उत्तर-काल / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'

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उत्तर-काल / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध

सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में तीन धाराएँ प्रबल वेग से बहती दृष्टिगत होती हैं। पहली निर्गुणवाद सम्बन्धी,दूसरी सगुणवाद या भक्तिमार्ग-सम्बन्धी और तीसरी रीति ग्रन्थ-रचना सम्बन्धी। इस सदी में निर्गुणवाद के प्रधान प्रचारक कबीर साहब, गुरु नानकदेव और दादूदयाल थे। सगुणोपासना अथवा भक्तिमार्ग के प्रधान प्र्रवत्ताक कविवर सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास थे। रीति ग्रन्थ-रचना के प्रधान आचार्य केशवदास जी कहे जा सकते हैं। इन लोगों ने अपने-अपने विषयों में जो प्रगल्भता दिखलाई, वह उत्तारकाल में दृष्टिगत नहीं होती। परन्तु उनका अनुगमन उत्तारकाल में तो हुआ ही, वर्तमान काल में भी हो रहा है। मैं यथाशक्ति यह दिखलाने की चेष्टा करूँगा कि ई. सत्राहवीं शताब्दी में इन धाराओं का क्या रूप रहा और फिर अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में उनका क्या रूप हुआ। इन तीनों शताब्दियों में जो देश कालानुसार अनेक परिवर्तन हुए हैं और भिन्न-भिन्न विचार भारत वसुन्धारा में फैले हैं। उनका प्रभाव इन तीनों शताब्दियों की रचनाओं में देखा जाता है। साथ ही भाव और भाषा में भी कुछ न कुछ अन्तर होता गया है। इसलिए यह आवश्यक ज्ञात होता है कि इन शताब्दियों के क्रमिक परिवर्तन पर भी प्रकाश डाला जावे और यह दिखलाया जावे कि किस क्रम से भाषा और भाव में परिवर्तन होता गया। यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि इन तीनों शताब्दियों में न तो कोई प्रधान धर्म-प्र्रवत्ताक उत्पन्न हुआ, न कोई सूरदास जी एवं गोस्वामी तुलसीदास जी के समान महाकवि, और न केशवदास जी के समान महान् रीति-ग्रन्थकार। किन्तु जो साहित्य-सम्बन्धी विशेष धाराएँ सोलहवीं शताब्दी में बहीं, वे अविच्छिन्न गति से इन शताब्दियों में भी बहती ही रहीं,चाहे वे उतनी व्यापक और प्रबल न हों। इन तीनों शताब्दियों में उस प्रकार की प्रभावमयी धारा बहाने में कोई कवि अथवा महाकवि भले ही समर्थ न हुआ हो, परन्तु इन धाराओं से जल ले-लेकर अथवा इनके आधार से नई-नई जल प्रणालियाँ निकाल कर वे हिन्दी साहित्य-क्षेत्र के सेचन और उसको सरस और सजल बनाने से कभी विरत नहीं हुए। इन शताब्दियों में भी कुछ ऐसे महान् हृदय और भावुक दृष्टिगत होते हैं जिनकी साहित्यिक धाराएँ यदि उक्त धाराओं जैसी नहीं हैं तो भी उनसे बहुत कुछ समता रखने की अधिकारिणी कही जा सकती हैं, विशेष कर रीतिग्रन्थ-रचना के सम्बन्धा में। परन्तु उनमें वह व्यापकता और विशदता नहीं मिलती, जो उनको उनकी समकक्षता का गौरव प्रदान कर सके। मैंने जो कुछ कहा है, वह कहाँ तक सत्य है, इसका यथार्थ ज्ञान आप लोगों को मेरी आगे लिखी जाने वाली लेखमाला से होगा।

मैं पहले लिख आया हूँ कि हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में सोलहवीं शताब्दी में ही ब्रजभाषा को प्रधानता प्राप्त हो गयी थी और कुछ विशेष कारणों से हिन्दी के कवि और महाकवियों ने उसी को हिन्दी साहित्य की प्रधान भाषा स्वीकार कर लिया था। यह बात लगभग यथार्थ है परन्तु यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उत्तार-काल के कवियों की मुख्य भाषा भले ही ब्रजभाषा हो, किन्तु उसमें अवधी के कोमल, मनोहर अथच भावमय शब्द भी गृहीत हैं। जो कवि कर्म्म के मर्मज्ञ हैं, वे भली-भाँति यह जानते हैं कि अनेक अवस्थाओं में कवियों अथवा महाकवियों को ऐसे शब्द-चयन की आवश्यकता होती है, जो उनको भाव-प्रकाशन में उचित सहायता दे सकें और छन्दोगति में बाधाक भी न हों। यदि वे 'ऐसो' लिखना चाहते हैं, परन्तु इस शब्द को वे इसलिए नहीं लिख सकते कि उससे छन्दोगति में बाधा पड़ती है और 'अस' लिखने से वे अपने भाव का द्योतन कर सकते हैं और छन्दोगति भी सुरक्षित रहती है तो वे ऐसी विशेष अवस्था में यह नहीं विचारते कि 'अस' शब्द अवधी का है, इसलिए उसको कविता में स्थान न मिलना चाहिए, वरन् वे यह सोचते हैं, कि हिन्दी भाषा का ही यह शब्द है और उसका प्रयोग हिन्दी साहित्य के एक विभाग में पाया जाता है। इसलिए संकीर्ण स्थलों पर उसके ग्रहण में आपत्तिा क्या? हिन्दी साहित्य के महाकवियों को ऐसा करते देखा जाता है। क्योंकि वे जानते हैं कि बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में कुछ न कुछ भिन्नता होती ही है। मेरे कथन का सारांश यह है कि उत्तार काल के कवियों ने जिसे साहित्यिक भाषा के रूप में ग्रहण किया,उनमें से अधिकांश की मुख्य भाषा ब्रजभाषा ही है, परन्तु अवधी के उपयुक्त शब्द उसमें गृहीत हैं। मेरा विचार है कि इससे साहित्य की व्यापकता बढ़ी है, उसका पथ अधिक प्रशस्त हुआ है, और कवि-कर्म में भी बहुत कुछ सुविधा प्राप्त हुई है। भाषा की शुध्दता की ओर दृष्टि आकर्षित कर कुछ लोग इस प्रणाली का विरोधा करते हैं। उनका कथन है कि सुविधा पर दृष्टि रखकर यदि एक ही शब्द के अनेक रूप गृहीत होने लगेंगे तो इससे भाषा सम्बन्धी नियम की रक्षा न होगी और निरंकुशता को प्रश्रय मिलेगा। लोग बेतरह शब्दों को तोड़ मरोड़ कर मनमानी करेंगे और साहित्य-क्षेत्र में उच्छृंखलता विप्लव मचा देगी। यह कथन बहुत कुछ युक्ति-संगत है, परन्तु ब्रजभाषा साहित्य के मर्म्मज्ञों अथवा महाकवियों ने यदि उक्त प्रणाली ग्रहण की तो इस उद्देश्य से नहीं कि निरंकुशता को प्रश्रय दिया जाय। शब्द गढ़ने के पक्षपाती वे नहीं थे, न शब्दों को अधिक तोड़ने-मरोड़ने के समर्थक। वरन् उनका विचार यह था कि विशेष स्थलों पर यदि उपयुक्त अवधी के शब्द आ जायँ तो आपत्तिाजनक नहीं। अवधी भाषा के कवियों को भी इस प्रणाली का अनुमोदन करते देखा जाता है। क्योंकि उनकी रचनाओं में भी ब्रजभाषा के शब्द विशेष स्थलों पर गृहीत होते आये हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यदि कोई विशेष क्षमतावान है और वह शुध्द अवधी में ही रचना करना चाहता है तो अनुचित करता है। भाषाधिकार कविता का विशेष गुण है। गुण का त्याग किसे वांछनीय होगा परन्तु यह स्मरण रहना चाहिए कि कवि-परम्परा (Poetic License) का भी कुछ आधार है, कवि कार्य के जटिल पथ में वह सुविधा का अंगुलि-निर्देश है। इसीलिए ब्रजभाषा के साहित्यकारों ने चाहे वे प्रारम्भिक काल के हों, अथवा माध्यमिक काल या उत्तार-काल के, इस सुविधा से मुख नहीं मोड़ा।

एक बात और है, वह यह कि ब्रजभाषा और अवधी में अधिकतर उच्चारण का विभेद है। अन्यथा दोनों में बहुत कुछ एकरूपता है। इसका कारण यह है कि अवधी पर शौरसेनी का अधिकतर प्रभाव रहा है। भरत मुनि कहते हैं-

' शौरसेन्याऽविदूरत्वात् इयमेवार्ध्द मागधी। '

इसका अर्थ यह है कि शौरसेनी से अविदूर (सन्निकट) होने के कारण मागधी अर्ध्द मागधी कहलाती है। यह कौन नहीं जानता कि शौरसेनी से ब्रजभाषा की और अर्धा-मागधी से अवधी की उत्पत्तिा है। ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों पश्चिमी हैं और अवधी पूर्वी। पछाँह वालों की भाषा खड़ी होती है और पूर्व वालों की पड़ी। पछाँह वालों के उच्चारण में उठान होती है और पूर्व वालों के उच्चारण में लचक, उसमें चढ़ाव होता है और इसमें उतार। पछाँह वाले कहेंगे 'ऐसे', 'जैसे', 'कैसे', 'तैसे' और पूर्व वाले कहेंगे 'अइसे', 'जइसे', 'कइसे', 'तइसे' वे कहेंगे 'गयो' ये कहेंगे 'गयउ'। वे कहेंगे 'होयहै' या 'ह्नैहै' और ये कहेंगे 'होइहै'। वे कहेंगे 'रिझैहै' ये कहेंगे 'रिझइहै'। वे कहेंगे 'कौन' ये कहेंगे 'कवन'। वे कहेंगे 'मैल' ये कहेंगे 'मइल'। वे कहेंगे 'पाँव' ये कहेंगे'पाँउ'। वे कहेंगे 'कीनो', 'लीनो', 'दीनो' और ये कहेंगे 'कीन', 'लीन', 'दीन'। इसी प्रकार बहुत से शब्द बतलाये जा सकते हैं। मेरा विचार है इस साधारण उच्चारण विभेद के कारण एक-दूसरे को परस्पर सर्वथा सम्पर्क-हीन समझना युक्तिसंगत नहीं। उच्चारणविभेद के अतिरिक्त कारक-चिद्दों, सर्वनामों और अनेक शब्दों में कुछ विभिन्नताएँ भी दोनों में हैं, विशेष कर ग्रामीण शब्दों में। उनसे जहाँ तक सम्भव हो बचने की चेष्टा करनी चाहिए, यद्यपि हमारे आदर्श कवियों और महाकवियों ने अनेक संकीर्ण स्थलों पर इन बातों की भी उपेक्षा की है।

( क)

अब मैं प्रकृत विषय को लेता हूँ, सत्राहवीं शताब्दी के निर्गुणवादी कवियों में मलूकदास और सुन्दरदास अधिक प्रसिध्द हैं। क्रमश: इनकी रचनाएँ आप लोगों के सामने उपस्थित करके इनकी भाषा आदि के विषय में जो मेरा विचार है, उसको मैं प्रकट करूँगा और विकास सूत्रा से उनकी जाँच-पड़ताल भी करता चलूँगा। मलूकादास जी एक खत्री बालक थे। बाल्यकाल से ही इनमें भक्ति का उद्रेक दृष्टिगत होता है। वे द्रविड़ देश के एक महात्मा बिट्ठलदास के शिष्य थे। इनका भी एक पंथ चला जिसकी मुख्य गद्दी कड़ा में है। भारतवर्ष के अन्य भागों में भी उनकी कुछ गद्दियाँ पाई जाती हैं। उनकी रचनाओं से यह सिध्द होता है कि उनमें निर्गुणवादी भाव था, फिर भी वे अधिकतर सगुणोपासना में ही लीन थे। सच्ची बात तो यह है कि पौराणिकता उनके भावों से भरी थी और वे उसके सिध्दान्तों का अनुकरण करते ही दृष्टिगत होते हैं। वे दर्शन के लिए जगन्नाथ जी भी गये थे। वहाँ पर उनके नाम का टुकड़ा अब तक मिलता है। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

1. भील कब करी थी भलाई जिय आप जान।

फ़ील कब हुआ था मुरीद कहु किसका A

गीधा कब ज्ञान की किताब का किनारा छुआ।

व्याधा और बधिक निसाफ कहु तिसका।

नाग कब माला लै के बन्दगी करी थी बैठ।

मुझको भी लगा था अजामिल का हिसका A

एते बदराहों की बदी करी थी माफ़ जन।

मलूक अजातीपर एती करी रिस का।

2. दीनदयाल सुनी जबते तबते हिय में कुछ ऐसी बसी है।

तेरो कहाय कै जाऊँ कहाँ मैं तेरे हितकी पटखैं चिकसी है।

तेरो ही एक भरोसे मलूक को तेरे समान न दूजो जसी है।

ऐहो मुरारि पुकारि कहौं अब मेरी हँसी नहिं तेरी हँसी है A

3. ना वह रीझै जप तप कीने ना आतम के जारे।

ना वह रीझै धोती नेती ना काया के पखारे।

दाया करै धारम मन राखै घर में रहे उदासी।

अपना सा दुख सबका जाने ताहि मिलै अबिनासी।

सहै कुसबद बादहू त्यागै दाड़ै गरब गुमाना।

यही रीझ मेरे निरंकार की कहत मलूक दिवाना।

4. गरब न कीजै बावरे हरि गरब प्रहारी A

गरबहिं ते रावन गया पाया दुख भारी A

जर न खुदी रघुनाथ के मन माँहि सोहाती।

जाके जिय अभिमान है ताकी तोरत छाती।

एक दया औ दीनता ले रहिये भाई।

चरन गहो जाय साधु के रीझैं रघुराई।

यही बड़ा उपदेस है पर द्रोह न करिये।

कह मलूक हरि समिरि के भौसागर तरिये।

5. दर्द दिवाने बावरे अलमस्त फकीरा A

एक अकीदा लै रहे ऐसा मन धीरा।

प्रेम पियाला पीउ ते बिसरे सब साथी।

आठ पहर यों झूमते ज्यों माता हाथी।

साहब मिलि साहब भये कछु रही न तमाई।

कह मलूक तिस घर गये जहँ पवन न जाई।

6. अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम।

दास मलूका यों कहै सब के दाता राम।

प्रभुता ही को सब मरै प्रभु को मरै न कोय।

जो कोई प्रभु को मरै प्रभुता दासी होय।

इनकी भाषा स्वतंत्रा है। परन्तु खड़ी बोली और ब्रजभाषा का रंग ही उसमें अधिक है। ये फ़ारसी के शब्दों का भी अधिकतर प्रयोग करते हैं और कहीं-कहीं छन्द की गति की पूरी रक्षा भी नहीं कर पाते। ऊपर के पद्यों में जिन शब्दों और वाक्यों पर चिद्द बना दिया गया है उनको देखिए ये शब्द-विन्यास और वाक्य-रचना में अधिकतर ब्रज-भाषा के नियमों का पालन करते हैं। परन्तु बहुधा स्वतन्त्राता भी ग्रहण कर लेते हैं। इनकी रचना में संस्कृत के तत्सम शब्द भी आते हैं पर अधिकतर उन पर युक्त-विकर्ष का प्रभाव ही देखा जाता है।

साधुओं में सुंदरदास ही ऐसे हैं जो विद्वान् थे और जिन्होंने काशी में बीस वर्ष तक रहकर वेदान्त और अन्य दर्शनों की शिक्षा संस्कृत द्वारा पाई थी। वे जाति के खंडेलवाल बनिये और दादूदयाल के शिष्य थे। उन्होंने देशाटन अधिक किया था,अतएव उनका ज्ञान विस्तृत था। वे बालब्रह्मचारी और त्यागी थे। उनका कोई पंथ नहीं है। परन्तु सुन्दर और सरस हिन्दी रचनाओं के लिए वे प्रसिध्द हैं। उनकी अधिकांश रचनाओं पर वेदान्त-दर्शन की छाप है और उन्होंने उसके दार्शनिक विचारों को बहुत ही सरलता से प्रकट किया है। कहा जाता है, उन्होंने चालीस ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से 'सुन्दरसांख्यतर्क चिन्तामणि' 'ज्ञान विलास' आदि ग्रन्थ अधिक प्रसिध्द हैं। उन्होंने साखियों की भी रचना की है। शब्द भी बनाये हैं और बड़े ही सरस कवित्ता और सवैये भी लिखे हैं। उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं-

1. बोलिये तो तब जब बोलिये की सुधि होइ।

न तौ मुख मौन गहि चुप होइ रहिये।

जोरिये तो तब जब जोरिबे की जान परै।

तुक छंद अरथ अनूप जामैं लहिये।

गाइये तो तब जब गाइबे को कंठ होइ।

जौन के सुनत ही सुमन जाइ गहिये।

तुक भंग छंद भंग अरथ मिलै न कछु।

सुंदर कहत ऐसी बानी नहिं कहिये।

2. गेह तज्यो पुनि नेह तज्यो ,

पुनि खेह लगाइ कै देह सँवारी।

मेघ सहै सिर सीत सहै।

तन धूप समै में पँचागिन बारी।

भूख सहै रहि रूख तरे

पर सुन्दर दास यहै दुख भारी।

आसन छाड़ि के कासन ऊपर ,

आसन मारयो पै आस न मारी।

3. देखहु दुर्मति या संसार की।

हरि सो हीरा छाँड़ि हाथ तें बाँधात मोट विकार की।

नाना विधि के करम कमावत खबर नहीं सिरभार की।

झूठे सुख में भूलि रहे हैं फूटी ऑंख गँवार की।

कोई खेती कोइ बनिजी लागे कोई आस हथ्यार की।

अंधा धुंधा में चहुँ दिसि धाये सुधि बिसरी करतार की।

नरक जानि कै मारग चालै सुनि-सुनि बात लबार की।

अपने हाथ गले में बाहीं पासी माया जार की।

बारम्बार पुकार कहत हौं सौंहैं सिरजनहार की।

सुंदरदास बिनस करि जैहै देह छिनक में धार की।

4. धाइ परयो गज कूप में देखा नहीं विचारि।

काम अंधा जानै नहीं कालबूत की नारि।

लालन मेरा लाड़ला रूप बहुत तुझ माहि।

सुन्दर राखै नैन में पलक उघारै नाहिं।

सुन्दर पंछी बिरछ पर लियो बसेरा आनि।

राति रहे दिन उठि गये त्यों कुटुंब सब जानि।

लवन पूतरी उदधि में , थाह लैन को जाइ।

सुन्दर थाह न पाइये बिचही गयो बिलाइ।

5. तो सही चतुर तू जान परवीन

अति परै जनि पींजरे मोह कूआ।

पाइ उत्ताम जनम लाइ लै चपल

मन गाइ गोविन्द गुन जीति जूआ।

आपुही आपु अज्ञान नलिनी बँधयो

बिना प्रभु बिमुख कै बेर मूआ।

दास सुंदर कहै परम पद तौ लहै

राम हरि राम हरि बोल सूआ।

इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है परन्तु उसमें कहीं-कहीं खड़ी बोली का शब्द-विन्यास भी मिल जाता है। जहाँ उन्होंने दार्शनिक विषयों का वर्णन किया है वहाँ उनकी रचना में अधिकतर संस्कृत शब्द आये हैं। जैसे निम्नलिखित पद्य में-

ब्रह्म ते पुरुष अरु प्रकृत प्रगट भई ,

प्रकृति ते महत्व पुनि अहंकार है।

अहंकार हूं ते तीन गुण सत रज तम ,

तमहू ते महा भूत विषय पसार है।

रजहूं ते इन्द्री दस पृथक पृथक भई ,

सतहूं ते मन आदि देवता विचार है।

ऐसे अनुक्रम करि सिष्य सों कहत गुरु ,

सुन्दर सकल यह मिथ्या भ्रम जार है।

देशाटन के समय प्रत्येक प्रान्त में जो बातें अरुचिकर देखी, अपनी रचनाओं में उन्होंने उनकी चर्चा भी की है। उनकी ऐसी रचनाओं में प्रान्तिक और गढ़े शब्दों का प्रयोग भी प्राय: देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यांशों के उन शब्दों को देखिए जो चिद्दित हैं-

