप्त हुई। जब यह विचार किया जाता है कि ब्रजभाषा के इस व्यापकता और विस्तार का क्या कारण है तो कई बातें सामने आती हैं। मैं उनको प्रकट करना चाहता हूँ।
यह देखा जाता है कि चिरकाल से मधयदेश की भाषा को ही प्रधानता मिलती आई है। जिस समय संस्कृत भाषा का गौरवकाल था। उस समय भी इस प्रान्त से ही उसका प्रचार अन्य प्रदेशों में हुआ। जब प्राकृत भाषा का प्रचार हुआ, तब भी शौरसेनी को ही अन्य प्राकृतों पर विशिष्टता मिली और उसी का अधिक विस्तार अन्य प्रदेशों में हुआ। संस्कृत के नाटकों में शिष्ट भाषा के रूप में शौरसेनी ही गृहीत हुई है। कारण इसका यह है कि आर्य सभ्यता इसी स्थान से अन्य प्रदेशों में फैली और इसी स्थान से आर्यों के विशिष्ट दलों ने जाकर अन्य प्रदेशों पर अधिकार किया। ऐसी अवस्था में उनकी भाषाओं का महत्तव जो अन्य प्रान्त वालों ने स्वीकार किया तो यह आश्चर्यजनक नहीं, क्योंकि यह देखा जाता है कि राज्यभाषा ही प्रधानता लाभ करती है। जिस समय ब्रजभाषा का उदय हुआ उस समय भी मधयदेश की ही राज्य-सत्ता का प्रभाव भारतवर्ष पर था। उन दिनों अकबर सम्राट् था और उसकी राजधानी अकबराबाद या आगरे में थी। जो ब्रजप्रान्त के अन्तर्गत है। अतएव वहाँ की भाषा का प्रभाव अन्य प्रदेशों पर पड़ना स्वाभाविक था, विशेषकर उस अवस्था में जब कि अकबर के समस्त बड़े अधिकारी ब्रजभाषा से स्नेह करते थे। इतना ही नहीं, वे ब्रजभाषा में स्वयं रचना करके भी उन दिनों उसे समादृत बना रहे थे। मैं राजा बीरबल, राजा टोडरमल और रहीम खाँ ख़ानख़ाना की रचनाओं को ऊपर उद्धृत कर आया हूँ। वे ही मेरे कथन के प्रमाण हैं, अकबर स्वयं ब्रजभाषा में कविता करता था। कुछ पद्य उसके भी देखिए-
“ जाको जस है जगत में , सबै सराहै जाहि।
ताको जीवन सफल है , कहत अकब्बर साहिड्ड
साहि अकब्बर एक समै चले ,
कान्ह बिनोद बिलोचन बालहि।
आहट ते अबला निरख्यो चकि
चौंकि चली करि आतुर चालहिं।
त्यों बलि बेनी सुधारी धारी सुभई ,
छबि यों ललना अरु लालहिं।
चम्पक चारु कमान चढ़ावत ,
काम ज्यों हाथ लिये अहि-बालहिं। “
यही नहीं, उनके दरबार के राजे-महराजे भी इस रंग में रँगे हुए थे। उनकी ब्रजभाषा की रचनाएँ बतलाती हैं कि जो राजे ब्रजप्रान्त से दूर के थे, वे भी उसके प्रभाव से प्रभावित थे। बीकानेर के राजा के भाई पृथ्वीराज की एक रचना देखिए। आप अकबर के प्रसिध्द दरबारी थे। उन्होंने तीन ग्रन्थ लिखे थे। उनमें से एक ग्रन्थ 'प्रेम-प्रदीपिका' का एक पद्य यह है-
“ प्रेम इकंगी नेम प्रेम गोपिन को गायो।
बचनन बिरह विलाप सखी ताकी छवि छायो।
ज्ञान जोग वैराग मधुर उपदेसन भाख्यो।
भक्ति भाव अभिलाष मुख्य बनि तनु मन राख्यो।
बहुबिधि बियोग संयोग सुख सकल भाव समुझै भगत।
यह अद्भुत ' प्रेम-प्रदीपिका ' कहि अनंत उद्दित जगत। “
कुछ लोगों ने यह लिखा है कि महाराज मानसिंह भी ब्रजभाषा में कविता करते थे, परन्तु उनकी कोई कविता मेरे देखने में नहीं आयी। मैंने अब तो जो लिखा, उससे यह पाया जाता है कि उस समय अकबर के दरबार में ब्रजभाषा की बड़ी चर्चा थी। यह मैं स्वीकार करूँगा कि रहीम खाँ ख़ानख़ाना ने अवधी भाषा में भी रचना की है, पर उनकी अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा की ही हैं। 