1. आभड़ छोत अतीत सों कीजिये

2. बिलाइरु कूकुरु चाटत हाँडी

3. रांधात प्याज बिगारत नाज न आवत लाज करैं सब भच्छन

4. ब्राह्मण छत्रिय बैसरु सूदर चारों ही बर्नके मच्छ बघारत

5. फूहड़ नार फतेपुर की........।

6. फिर आवा नग्र मँझारी A

इनकी रचनाओं में विदेशी भाषा के शब्द भी आते हैं, किन्तु बहुत कम और नियमानुकूल। निम्नलिखित पद्य के उन शब्दों को देखिए जो चिद्दित हैं-

1. ' खबरि नहीं सिर भार की '

2. ' कागद की हथिनी कीनी '

3. ' खंदक कीना जाई '

4. ' तब बिदा होइ घर आवा '

5. ' मन में कछु फिकिरि उपावा '

इन पद्यों में 'आवा', 'उपावा' इत्यादि का प्रयोग भी चिन्तनीय है। ये प्रयोग अवधी के ढंग के हैं। उनकी समस्त रचनाओं पर दृष्टि डालकर यह कहा जा सकता है कि निर्गुणवादियों की जितनी रचनाएँ हैं उनमें भाषा की प्रांजलता एवं नियम-पालन की दृष्टि से सुंदरदास जी की कृति ही सर्वप्रधान है। जो भाषा-सम्बन्धी विभिन्नता कहीं-कहीं थोड़ी-बहुत मिलती है,साहित्यिक दृष्टि से वह उपेक्षणीय है। कतिपय शब्दों और वाक्य विन्यास के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी भाषा खिचड़ी है और उन्होंने भी सधुक्कड़ी भाषा ही लिखी। इन्हीं के समय में दादू सम्प्रदाय में निश्चलदास नाम के एक प्रसिध्द साधु विद्वान् हो गये हैं, जिन्होंने वेदान्त के विषयों पर सुंदर ग्रन्थ लिखे हैं। उनकी भाषा के विषय में यही कहा जा सकता है कि वह लगभग सुंदरदास की-सी ही है। इसी शताब्दी में लालदासी पंथ के प्रवर्तक लालदास और साधु सम्प्रदाय के जन्मदाता वीरभान एवं 'सत्यप्रकाश' नामक ग्रन्थ के रचयिता और एक नवीन मत के निर्माणकत्तर् धारणीदास भी हुए। परन्तु उनकी रचनाएँ अधिकतर साधुओं की स्वतंत्रा भाषा ही में हैं, विचार भी लगभग वैसे ही हैं। इसलिए मैं उनकी रचनाओं को लेकर उनके विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं समझता।

( ख)

इस शताब्दी के भक्ति मार्ग वाले सगुणवादी भक्तों की ओर जब दृष्टि जाती है तो सबसे पहले हमारे सामने नाभादास जी आते हैं। वैष्णवों में इनकी रचनाओं का अच्छा आदर है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने शृंगार रस से मुख मोड़कर भक्ति-रस की धारा बहायी और 'भक्तमाल' नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें लगभग 200 भक्तों का वर्णन है। अपनी रचना में उन्होंने वैष्णव मात्रा को समान दृष्टि से देखा, और स्वयं रामभक्त होते हुए भी कृष्णचन्द्र जी के भक्तों में भी उतनी ही आदर बुध्दि प्रकट की जितनी रामचन्द्र जी के भक्तों में। उनके विषय में जो कुछ उन्होंने लिखा है उसमें भी उनके हृदय की उदारता और पक्षपातहीनता प्र्रकट होती है। उनका ग्रन्थ ब्रजभाषा में लिखा गया है। इसका कारण उसकी सामयिक व्यापकता ही है। प्रियादासजी ने उनके ग्रन्थ पर टीका लिखी है, क्योंकि थोड़े में अधिक बातें कहने से उनका ग्रन्थ दुर्बोधा हो गया है। उन्होंने एक छप्पय में ही एक भक्त का हाल लिखा है। इसलिए थोड़े में ही उनको बहुत बातें कहनी पड़ीं। ऐसी अवस्था में उनका ग्रन्थ गूढ़ क्यों न हो जाता? प्रियादासजी की टीका ने इस गूढ़ता को अधिकतर अपनी टीका के द्वारा बोधागम्य बना दिया। पद्य ही में 'अष्टयाम' नामक उनका एक ग्रन्थ और है। यह ग्रन्थ भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही में लिखा गया है। दोनों का एक-एक पद्य देखिए-

1. मधुर भाव सम्मिलित ललित लीला सुवलित छवि।

निरखत हरखत हृदय प्रेम बरखत सुकलित कवि।

भव निस्तारन हेत देत दृढ़ भक्ति सबन नित।

जासु सुजस ससि उदै हरत अति तम भ्रम श्रम चित।

आनन्द कंद श्रीनंद सुत श्रीवृषभानु सुता भजन।

श्री भट्ट सुभट प्रगटयो अघट रस रसिकन मनमोद घन।

- भक्तमाल

2. परिखा प्रति चहुँ दिसि लसत कंचन कोट प्रकास।

विविधा भांति नग जगमगत प्रति गोपुर पुरवास।

दिव्य फटिकमय कोट की शोभा कहि न सिराय।

चहुँ दिसि अद्भुत जोति मैं जगमगाति सुखदाय।

इनकी भाषा के विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता मुझे नहीं ज्ञात होती। जो नियम साहित्यिक ब्रजभाषा का मैं ऊपर लिख आया हूँ उसका पालन इनकी कविता में अधिकतर पाया जाता है। इनकी रचना में अनुप्रासों एवं ललित पद-विन्यास की भी छटा है। पद्य में संस्कृत के तत्सम शब्द भी आये हैं। परन्तु वे अधिकतर ऐसे हैं जो मधुर और कोमल कहे जा सकते हैं। इनकी रचना को देखने से यह ज्ञात होता है कि उत्ताम वर्ण के न होने पर भी ये सुशिक्षित थे और ऐसा सत्संग उनको प्राप्त था जिसने उनके हृदय को भक्तिमान और भावुक बना दिया था। किसी-किसी ने उनको अछूत जाति का लिखा है, और किसी ने यह लिखकर उनकी जाति-पाँति बताने में आनाकानी की है कि हरि-भक्तों की जाति नहीं पूछी जाती। वे जो हों, परन्तु वे भक्त थे और जैसा भक्त का हृदय होना चाहिए वैसा ही उनका हृदय था, जो उनकी रचनाओं में स्पष्ट प्रतिबिंबित है।

नाभादासजी के बाद हमारे सामने एक बड़े ही सरस-हृदय कवि आते हैं, वे हैं रसखान। ये मुसलमान थे और इन्होंने अपने को राजवंशी बतलाया है। नीचे के दोहे इस बात के प्रमाण हैं-

देखि गदर , हित साहिबी , दिल्ली नगर मसान।

छिनहिं बादसा बंस की , ठसक छोड़ि रसखानड्ड

प्रेम निकेतन श्री बनहिं , आय गोबरधान धाम।

लह्यो सरन चित चाहि कै , जुगल सरूप ललामड्ड

इनमें एक और विशेषता पाई जाती है वह यह है कि एक विजातीय और विधार्म्मी पुरुष का भगवान्् श्रीकृष्ण के प्रेम में तन्मय होकर सर्वस्व-त्यागी बन जाना कम आश्चर्यजनक नहीं। परन्तु प्रेम में बड़ी शक्ति है। सच्चा प्रेम क्या नहीं करा सकता?रसखान की रचनाएँ पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनमें प्रेम की कितनी लगन थी। वे इतने सच्चे प्रेमी थे और भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में उनका इतना अनुराग था कि गोस्वामी विट्ठलनाथ के प्रधान शिष्यों में उनकी भी गणना हुई और 252 वैष्णवों की वात्तर् में भी उनको स्थान मिला। इस घटना से भी इस बात का पता चलता है कि महाप्रभु वल्लभाचार्य की प्रचारित प्रेम-धारा कितनी सबल थी। रसखान का सूफी प्रेममार्गियों की ओर से मुँह मोड़कर कृष्णावत सम्प्रदाय में सम्मिलित होना यह बात प्रकट करता है कि उस समय जनता का हृदय किस प्रकार इस सम्प्रदाय की ओर आकर्षित हो रहा था। जब रसखान के निम्नलिखित पद्यों को हम पढ़ते हैं तो यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार उनका हृदय परिवर्तित हो गया था और वे कैसे भगवान कृष्ण के अनन्य उपासक बन गये थे। इन पद्यों में अकृत्रिम भक्ति और प्रेम रस का श्रोत-सा बह रहा है।

1. “ मानुस हों तो वही रसखान

बसों ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हों तो कहा बस मेरो

चरौं नित नंद की धोनु मँझारन।

पाहन हों तो वही गिरि को जो

धारयो कर क्षत्रा पुरंदर धारन।

जो खग हों तो बसेरो करौं वही

कालिंदी-कूल कदंब की डारन। “

2. या लकुटी अरु कामरिया पर

राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।

आठहुँ सिध्दि नवो निधि को सुख

नन्द की गाइ चराइ बिसारौं।

ऑंखिन सों रसखान कबै

ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।

कोटिन हूँ कलधाौत के धाम

करील के कुंजन ऊपर वारौं।

भगवान कृष्णचन्द्र को देवाधिदेव कहकर भी उन्होंने उन्हें किस प्रकार प्रेम के वश में बतलाया है, इसको यह पद्य भली-भाँति प्रकट कर रहा है-

“ सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहुँ

जाहि निरन्तर गावैं।

जाहि अनादि अनन्त अखंड

अछेद अभेद सुबेद बतावैं।

जाहि हिये लखि आनँद ह्नै जड़

मूढ़ जनौ रसखान कहावैं।

ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया

भरि छाछ पै नाच नचावैं। “

रसखान की भाषा चलती और साफ-सुथरी है। जितने पद्य उन्होंने बनाये हैं उनसे रस निचुड़ा पड़ता है। निस्संदेह ब्रजभाषा ही में उनकी कविता लिखी गई है। परन्तु खड़ी बोली के भी कोई-कोई शब्द उनमें मिल जाते हैं। इसी प्रकार अवधी के भी।

रसखान के लिखे हुए दो ग्रन्थ पाये जाते हैं, 'सुजान रसखान' और 'प्रेम-वाटिका'। दोनों की भाषा एक ही है और दोनों में प्रेम का प्रवाह बहता दिखलाई पड़ता है। 'सुजान रसखान' के पद्य आप देख चुके हैं। दो दोहे, 'प्रेम, वाटिका' के भी देखिए-

अति सूछम कोमल अतिहि , अति पतरो अति दूर।

प्रेम कठिन सब ते सदा , नित इक रस भर पूरड्ड

डरै सदा चाहै न कछु , सहै सबै जो होय।

रहै एक रस चाहि कै , प्रेम बखानै सोयड्ड

इसी प्रेम-परायणता के कारण रसखान की गणना भक्तों में की जाती है और यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि उनके दोनों ग्रन्थ भक्ति भावना से पूर्ण है। वे छोटे हों, परन्तु उनमें इतना प्रेम रस भरा है कि उसके कवि को सच्चा प्रेमिक मानने के लिए विवश होना पड़ता है। सच्ची तल्लीनता ही भक्ति है। इसलिए रसखान की गणना यदि वैष्णव भक्तों में हुई तो यथार्थ हुई। विधार्मी और विजातीय होकर भी यदि उन्होंने भगवान कृष्णचन्द्र को पूर्ण रूपेण आत्म-समर्पण किया तो यह उनकी सच्ची भक्ति-भावना ही थी और ऐसी दशा में उनको कौन भक्त स्वीकार न करेगा?

बनारसीदास जैन की गणना भी भक्त कवियों में होती है। यह कभी आगरा और कभी जौनपुर में रहते थे। इनका यौवन काल प्रमादमय था। परन्तु थोड़े दिनों बाद इनमें ऐसा परिवर्तन हुआ कि इन्होंने अपने शृंगार रस के ग्रन्थ को फाड़कर गोमती में फेंक दिया और ऐसी रचनाओं के करने में तल्लीन हुए जो भक्ति और ज्ञान-सम्बन्धी कही जा सकती हैं। इनके भावपूर्ण ग्रन्थों की संख्या आठ-दस बतलाई जाती है, जिनमें से अधिकतर पद्य में लिखे गये हैं। इनकी गद्य रचनाएँ भी हैं। ये जैन विद्वान् थे, परन्तु इनमें संकीर्णता नहीं थी। इनका धा्रुववंदना नामक ग्रन्थ इसका प्रमाण है। इनके कुछ पद्य देखिए-

1. काया सों विचार प्रीति , माया ही में हार जीति ,

लिये हठ रीति जैसे हारिल की लकरी।

चंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि ,

त्योंही पाँय गाड़ै पै न छाड़ै टेक पकरी।

मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावै ,

धावैं चहुँ ओर जें बढ़ावै जाल मकरी।

ऐसी दुरबुध्दि भूलि झूठ के झरोखे झूलि ,

फूली फिरै ममता जँजीरन सों जकरी।

2. भौंदू समझ सबद यह मेरा।

जो तू देखै इन ऑंखिन को बिनु परकस न सूझै।

सो परकास अगिनि रवि ससि को तू अपनो करि बूझै।

तेरे दृग मुद्रित घट अंतरअ ंधा रूप तू डोलै।

कै तो सहज खुलैं वे ऑंखें कै गुरु संगति खोलै।

3. भौंदू ते हिरदै की आंखैं।

जे करखैं अपनी सुख सम्पति भ्रम की सम्पति नाखैं।

जिन ऑंखिन सों निरखि भेद गुन ज्ञानी ज्ञान विचारैं।

जिन ऑंखिन सों लखि सरूप मुनि धयान धारना धारैं।

इनकी भाषा प्रा×जल ब्रजभाषा है। उसमें कभी-कभी कोई अपरिमार्जित शब्द आ जाता है, परन्तु उससे इनकी भाषा की विशेषता नहीं नष्ट होती। बनारसीदास ही ऐसे जैन कवि हैं, जिन्होंने ब्रजभाषा लिखने में पूरी सफलता लाभ की। इनकी गणना प्रतिष्ठित ब्रजभाषा-कवियों में की जा सकती है। इनकी रचना इस बात का भी प्रमाण है कि सत्राहवीं सदी में ब्रजभाषा इतनी प्रभावशालिनी हो गयी थी कि अन्य धर्म वाले भी उसमें अपनी रचनाएँ करने लगे थे।

( ग)

इस सत्राहवीं शताब्दी में रीति-ग्रन्थकार बहुत अधिक हुए और उन्होंने शृंगाररस, अलंकार और अन्य विषयों की इतनी अधिक रचनाएँ कीं कि ब्रजभाषा-साहित्य श्री सम्पन्न हो गया। यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि रीति-ग्रन्थकारों ने शृंगार रस को ही अधिक प्रश्रय दिया परन्तु यह समय का प्रभाव था। यह शताब्दी जहाँगीर और शाहजहाँ के राज्य-काल के अन्तर्गत है, जो विलासिता के लिए प्रसिध्द है। जैसे मुसलमान बादशाह और उनके प्रभावशाली अधिकारीगण इस समय विलासिता-प्रवाह में बह रहे थे वैसे ही इस काल के राजे और महाराजे भी। यदि मुसलिम दरबारों में आशिकाना मजामीन और शाइरी का आदर था तो राजे-महाराजाओं में रसमय भावों एवं विलासितामय वासनाओं का सम्मान भी कम न था। ऐसी अवस्था में यदि शृंगार रस के साहित्य का अधिक विकास हुआ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ज्ञान, विराग, योग इत्यादि में एक प्रकार की नीरसता सर्व-साधारण को मिलती है। उसके अधिकारी थोड़े हैं। शृंगाररस की धारा ही ऐसी है जिसमें सर्वसाधारण अधिक आनन्द लाभ करता है, क्योंकि उसका आस्वादन जैसा मोहक और हृदयाकर्षक है वैसा अन्य रसों का नहीं। स्त्री-पुरुषों के परस्पर सम्मिलन में जो आनन्द और प्रलोभन है, बाल-बच्चों के प्यार और प्रेम में जो आकर्षण है, उसमें ही सांसारिकता और स्वाभाविकता अधिक है। प्राणिमात्रा इस रस में निमग्न है। परमार्थ का आनन्द न इतना व्यापक है और न इतना मोहक, चाहे वह उच्च कोटि का भले ही हो। आहार-विहार, स्त्री-पुत्रों का स्नेह और उससे उत्पन्न आनंदानुभव पशु-पक्षी-कृमि तक में व्याप्त है। परमार्थ भावना उनमें है ही नहीं। यदि यह भावना मिलती है तो मनुष्य में ही मिलती है। परन्तु मनुष्य की इस भावना पर अधिकतर सांसारिकता का ही रंग चढ़ा है। परमार्थ चिन्ता तो वह कभी-कभी ही करता है। वह भी समष्टि-रूप से नहीं, व्यष्टि रूप से। यही कारण है कि कुछ महात्माओं और विद्या-व्यसनी विद्वानों को छोड़कर अधिकांश जनता शृंगाररस की ओर ही विशेष आकर्षित रहती है और ऐसी दशा में यदि उसी के गीत अधिक कंठों से गाये जाते सुने जावें, उसी के ग्रन्थ अधिकतर सरस हृदय द्वारा रचे जावें और उनमें अधिकतर सरसता, लालित्य और सुन्दर शब्द-विन्यास पाएँ जावें तो कोई आश्चर्य नहीं। अतएव सत्राहवीं शताब्दी में यह स्वाभाविकता ही यदि बलवती होकर कवि वृन्द द्वारा कार्य-क्षेत्र में आयी तो कोई विचित्रा बात नहीं। इस शताब्दी के जितने बड़े-बडे क़वि और रीतिग्रन्थकार हैं उनमें से अधिकांश इसी रंग में रँगे हुए हैं और उनकी संख्या भी थोड़ी नहीं है। मैं सबकी रचनाओं को आप लोगों के सामने उपस्थित करने में असमर्थ हूँ। उनमें जो अग्रणी और प्रधान हैं और जिनकी कृतियों में 'भावगत' सुन्दर व्यंजनाएँ अथवा अन्य कोई विशेषताएँ हैं। मैं उन्हीं की रचनाएँ आप लोगों के सामने उपस्थित करके यह दिखलाऊँगा कि उस समय ब्रजभाषा का शृंगार कितना उत्ताम और मनमोहक हुआ और किस प्रकार ब्रजभाषा सुन्दर और ललित पदों का भंडार बन गयी। जिन सुकवियों अथवा महाकवियों की रचनाओं ने ब्रजभाषा संसार में उस समय कल्पना राज्य का विस्तार किया था, उनमें से कुछ विशिष्ट नाम ये हैं-

(1) सेनापति, (2) बिहारी लाल, (3) चिन्तामणि, (4) मतिराम, (5) कुलपति मिश्र, (6) जसवन्तसिंह, (7) बनवारी, (8)गोपाल चन्द्र मिश्र, (9) बेनी और (10) सुखदेव मिश्र। मैं क्रमश: इन लोगों के विषय में अपना विचार प्रकट करूँगा और यह भी बतलाऊँगा कि इनकी रचनाओं का क्या प्रभाव ब्रजभाषा पर पड़ा। बीच-बीच में अन्य रसों के विशिष्ट महाकवियों की चर्चा भी करता जाऊँगा।

(1) सेनापति कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। उन्होंने 'काव्य-कल्पद्रुम' और 'कवित्ता-रत्नाकर' नामक दो ग्रन्थों की रचना की। वे अपने समय के बड़े ही विख्यात कवि थे। हिन्दू प्रतिष्ठित लोगों में इनका सम्मान तो था ही मुसलमानों के दरबारों में भी उन्होंने पूरी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। ब्रजभाषा जिन महाकवियों का गर्व कर सकती है उनमें सेनापति का नाम भी लिया जाता है। उनकी रचनाएँ अधिकतर प्रौढ़, सुन्दर, सरस और भावमयी हैं। षड्ऋतु का जैसा उदात्ता और व्यापक वर्णन सेनापति ने किया,वैसा दो एक महाकवियों की लेखनी ही कर सकी। उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया है-

दीक्षित परशुराम दादा हैं विदित नाम ,

जिन कीहैं जज्ञ जाकी विपुल बड़ाई है।

गंगाधार पिता गंगाधार के समान जाके ,

गंगातीर बसति “ अनूप “ जिन पाई है।

महा जानमनि विद्या दान हूँ ते चिन्तामनि ,

हीरामनि दीक्षित ते पाई पंडिताई है।

सेनापति सोई सीतापति के प्रसाद जाकी ,

सब कवि कान दै सुनत कविताई है।

कह जाता है कि अन्त में वे विरक्त हो गये थे और क्षेत्र-संन्यास ले लिया था। इस भाव के पद्य भी उनकी रचनाओं में पाये जाते हैं। एक पद्य देखिए-

केतो करौ कोय पैये करम लिखोय ताते ,

दूसरो न होय डर सोय ठहराइये।

आधी ते सरस बीति गई है बयस ,

अब कुजन बरस बीच रस न बढ़ाइये।

चिता अनुचित धारु धीरज उचित ,

सेनापति ह्नै सुचित रघुपति गुन गाइये।

चारि बरदानि तजि पाँय कमलेच्छन के ,

पायक मलेच्छन के काहे को कहाइयेड्ड

विरक्ति-सम्बन्धी उनके दो पद्य और देखिए-

1. पान चरनामृत को गान गुन गानन को ,

हरिकथा सुने सदा हिये को हुलसिबो।

प्रभु के उतीरनि की गूदरी औ चीरनि की ,

भाल भुज कंठ उर छापन को लखिबो।

सेनापति चाहत है सकल जनम भरि ,

वृंदाबन सीमा ते न बाहर निकसिबो।

राधा मनरंजन की सोभा नैन कंजन की ,

माल गरे गुंजन की कुंजन को बसिबोड्ड

2. महामोह कंदनि मैं जगत जकंदनि मैं ,

दीन दुख दुंंदनि में जात है बिहाय कै।

सुख को न लेस है कलेस सब भाँतिन को ,

सेनापति याही ते कहत अकुलाय कै।

आवै मन ऐसी घरबार परिवार तजौं ,

डारौं लोक लाज के समाज बिसराय कै।

हरिजन पुंजनि में वृंदावन कुंजनि में ,

रहौं बैठिं कहूँ तरवर तर जाय कै।

एक पद्य उनका ऐसा देखिए जिसमें आर्य-ललना की मर्यादा-शीलता का बड़ा सुन्दर चित्रा है-

फूलन सों बाल की बनाइ गुही बेनी लाल ,

भाल दोनो बेंदी मृगमद की असित है।

अंग अंग भूषन बनाई ब्रजभूषन जू ,

बीरी निज कर की खवाई अति हित है।

ह्नै कै रस-बस जब दीबे को महावर के ,

सेनापति श्याम गह्यो चरन ललित है।

चूमि हाथ नाथ के लगाइ रही ऑंखिन सों ,

कही प्रानपति यह अति अनुचित है।

अब कुछ ऐसे पद्य देखिए जो ऋतु-वर्णन के हैं, इनमें कितनी स्वाभाविकता, सरसता और मौलिकता है, उसका अनुभव स्वयं कीजिए-

कातिक की राति थोरी थोरी सियराति ,

सेनापति को सुहाति सुखी जीवन के गन हैं।

फूले हैं कुमुद फूली मालती सघन बन ,

फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं।

उदित विमल चंद्र चाँदनी छिटिक रही ,

राम कैसो जस अधा ऊरधा गगन है।

तिमिर हरन भयो सेत है बरन सब ,

मानहुँ जगत छीर-सागर मगन है।

सिसिर मैं ससि को सरूप पावै सविताऊ ,

घामुहुँ मैं चाँदनी की दुति दमकति है।

सेनापति होती सीतलता है सहस गुनी ,

रजनी की झाईं बासर में झमकति है।

चाहत चकोर सूर ओर दृगछोर करि ,

चकवा की छाती धारि धीर धामकति है।

चन्द के भरम होत मोद है कुमोदिनी को ,

समि संक पंकजिनी फूलि ना सकति है।

सिसिर तुषार के बुखार से उखारतु है ,

पूस बीते होत सून हाथ पाँव ठिरिकै।

द्योस की छुटाई की बड़ाई बरनी न जाइ ,

सेनापति गाई कछू , सोचिकै सुमिरि कै।

सीत ते सहसकर सहस चरन ह्नै कै

ऐसो जात भाजि तम आवत है घिरिकै।

जौ लौं कोक कोकीसों मिलत तौं लौं होत राति ,

कोक अधा बीच ही ते आवतु है फिरिकै।

एक मानसिक भाव का चित्राण देखिए और विचारिए कि उसमें कितनी स्वाभाविकता है-

जो पै प्रान प्यारे परदेस को पधारे ,

ताते बिरह ते भई ऐसी ता तिय की गति है।

करि कर ऊपर कपोलहिं कमल-नैनी

सेनापति अनिमनि बैठियै रहति है।

कागहिं उड़ावै कबौं-कबौं करै सगुनौती ,

कबौं बैठि अवधि के बासर गिनति है।

पढ़ी-पढ़ी पाती कबौं फेरि कै पढ़ति ,

कबौं प्रीतम के चित्रा में सरूप निरखति है।

आप कहेंगे कि भाषा-विकास के निरूपण के लिए कवि की इतनी अधिक कविताओं के उध्दरण की क्या आवश्यकता थी। किन्तु यह सोचना चाहिए कि भाषा के विकास का सम्बन्धा शाब्दिक-प्रयोग ही से नहीं है, वरन् भाव-व्यंजना से भी है। भाषा की उन्नति के लिए जैसे चुस्त और सरस शब्द-विन्यास की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार मनोहर भाव-व्यंजना की भी। भाषा के विकास से दोनों का सम्बन्धा है। इस बात के प्रकट करने के लिए ही उनकी कविता कुछ अधिक उठाई गई। सेनापति की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। हम उनकी भाषा को टकसाली कह सकते हैं। न तो उनकी रचना में खड़ी बोली की छूत लग पाई है, न अवधी के शब्दों का ही प्रयोग उनमें मिलता है। कहीं दो-एक इस प्रकार के शब्दों का मिल जाना कवि के भाषाधिकार को लांछित नहीं करता। ब्रजभाषा की पूर्व कथित कसौटी पर कसकर यदि आप देखेंगे तो सेनापति की भाषा बावन तोले पाव रत्ताी ठीक उतरेगी। मैं स्वयं यह कार्य करके विस्तार नहीं करना चाहता। समस्त पदों से वे कितना बचते हैं और किस प्रकार चुन-चुनकर संस्कृत तत्सम शब्दों को अपनी रचना में स्थान देते हैं, इस बात को आपने स्वयं पद्यों को पढ़ते समय समझ लिया होगा। वे शब्दों को तोड़ते-मरोड़ते भी नहीं। दोषों से बचने की भी वे चेष्टा करते हैं। ये बातें ऐसी हैं जो उनकी कविता को बहुत महत्तव प्रदान करती हैं। उनके नौ पद्य उठाये गये हैं। उनमें से एक पद्य में ही एक शब्द 'द्यौस' ऐसा आया है जिसको हम विकृत हुआ पाते हैं। परन्तु यह ऐसा शब्द है जो ब्रजभाषा की रचनाओं में गृहीत है। इसलिए इस शब्द को स्वयं गढ़ लेने का दोष उन पर नहीं लगाया जा सकता। किसी कविता का सर्वथा निर्दोष होना असंभव है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि साहित्यिक दोषों से उनकी कविता अधिकतर सुरक्षित है। इससे यह पाया जाता है कि उनकी कविता कितनी प्रौढ़ है। उनकी कविता की अन्य विशेषताओं पर मैं पहले ही दृष्टि आकर्षित करता आया हूँ। इसलिए उस पर कुछ और लिखना बाहुल्य मात्रा है। इनके जिन दो ग्रन्थों की चर्चा मैं ऊपर कर आया हूँ, उनमें से 'कवित्ता-रत्नाकर' अलंकार और काव्य की अन्य कलाओं के निरूपण का सुन्दर ग्रन्थ है। 'काव्य-कल्पद्रुम' में उनकी नाना-रसमयी कविताओं का संग्रह है। दोनों ग्रन्थ अनूठे हैं और उनकी विशेषता यह है कि घनाक्षरी अथवा कवित्ताों में ही वे लिखे गये हैं। कुछ दोहों को छोड़कर दूसरा कोई छन्द उसमें है ही नहीं।

(2) बिहारी लाल का ग्रन्थ ब्रजभाषा साहित्य का एक अनूठा रत्न है और इस बात का उदाहरण है कि घट में समुद्र कैसे भरा जाता है। गोस्वामी तुलसीदास की रामायण छोड़कर और किसी ग्रन्थ को इतनी सर्व-प्रियता नहीं प्राप्त हुई जितनी 'बिहारी सतसई को'। रामचरितमानस के अतिरिक्त और कोई ग्रन्थ ऐसा नहीं है कि उसकी उतनी टीकाएँ बनी हों, जितनी सतसई की अब तक बन चुकी हैं। बिहारीलाल के दोहों के दो चरण बड़े-बड़े कवियों के कवित्ताों के चार चरणों और सहृदय कवियों के रचे हुए छप्पयों के छ: चरणों से अधिकतर भाव-व्यंजन में समर्थ और प्रभावशालिता में दक्ष देखे जाते हैं। एक अंग्रेज विद्वान् का यह कथन कि "Brevity is the soul of wit and it is also the solul of art" “संक्षिप्तता काव्य-चातुरी की आत्मा तो है ही, कला की भी आत्मा है।” बिहारी की रचना पर अक्षरश: घटित होता है। बिहारी की रचनाओं की पंक्तियों को पढ़कर एक संस्कृत विद्वान की इस मधुर उक्ति में संदेह नहीं रह जाता कि “अक्षरा: कामधोनव:!” (अक्षर कामधोनु हैं) वास्तव में बिहारी के दोहों के अक्षर कामधोनु हैं जो अनेक सूत्रों से अभिमत फल प्रदान करते हैं। उनको पठन कर जहाँ हृदय में आनन्द का श्रोत उमड़ उठता है, वहीं विमुग्धा मन नन्दन कानन में बिहार करने लगता है। यदि उनकी भारती रस-धारा प्रवाहित करती है तो उनकी भाव-व्यंजना पाठकों पर अमृत वर्षा करने लगती है। सतसई का शब्द- विन्यास जैसा ही अपूर्व है वैसा ही विलक्षण उसमें झंकार है। काव्य एवं साहित्य का कोई गुण ऐसा नहीं जो मूर्तिमन्त होकर इस ग्रन्थ में विराजमान न हो और कवि-कर्म की ऐसी कोई विभूति नहीं जो इसमें सुविकसित दृष्टिगत न हो। मानसिक सुकुमार भावों का ऐसा सरस चित्राण किसी साहित्य में है या नहीं,यह नहीं कहा जा सकता। परन्तु जी यही कहता है कि यह मान लिया जाये कि यदि होगा तो ऐसा ही होगा। किन्तु यह लोच कहाँ? इस ग्रन्थ में शृंगार रस तो प्रवाहित है ही, यत्रा-तत्रा अनेक सांसारिक विषयों का भी इसमें बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन है। अनेक रहस्यों का इसमें कहीं-कहीं ऐसा निरूपण है जो उसकी स्वाभाविकता का सच्चा चित्रा ऑंखों के सामने ला खड़ा करता है। बिहारीलाल ने अपने पूर्ववर्ती संस्कृत अथवा भाषा कवियों के भाव कहीं-कहीं लिये हैं। परन्तु उनको ऐसा चमका दिया है कि यह ज्ञात होता है, कि घनपटल से बाहर निकल कर हँसता हुआ मयंक सामने आ गया। इनकी सतसई के अनुकरण में और कई सतसइयाँ लिखी गईं, जिनमें से चन्दन, विक्रम और रामसहाय की अधिक प्रसिध्द हैं, परन्तु उस बूँद से भेंट कहाँ! पीतल सोना का सामना नहीं कर सकता। संस्कृत में भी इस सतसई का पूरा अनुवाद पंडित परमानन्द ने किया है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने कमाल किया है। परन्तु मूल मूल है और अनुवाद अनुवाद।

बिहारीलाल की सतसई का आधार कोई विशेष-ग्रन्थ है अथवा वह स्वयं उनकी प्रतिभा का विकास है, जब यह विचार किया जाता है तो दृष्टि संस्कृत के 'आर्य्या-सप्तशती' एवं गोवर्धान-सप्तशती की ओर आकर्षित होती है। निस्सन्देह इन ग्रन्थों में भी कवि कर्म का सुन्दर रूप दृष्टिगत होता है। परन्तु मेरा विचार है कि रस निचोड़ने में बिहारीलाल इन ग्रन्थ के रचयिताओं से अधिक निपुण हैं। जिन विषयों का उन लोगों ने विस्तृत वर्णन करके भी सफलता नहीं प्राप्त की उनको बिहारी ने थोड़े शब्दों में लिखकर अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। इस अवसर पर कृपाराम की 'हित-तरंगिनी' भी स्मृति-पथ में आती है। परन्तु प्रथम तो उस ग्रन्थ में लगभग चार सौ दोहे हैं, दूसरी बात यह कि उनकी कृति में ललित कला इतनी विकसित नहीं है जितनी बिहारी लाल की उक्तियों में। उन्होंने संक्षिप्तता का राग अलापा है, परन्तु बिहारीलाल के समान वे इत्रा निकालने में समर्थ नहीं हुए। उनके कुछ दोहे नीचे लिखे जाते हैं। उनको देखकर आप स्वयं विचारें कि क्या उनमें भी वही सरसता, हृदय-ग्राहिता और सुन्दर शब्द-चयन-प्रवृत्तिा पाई जाती है, जैसी बिहारीलाल के दोहों में मिलती है।

लोचनचपल कटाच्छ सर , अनियारे विष पूरि।

मन मृग बेधौं मुनिन के , जगजन सहित विसूरिड्ड

आजु सबारे हौं गयी , नंदलाल हित ताल।

कुमुद कुमुदिनी के भटू , निरखे औरै हालड्ड

पति आयो परदेस ते , ऋतु बसंत की मानि।

झमकि झमकि निज महल में , टहलैं करैं सुरानिड्ड

बिहारी के दोहों के सामने ये दोहे ऐसे ज्ञात होते हैं जैसे रेशम के लच्छों के सामने सूत के डोरे। संभव है कि हित-तरंगिणी को बिहारीलाल ने देखा हो, परन्तु वे कृपाराम को बहुत पीछे छोड़ गये हैं। मेरा विचार है कि बिहारीलाल की रचनाओं पर यदि कुछ प्रभाव पड़ा है तो उस काल के प्रचलित फ़ारसी साहित्य का। उर्दू शायरी का तो तब तक जन्म भी नहीं हुआ था। फ़ारसी का प्रभाव उस समय अवश्य देश में विस्तार लाभ कर रहा था क्योंकि अकबर के समय में ही दफ्तर फ़ारसी में हो गया था और हिन्दू लोग फारसी पढ़कर उसमें प्रवेश करने लगे थे। फ़ारसी के दो बन्द के शेरों में चुने शब्दों के आधार से वैसी ही बहुत कुछ काव्य-कला विकसित दृष्टिगत होती है जैसी कि बिहारीलाल के दो चरण के दोहों में। उत्तारकाल में उर्दू शायरी में फ़ारसी रचनाओं का यह गुण स्पष्टतया दृष्टिगत हुआ। परन्तु बिहारीलाल की रचनाओं के विषय में असंदिग्धा रीति से यह बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि अब तक बिहारीलाल के विषय में जो ज्ञात है उससे यह पता नहीं चलता कि उन्होंने फ़ारसी भी पढ़ी थी। जो हो, परन्तु यह बात अवश्य माननी पड़ेगी कि बिहारीलाल के दोहों में जो थोड़े में बहुत कुछ कह जाने की शक्ति है वह अद्भुत है। चाहे यह उनकी प्रतिभा का स्वाभाविक विकास हो अथवा अन्य कोई आधार, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

अब मैं उनकी कुछ रचनाएँ आप लोगों के सन्मुख उपस्थित करूँगा। बिहारीलाल को शृंगार रस का महाकवि सभी ने माना है। इसलिए उसको छोड़कर पहले मैं उनकी कुछ अन्य रस की रचनाएँ आप लोगों के सामने रखता हूँ। आप देखिए उनमें वह गुण और वह सारग्राहिता है या नहीं जो उनकी रचनाओं की विशेषताएँ हैं। संसार का जाल कौन नहीं तोड़ना चाहता, पर कौन उसे तोड़ सका? मनुष्य जितनी ही इस उलझन के सुलझाने की चेष्टा करता है उतना ही वह उसमें उलझता जाता है। इस गम्भीर विषय को एक अन्योक्ति के द्वारा बिहारीलाल ने जिस सुन्दरता और सरसता के साथ कहा है वह अभूतपूर्व है। वास्तव में उनके थोड़े से शब्दों ने बहुत बड़े व्यापक सिध्दान्त पर प्रकाश डाला है-

को छूटयो येहि जाल परि , कत कुरंग अकुलात।

ज्यों-ज्यों सरुझि भज्यो चहै , त्यों त्यों अरुझ्यो जातड्ड

यौवन का प्रमाद मुनष्य से क्या नहीं कराता?, उसके प्रपंचों में पड़कर कितने नाना संकटों में पड़े, कितने अपने को बरबाद कर बैठे, कितने पाप-पंक में निमग्न हुए, कितने जीवन से हाथ धो बैठे और कितनों ही ने उसके रस से भीगकर अपने सरस जीवन को नीरस बना लिया। हम आप नित्य इस प्रकार का दृश्य देखते रहते हैं। इस भाव को किस प्रकार बिहारीलाल चित्राण करते हैं उसे देखिए-

इक भींजे चहले परे बूड़े बहे हजार।

किते न औगुन जग करत नै बै चढ़ती बारड्ड

परमात्मा ऑंख वालों के लिये सर्वत्रा है। परन्तु आजतक उसको कौन देख पाया? कहा जा सकता है कि हृदय की ऑंख से ही उसे देख सकते हैं, चर्म-चक्षुओं से नहीं। चाहे जो कुछ हो, किन्तु यह सत्य है कि वह सर्वव्यापी है और एक-एक फूल और एक-एक पत्तो में उसकी कला विद्यमान है। शास्त्रा तो यहाँ तक कहता है, कि 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्तिकिंचन'। जो कुछ संसार में है वह सब ब्रह्म है, इसमें नानात्व कुछ नहीं है। फिर क्या रहस्य है कि हम उसको देख नहीं पाते? बिहारीलाल जी इस विषय को जिस मार्मिकता से समझाते हैं उसकी सौ मुख से प्रशंसा की जा सकती है। वे कहते हैं-