'नरहरि' और 'गंग की जो रचनाएँ ऊपर उद्धृत की गई हैं। उनकी भाषा भी प्रौढ़ ब्रजभाषा है। इससे ब्रजभाषा के अधिक प्रचार होने का रहस्य समझ में आ जाता है। इसके अतिरिक्त उन दिनों मथुरा वृन्दावन में कृष्णावत संप्रदाय के ऐसे प्रसिध्द महात्मा हुए जिनका बहुत बड़ा प्रभाव अन्य प्रदेशों पर भी पड़ा। इन महात्माओं में से अधिकांश की रचनाएँ मैं ऊपर उद्धृत कर आया हूँ। उनके पढ़ने से आपको ज्ञात होगा कि उस समय ब्रजभाषा कविता का प्रवाह कितना प्रबल था। जिस भाषा के सहायक सम्राट् से लेकर उनके मंत्रिा-मण्डल, के दरबारी, राजे-महराजे और सामयिक अधिकांश महात्मागण हों, उसका विशेष आदृत और विस्तृत हो जाना आश्चर्यजनक नहीं। मीराबाई के भजनों को भी आप पढ़ चुके हैं। वह भी भगवान कृष्णचन्द्र के प्रेम में ही रँगी थीं। उनकी रचनाओं से यह बात स्पष्टतया विदित होती है। उस समय ब्रजभाषा की समुन्नति में उनका भी कम प्रभाव नहीं पड़ा। यह सच है कि उनकी भाषा में राजस्थानी शब्द मिलते हैं। परन्तु उनकी अधिकतर रचनाएँ ब्रजभाषा के ही रंग में रँगी हैं। ब्रजभाषा के विस्तार का एक बहुत बड़ा हेतु और भी है। वह यह कि कृष्णावत सम्प्रदाय जहाँ जहाँ गया वहाँ-वहाँ उस सम्प्रदाय की प्रिय भाषा ब्रजभाषा भी उसके साथ गई। भगवान् कृष्णचन्द्र और श्रीमती राधिका जिनके आराधयदेव हों, वे उनकी प्रिय भाषा का आदर क्यों न करते? भगवान् कृष्णचन्द्र के गुणगान का अधिक सम्बन्धा ब्रजलीला ही से है। फिर ब्रज प्रान्त की भाषा आदृत क्यों न होती? कृष्ण-भक्ति के साथ ब्रजभाषा का घनिष्ठ सम्बन्धा है। इसलिए वह भी उनकी भक्ति के साथ-साथ ही उत्तारीय भारत में, राजस्थान और गुजरात में, अपना प्रभाव विस्तार करने में समर्थ हुई।'
एक बात और है वह यह है कि भगवान कृष्णचन्द्र शृंगार रस के देवता हैं। पहले कुछ रीति-ग्रन्थ के आचार्यों ने विष्णु भगवान को देवता माना। परन्तु उत्तार-काल में भगवान कृष्णचन्द्र ही की प्रधानता हुई। इसलिए शृंगार रस के वर्णन में उनकी ब्रजलीला को अधिकतर स्थान दिया गया और ब्रजलीला के साथ ही ब्रजभाषा भी सादर गृहीत हुई। सत्राहवीं से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक जहाँ थोड़े से अन्य साहित्य के ग्रन्थ लिखे गये, वहाँ शृंगार रस के ग्रन्थों की भरमार रही। पहले शृंगार रस के वर्णन में कुछ संकोच भी होता था। परन्तु उसके कृष्ण लीलामय होने के कारण जब यह भाव भी आकर उसमें सम्मिलित हो गया कि यह रूपान्तर से कृष्ण गुणगानहै। 1 जो पवित्रा और निर्दोष है तो बड़े असंयत भाव और अधिकता से शृंगार रस की रचनाएँ होने लगीं। काल पाकर साहित्य पर उसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। कृष्ण गुणगान करने के बहाने उच्छृंखलताओं और अयथा वर्णनों ने स्थान ग्रहण किया, जिससे शृंगार-सम्बन्धी ग्रन्थ अनेक अंशों में कलुषित होने से न बचे और यह उक्त त्यागशील महात्माओं के उत्ताम आदर्शों का बहुत बड़ा दुरुपयोग हुआ जो बाद को अनेक लांछनों का कारण बना। अष्टछाप के वैष्णवों में जो भक्ति और पवित्राता पायी जाती है, स्वामी हित हरिवंश, स्वामी हरिदास आदि महात्माओं में जो सच्ची भक्ति और तन्मयता अथच तदीयता देखी जाती है, बिट्ठल विपुल में जो प्रेमोन्माद और तल्लीनता मिलती है, उसका शतांश भी उत्तार काल के शृंगार रस के ग्रन्थकारों में दृष्टिगत नहीं होता। इसलिए उनकी रचनाओं का कुछ अंश ऐसा बन गया जो निंदनीय कहा जा सकता है। यह मैं कहूँगा कि उस काल के कुछ रसिक राजा-महाराजाओं ने इस रोग को बढ़ाया और कुछ उस काल के उर्दू और फ़ारसी