जगत जनायो जो सकल , सो हरि जान्यो नाहि।

जिमि ऑंखिनसब देखिए , ऑंखि न देखी जाहिड्ड

एक उर्दू शायर भी इस भाव को इस प्रकार वर्णन करता है-

बेहिजाबी वहकि जल्वा हर जगह है आशिकार।

इस पर घूँघट वह कि सूरत आजतक नादीदा हैड्ड

यह शेर भी बड़ा ही सुन्दर है। परन्तु भाव-प्रकाशन किस में किस कोटि का है इसको प्रत्येक सहृदय स्वयं समझ सकता है। भावुक भक्त कभी-कभी मचल जाते हैं और परमात्मा से भी परिहास करने लगते हैं। ऐसा करना उनका विनोद-प्रिय प्रेम है असंयत भाव नहीं। 'प्रेम लपेटे अटपटे बैन' किसे प्यारे नहीं लगते। इसी प्रकार की एक उक्ति बिहारी की देखिए। वे अपनी कुटिलता को इसलिए प्यार करते हैं। जिसमें त्रिभंगीलाल को उनके चित्ता में निवास करने में कष्ट न हो, क्योंकि यदि वे उसे सरल बना लेंगे तो वे उसमें सुख से कैसे निवास कर सकेंगे? कैसा सुन्दर परिहास है। वे कहते हैं-

करौ कुबत जग कुटिलता , तजौं न दीन दयाल।

दुखी होहुगे सरल चित ; बसत त्रिभंगी लालड्ड

परमात्मा सच्चे प्रेम से ही प्राप्त होता है। क्योंकि वह सत्य स्वरूप है। जिसके हृदय में कपट भरा है उसमें वह अन्तर्यामी कैसे निवास कर सकता है जो शुध्दता का अनुरागी है? जिसका मानस-पट खुला नहीं। उससे अन्तर्पट के स्वामी से पटे तो कैसे पटे? इस विषय को बिहारीलाल, देखिए कितने सुन्दर शब्दों में प्रकट करते हैं-

तौ लगि या मन-सदन में ; हरि आवैं केहि बाट।

बिकट जटे जौ लौं निपट ; खुले न कपट-कपाट।

अब कुछ ऐसे पद्य देखिए जिनमें बिहारीलाल जी ने सांसारिक जीवन के अनेक परिवर्तनों पर सुन्दर प्रकाश डाला है-

यद्यपि सुंदर सुघर पुनि ; सगुनौ दीपक देह।

तऊ प्रकास करै तितो ; भरिये जितो सनेहड्ड

जो चाहै चटक न घटै ; मैलो होय न मित्ता।

रज राजस न छुवाइये ; नेह चीकने चित्ताड्ड

अति अगाधा अति ऊथरो ; नदी कूप सर बाय।

सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझायड्ड

बढ़त बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय।

घटत घटत पुनि ना घटै बरु समूल कुम्हिलायड्ड

को कहि सकै बड़ेन सों लखे बड़ीयौ भूल।

दीन्हें दई गुलाब की इन डारन ये फूलड्ड

कुछ उनके शृंगार रस के दोहे देखिए-

बतरस लालच लाल की मुरली धारी लुकाय।

सौंह करै भौंहन हँसे देन कहै नटि जायड्ड

दृग अरुझत टूटत कुटुम जुरत चतुर चित प्रीति।

परति गाँठ दुरजन हिये दई नई यह रीतिड्ड

तच्यो ऑंच अति बिरह की रह्यो प्रेम रस भींजि।

नैनन के मग जल बहै हियो पसीजि पसीजिड्ड

सघन कुंज छाया सुखद सीतल मन्द समीर।

मन ह्नै जात अजौं वहै वा यमुना के तीरड्ड

मानहुँ विधि तन अच्छ छबि स्वच्छ राखिबे काज।

दृग पग पोंछन को कियो भूखन पायंदाजड्ड

बिहारीलाल के उद्धृत दोहों में से सबका मर्म समझाने की यदि चेष्टा की जाय तो व्यर्थ विस्तार होगा, जो अपेक्षित नहीं। कुछ दोहों का मैंने स्पष्टीकरण किया है। वही मार्ग ग्रहण करने से आशा है, काव्य मर्मज्ञ सुजन अन्य दोहों का अर्थ भी लगा लेंगे और उनकी व्यंजनाओं का मर्म समझ कर यथार्थ आनन्दलाभ करेंगे। बिहारी के दोहों का यों भी अधिक प्रचार है और सहृदयजनों पर उनका महत्तव अप्रकट नहीं है। इसलिए उनके विषय में अधिक लिखना व्यर्थ है। मैं पहले उनकी रचना आदि पर बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूँ। इतना फिर और कह देना चाहता हूँ कि कला की दृष्टि से 'बिहारी सतसई' अपना उदाहरण आप है। कुछ लोगों ने बिहारीलाल की शृंगार सम्बन्धी रचनाओं पर व्यंग्य भी किये हैं और इस सूत्रा से उनकी मानसिक वृत्तिा पर कटाक्ष भी। मत भिन्नता स्वाभाविक है और मनुष्य अपने विचारों और भावों का अनुचर है। इसलिए मुझको इस विषय में अधिक तर्क-वितर्क वांछनीय नहीं। परन्तु अपने विचारानुसार कुछ लिख देना भी संगत जान पड़ता है।

बिहारीलाल पर किसी-किसी ने यह कटाक्ष किया है कि उनकी दृष्टि सांसारिक भोग-विलास में ही अधिकतर बध्द रही है। उन्होंने सांसारिक वासनाओं और विलासिताओं का सुन्दर से सुन्दर चित्रा खींचकर लोगों की दृष्टि अपनी ओर आकर्षित की। न तो उस 'सत्यं शिवं सुंदरं' का तत्तव समझा और न उसकी अलौकिक और लोकोत्तार लीलाओं और रहस्यों का अनुभव प्राप्त करने की यथार्थ चेष्टा की। बाह्य जगत् से अन्तर्जगत् अधिक विशाल और मनोरम है। यदि वे इसमें प्रवेश करते तो उनको वे महान् रत्न प्राप्त होते जिनके सामने उपलब्धा रत्न काँच के समान प्रतीत होते। परन्तु मैं कहूँगा न तो उन्होंने अन्तर्जगत् से मुँह मोड़ा और न लोकोत्तार की लोकोत्तारता से ही अलग रहे। क्या स्त्री का सौन्दर्य 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' नहीं है? कामिनी-कुल के सौन्दर्य में क्या ईश्वरीय विभूति का विकास नहीं? क्या उनकी सृष्टि लोक-मूल की कामना से नहीं हुई? क्या उनके हाव-भाव,विभ्रम-विलास लोकोपयोगी नहीं? क्या विधाता ने उनमें इस प्रकार की शक्तियाँ उत्पन्न कर प्रवंचना की? और संसार को भ्रान्त बनाया? मैं समझता हूँ कि कोई तत्तवज्ञ इसे न स्वीकार करेगा। यदि यह सत्य है कि संसार की रचना मूलमयी है, तो इस प्रकार के प्रश्न हो ही नहीं सकते। जो परमात्मा की विभूतियाँ विश्व के समस्त पदार्थों में देखते हैं, यह जानते हैं कि परमात्मा सच्चिदानन्द है, वे संसार की मूलमयी और उपयोगी कृतियों को बुरी दृष्टि से नहीं देख सकते। यदि बिहारीलाल ने स्त्री के सौन्दर्य वर्णन में उच्च कोटि की कवि कल्पना से काम लिया, उनके नाना आनन्दमय भावों के चित्राण में अपूर्व कौशल दिखलाया, मानस की सुकुमार वृत्तिायों के निरूपण में सच्ची भावुकता प्रकट की। विश्व की सारभूत दो मूलमयी मूर्तियों (स्त्री-पुरुष) का मूलमयी कमनीयता प्रदर्शित की और अपने पद्यों में शब्द और भाव-विन्यास के मोती पिरोये तो क्या लोक-ललाम की लोकोत्तार लीलाओं को ही रूपान्तर से प्रकट नहीं किया? और यदि यह सत्य है तो बिहारीलाल पर व्यंग्यबाण् वृष्टि क्यों? मयंक में धाब्बे हैं, फूल में काँटे हैं तो क्या उनमें 'सत्यं' 'शिवं' 'सुंदरम्' का विकास नहीं है। बिहारी की कुछ कविताएँ प्रकृति नियमानुसार सर्वथा निर्दोष न हों तो क्या इससे उनकी समस्त रचनाएँ निन्दनीय हैं? लोक-ललाम की ललामता लोकोत्तार है, इसलिए क्या उसका लोक से कुछ सम्बन्धा नहीं? क्या लोक से ही उसको लोकोत्तारता का ज्ञान नहीं होता? तो फिर, लोक का त्याग कैसे होगा? निस्सन्देह यह स्वीकार करना पड़ेगा कि लोक का सदुपयोग ही वांछनीय है, दुरुपयोग नहीं। जहाँ सत्यं,शिवं, सुन्दरम् है, वहाँ उसको उसी रूप में ग्रहण करना कवि कर्म्म है। बिहारीलाल ने अधिकांश ऐसा ही किया है, वरन् मैं तो यह कहूँगा कि उनकी कला पर गोस्वामीजी का यह कथन चरितार्थ होता है कि 'सुंदरता कहँ सुंदर करहीं'। संसार में प्रत्येक प्राणी का कुछ कार्य होता है। अधिकारी भेद भी होता है। संसार में कवि भी हैं, वैज्ञानिक भी हैं, दार्शनिक भी हैं, तत्तवज्ञ भी हैं एवं महात्मा भी। जो जिस रूप में कार्यक्षेत्र में आता है, हमको उसी रूप में उसे ग्रहण करना चाहिए और देखना चाहिए कि उसने अपने क्षेत्र में अपना कार्य करके कितनी सफलता लाभ की। कवि की आलोचना करते हुए उसके दार्शनिक और तत्तवज्ञ न होने का राग अलापना बुध्दिमत्ता नहीं। ऐसा करना प्रमाद है, विवेक नहीं। मेरा विचार है कि बिहारीलाल ने अपने क्षेत्र में जो कार्य किया है वह उल्लेखनीय है एवं प्रशंसनीय भी। यदि उनमें कुछ दुर्बलताएँ हैं तो वे उनकी विशेषताओं के सम्मुख मार्जनीय हैं, क्योंकि यह स्वाभाविकता है, इससे कौन बचा?

बिहारीलाल की भाषा के विषय में मुझे यह कहना है कि वह साहित्यिक ब्रजभाषा है। उसमें अवधी के 'दीन', 'कीन'इत्यादि बुन्देलखंडी के लखबी और प्राकृत के मित्ता ऐसे शब्द भी मिलते हैं। परन्तु उनकी संख्या नितान्त अल्प है। ऐसे ही भाषागत और भी कुछ दोष उसमें मिलते हैं। किन्तु उनके महान् भाषाधिकार के सामने वे सब नगण्य हैं। वास्तव बात तो यह है कि उन्होंने अपने 700 दोहों में क्या भाषा और क्या भाव, क्या सौन्दर्य, क्या लालित्य सभी विचार से वह कौशल और प्रतिभा दिखलायी है कि उस समय तक उनका ग्रन्थ समादर के हाथों से गृहीत होता रहेगा जब तक हिन्दी भाषा जीवित रहेगी।

बिहारीलाल के सम्बन्धा में डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन की सम्मति नीचे लिखी जाती है-

“इस दुरूह ग्रन्थ (बिहारी सतसई) में काव्यगत परिमार्जन, माधार्ुय्य और अभिव्यक्ति-सम्बन्धी विदग्धाता जिस रूप में पाई जाती है, वह अन्य कवियों के लिए दुर्लभ है। अनेक अन्य कवियों ने उनका अनुकरण किया है, लेकिन इस विचित्रा शैली में यदि किसी ने उल्लेख-योग्य सफलता पायी है तो वह तुलसीदास हैं, जिन्होंने बिहारीलाल के पहले सन् 1585 में एक सतसई लिखी थी। बिहारी के इस काव्य पर अगणित टीकाएँ लिखी गई हैं। इसकी दुरूहता और विदग्धाता ऐसी है कि इसके अक्षरों को कामधोनु कह सकते है।”1

(3) त्रिपाठी बन्धुओं में मतिराम और भूषण विशेष उल्लेख योग्य है। इनके बड़े भाई चिन्तामणि थे और छोटे नीलकंठ उपनाम जटाशंकर। चारों भाई साहित्य के पारंगत थे और उन्होंने अपने समय में बहुत कुछ प्रतिष्ठा लाभ की। आजकल कुछ विवाद इस विषय में छिड़ गया है कि वास्तव में ये लोग परस्पर भाई थे या नहीं, परन्तु अब तक इस विषय में कोई ऐसी प्रामाणिक मीमांसा नहीं हुई कि चिरकाल की निश्चित बात को अनिश्चित मान लिया जावे। चिंतामणि राजा महाराज राजाओं के यहाँ भी आदृत थे। उन्होंने सुन्दर रीति-ग्रन्थों की रचना की है, जिनका नाम 'छन्द-विचार', 'काव्य-विवेक', 'कविकुल कल्पतरु'एवं 'काव्य-प्रकाश' है। उनकी बनाई एक रामायण भी है। परन्तु वह विशेष आदृत नहीं हुई। कविता इनकी सुन्दर, सरस और परिमार्जित ब्रजभाषा का नमूना है। इनकी गणना आचाय्र्यों में होती है। कहा जाता है कि प्राकृत भाषा की कविता करने में भी ये कुशल थे। कुछ हिन्दी रचनाएँ देखिए-

1. चोखी चरचा ज्ञान की आछी मन की जीति।

संगति सज्जन की भली नीकी हरि की प्रीति।

2. एइ उधारत हैं तिन्हें जे परे मोह

महोदधि के जल फेरे।

जे इनको पल धयान धारैं मन ते

न परैं कबहूँ जम घेरे।

राजै रमा रमनी उपधान

अभै बरदान रहै जन नेरे।

1. The elegence, poetic flavour, and ingenuity of expression in this difficult work, are considered to have been unapproached by any other poet. He has been imitated by numerous other poets, but the only one who has achieved any considerable excellence in this peculiar style is Tulsidas (No. 128) who preceded him by writing a Satsai (treating of Ram as Bihari Lal'treated of Krishna) in the year 1585 A.D.........

Bihari's poem has been dealt with by innumerable commentators Its difficulty and ingenuity one so great that it is called a veritable 'Akshar Kamdhenu'.

Modern Vernacular Literature of Hindustan, P. 75

हैं बल भार उदंड भरे हरि के

भुज दंड सहायक मेरे।

3. सरद ते जल की ज्यों दिन ते कमल की ज्यों ,

धान ते ज्यों थल की निपट सरसाई है।

घन ते सावन की ज्यों ओप ते रतन की ज्यों ,

गुन ते सुजन की ज्यों परम सहाई है।

चिन्तामनि कहै आछे अच्छरनिछंद की ज्यों ,

निसागम चंद की ज्यों दृग सुखदाई है।

नगते ज्यों कंचन बसंत ते ज्यों बन की ,

यों जोवन ते तन की निकाई अधिकाई है।

नीलकण्ठ जी की रचनाएँ भी प्रसिध्द हैं। किन्तु वे अधिकतर जटिल हैं। एक रचना उनकी भी देखिए-

तन पर भारतीन तन पर भारतीन ,

तन पर भारतीन तन पर भार हैं।

पूजैं देव दार तीन पूजैं देव दार तीन ,

पूजैं देवदार तीन पूजै देव दार हैं।

नीलकंठ दारुन दलेल खां तिहारी धाक ;

नाकती न द्वार ते वै नाकती पहार हैं।

ऑंधारेन कर गहे ; बहरे न संग रहे ;

बार छूटे बार छूटे बार छूटे बार हैं।

इनमें मतिराम बड़े सहृदय कवि थे। ये भी राजा-महाराजाओं से सम्मानित थे। इन्होंने चार रीति ग्रन्थों की रचना की है। उनके नाम हैं, ललित ललाम, रसराज, छन्दसार और साहित्यसार। इनमें ललित ललाम और रसराज अधिक प्रसिध्द हैं। इनकी और चिन्तामणि की भाषा लगभग एक ही ढंग की है। दोनों में वैदर्भी रीति का सुन्दर विकास है। इनकी विशेषता यह है कि सीधो-सादे शब्दों में ये कूट-कूटकर रस भर देते हैं। जैसा इनकी रचना में प्रवाह मिलता है वैसा ही ओज। जैसे सुन्दर इनके कवित्ता हैं वैसे ही सुन्दर सवैये। इनके अधिकतर दोहे बिहारीलाल के टक्कर के हैं, उनमें बड़ी मधुरता पाई जाती हैं। यदि इनके बड़े भाई चिन्तामणि नागपुर के सूर्यवंशी भोंसला मकरन्दशाह के यहाँ रहते थे, तो ये बूँदी के महाराज भाऊसिंह के यहाँ समादृत थे। इससे यह सूचित होता है कि उस समय ब्रजभाषा के कवियों की कितनी पहुँच राजदरबारों में थी और उनका वहाँ कितना अधिक सम्मान था। देखिए कविवर मतिराम बूँदी का वर्णन किस सरसता से करते हैं-

सदा प्रफुल्लित फलित जहँ द्रुम बेलिन के बाग।

अलि कोकिल कल धुनि सुनत रहत श्रवन अनुराग

कमल कुमुद कुबलयन के परिमल मधुर पराग।

सुरभि सलिल पूरे जहाँ बापी कूप तड़ाग

सुक चकोर चातक चुहिल कोक मत्ता कल हंस।

जहँ तरवर सरवरन के लसत ललित अवतंस

इनके कुछ अन्य पद्य भी देखिए-

गुच्छनि के अवतंस लसै सिखि

पच्छनि अच्छ किरीट बनायो।

पल्लव लाल समेत छरी कर

पल्लव में मति राम सुहायो।

जन के उर मंजुल हार

निकुंजन ते कढ़ि बाहर आयो।

आजु को रूप लखे ब्रजराजु को

आजु ही ऑंखिन को फल पायो।

कुंदन को रँग फीको लगै झलकै

असि अंगनि चारु गोराई।

ऑंखिन मैं अलसानि चितौनि

मैं मंजु बिलासनि की सरसाई।

को बिन मोल बिकात नहीं

मतिराम लहे मुसुकानि मिठाई।

ज्यों ज्यों निहारिये नेरे ह्नै नैननि

त्यों त्यों खरी निकरैं सुनिकाई।

चरन धारै न भूमि बिहरे तहाईं जहाँ

फूले फूले फूलन बिछायौ परजंक है।

भार के डरनि सुकुमारि चारु अंगनि मैं

करति न अंगराग कुंकुम को पंक है।

कहै मतिराम देखि वातायन बीच आयो।

आतप मलीनहोत बदन मयंक है।

कैसे वह बाल लाल बाहर विजन आवै

बिजन बयार लागे लचकति लंक है।

मतिराम की कोमल और सरस शब्द माला पर किस प्रकार भाव-लहरी अठखेलियाँ करती चलती है, इसे आपने देख लिया। उनके सीधो सादे चुने शब्द कितने सुन्दर होते हैं, वे किस प्रकार कानों में सुधा वर्षण करते, और कैसे हृदय में प्रवेश करके उसे भाव-विमुग्धा बनाते हैं, इसका आनन्द भी आप लोगों ने ले लिया। वास्तव बात यह है कि जिन महाकवियों ने ब्रजभाषा की धाक हिन्दी साहित्य में जमा दी, उनमें से एक मतिराम भी हैं। मिश्र-बन्धुओं ने इनकी गणना नवरत्नों में की है। मैं भी इससे सहमत हूँ। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, परन्तु उसमें उन्होंने ऐसी मिठास भरी है जो मानुसों को मधुमय बनाये बिना नहीं रहती। साहित्यिक ब्रजभाषा के लक्षण मैं ऊपर बतला आया हूँ। उन पर यदि इनकी रचना कसी जावे तो उसमें भाव और भाषा-सम्बन्धी महत्ताओं की अधिकता ही पाई जायगी, न्यूनता नहीं। उन्होंने जितने प्रसून ब्रजभाषा देवी के चरणों पर चढ़ाये हैं, उनमें से अधिकांश सुविकसित और सुरभित हैं और यह उनकी सहृदयता की उल्लेखनीय विशेषता है।

वीर हृदय भूषण इस शताब्दी के ऐसे कवि हैं जिन्होंने समयानुकूल वीर रस-धारा के प्रवाहित करने में ही अपने जीवन की चरितार्थता समझी। जब उनके चारों ओर प्रबल वेग से शृंगार रस की धारा प्रवाहित हो रही थी, उस समय उन्होंने वीर-रस की धारा में निमग्न होकर अपने को एक विलक्षण प्रतिभा-सम्पन्न पुरुष प्रतिपादित किया। ऐसे समय में भी जब देशानुराग के भाव उत्पन्न होने के लिए वातावरण बहुत अनुकूल नहीं था, उन्होंने देश-प्रेम-सम्बन्धी रचनाएँ करके जिस प्रकार एक भारत-जननी के सत्पुत्रा को उत्साहित किया, उसके लिए कौन उनकी भूयसी प्रशंसा न करेगा? यह सत्य है कि अधिकतर उनके सामने आक्रमित धर्म की रक्षा ही थी और उनका प्रसिध्द साहसी वीर धर्म-रक्षक के रूप में ही हिन्दू जगत के सम्मुख आता है। परन्तु उसमें देश-प्रेम और जाति-रक्षा की लगन भी अल्प नहीं थी। नीचे की पंक्तियाँ इसके प्रमाण हैं, जो शिवाजी की तलवार की प्रशंसा में कही गई हैं-

तेरो करवाल भयो दच्छिन को ढाल भयो

हिन्द की दिवाल भयो काल तुरकान को।

इसी भाव का एक पूरा पद्य देखिए-

राखी हिंदुआनी हिंदुआन को तिलक राख्यो।

अस्मृति पुरान राखे वेद विधि सुनी मैं।

राखी रजपूति राजधानी राखी राजन की। धारा मैं धारम राख्यो राख्यो गुन गुनी मैं।

भूषन सुकबि जीति हद्दमरहट्ठन की।

देस देस कीरति बखानी तब सुनी मैं।

साह के सपूत सिवराज समसेर तेरो।

दिल्ली दल दाबिके दिवाल राखी दुनी मैं।

भूषण की जितनी रचनाएँ हैं वे सब वीर-रस के दर्प से दर्पित हैं। शृंगार रस की ओर उन्होंने दृष्टिपात भी नहीं किया। देखिए, नीचे के पद्यों की पदावली में धर्म-रक्षा की तरंग किस प्रकार तरंगायमान है-

1. देवल गिरावते फिरावते निसान अली ,

ऐसे डूबे राव राने सबै गये लब की।

गौरा गनपत आप औरन को देत ताप ;

आप के मकान सब मार गये दबकी।

पीरां पैगम्बरां दिगम्बरां दिखाई देत ;

सिध्द की सिधाई गयी रही बात रबकी।

कासिहुं ते कला जाती मथुरा मसीत होती ;

सिवाजी न होतो तौ सुनति होती सबकी।

2. वेद राखे विदित पुरान राखे सारजुत ;

रामनामराख्यो अति रसाना सुघर मैं।

हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन की ;

कांधो मैं जनेऊ राख्यो माला राखी गर मैं।

मींड़ि राखे मुगल मरोरि राखे पादशाह ;

बैरी पीसि राखे बरदान राख्यो कर मैं।

राजन की हद्द राखी तेग बल सिवराज ;

देव राखे देवल स्वधर्म राख्यो घर मैं

उनके कुछ वीर-रस के पद्यों को भी देखिए।

3. डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी सी रहति छाती ;

बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिन्दुआने की।

कढ़ि गयी रैयत के मन की कसक सब ;

मिटि गयी ठसक तमाम तुरकाने की।

भूषन भनत दिल्लीपति दिल धाकधाक ;

सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की।

मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय मुंड ;

खोटी भई संपति चकत्ता के घराने की।

4. जीत्यो सिवराज सलहेरि को समर सुनि ;

सुनि असुरन के सुसीने धारकत हैं।

देवलोक नागलोक नरलोक गावैं जस ;

अजहूँ लौं परे खग्ग दाँत खरकत हैं।

कटक कटक काटि कीट से उड़ाय केते ;

भूषन भनत मुख मोरे सरकत हैं।

रनभूमि लेटे अधाकटे कर लेटे परे ;

रुधिर लपेटे पठनेटे फरकत हैं।

दो पद्य ऐसे देखिए जो अत्युक्ति अलंकार के हैं। उनमें से पहले में शिवाजी के दान की महिमा वर्णित है और दूसरे में शत्रु-दल के बाला और बालकों की कष्ट कथा विशद रूप में लिखी गयी है। दोनों में उनके कवि-कर्म्म का सुन्दर विकास हुआ है।

5. आज यहि समै महाराज सिवराज तूही ,

जगदेव जनक जजाति अम्बरीष सों।

भूषन भनत तेरे दान-जल जलधि में

गुनिन कोदारिद गयो बहि खरीक सों।

चंद कर कंजलक चाँदनी पराग

उड़वृंद मकरंद बुंद पुंज के सरीक सों।

कंद सम कयलास नाक गंग नाल ,

तेरे जस पुंडरीक को अकास चंचरीक सों।

6. दुर्जन दार भजि भजि बेसम्हार चढ़ीं

उत्तार पहार डरि सिवा जी न ¯ रद ते।

भूषन भनत बिन भूषन बसन साधो

भूषन पियासन हैं नाहन को निंदते।

बालक अयाने बाट बीच ही बिलाने ;

कुम्हिलाने मुख कोमल अमल अरबिन्द ते।

दृग-जल कज्जल कलित बढ़यो कढ़यो मानो ;

दूजो सोत तरनि तनूजा को क ¯ लद ते।

भूषण की भाषा में जहाँ ओज की अधिकता है वहाँ उसमें उतनी सरसता और मधुरता नहीं, जितनी मतिराम की भाषा में है। यह सच है कि भूषण वीररस के कवि हैं और मतिराम शृंगाररस के। दोनों की प्रणाली भिन्न है। साहित्य-नियमानुसार भूषण की परुषा वृत्तिा है और मतिराम की वैदर्भी। ऐसी अवस्था में भाषा का वह सौन्दर्य जो मतिराम की रचनाओं में है, भूषण की वृत्तिा में नहीं मिल सकता। किन्तु जहाँ उनको वैदर्भी वृत्तिा ग्रहण करनी पड़ी है, जैसे छठे और सातवें पद्यों में, वहाँ भी वह सरसता नहीं आई जैसी मतिराम की रचनाओं में पाई जाती है। सच्ची बात यह है कि भाषा लालित्य में वे मतिराम की समता नहीं कर सकते। किन्तु उनकी विशेषता यह है कि उनमें धर्म की ममता है, देश का प्रेम है और है जाति का अनुराग। इन भावों से प्रेरित होकर जो राग उन्होंने गाया उसकी धवनि इतनी विमुग्धाकारी है, उसमें यथाकाल जो गूँज पैदा हुई, उसने जो जीवनी धारा बहाई, वह ऐसी ओजमयी है कि उसकी प्रतिधवनि अब तक हिन्दी साहित्य में सुन पड़ रही है। उसी के कारण हिन्दी-संसार में वे वीर-रस के आचार्य माने जाते हैं। उनका समकक्ष अब तक हिन्दी-साहित्य में उत्पन्न नहीं हुआ। आज तक इस गौरवमय उच्च सिंहासन पर वे ही आसीन हैं और क्या आश्चर्य कि चिरकाल तक वे ही उस पर प्रतिष्ठित रहें।

इनकी मुख्य भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें उसके सब लक्षण पाये जाते हैं। परन्तु अनेक स्थानों पर इनकी रचना में खड़ी बोली के प्रयोग भी मिलते हैं। नीचे की पंक्तियों को देखिए-

1. ' अफजलखान को जिन्होंने मयदान मारा '

2. ' देखत में रुसतमखाँ को जिन खाक किया '

3. ' कैद किया साथ का न कोई बीर गरजा '

4. ' अफजल का काल सिवराज आया सरजा '

उन्होंने प्राकृत भाषा के शब्दों का भी यत्रा-तत्रा प्रयोग किया है। 'खग्ग' शुध्द प्राकृत शब्द है। पर निम्नलिखित पंक्ति में वह व्यवहृत है।

' भूषन भनत तेरी किम्मति कहाँ लौं कहौं

अजहूँ लौं परे खग्ग दाँत खरकत हैं। '

पंजाबी भाषा का प्रयोग भी कहीं-कहीं मिलता है। 'पीरां पैगंबरां दिगंबरा दिखाई देत' इस वाक्य में चिद्दित शब्द पंजाबी हैं। 'कीबी कहें कहाँ औ गरीबी गहे भागी जाहिं' इसमें 'कीबी' शब्द बुंदेलखंडी है। इसी प्रकार फ़ारसी शब्दों के प्रयोग करने में भी वे अधिक स्वतंत्रा हैं शब्द गढ़ भी लेते हैं। गाढ़े गढ़ लीने अरु बैरी 'कतलाम कीन्हे' 'चारि को सो अंक लंक चंद सरमाती हैं', 'जानि गैर मिसिल गुसीले गुसा धारि उर' इन वाक्य खंडों के चिद्दित शब्द ऐसे ही हैं। प्रयोजन यह है कि उनकी मुख्य भाषा ब्रजभाषा अवश्य है, परन्तु शब्द-विन्यास में उन्होंने बहुत स्वतंत्राता ग्रहण की है। फ़ारसी के शब्दों का जो अधिक प्रयोग उनकी रचना में हुआ, उसका हेतु उनका विषय है, शिवाजी की विजय का सम्बन्धा अधिकतर मुसलमानों की सेना और वर्तमान सम्राट् औरंगजेब से था। इसलिए उनको अनेक स्थानों पर अपनी रचना में फारसी अरबी के शब्दों का प्रयोग करना पड़ा। कहीं-कहीं उनको उन्होंने शुध्द रूप में ग्रहण किया और कहीं उनमें मनमाना परिवर्तन छन्द की गति के अनुसार कर लिया। इसी सूत्रा से खड़ी बोली के वाक्यों का मिश्रण भी उसकी कविता में मिलता है। परन्तु इन प्रयोगों का इतना बाहुल्य नहीं कि उनसे उनकी मुख्य भाषा लाि×छत हो सके।

(4) कुलपति मिश्र आगरे के निवासी चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। ये संस्कृत के बड़े विद्वान थे। इन्होंने काव्य-प्रकाश के आधार पर 'रस-रहस्य' नामक एक ग्रन्थ लिखा है, उसमें काव्य के दसों अúों का विशद वर्णन है इनके और भी ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। जिनमें 'संग्रह-सार', 'युक्त तरंगिनी' और 'नख शिख' अधिक प्रसिध्द हैं। ये जयपुर के महाराज जयसिंह के पुत्र रामसिंह के दरबारी कवि थे। अपने 'रस रहस्य' नामक ग्रन्थ में इन्होंने रामसिंह की बहुत अधिक प्रशंसा की है। इनकी अधिकांश रचना की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। जिनमें बड़ी ही प्रा×जलता और मधुरता है। किन्तु कुछ रचनाएँ इनकी ऐसी भी हैं जिनमें खड़ी बोली के साथ फारसी, अरबी शब्दों का प्रयोग अधिकता से मिलता है। इससे पाया जाता है कि इन्होंने फारसी भी पढ़ी थी। इन्होंने ऐसी रचना भी की है जिसमें प्राकृत के शब्द अधिकता से आये हैं। इन तीनों के उदाहरण क्रमश: नीचे दिये जाते हैं-

1. ऐसिय कुंज बनैं छवि पुंज रहैं

अलि गुंजत यों सुख लीजै।

नैन बिसाल हिये बनमाल बिलोकत

रूप सुधा भरि पीजै।

जामिनि जाम की कौन कहै जुग

जात न जानिये ज्यों छिन छीजै।

आनँद यों उमग्यो ही रहै पिय

मोहन को मुख देखिबो कीजै।

2. हूँ मैं मुशताक़ तेरी सूरत का नूर देखि

दिल भरि पूरि रहै कहने जवाब से।

मेहर का तालिब फ़कीर है मेहेरबान

चातक ज्यों जीवता है स्वातिवारे आब से।

तू तो है अयानी यह खूबी का खजाना तिसे

खोलि क्यों न दीजै सेर कीजिये सवाब से।

देर की न ताब जान होत है कबाब

बोल हयाती का आब बोलो मुख महताबसे।

3. दुज्जन मद मद्दन समत्थ जिमि पत्थ दुहुँनि कर।

चढ़त समर डरि अमर कंप थर हरि लग्गय धार।

अमित दान है जस बितान मंडिय महि मंडल।

चंड भानु सम नहिं प्रभानु खंडिय आखंडल।

कुलपति मिश्र अपने समय के प्रसिध्द कवियों में थे। उनकी गणना आचाय्र्यों में होती है।

(5) जोधापुर के महाराज जसवन्त सिंह जिस प्रकार एक वीर हृदय भूपाल थे उसी प्रकार कविता के भी प्रेमी थे। औरंगजेब के इतिहास से इनका जीवन सम्बन्धिात है। इन्होंने अनेक संकट के अवसरों पर उसकी सहायता की थी, किन्तु निर्भीक बड़े थे। इसलिए इन्हें काबुल भेजकर औरंगजेब ने मरवा डाला था। इनको वेदान्त से बड़ा प्रेम था। इसलिए 'अपरोक्ष सिध्दान्त', 'अनुभव प्रकास', 'आनन्द-विलास', 'सिध्दान्तसार' इत्यादि ग्रन्थ इन्होंने इसी विषय के लिखे। कुछ लोगों की सम्मति है कि इन्होंने पारंगत विद्वानों द्वारा इन ग्रन्थों की रचना अपने नाम से कराई। परन्तु यह बात सर्व-सम्मत नहीं। मेरा विचार है, इन्होंने ऐसे समय में जब शृंगार रस का श्रोत बह रहा था, वेदान्त सम्बन्धी ग्रन्थ रचकर हिन्दी-साहित्य भण्डार को उपकृत किया था।'भाषा भूषण' इनका अलंकार-सम्बन्धी ग्रंथ है। इस रचना में यह विशेषता है कि दोहे के एक चरण में लक्षण और दूसरे में उदाहरण है, यह संस्कृत के चन्द्रालोक ग्रन्थ का अनुकरण है, मेरा विचार है कि इस ग्रन्थ के आधार से ही इन्होंने अपनी पुस्तक बनाई है।

कविता की भाषा ब्रजभाषा है और उसमें मौलिकता का-सा आनंद है। हाँ, संस्कृत अलंकारों के नामों का बीच-बीच में व्यवहार होने से प्रा×जलता में कुछ अन्तर अवश्य पड़ गया है। कुछ स्फुट दोहे भी हैं, उनमें अधिक सरसता पाई जाती है। दोनों के उदाहरण नीचे लिखे जाते हैं।

मुख ससि वाससि सों अधिक उदित जोति दिन राति।

सागर तें उपजी न यह कमला अपर सोहाति।

नैन कमल ये ऐन हैं और कमल केहि काम।

गमन करत नीकी लगै कनक लता यह बाम।

अलंकार अत्युक्ति यह बरनत अति सै रूप।

जाचक तेरे दान ते भये कल्प तरु भूप।

परजस्ता गुन और को और विषे आरोप।

होय सुधाधार नाहिं यह बदन सुधाधार ओप।

महाराज जसवन्त सिंह ऐसे पहले हिन्दी साहित्यिक हैं, जिन्होंने हिन्दी भाषा को एक नहीं कई सुन्दर पद्य ग्रन्थ राज्यासन पर विराजमान होकर भी प्रदान किये। यह इस बात का प्रमाण है कि उन दिनों ब्रजभाषा किस प्रकार समादृत होकर विस्तार-लाभ कर रही थी।

(6) गोपालचन्द्र मिश्र छत्ताीसगढ़ के रहने वाले थे। इनके पुत्र का नाम माखनचन्द्र था। इन्होंने पाँच ग्रन्थों की रचना की थी, जिनमें से 'जैमिनी अश्वमेध', 'भक्ति चिंतामणि' और 'छन्दविलास' अधिक प्रसिध्द हैं। कहा जाता है कि एक हैहयवंशी राजा के ये मन्त्राी थे और उनके यहाँ इनका बड़ा सम्मान था। 'छन्द-विलास' नामक ग्रन्थ वे अधूरा छोड़ गये। जिसे उनके पुत्र माखनचन्द्र ने उनकी आज्ञा से पूरा किया था। ये सरस हृदय कवि थे और भावमयी रचना करने में समर्थ थे। इनके कुछ पद्य देखिए-

1. सोई नैन नैन जो बिलोके हरि मूरति को।

सोई बैन बैन जे सुजस हरि गाइये।

सोई कान कान जाते सुनिये गुनानुवाद

सोई नेह नेह हरि जू सों नेह लाइये।

सोई देह देह जामैं पुलकित रोम होत ,

सोई पाँव पाँव जाते तीरथनि जाइये।

सोई नेम नेम जे चरन हरि प्रीति बाढ़ै

सोई भाव भाव जो गुपाल मन भाइये।

2. दान सुधा जल सों जिन सींचि

सतो गुन बीच बिचार जमायो।

बाढ़ि गयो नभ मण्डल लौं महि

मण्डल घेरि दसो दिसि छायो।

फूल घने परमारथ फूलनि

पुन्य बड़े फल ते सरसायो।

कीरति वृच्छ बिसाल गुपाल

सु कोबिद वृन्द बिहंग बसायो।

इनकी कविता की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें मधुरता के साथ प्रांजलता भी है।

(7) सुखदेव मिश्र की गणना हिन्दी के आचार्यों में है। उन्होंने रीति ग्रन्थों की रचना बड़े पांडित्य के साथ की है। वे संस्कृत और भाषा दोनों के बड़े विद्वान थे। उनके 'वृत्ताविचार', 'रसार्णव', 'शृंगारलता' और 'नखशिख' आदि बड़े सुन्दर ग्रन्थ हैं। उनका अधयात्मकप्रकाश प्रसिध्द ग्रन्थ है। अनेक राज्य दरबारों में उनका सम्मान था। उन्हें कविराज की पदवी मिली थी। उनकी रचनाएँ प्रौढ़, काव्य-गुणों से अलंकृत और साहित्यिक ब्रजभाषा के आदर्शस्वरूप हैं। कुछ पद्य देखिए।

जोहै जहाँ मगु नन्द-कुमार तहाँ

चली चन्दमुखी सुकुमार है।

मोतिन ही को कियो गहनों सब

फूल रही जनु कुन्द की डार है।

भीतर ही जु लखो सु लखी अब

बाहिर जाहिर होति न दार है।

जोन्ह सी जोन्है गई मिलि यों

मिलि जात ज्यों दूधा में दूधा की धार है

मंदर महिंद गन्धा मादन हिमालय में

जिन्हें चल जानिये अचल अनुमाने ते।

भारे कजरारे तैसे दीरघ दतारे मेघ

मण्डल विहंडैं जे वै सुंडा दंड ताने ते।

कीरति विसाल क्षितिपाल श्री अनुप तेरे

दान जो अमान कापै बनत बखाने ते।

इतै कवि मुख जस आखर खुलत

उतै पाखर समेत पील खुलै पीलखाने ते।

इनका अधयात्म-प्रकाश वेदांत का बड़ा सुन्दर ग्रन्थ है। उसकी रचना की बड़ी प्रशंसा है, उसमें विषय-सम्बन्धी ऐसी महत्ताएँ हैं कि उनके आधार से लोग इनको महात्मा कहने लगे थे। इसमें संदेह नहीं कि इनकी रचनाएँ ब्रजभाषा-साहित्य में अमूल्य हैं। उसी के बल से इन्होंने औरंगजेब के मंत्राी फ़ाजिल अली से बड़ा सत्कार प्राप्त किया था, जो इस बात का सूचक है कि अकबर के समय से जो ब्रजभाषा की धाक उनके वंश वालों पर जमी, वह लगातार बहादुरशाह तक अचल रही।