साहित्य के संसर्ग ने। परन्तु यह सत्य है कि जहाँ ब्रजभाषा की रचनाओं के विस्तार के और कारण हुए वहाँ एक कारण यह शृंगार-रस का व्यापक प्रवाह भी हुआ। ऊपर जो पद्य उद्धृत किये गये हैं उनमें से 'करनेस' 'लालनदास' की रचनाओं की ओर मैं आप लोगों की दृष्टि विशेष रूप से आकर्षित करता हूँ। उनके देखने से आप लोगों को ज्ञात होगा कि इसी शताब्दी में ही कुछ कवियों ने ब्रजभाषा की रचना में फ़ारसी और अरबी के अधिकतर शब्दों का भरना आरम्भ किया था। परन्तु ऐसे कवियों को सफलता प्राप्त नहीं हुई और न उनका अनुकरण हुआ। फारसी-अरबी के शब्दों के ग्रहण करने के वे ही नियम गृहीत रहे, अपनी आदर्श रचना द्वारा जिनका प्रचार सूरदास जी और गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया था। अर्थात् ब्रजभाषा की कविता में वे ही शब्द आवश्यकतानुसार लिये गये जो अधिकतर बोलचाल में आते अथवा प्रचलित थे।
( ग)
इसी शतक में दादूदयाल जी का आविर्भाव हुआ। उनकी गणना निर्गुणवादी संतों में की जाती है। कोई उनको ब्राह्मण संतान कहता है, कोई यह कहता है कि वे एक धुनियाँ थे जिनको एक नागर ब्राह्मण ने पाला-पोसा था। वे जो हों, किन्तु उनका हृदय प्रेम-मय और उदार था। उनमें दयालुता की मात्रा अधिक थी, इसीलिए उनको दादूदयाल कहते हैं। उनको कलह-विवाद प्रिय नहीं था। शान्तिमय जीवन ही
1. भिखारीदास जी लिखते हैं-
' आगे के सुकवि रीझि हैं तो कविताई ,
ना तो राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानोहै। '
उनका धयेय था, इसलिए उनकी रचनाओं में वह कटुता नहीं मिलती जो कबीर साहब की उक्तियों में मिलती है। उनके ग्रन्थों के पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि वे हिन्दू जाति से सहानुभूति रखते थे और उनके देवी-देवताओं और महात्माओं पर व्यंग्य-बाण प्रहार करना उचित नहीं समझते थे। उनका विचार यह था कि संत होने के लिए संत भाव की आवश्यकता है। इस दृष्टि से वे किसी महापुरुष की कुत्सा करके अपने को सर्वोपरि बनाना नहीं चाहते थे। अतएव उनकी रचनाओं में यथेष्ट गम्भीरता पाई जाती है। उनको यह ज्ञात था कि उस समय हिन्दू धर्म पर किस प्रकार आक्रमण हो रहा था, इसलिए उसके प्रति वे सहानुभूति पूर्ण थे और इसी कारण उन्होंने वह मार्ग नहीं ग्रहण किया जिससे उसका धर्म-क्षेत्र कंटकित हो और औरों को उस पर अयथा आक्रमण करने का अधिक अवसर प्राप्त हो। वे हिन्दू संतान थे। इसलिए उनका हिन्दू संस्कार जाग्रत था और यही कारण है कि वे उसके धर्म याजकों पर अनुचित कटाक्ष करते नहीं देखे जाते। वे जितने ही मिथ्याचार के विरोधी थे उतने ही मिथ्यावाद से दूर। वे यह जानते थे कि सत्य में बल है। इसलिए ये सत्य का प्रचार सत्य भाव ही से करते थे, असंयत भावों के साथ नहीं। लगभग यह बात सभी हिन्दू निर्गुण्वादियों मेंं पाई जाती है, यहाँ तक कि कबीर साहब के प्रधान शिष्य धर्मदास, श्रुतगोपालदास आदि में भी यही भाव कार्यरत देखा जाता है। इन लोगों में भी हिन्दू धर्म के प्रति वह दुर्भाव नहीं देखा जाता है, जिससे हिन्दू धर्म के प्रति उनका असद्भाव प्रकट हो। दादूदयाल के हृदय का विनीत भाव इससे भी प्रकट होता है कि वे सबको दादा कहते थे और इसीलिए उनका नाम दादू पड़ा। उनकी कुछ रचनाएँ आपके सामने उपस्थित की जाती हैं। इनको पढ़कर आप लोगों को स्वयं यह ज्ञात होगा कि वे क्या थे-
1. अजहुँ न निकसे प्रान कठोर।