(8) कालिदास त्रिवेदी सहृदयता में यथानाम: तथा गुण: अर्थात् दूसरे कालिदास थे। 'कालिदास हज़ारा' इनका बहुत बड़ा सुंदर संग्रह कहा जाता है। इसमें 200 से अधिक कवियों की रचनाएँ संगृहीत हैं। इसके आधार से शिवसिंह सरोजकार ने अनेक प्राचीन कवियों की जीवनी का उध्दार किया था। इनका नायिका-भेद का 'वधू-विनोद' नामक ग्रन्थ भी प्रसिध्द ग्रन्थ है। इन्होंने 'जंजीराबंद' नाम का एक ग्रन्थ भी बनाया था। उसमें 32 कवित्ता हैं, उसे सभी कवि-जीवनी लेखकों ने बड़ा अद्भुत बतलाया है। वास्तव में कालिदास बड़े सहृदय कवि थे। उनकी रचनाएँ एक सुविकसित सुमन के समान मनोहर और सुधानिधि की कला के समान कमनीय हैं। उनकी रचना की रसीली भाषा इस बात का सनद ब्रजभाषा को देती है कि वह सरस से सरस है-

चूमों करकंज मंजु अमल अनूप तेरो ,

रूप के निधान कान्ह मो तन निहारि दै।

कालिदास कहै मेरी ओर हरे हेरि हरि ,

माथे धारि मुकुट लकुट कर डारि दै।

कुँवर कन्हैया मुखचंद की जुन्हैया चारु ,

लोचन चकोरन की प्यासन निवारि दै।

मेरे कर मेंहदी लगी है नंदलाल प्यारे ;

लट उरझी है नेक बेसर सुधारि दै

हाथ हँसि दीन्हों भीति अंतर परसि प्यारी ;

देखत ही छकी मति कान्हर प्रवीन की।

निकस्यो झरोखे मांझ बिगस्यो कमल सम ,

ललित अंगूठी तामैं चमक चुनीन की।

कालीदास तैसी लाली मेहंदी के बुंदन की ,

चारु नखचंदन की लाल ऍंगुरीन की।

कैसी छबि छाजत है छाप के छलान की ,

सुकंकन चुरीन को , जड़ाऊ पहुँचीन की।

(9) आलम रसखान के समान ही बड़े ही सरस हृदय कवि थे। कहा जाता है कि ये ब्राह्मण कुल के बालक थे। परंतु प्रेम के फंदे में पड़कर धर्म को तिलांजलि दे दी थी। शेख़ नामक एक मुसलमान स्त्री सरसहृदया कवि थी। उसके रस से ये ऐसे सिक्त हुए कि अपने धर्म को भी उसमें डुबो दिया। अच्छा होता यदि जैसे मनमोहन की ओर रसखान खिंच गये, उसी प्रकार वे शेख़ को भी उनकी ओर खींच लाते। परंतु उसने ऐसी मोहनी डाली कि वे ही उसकी ओर खिंच गये। जो कुछ हो लेकिन स्त्री-पुरुष दोनों की ब्रजभाषा की रचना ऐसी मधुर और सरस है जो मधु-वर्षण करती ही रहती है। ब्रजभाषा देवी के चरणों पर इस युगल जोड़ी को कान्त कुसुमावलि अर्पण करते देखकर हम उस वेदना को भूल जाते हैं, जो उनके प्रेमोन्माद से किसी स्वधार्मानुरागी जन को हो सकती है। इन दोनों में वृन्दावन विहारिणी युगल मूर्ति के गुणगान की प्रवृत्तिा देखी जाती है। उससे भी मर्माहत चित्ता को बहुत कुछ शान्ति मिलती है, उनका जो धर्म हो, परन्तु युगलमूर्ति उनके हृदय में सदा बिराजती दृष्टिगत होती है। औरंगजेब के पुत्र मुअज्ज़म की दृष्टि में इन दोनों का अपने गुणों के कारण बड़ा आदर था। इनकी कुछ मनोहारिणी रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-

1. जा थल कीन्हें बिहार अनेकन

ता थल कांकरी बैठि चुन्यो करैं।

जा रसना सों करी बहु बातन

ता रसना सों चरित्रा गुन्यो करैं।

आलम जौन से कुंजन में करी

केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।

नैनन में जो सदा रहते तिनकी

अब कान कहानी सुन्यो करैं।

2. चन्द को चकोर देखै निसि दिन को न लेखे ,

चंद बिन दिन छबि लागत ऍंधयारी है।

आलम कहत आली अलि फूल हेत चलै ,

काँटे सी कटीली बेलि ऐसी प्रीति प्यारी है।

कारो कान्ह कहति गँवारी ऐसी लागति है ,

मोहि बाकी स्यामताई लागत उँज्यारी है।

मन की अटक तहाँ रूप को विचार कहाँ ,

रीझिबे को पैंडो तहाँ बूझ कछु न्यारी है।

3. प्रेम रंग पगे जगमगे जागे जामिनी के

जोबन की जोति जगि जोर उमगत है।

मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं

झूमत हैं झुकि झुकि झ्रपि उघरत हैं

आलम सों नबल निकाई इन नैननि की

पाँखुरी पदुम पै भँवर थिरकत हैं।

चाहत हैं उड़िये को देखत मयंक मुख

जानत हैं रैनि ताते ताहि मैं रहत हैं।

4. कैंधो मोर सोर तजि गये री अनत भाजि

कैधों उत दादुर न बोलत हैं ए दई।

कैधों पिक चातक बधिक काहू मारि डारे

कैधों बकपाँति उत अंत गति ह्नै गई।

आलम कहत आली अजहूँ न आये श्याम

कैधों उत रीति बिपरीति बिधि ने ठई।

मदन महीप की दुहाई फिरिबे ते रही

जूझि गये मेघ कैधों बीजुरी सती भई।

5. पैंडो समसूधो बैंडो कठिन किवार द्वार

द्वारपाल नहीं तहाँ सबल भगति है।

शेख भनि तहाँ मेरे त्रिभुवन राम हैं जु

दीनबंधु स्वामी सुरपति को पति है।

बैरी को न बैर बरिआई को न परवेस

हीने को हटक नाहीं छीने को सकति है।

हाथी को हँकार पल पाछे पहुँचन पावै

चींटी की चिघार पहिले ही पहुँचति है।

कहा जाता है कि आलम ने माधावानल कामकंदला नामक एक प्रेम कहानी भी लिखी है। आशा है, कि इनका ग्रंथ भी सरसतापूर्ण होगा और इसमें भी इनके प्रेम-मय हृदय की कमनीय कलाएँ विद्यमान होंगी। किन्तु यह ग्रंथ देखने में नहीं आया। इसकी चर्चा ही मात्रा मिलती है। अच्छा होता यदि इस पुस्तक का कुछ अंश मैं आप लोगों की सेवा में उपस्थित कर सकता। परन्तु यह सौभाग्य मुझको प्राप्त नहीं हुआ। आलम-दम्पती की रचनाओं में हृदय का वह सौन्दर्य दृष्टिगत होता है जिसकी ओर चित्ता स्वभावतया खिंच जाता है। इनके ऐसे भावुक कवि ही किसी भाषा को अलंकृत करते हैं। जैसी ही इनकी भावमयी सुन्दर रचनाएँ हैं वैसी ही सरस और मुग्धाकारी इनकी ब्रजभाषा है। इनके अधिकांश पद्य सहृदयता की मूर्ति हैं, इन्होंने इनके द्वारा हिन्दी-साहित्य-भंडार को बड़े सुन्दर रत्न प्रदान किये हैं।

इन्हीं सहृदय दम्पति के साथ में ताज की चर्चा भी कर देना चाहता हूँ। ये एक मुसलमान स्त्री थीं। इनके वंश इत्यादि का कुछ पता नहीं। परन्तु इनकी स्फुट रचनाएँ यत्रा तत्रा पाई जाती हैं। मुसलमान स्त्री होने पर भी इनके हृदय में भगवान कृष्णचन्द्र का प्रेम लबालब भरा था। इनकी रचनाओं में कृष्ण-प्रेम की ऐसी सुन्दर धाराएँ बहती हैं जो हृदय को मुग्धा कर देती हैं। इनके पद्यों का एक-एक पद कुछ ऐसी मनमोहकता रखता है, जो चित् को बलात् अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इनकी रचना में पंजाबी शब्द अधिक मिलते हैं। इससे ज्ञात होता है कि ये पंजाब प्रान्त की रहने वाली थीं। इनकी पद्य रचना में खड़ी बोली का पुट भी पाया जाता है किन्तु इन्होंने ब्रजभाषा में ही कविता करने की चेष्ट की है। इनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं। देखिए इनकी लगन में कितनी अधिक विचारों की दृढ़ता है।

सुनौ दिल जानी मेड़े दिल की कहानी

तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं।

देव पूजा ठानी मैं निवाज हूँ भुलानी

तजे कलमा कुरान साड़े गुनन गहूँगी मैं।

साँवला सलोना सिर ताज सिर कुल्ले दिये

तेरे नेह दाग मैं निदाग हो दहूँगी मैं।

नन्द के कुमार कुरबान ताँड़ी सूरत पै

तांड़ नाल प्यारे हिंदुआनी हो रहूँगी मैं।

2. छैल जो छबीला सब र ú में रँगीला

बड़ा चित्ता का अड़ीला कहूँ देवतों से न्यारा है।

माल गले मों है नाक मोती सेत सोहै कान

मोहै मनि कुंडल मुकुट सीस धारा है।

दुष्ट जन मारे सन्त जन रखवारे ताहि

चित हित वारे प्रेम-प्रीति कर वारा है।

नन्द जू का प्यारा जिन कंस को पछारा

वह वृन्दाबन वारा कृष्ण साहब हमारा है।

(10) सितारा के राजा शंभुनाथ सुलंकी भी रीति ग्रन्थकारों में से हैं। उनके एक नायिका-भेद के ग्रंथ की बड़ी प्रशंसा है,परन्तु वह अब मिलता नहीं। उनका एक नख-शिख का ग्रन्थ भी बड़ा चमत्कारपूर्ण है। वे बड़े सहृदय और कवियों के कल्पतरु थे। कविता में कभी 'नृपशंभु' और कभी 'शंभुकवि' अथवा 'नाथ कवि' अपने को लिखते थे। बड़ी सरस ब्रजभाषा में उन्होंने रचना की है। उनकी उत्प्रेक्षाएँ बड़ी मनोहर हैं। उनके जितने पद्य हैं उनमें से अधिकांश सरस है। उनकी भाषा को निस्संकोच टकसाली कह सकते हैं। ब्रजभाषा को अपनी रचना द्वारा उन्होंने भी गौरवित बनाया है। उनके दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. फाग रच्यो नन्द नन्द प्रवीन बजैं

बहु बीन मृदंग रबाबैं।

खेलतीं वै सुकुमारि तिया जिन

भूषण हूँ की सही नहीं दाबैं।

सेत अबीर के घूँघरु मैं इमि

बालन की बिकसी मुख आबैं।

चाँदनी में चहुँ ओर मनो नृप

शंभु बिराज रही महताबैं।

2. कौहर कौल जपा दल विद्रुम का

इतनी जु बँधूक मैं कोति है।

रोचन रोरी रची मेंहदी नृपशंभु

कहै मुकुता सम पोति है।

पायँ धारै ढरै ईंगुरई तिन मैं

खरी पायल की घनी ज्योति है।

हाथ द्वै तीनक चारहूँ ओर लौं

चाँदनी चूनरी के रँग होति है।

इस शतक में एक मुसलमान सहृदय कवि भी रीति ग्रन्थकार हो गये हैं। उनका नाम मुबारक है। अवधा के बाराबंकी जिले में बिलग्राम नामक एक प्रसिध्द कस्बा है, जिसको विद्वानों और सहृदयों की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है, यहीं अरबी,फारसी और संस्कृत के विद्वान् मुबारकअली का जन्म हुआ था। इन्होंने 'अलक शतक' और 'तिल शतक' नामक दो ग्रन्थ सरस दोहों में लिखे हैं। इनकी स्फुट कविताएँ भी बहुत-सी मिलती हैं। इनकी भाषा ब्रजभाषा है और उसमें प्रा)लता इतनी है कि मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा की जा सकती है। इनकी रचना में प्रवाह है और इनकी कथनशैली भी मोहक है। मधुरता इनके शब्दों में भरी मिलती है। मुसलमान होने पर भी इन्होंने हिन्दी भाषा पर अपना जैसा अधिकार प्रकट किया है, वास्तव में वह चकितकर है। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

1. कान्ह की बाँकी चितौनि चुभि

झुकि काल्हि ही झाँकी है ग्वालि गवाछनि।

देखी है नोखी सी चोखी सी कोरनि

ओछे फिरै उभरै चित जा छनि।

मारयो सँभारि हिये में मुबारक

ए सहजै कजरारे मृगाछनि।

सींक लै काजर दे री गँवारिनि

ऑंगुरी तेरी कटैगी कटाछनि।

2. कनक बरन बाल नगन लसत भाल

मोतिन के माल उर सोहै भलीभाँति है।

चंदन चढ़ाई चारु चंदमुखी मोहिनी सी

प्रात ही अन्हाइ पगु धारे मुसकाति है।

चुनरी विचित्रा स्याम सजि कै मुबारक जू

ढाँकि नख सिख ते निपट सकुचाति है।

चंद मैं लपेटि कै समेटि कै नखत मानो

दिन को प्रनाम किये रात चली जाति है।

3. जगी मुबारक तिय बदन अलख ओप अति होइ।

मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोइ।

4. चिबुक कूप मैं मन परयो छबि जल तृषा बिचारि।

गहत मुबारक ताहि तिय अलक डोर सी डारि।

5. चिबुक कूप रसरी अलक तिल सुचरस दृग बैल।

बारी बैस सिंगार की सींचत मनमथ छैल।

6. गोरी के मुख एक तिल सो मोहिं खरो सुहाय।

मानहुं पंकज की कली भौंर बिलंब्यो आय।

कभी-कभी वे अपनी रचना में दुरूह फ़ारसी शब्दों का प्रयोग भी कर देते हैं, परन्तु उसको ब्रजभाषा के ढंग में बड़ी ही सुन्दरता से ढाल लेते हैं। नीचे का दोहा देखिए-

अलक मुबारक तिय बदन लटक परी यों साफ।

खुशनवीस मुनशी मदन लिख्यो काँच पर क़ाफ़।

(4)

इस शताब्दी में प्रसिध्द प्रबन्धकार भी हुए। इनमें गुरु गोविंद सिंह सबसे प्रधान हैं। उनके अतिरिक्त उसमान, सबलसिंह चौहान, लाल और कवि हृदयराम का नाम लिया जा सकता है। प्रेम-मार्गी कवियों के वर्णन में उसमान के विषय में मैं पहले कुछ लिख चुका हूँ। इस शताब्दी में इनकी ही रचना ऐसी है जो अवधी भाषा में की गयी है। इसके द्वारा उन्होंने उस परम्परा की रक्षा की है जिसको कुतुबन अथवा मलिक मुहम्मद जायसी ने चलाया था। इनको छोड़कर और सब प्रबन्धाकार ब्रजभाषा के सुकवि हैं। मैं पहले सबलसिंह चौहान और लाल के विषय में लिखकर इसके उपरान्त पंजाब-निवासी गुरु गोविन्द सिंह और कवि हृदयराम के विषय में कुछ लिखूँगा-

सबलसिंह चौहान इटावा जिले के प्रतिष्ठित जमींदार थे। उन्होंने महाभारत के अठारहों पर्वों के कथा-भाग की रचना दोहा-चौपाई में की है। 'रूप विलास पिंगल', 'षट् ऋतु बरवै' और 'ऋतूपसंहार' नामक ग्रन्थ भी उनके रचे बतलाये जाते हैं। उन्होंने महाभारत की रचना गोस्वामी जी के रामायण के आधार से की है। परन्तु उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। वे पछाँह के रहने वाले थे। इसलिए उनकी रचना में खड़ी बोली और अवधी का पुट भी है। भाषा न तो जैसी चाहिए वैसी सरस है और न प्रा)ल। फिर भी महाभारत की कथा का जनता को परिचय कराने के लिए उनका उद्योग प्रशंसनीय है। उनके इस ग्रन्थ का कुछ प्रचार भी हुआ। परन्तु वह सर्वसाधारण् को अपनी ओर अधिक आकर्षित न कर सका। उनकी रचना का नमूना लीजिए-

लै के शूल कियो परिहारा।

बीर अनेक खेत महँ मारा।

जूझी अनी भभरि कै भागे।

हँसि के द्रोण कहन अस लागे।

धान्य धान्य अभिमनु गुन आगर।

सब छत्रिन महँ बड़ो उजागर।

धान्य सहोद्रा जग में जाई।

ऐसे वीर जठर जनमाई।

धान्य धान्य जग में पितु पारथ।

अभिमनु धान्य धान्य पुरुषारथ।

एक बार लाखन दल मारे।

अरु अनेक राजा संहारे।

धानु काटे शंका नहिं मन में।

रुधिर-प्रवाह चलत सब तन में।

एहि अंतर बोले कुरुराजा।

धानुष नाहिं भाजत केहि काजा।

एक बीर को सबै डरत है।

घेरि क्यों न रस धाय धारत है।

बालक देखु करी यह करणी।

सेना जूझि परी सब धारणी।

दुर्योधान या विधि कह्यो ,

कर्ण द्रोण सों बैन।

बालक सब सेना बधी ,

तुम सब देखत नैन।

उनकी रचना में ब्रजभाषा के नियम के विरुध्द शकार, णकार और संयुक्त वर्णों का प्रयोग भी देखा जाता है। इसका कारण यह मालूम होता है कि वीर रस के लिए शायद परुषावृत्तिा का मार्ग ग्रहण करना ही उन्होंने युक्तिसंगत समझा।

पुरोहित गोरेलाल महाराज छत्रासाल के दरबार के मान्य कवि थे। वे एक युध्द में महाराज छत्रासाल के साथ गये और वहीं वीरता के साथ लड़कर मरे। वीर रस की ओजमयी रचना करने में भूषण के उपरान्त इन्हीं का नाम लिया जाता है। 'छत्रा-प्रकाश' इनका प्रसिध्द ग्रन्थ है। जिसमें इन्होंने महाराज छत्रासाल की वीरगाथाएँ बड़ी निपुणता से लिखी हैं। यह दोहा-चौपाई में लिखा गया है और प्रबन्धा ग्रन्थ है। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। किन्तु उसमें बुन्देलखंडी शब्दों का प्रयोग आवश्यकता से कुछ अधिक है। फिर भी इनकी रचना ओजमयी और प्रांजल है और वे सब गुण उसमें मौजूद हैं जिन्हे वीर-रस की कविता में होना चाहिए। 'छत्राप्रकाश' विशाल ग्रंथ है और इनका कीर्तिस्तम्भ है। इसके अतिरिक्त 'विष्णु बिलास' और 'राजविनोद' नामक दो ग्रन्थ इन्होंने और रचे। ये दोनों ग्रंथ भी अच्छे हैं, परन्तु इनमें यह विशेषता नहीं पाई जाती जो 'छत्राप्रकाश' में है। गोरेलाल जी का उपनाम 'लाल' है। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

दान दया घमसान में जाके हिये उछाह।

सोई बीर बखानिये ज्यों छत्ता छितिनाह।

उमड़ि चल्यो दारा के सौहैं , चढ़ी उदंड युध्द-रस भौंहैं।

तब दारा दिल दहसति बाढ़ी , चूमन लगे सबन की दाढ़ी।

को भुजदंड समर महिं ठोंकै , उमड़े प्रलय-सिंधु को रोकै।

छत्रासाल हाड़ा तहँ आयो , अरुन रंग आनन छबि छायो।

भयो हरौल बजाय नगारो , सारधार को पहिरन हारो।

दौरि देस मुगलन के मारो , दपटि दिली के दल संहारो।

ऐंड़ एक सिवराज निबाही , करै आपने चित्ता की चाही।

आठ पातसाही झकझोरै , सूबन पकरि दंड लै छोरै।

काटि कटक किरवान बल , बाँटि जंबुकनि देहु।

ठाटि जुध्द एहि रीति सों , बाँटि धारनि धारि लेहु।

मैं यह बराबर प्रकट करता आया हूँ कि सत्राहवीं शताब्दी में उत्तारी भारत में ब्रजभाषा का प्रसार अधिक हो गया था। इस विस्तार के फल से ही पंजाब प्रान्त में दो प्रतिष्ठित प्रबन्धाकार दृष्टिगत होते हैं। उनमें से एक हृदयराम हैं और दूसरे गुरु गोविन्दसिंह। कवि हृदयराम जाति के खत्री थे। उन्होंने संस्कृत हनुमन्नाटक के आधार से अपने ग्रन्थ की रचना की और उसका नाम भी हनुमन्नाटक ही रक्खा। इस ग्रन्थ की रचना इतनी सरस है और इस सहृदयता के साथ वह लिखा गया है कि गुरु गोविन्दसिंह इस ग्रन्थ को सदा अपने साथ रखते और उसकी मधुर रचनाओं को पढ़-पढ़ मुग्धा हुआ करते थे। इस ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। कहीं-कहीं एक-दो पंजाबी शब्द मिल जाते हैं। ग्रन्थ की सरस और प्रा)ल रचना देखकर यह प्रतीत नहीं होता कि यह किसी पंजाबी का लिखा हुआ है। कवि हृदयराम में भाव-चित्राण की सुन्दर शक्ति है। उन्होंने इस ग्रन्थ को लिखकर यह बतलाया है कि उनमें प्रबन्धा काव्य लिखने की कितनी योग्यता थी। रामायण की समस्त कथा इसमें वर्णित है किन्तु इस क्रम से कि उसमें कहीं अरोचकता नहीं आई। इसमें कवित्ता और सवैये ही अधिक हैं। कोई-कोई पद्य बड़े ही मनोहर हैं। उनमें से दो नीचे लिखे जाते हैं-

1. ए बनवास चले दोउ सुंदर कौतुक को सिय संग जुटी है।

पाँवन पाव , न कोस चली अजहूँ नहीं गाँव की सींव छुटी है।

हाथ धारे कटि पूछत रामहिं नाथ कहौ कहाँ कंज कुटी है।

रोवत राघव जोवत सी मुख मानहुँ मोतिन माल टुटी है।

2. एहो हनू कह श्रीरघुवीर कछू सुधि है सिय की छिति माँही।

है प्रभु , लंक कलंक बिना सुबसै बन रावन बाग की छाँहीं।

जीवत है कहिंबेहि को नाथ! सु क्यों न मरी हमतें बिछुराहीं।

प्रान बसै पद-पंकज में जम आवत है पर पावत नाहीं।

गुरु गोविन्दसिंह ब्रजभाषा के महाकवि थे। इनका बनाया हुआ दशम ग्रन्थ बड़ा विशाल ग्रन्थ है। समस्त ग्रन्थ सरस ब्रजभाषा में लिखा गया है। वे बड़े वीर और सिक्ख धर्म के प्र्रवत्ताक थे। गुरु नानक से लेकर गुरु अर्जुन देव तक इनके सम्प्रदाय में शान्ति रही, परन्तु जहाँगीर ने अनेक कष्ट देकर गुरु अर्जुन देव को प्राण त्याग करने के लिए बाधय किया। तब सम्प्रदाय वालों का रक्त खौल उठा और उन्होंने मुसलमानों के सर्वनाश का व्रत ग्रहण किया, क्रमश: वर्ध्दमान होकर गुरु गोविन्द सिंह के समय में यह भाव बहुत प्रबल हो गया था और इसी कारण जब गुरु तेगबहादुर उनके पिता का औरंगजेब द्वारा संहार हुआ तो उन्होंने बड़ी वीरता से मुसलमानों से लोहा लेना प्रारंभ किया। गुरु अर्जुनदेव ने ही आदि ग्रन्थसाहब का संग्रह तैयार किया था। इस ग्रन्थ में उनकी बहुत अधिक रचनाएँ हैं, जो अधिकतर ब्रजभाषा में लिखी गई हैं। उनकी कुछ रचनाएँ मैं पहले लिख आया हूँ। विषय को स्पष्ट करने के लिए उनके कुछ पद्य यहाँ और लिखे जाते हैं-

1. बाहरु धोइ अंतरु मन मैला दुई ओर अपने खोये।

इहाँ काम क्रोधा मोह व्यापा आगे मुसि मुसि रोये।

गोविंद भजन की मति है होरा।

बरमी मारी साँप न मरई नामु न सुनई डोरा।

माया की कृति छोड़ि गँवाई भक्तीसार न जानै।

वेद सास्त्रा को तरकन लागा तत्व जोगु न पछानै।

उघरि गया जैसा खोटा ढेबुआ नदरि सराफा आया।

अंतर्यामी सब कछु जानै उस ते कहा छपाया।

कूर कपट बंचन मुनियाँदा बिनसि गया ततकाले।

सति सति सति नानक कह अपने हिरदै देखु समा ले।

2. बंधान काटि बिसारे औगुन अपना विरद समारया।

होइ कृपालु मात पित न्याई बारक ज्यों प्रतिपारया।

गुरु सिष राखे गुरु गोपाल।

लीये काढ़ि महा भव जल ते अपनी नदर निहाल।

जाके सिमरणि जम ते छुटिये हलति पलति सुख पाइये।

सांसि गेरासि जपहु जप रसना नीति नीति गुण गाइये।

भगती प्रेम परम पद पाया साधु संग दुख नाटे।

छिजै न जाइ न किछु भव ब्यापै हरि धानु निरमल गाँठे।

अन्तकाल प्रभु भये सहाई इत उत राखन हारे।

प्रान मीत हीत धान मेरे नानक सद बलिहारे।

गुरु अर्जुन देव सत्राहवीं शताब्दी के आदि में थे। उनकी रचनाएँ उसी समय की हैं। मैं यह कह सकता हूँ कि वह परिमार्जित ब्रजभाषा नहीं है, परन्तु यही भाषा गुरु गोविन्दसिंह के समय में अपने मुख्य रूप में दृष्टिगत होती है। गुरु गोविन्दसिंह ने दशम ग्रन्थ में विष्णु के चौबीस और ब्रह्मा एवं शिव के सात अवतारों की कथा लिखी है। उन्होंने दुर्गापाठ का तीन अनुवाद करके उसका नाम 'चंडी-चरित्रा' रखा है। पहला अनुवाद सवैयों में, दूसरा पौड़ियों में, और तीसरा नाना छन्दों में है। उन्होंने इस ग्रन्थ में 404 स्त्री-चरित्र भी लिखे हैं और इस सूत्रा से अनेक नीति और शिक्षा सम्बन्धी बातें कही हैं,उन्होंने इसमें कुछ अपनी जीवन-सम्बन्धी बातें भी लिखी हैं और कुछ परमात्मा की स्तुति और ज्ञान सम्बन्धी विषयों का भी निरूपण किया है। फ़ारसी भाषा में उन्होंने 'जफ़रनामा' नामक एक राजनीति-संबंधी ग्रन्थ लिखकर औरंगजेब के पास भेजा था। वह ग्रन्थ भी इसमें सम्मिलित है। अवतारों के वर्णन के आधार से उन्होंने इस ग्रन्थ में पुराणों की धर्म-नीति, समाज-नीति, एवं राजनीति-सम्बन्धी समस्त बातें एकत्रित कर दी हैं। यह बड़ा उपयोगी ग्रन्थ है। सिक्ख सम्प्रदाय के लोग इसको बड़े आदर की दृष्टि से देखते हैं। ब्रजभाषा-साहित्य का इतना बड़ा ग्रन्थ सूर-सागर को छोड़कर अन्य नहीं है। इस ग्रन्थ में जितनी रचनाएँ गुरु गोविन्द सिंह की निज की हैं, उनके सामने श्री मुख वाक पातसाही दस लिखा है। अन्य रचनाओं के विषय में यह कहा जाता है कि वे गुरु गोविन्द सिंह जी के द्वारा रचित नहीं हैं। वे श्याम और राम नामक दो अन्य कवियों की कृति हैं, जो उनके आश्रित थे। उक्त ग्रन्थ की कुछ रचनाएँ नीचे उपस्थित की जाती हैं। उनको पढ़कर आप लोग समझ सकेंगे कि वे कैसी हैं और उनके भाव और भाषा में कितना सौंदर्य एवं लालित्य है। पहले गुरु गोविन्द सिंह की निज रचनाओं को ही देखिए-

1. चक्र चिद्द अरु बरन जात

अरु पाँत नहिंन जेहि।

रूप रूप अरु रेख भेख

कोउ कहि न सकत केहि।

अचल मूरति अनभव

प्रकास अमितोज कहिज्जै।

कोटि इन्द्र इन्द्राणि साहि

साहाणि गणिज्जै।

त्रिभुवण महीप सुर नर असुर

नेति नेति वर्णत कहत।

तब सरब नाम कत्थय कवन

कर्म नाम वरणत सुमत।

2. प्रभु जू तोकहँ लाज हमारी।

नीलकण्ठ नर हरि नारायन

नील बसन बनवारी।

परम पुरुष परमेसर स्वामी

पावन पवन अहारी।

माधाव महा ज्योति मधु

मर्दन मान मुकुंद मुरारी।

निर्विकार निर्जर निद्राबिन

निर्बिष नरक निवारी।

किरपासिंधु काल त्राय दरसी

कुकृत प्रनासन कारी।

धानुर्पानि धृत मान धाराधार

अन विकार असि धारी।

हौं मति मन्द चरनसरनागत

कर गहि लेहु उबारी।

3. जीति फिरे सब देस दिसान को

बाजत ढोल मृदंग नगारे।

गूंजत गूढ़ गजान के सुंदर

हींसत ही हय राज हजारे।

भूत भविक्ख भवान के भूपति

कौन गनै नहीं जात विचारे।

श्रीपति श्री भगवान भजे बिन

अन्त को अन्तक धाम सिधारे।

4. दीनन की प्रतिपाल करै नित

सन्त उबार गनीमन गारै।

पच्छ पसू नग नाग नराधिप

सर्व समै सब को प्रतिपारै।

पोखत है जल मैं थल मैं पल मैं

कलि के नहीं कर्म विचारै।

दीनदयाल दयानिधि दोखन

देखत है पर देत न हारै।

5. मेरु करो तृण ते मोहि जाहि

गरीब-नेवाज न दूसरो तोसों।

भूल छमो हमरी प्रभु आप न

भूलन हार कहूँ कोउ मोसों।

सेव करी तुमरी तिन के सभ ही

गृह देखिए द्रव्य भरो सो।

या कलि में सब काल कृपानिधि

भारी भुजान को भारी भरोसो।

अब दशम ग्रन्थ साहब की कुछ अन्य रचनाएँ भी देखिए-

1. रारि पुरंदर कोपि कियो इत

जुध्द को दैंत जुरे उत कैसे।

स्याम घटा घुमरी घन घोर कै

घेरि लियो हरि को रवि तैसे।

सक्र कमान के बान लगे सर

फोंक लसै अरि के उर ऐसे।

मानो पहार करार में चोंच

पसार रहे सिसु सारक जैसे

2. मीन मुरझाने कंज खंजन खिसाने।

अलि फिरत दिवाने बन डोलैं जित तित ही।

कीर औ कपोत बिंब कोकिला कलापी

बन लूटे फूटे फिरैं मन चैन हूँ न कितही।

दारिम दरकि गयो पेखि दसनन पाँति

रूप ही की काँति जग फैलि रही सित ही।

ऐसी गुन सागर उजागर सुनागर है

लीनो मन मेरो हरि नैन कोर चित ही।

3. चतुरानन मो बतिया सुन लै

सुनि के दोउ श्रौननि में धारिये।

उपमा को जबै उमगै मन तो

उपमा भगवानहिं की करिये।

परिये नहीं आन के पाँयन

पै हरि के गुरु के द्विज के परिये।

जेहि को जुग चारि मैं नाम जप्यो

तेहि सों लरिये ; मरिये , तरिये।

4. जेहि मृग राखे नैन बनाय।

अंजन रेख स्याम पै अटकत सुंदर फांद चढ़ाय।

मृग मद देत जिनैं नरनारिन रहत सदा अरुझाय।

तिनके ऊपर अपनी रुचि सों रीझि स्याम बलि जाय।

5. सेत धारे सारी वृषभानु की कुमारी

जस ही की मनो बारी ऐसी रची है न को दई।

रंभा उरबसी और सची सी मँदोदरी।

पै ऐसी प्रभा काकी जग बीच ना कछू भई।

मोतिन के हार गरे डार रुचि सों सिंगार

स्याम जू पै चली कवि स्याम रस के लई।

सेत साज साज चली साँवरे के प्र्रीति काज

चाँदनी में राधा मानो चाँदन सी ह्नै गई।

गुरु गोविंद सिंह की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, इसमें कोई सन्देह नहीं। उसमें ब्रजभाषा-सम्बन्धी नियमों का अधिकतर पालन हुआ है। किसी-किसी स्थान पर णकार का प्रयोग नकार के स्थान पर पाया जाता है। किन्तु यह पंजाब की बोलचाल का प्रभाव है। कोई-कोई शब्द भी पंजाबी ढंग पर व्यवहृत हुए हैं। इसका कारण भी प्रान्तिकता ही है। परन्तु इस प्रकार के शब्द इतने थोड़े हैं कि उनसे ब्रजभाषा की विशेषता नष्ट नहीं हुई। कुल दशम ग्रंथ साहब ऐसी ही भाषा में लिखा गया है,जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय ब्रजभाषा किस प्रकार सर्वत्रा समादृत थी। इस ग्रन्थ में कहीं-कहीं पंजाबी भाषा की भी कुछ रचनाएँ मिल जाती हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। पौड़ियों में लिखा गया चंडी चरित्रा ऐसा ही है। ज़फ़रनामा फ़ारसी भाषा में है, यह मैं पहले बतला चुका हूँ। अपने ग्रन्थ में गुरु गोविन्द सिंह ने इतने अधिक छंदों का व्यवहार किया है जितने छन्दों का व्यवहार आचार्य केशवदास को छोड़कर हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं कर सका। इस ग्रंथ में युध्द का वर्णन बड़ा ही ओजमय है। ऐसे छंद युध्द के वर्णनों में आये हैं जो अपने शब्दों को युध्दानुकूल बना लेते हैं। कहीं-कहीं इस प्रकार के शब्द लिखे गये हैं जो युध्द की मारकाट शस्त्राों का झणत्कार, बाणों की सनसनाहट और अस्त्राों के परस्पर टकराने की धवनि श्रवणगत होने लगती है। जैसे-

तागिड़दं तीरं छागिड़दं छुट्टे।

बागिड़दं बीरं लागिड़दं लुट्टे , इत्यादि।

मेरा विचार है कि यह विशाल ग्रन्थ हिन्दी साहित्य का गौरव है, और इसकी रचना करके गुरु गोविन्द सिंह ने उसके भण्डार को एक ऐसा उज्ज्वल रत्न प्रदान किया है, जिसकी चमक-दमक विचित्रा और अद्भुत है।

आदि ग्रन्थ साहब में शान्त रस का प्रवाह बहता है। उसमें त्याग और विराग का गीत गाया गया है, उससे सम्बन्धा रखने वाली दया, उदारता, शान्ति एवं सरलता आदि गुणों की ही प्रशंसा की गयी है। यह शिक्षा दी गयी है कि मानसिक विकारों को दूर करो और दुर्दान्त इन्द्रियों का दमन। परन्तु उसकी दृष्टि संसार-शरीर के उन रोगों के शमन की ओर उतनी नहीं गयी जो उस पवित्रा-ग्रन्थ के सदाशय मार्ग के कंटक-स्वरूप कहे जा सकते हैं। दशम ग्रन्थ साहब की रचना कर गुरु गोविन्द सिंह ने इस न्यूनता कीर् पूत्तिा की है। उन्होंने अपने ग्रन्थ में ऐसे उत्तोजक भाव भरे हैं जिससे ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जो कंटक भूत प्राणियों को पूर्णतया विधवंस कर सके। इस शक्ति के उत्पन्न करने के लिए ही उन्होंने अपने ग्रन्थ में युध्दों का भी वर्णन ऐसी प्रभावशाली भाषा में किया है जो एक बार निर्जीव को भी सजीव बनाने में समर्थ हो। इसी उद्देश्य से उन्होंने सप्तशती के तीन-तीन अनुवाद किये। पौड़ियों में जो तीसरा अनुवाद है, उसमें वह ओजस्विता भरी है जो सूखी रगों में भी रक्त संचार करती है। कृष्णावतार में खúसिंह के युध्द का ऐसा ओजमय वर्णन है जिसे पढ़ने से कायर हृदय भी वीर बन सकता है। ऐसे ही विचित्रा वर्णन और भी कई एक स्थलों पर है। यथा समय हिन्दू जाति में ऐसे आचार्य उत्पन्न होते आये हैं जो समयानुसार उसमें ऐसी शक्ति उत्पन्न करते जिससे वह आत्म-रक्षण में पूर्णतया समर्थ होती। उत्तार भारत में गुरु गोविन्द सिंह और दक्षिण भारत में स्वामी रामदास सत्राहवीं सदी के ऐसे ही आचार्य थे। गुरु गोविन्द सिंह ने पंजाब में सिक्खों द्वारा महान् शक्ति उत्पन्न की, स्वामी रामदास ने शिवाजी और महाराष्ट्र जाति की रगों में बिजली दौड़ा दी। इस दृष्टि से दशम ग्रन्थ की उपयोगिता कितनी है, इसका अनुभव हिन्दी-भाषा-भाषी विद्वान स्वयं उस ग्रन्थ को पढ़कर कर सकते हैं।

इस सत्राहवीं शताब्दी में एक प्रेम-मार्गी कवि नेवाज भी हो गये हैं। कहा जाता है कि ये जाति के ब्राह्मण थे और छत्रासाल के दरबार में रहते थे। ये थे बड़े रसिक हृदय। जहाँ गोरेलाल पुरोहित वीर रस की रचनाएँ कर महाराज छत्रासाल में ओज भरते रहते थे, वहाँ ये शृंगाररस की रचनाएँ कर उन्हें रिझाते रहते थे। नेवाज नाम के तीन कवि हो गये हैं। इन तीनों की रचनाएँ मिलजुल गई हैं। किन्तु सरसता अधिक इन्हीं की रचना में मानी गई है। इनका नेवाज नाम भ्रामक है। क्योंकि एक ब्राह्मण ने कविता में अपना नाम 'नेवाज' रक्खा, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। छत्रासाल ऐसे भाव सम्पन्न राजा के यहाँ रहकर भी उनका नेवाज नाम से परिचत होना कम आश्चर्य-जनक नहीं। जो हो, परन्तु हिन्दी संसार में जितने प्रेमोन्मत्ता कवि हुए हैं उनमें एक यह भी हैं। इनकी रचना की मधुरता और भावमयता की सभी ने प्रशंसा की है। इनकी भाषा सरस ब्रजभाषा है। बुन्देलखंड में रहकर भी वे इतनी प्रा)ल ब्रजभाषा लिख सके, यह उनके भाषाधिकार को प्रकट करता है। उनके दो पद्य देखिए-

1. देखि हमैं सब आपुस में जो

कछू मन भावै सोई कहती हैं।

ए घरहाई लुगाई सबै निसि

द्यौस नेवाज हमें दहती हैं।

बातें चबाव भरी सुनि कै

रिसि आवत पै चुप ह्नैं रहती हैं।

कान्ह पियारे तिहारे लिये

सिगरे ब्रज को हँसिबो सहती हैं।

2. आगे तो कीन्हीं लगा लगी लोयन

कैसे छिपै अजहूँ जो छिपावत।

तू अनुराग कौ सोधा कियो

ब्रज की बनिता सब यों ठहरावत।

कौन सकोच रह्यो है नेवाज

जौ तू तरसै उनहूँ तरसावत।

बावरी जो पै कलंक लग्यो तो

निसंक ह्नै क्यों नहीं अंक लगावत।

(2)