दरसन बिना बहुत दिन बीते सुन्दर प्रीतम मोर।
चार पहर चारहुँ जुग बीते रैनि गँवाई भोर।
अवधि गये अजहूँ नहिं आये कतहुँ रहे चित चोर।
कबहूँ नैन निरख नहिं देखे मारग चितवत तोर।
दादू अइसहि आतुरि विरहिनि जैसहिं चन्दचकोर।
2. भाई रे! ऐसा पंथ हमारा।
द्वै पखरहित पंथ गह पूरा अबरन एक आधारा।
वाद विवाद काहू सों नाहीं मैं हूँ जग थें न्यारा।
सम दृष्टी सूं भाइ सहज में आपहिं आप विचारा।
मैं तैं मेरी यहु मत नाहीं निरवैरी निरविकारा।
पूरण सबै देखि आपा पर निरालंब निरधारा।
काहु के संगी मोह न ममता संगी सिरजन हारा।
मनही मनसूँ समझु सयाना आनँद एक अपारा।
काम कलपना कदे न कीजे पूरण ब्रह्म पियारा।
यहि पथ पहुँचि पार गहि दादू सो तत सहज सँभारा।
3. यह मसीत यह देहरा सत गुरु दिया देखाय।
भीतर सेवा बन्दगी बाहर काहे जाय।
4. सुरग नरक संसय नहीं , जिवन मरण भय नाहिं।
राम विमुख जे दिन गये सो सालै मन माहिं।
5. जे सिर सौंप्या राम कों , सो सिर भया सनाथ।
दादू दे ऊरण भया जिसका तिसके हाथ।
6. कहताँ सुनताँ देखताँ लेताँ देताँ प्राण।
दादू सो कतहूँ गया माटी भरी मसाण।
7. आवरे सजणा आव सिर पर धारि पाँव।
जाणी मैंडा जिंद असाड़े
तू रावैंदा राव वे सजणा आव।
इत्थां उत्थां जित्थां कित्थां हौं जीवां तो नाल वे!
मीयां मैंडा आव असाड़े
तू लालों सिर लाल वे सजणा आव।
8. म्हारे ह्नाला ने काजे रिदै जो वानेहूँ धयान धारूँ।
आकुल थाए प्राण म्हारा को नेकही पर करूँ।
पीबे पाखे दिन दुहेलाँ जाय घड़ी बरसाँसौं केम भरूँ।
दादू रे जन हरिगुण गाताँ पूरण स्वामी ते बरूँ।
दादू दयाल में यह विशेषता थी कि वे पंजाबी और गुजराती भाषा में भी कविता कर सकते थे। उनकी इस प्रकार की रचनाएँ भी ऊपर उद्धृत की गई हैं। नम्बर 7 की रचना पंजाबी और नम्बर 8 की गुजराती भाषा की हैं। इस प्रकार की उनकी रचनाएँ थोड़ी हैं। अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा की ही हैं, जिसमें अधिकतर शब्द राजस्थानी भाषा के और थोड़े अवधी के भी आये हैं। उनकी भाषा भी संतों की भाषा के समान स्वतंत्रा है। उसमें विशेष बन्धान नहीं। जब जहाँ आवश्यक समझते हैं अन्य भाषा के उपयुक्त शब्दों को ग्रहण कर लेते हैं। फिर भी यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा पर ब्रजभाषा और राजस्थानी भाषा का ही विशेष प्रभाव है। पहले पद्य को देखिए। वह बहुत ही प्रांजल है और इस भाव से लिखा गया है कि ज्ञात होता है कि वे सूरदास जी का अनुकरण कर रहे हैं। ऐसी उनकी कितनी रचनाएँ हैं। दूसरा पद्य ऐसा है जिसमें राजस्थानी शब्द अधिक आये हैं। फिर भी उसकी भाषा साफ और चलती है। दादू दयाल के विचार निर्गुणवादियों के-से हैं, परन्तु अन्य निर्गुणवादियों के समान वे भी सगुणोपासक हैं और परमात्मा में अनेक गुणों की कल्पना करते रहते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने पूर्व के कबीर साहब इत्यादि निर्गुणवादियों को भी स्मरण किया है और स्थान-स्थान पर पौराणिक महात्माओं को भी। स्वर्ग-नरक इत्यादि का वर्णन भी उनकी रचनाओं में है और पौराणिक उन पापियों का भी जो पतित-पावन के अपार अनुग्रह से पाप-मुक्त होकर अच्छे पद को प्राप्त हो सके। इसलिए उनके विचार भी पौराणिक भावों से ही ओतप्रोत हैं जो समय पर दृष्टि रखकर उनके द्वारा प्रकट किये गये हैं। राजस्थान में उनके पंथवाले अधिक हैं, उनका कार्य-क्षेत्र भी आजीवन राजस्थान ही रहा है।