अठारहवीं शताब्दी प्रारम्भ करने के साथ सबसे पहले हमारी दृष्टि महाकवि देवदत्ता पर पड़ती है। जिस दृष्टि से देखा जाय इनके महाकवि होने में संदेह नहीं। कहा जाता है, इन्होंने बहत्तार ग्रन्थों की रचना की। हिन्दी-भाषा के कवियों में इतने ग्रन्थों की रचना और किसी ने भी की है, इसमें सन्देह है। इनके महत्तव और गौरव को देखकर ब्राह्मण जाति के दो विभागों में अब तक द्वंद्व चल रहा है। कुछ लोग सनाढय कहकर इन्हें अपनी ओर खींचते हैं और कोई कान्यकुब्ज कहकर इन्हें अपना बनाता है। पंडित शालग्राम शास्त्री ने, थोड़े दिन हुए, 'माधुरी' में एक लम्बा लेख लिखकर यह प्रतिपादित किया है कि महाकवि देव सनाढय थे। मैं इस विवाद को अच्छा नहीं समझता। वे जो हों, किन्तु हैं, ब्राह्मण जाति के और ब्राह्मण जाति के भी न हों तो देखना यह है कि साहित्य में उनका क्या स्थान है। मेरा विचार है कि सब बातों पर दृष्टि रखकर यह कहना पड़ेगा कि ब्रजभाषा का मुख उज्ज्वल करने वाले जितने महाकवि हुए हैं, उन्हीं में एक आप भी हैं। एक दो विषयों में कवि कर्म्म करके सफलता लाभ करना उतना प्रशंसनीय नहीं, जितना अनेक विषयों पर समभाव से लेखनी चलाकर साहित्य-क्षेत्र में कीर्ति अर्जन करना। वे रीति ग्रंथ के आचार्य ही नहीं थे और उन्होंने काव्य के दसों अंगों पर लेखनी चलाकर ही प्रतिष्ठा नहीं लाभ की, वेदान्त के विषयों पर भी बहुत कुछ लिखकर वे सर्वदेशीय ज्ञान का परिचय प्रदान कर सके हैं। इस विषय पर उनकी 'ब्रह्मदर्शन-पचीसी', 'तत्तवदर्शन पचीसी' आत्म-दर्शन पचीसी' और 'जगत दर्शन पचीसी' आदि कई अच्छी रचनाएँ हैं। उनके 'नीति शतक', 'रागरत्नाकर', 'जातिविलास', 'वृक्ष विलास' आदि ग्रंथ भी अन्य विषयों के हैं और इनमें भी उन्होंने अच्छी सहृदयता और भावुकता का परिचय दिया है। उनका 'देव प्रपंच माया' नाटक भी विचित्रा है। इसमें भी उनका कविकर्म विशेष गौरव रखता है। शृंगाररस का क्या पूछना! उसके तो वे प्रसिध्दि-प्राप्त आचार्य हैं, मेरा विचार है कि इस विषय में आचार्य केशवदास के बाद उन्हीं का स्थान है। उनकी रचनाओं में रीति ग्रंथों के अतिरिक्त एक प्रबन्धा काव्य भी है जिसका नाम 'देव-चरित्रा' है, उसमें उन्होंने भगवान कृष्ण चन्द्र का चरित्रा वर्णन किया है। 'प्रेम-चंद्रिका' भी उनका एक अनूठा ग्रंथ है, उसमें उन्होंने स्वतंत्रा रूप से प्रेम के विषय में अनूठी रचनाएँ की हैं। कवि-कर्म क्या है। भाषा और भावों पर अधिकार होना और प्रत्येक विषयों का यथातथ्य चित्राण कर देना। देवजी दोनों बातों में दक्ष थे। सत्राहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यह देखा जाता है कि उस समय जितने बड़े-बड़े कवि हुए उनमें से अधिकांश किसी राजा-महाराजा अथवा अन्य प्रसिध्द लक्ष्मी-पात्रा के आश्रय में रहे। इस कारण उनकी प्रशंसा में भी उनको बहुत-सी रचनाएँ करनी पड़ीं। कुछ लोगा की यह सम्मति है कि ऐसे कवि अथवा महाकवियों से उच्च कोटि की रचनाओं और सच्ची भावमय कविताओं के रचे जाने की आशा करना विडम्बना मात्रा है। क्योंकि ऐसे लोगों के हृदय में उच्छ्वासमय उच्च भाव उत्पन्न हो ही नहीं सकते, जो एक आत्मनिर्भर, स्वतंत्रा अथच मनस्वी कवि अथवा महाकवि में स्वभावत: उद्भूत होते हैं। उन्मुक्त कवि कर्म ही कवि कर्म है, जिसका कार्य चित्ता का स्वतंत्रा उद्गार है। जो हृदय किसी की चापलूसी अथवा तोषामोद में निरत है और अपने आश्रयदाता के इच्छानुसार कविता करने के लिए विवश है, या उसकी उचित अनुचित प्रशंसा करने में व्यस्त है, वह कवि उस रत्न को कैसे प्राप्त कर सकता है जो स्वभावतया तरंगायमान मानस-उदधि से प्राप्त होते हैं। मेरा विचार है, इस कथन में सत्यता है। परन्तु इससे इस परिणाम पर नहीं पहुँचा जा सकता कि कोई कवि किसी के आश्रित रहकर सत्कवि या महाकवि हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रथम तो कवि स्वाधीनता प्रिय होता है, दूसरी बात यह कि कवि का अधिकतर सम्बन्धा प्रतिभा से है। इसलिए किसी का आश्रित होना उसके कवित्व गुण का बाधक नहीं हो सकता। किसी आत्म-विक्रयी की बात और है। हाँ, बंधान-रहित किसी स्वतंत्रा कवि का महत्तव उससे अधिक है, यह बात निस्संकोच भाव से स्वीकार की जा सकती है। कविवर देवदत्ता में जो विलक्षण प्रतिभा विकसित दृष्टिगत होती है, उसका मुख्य कारण यही है कि वे स्वतंत्रा प्रकृति के मनुष्य थे, जिससे वे किसी के आश्रय में चिरकाल तक न रह सके। जिस दरबार में गये, उसमें अधिक दिन ठहरना उन्हें पसंद नहीं आया। मालूम होता है कि बंधान उनको प्रिय नहीं था। मैं समझता हूँ इससे हिन्दी-साहित्य को लाभ ही हुआ। क्योंकि उनके उन्मुक्त जीवन ने उनसे अधिकतर ऐसी रचनाएँ करायीं जो सर्वथा स्वतंत्रा कही जा सकती हैं। प्रत्येक भाषा के साहित्य के लिए ऐसी रचनाएँ ही अधिक अपेक्षित होती हैं, क्योंकि उनमें वे उन्मुक्त धाराएँ बहती मिलती हैं जो पराधीनता एवं स्वार्थपरता दोष से मलिन नहीं होतीं। कविवर देवदत्ता की रचनाओं का जो अंश इस ढंग से ढला हुआ है, वही अधिक प्रशंसनीय है और उसी ने उनको हिन्दी-साहित्य में वह उच्च स्थान प्रदान किया है, जिसके अधिकारी हिन्दी-संसार के इने-गिने कवि-पुंगव ही हैं। मिश्र-बंधुओं ने अपने ग्रंथ में देवजी के सम्बन्धा में निम्नलिखित कवित्ता लिखाहै-

सूर सूर तुलसी सुधाकर नच्छत्रा केसो ,

सेस कविराजन कौ जुगुनू गनाय कै।

कोऊ परिपूरन भगति दिखरायो अब ,

काव्यरीति मोसन सुनहु चित लाय कै।

देव नभ मंडल समान है कबीन मधय ,

जामैं भानु सितभानु तारागन आय कै।

उदै होत अथवत चारों ओर भ्रमत पै ,

जाको ओर छोर नहिं परत लखाय कै।

इससे अधिक लोग सहमत नहीं हैं, इस पद्य ने कुछ काल तक हिन्दी-संसार में एक अवांछित आंदोलन खड़ा कर दिया था। कोई कोई इस रचना को अधिक रंजित समझते हैं। परन्तु मैं इसको विवाद-योग्य नहीं समझता। प्रत्येक मनुष्य अपने विचार के लिए स्वतंत्रा है। जिसने इस कवित्ता की रचना की उसका विचार देव जी के विषय में ऐसा ही था। यदि अपने भाव को उसने प्रकट किया तो उसको ऐसा करने का अधिकार था। चाहे कुछ लोग उसको वक्रदृष्टि से देखें, परन्तु मेरा विचार यह है कि यह कवित्ता केवल इतना ही प्रकट करता है कि देव जी के विषय में हिन्दी संसार के किसी-किसी विदग्धा जन का क्या विचार है। मैं इस कवित्ता के भाव को इसी कोटि में ग्रहण करता हूँ और उससे यही परिणाम निकालता हूँ कि देव जी हिन्दी-साहित्य क्षेत्र में एक विशेष स्थान के अधिकारी हैं। कोई भाषा समुन्नत होकर कितनी प्रौढ़ता प्राप्त करती है, देव जी की भाषा इसका प्रमाण है। उनका कथन है-

कविता कामिनि सुखद पद , सुबरन सरस सुजाति।

अलंकार पहिरे बिसद , अद्भुत रूप लखाति।

मैं देखता हूँ कि उनकी रचना में उनके इस कथन का पूर्ण विकास है। जितनी बातें इस दोहे में हैं, वे सब उनकी कविता में पायी जाती हैं।

उनकी अधिकतर रचनाएँ कवित्ता और सवैया में हैं। उनके कवित्ताों में जितना प्रबल प्रवाह, ओज, अनुप्रास और यमक की छटा है, वह विलक्षण है। सवैयों में यह बात नहीं है, परन्तु उनमें सरसता और मधुरता छलकती मिलती है। दो प्रकार के कवि या महाकवि देखे जाते हैं, एक की रचना प्रसादमयी और दूसरे की गम्भीर, गहन विचारमयी और गूढ़ होती है। इन दोनों गुणों का किसी एक कवि में होना कम देखा जाता है, देव जी में दोनों बातें पाई जाती हैं और यह उनकी उल्लेखनीय विशेषता है। मानसिक भावों के चित्राण में, कविता का संगीतमय बनाने में, भावानुकूल शब्द-विन्यास में, भावानुसार शब्दों में धवनि उत्पन्न करने में और कविता को व्यंजनामय बना देने में महाकवियों की-सी शक्ति देव जी में पायी जाती है।

प्राय: ऐसे अवसर पर लोग तुलनात्मक समालोचना को पसन्द करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ऐसा करने से एक दूसरे का उत्कर्ष दिखाने में बहुत बड़ी सहायता प्राप्त होती है। परन्तु ऐसी अवस्था में, निर्णय के लिए दोनों कवियों की समस्त रचनाओं की आलोचना होना आवश्यक है। यह नहीं कि एक-दूसरे के कुछ समान भाव के थोड़े से पद्यों को लेकर समालोचना की जाय और उसी के आधार पर एक से दूसरे को छोटा या बड़ा बना दिया जाय। यह एकदेशिता है। कोई कवि दस विषयों को लिखकर सफलता पाता है और कोई दो-चार विषयों को लिखकर ही कृतकार्य होता है। ऐसी अवस्था में उन दोनों के कतिपय विषयों को लेकर ही तुलनात्मक समालोचना करना समुचित नहीं। समालोचना के समय यह भी विचारना चाहिए कि उनकी रचना में लोक-मंगल की कामना और उपयोगिता कितनी है। उसका काव्य कौन-सा संदेश देता है, और उसकी उपयुक्तता किस कोटि की है। बिना इन सब बातों पर विचार किये कुछ थोड़े-से पद्यों को लेकर किसी का महत्तव प्रतिपादन युक्तिसंगत नहीं। अतएव मैं यह मीमांसा करने के लिए प्रस्तुत नहीं हूँ कि जो हिन्दी-संसार के महाकवि हैं उनमें से किससे देव बड़े हैं और किससे छोटे। प्रत्येक विषय में प्रत्येक को महत्तव प्राप्त नहीं होता, और न सभी विषयों में सबको उत्कर्ष मिलता। अपने-अपने स्थान पर सब आदरणीय हैं, और भगवती वीणा-पाणि के सभी वर पुत्र हैं। कविवर सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास क्षणजन्मा पुरुष हैं, उनको वह उच्चपद प्राप्त है जिसके विषय में किसी को तर्क-वितर्क नहीं। इसलिए मैंने जो कुछ इस समय कथन किया है, उससे उनका कोई सम्बन्धा नहीं।

अब मैं आप लोगों के सामने देव जी की कुछ रचनाएँ उपस्थित करता हूँ। आप उनका अवलोकन करें और यह विचारें कि उनकी कविता किस कोटि की है और उसमें कितना कवि-कर्म है-

1. पाँयन नूपुर मंजु बजैं कटि

किंकिनि मैं धुनि की मधुराई।

साँवरे अंग लसै पटपीत हिये

हुलसै बनमाल सुहाई।

माथे किरीट बड़े दृग चंचल

मंद हँसी मुखचन्द जुन्हाई।

जै जग मंदिर दीपक सुन्दर

श्री ब्रज दूलह देव सहाई।

2. देव जू जो चित चाहिए नाह

तो नेह निबाहि ये देह हरयो परै।

जौ समझाइ सुझाइए राह

अमारग मैं पग धोखे धारयो परै।

नीकै मैं फीकै ह्नै ऑंसू भरो कत

ऊँचे उसास गरो क्यों भरयो परै।

रावरो रूप पियो ऍंखियान भरोसो

भरयो उबरयो सो ढरयो परै।

3. भेष भये विष भाव ते भूषन

भूख न भोजन की कछु ईछी।

मीचु की साधा न सोंधो की साधा

न दूधा सुधा दधि माखन छी छी।

चंदन तौ चितयो नहि जात

चुभी चित माहिं चितौन तिरीछी।

फूल ज्यों सूल सिला सम सेज

बिछौनन बीच बिछी जनु बीछी।

4. प्रेम पयोधि परे गहिरे अभिमान

को फेन रह्यो गहि रे मन।

कोप तरंगिनि सों बहिरे पछिताय

पुकारत क्यों बहिरे मन।

देव जू लाज-जहाज ते कूदि

रह्यो मुख मूँदि अजौं रहि रे मन।

जोरत तोरत प्रीति तुही अब

तेरी अनीति तुही सहि रे मन।

5. आवत आयु को द्योस अथोत

गये रवि त्यों ऍंधियारियै ऐहै।

दाम खरे दै खरीद करौ गुरु

मोह की गोनी न फेरि बिकैहै।

देव छितीस की छाप बिना

जमराज जगाती महादुख दैहै।

जात उठी पुर देह की पैठ अरे

बनिये बनियै नहिं रैहै।

6. ऐसो जो हौं जानतो कि जै है तू विषै के संग

एरे मन मेरे हाथ पाँव तेरे तोरतो।

आजु लौं हौं कत नरनाहन की नाहीं सुनि

नेह सों निहारि हेरि बदन निहोरतो।

चलन न देतो देव चंचल अचल करि

चाबुक चितावनीन मारि मुँह मोरतो।

भारो प्रेम पाथर नगारो दै गरे सों बाँधि

राधाबर बिरद के बारिधि में बोरतो।

7. गुरु जन जावन मिल्यो न भयो दृढ़ दधि

मथ्यो न विवेक रई देव जो बनायगो।

माखन मुकुति कहाँ छाडयो न भुगुति जहाँ

नेहबिनु सगरो सवाद खेह नायगो।

बिलखत बच्यो मूल कच्यो सच्यो लोभ भाँड़े

नच्यो कोप ऑंच पच्यो मदन छिनायगो।

पायो न सिरावनि सलिल छिमा छींटन सों

दूधा सो जनम बिनु जाने उफनायगो।

8. कथा मैं न कंथा मैं न तीरथ के पंथा मैं न

पोथी मैं न पाथ मैं न साथ की बसीती मैं।

जटा मैं न मुंडन न तिलक त्रिपुंडन न

नदी कूप कुंडन अन्हान दान रीति मैं।

पीठ मठ मंडल न कुंडलकमंडल न

मालादंड मैं न देव देहरे की भीति मैं।

आपुही अपार पारावार प्रभु पूरि रह्यो

पाइए प्रगट परमेसर प्रतीति मैं।

9. संपति में ऐंठि बैठे चौतरा अदालति के

बिपति में पैन्हि बैठे पाँय झुनझुनियाँ।

जे तो सुख-संपति तितोई दुख बिपती मैं

संपति मैं मिरजा विपति परे धुनियाँ।

संपति ते बिपति बिपति हूँ ते सपंति है

संपति औ बिपति बराबरि कै गुनियाँ।

संपति मैं काँय काँय बिपति में भाँय-भाँय

काँय काँय भाँय भाँय देखी सब दुनियाँ।

10. आई बरसाने ते बुलाई वृषभानु सुता

निरखि प्रभानि प्रभा भानुकी अथै गयी।

चक चकवान के चकाये चक चोटन सों

चौंकत चकोर चकचौंधी-सी चकै गयी।

देव नन्द नन्दन के नैनन अनन्दुमयी

नन्द जु के मंदिरनि चंदमयी छै गयी।

कंजन कलिनमयी कुंजन नलिन मयी

गोकुल की गलिन अनलिमयी कै गयी।

11. औचक अगाधा सिंधु स्याही को उमड़ि आयो।

तामैं तीनों लोक बूड़ि गये एक संग मैं।

कारे कारे आखर लिखे जू कारे कागर

सुन्यारे करि बाँचै कौन जाँचे चित भंग मैं।

ऑंखिन मैं तिमिर अमावस की रैनि जिमि

जम्बु जल बुंद जमुना जल तरंग मैं।

यों ही मन मेरो मेरे काम को न रह्यो माई

स्याम र ú ह्नै करि समायो स्याम र ú मैं।

12. रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै

साँसै भरि ऑंसू भरि कहति दई दई।

चौंकि चौंकि चकि चकि उचकि उचकि देव

जकि जकि बकि बकि परति बई बई।

दुहुँन कौ रूप गुन दोउ बरनत फिरैं

घर न थिराति रीति नेह की नई नई।

मोहि मोहि मन भयो मोहन को राधिका मैं

राधिका हूँ मोहि मोहि मोहनमयी भई।

13. जब ते कुँवर कान्ह रावरी कलानिधान

कान परी वाके कहूँ सुजस-कहानी सी।

तब ही ते देव देखी देवता सी हँसति-सी

खीझति-सी रीझति-सी रूसति रिसानी-सी।

छोही सी छली सी छीनि लीनी सी छकी सी छिन

जकी सी टकी सी लगी थकी थकरानी सी।

बीधी सी बिधी सी बिष बूड़ी सी बिमोहित सी

बैठी बाल बकति बिलोकति बिकानी सी।

14. देखे अनदेखे दुख-दानि भये सुख-दानि

सूखत न ऑंसू सुख सोइबो हरे परो।

पानि पान भोजन सुजन गुरुजन भूले

देव दुरजन लोग लरत खरे परो।

लागो कौन पाप पल ऐकौ न परति कल

दूरि गयो गेह नयो नेह नियरे परो।

हो तो जो अजान तौ न जानतो इतीकु बिथा

मेरे जिये जान तेरो जानिबो गरे परो।

15. तेरो कह्यो करिकरि जीव रह्यो जरि जरि

हारी पाँय परि परि तऊ तैं न की सम्हार।

ललन बिलोके देव पल न लगाये तब

यो कल न दीनी तैं छलन उछलनहार।

ऐसे निरमोही सों सनेह बाँधि हौं बँधाई

आपु बिधि बूडयो माँझ वाधा सिंधु निरधार।

एरे मन मेरे तैं घनेरे दुख दीने अब

ए केवार दैकै तोहिं मूँदि मारौं एक बार।

देव की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उनकी लेखनी ने उसमें साहित्यिकता की पराकाष्ठा दिखलाई है। उनकी रचनाओं में शब्द-लालित्य नर्तन करता दृष्टिगत होता है और अनुप्रास इस सरसता से आते हैं कि अलंकारों को भी अलंकृत करते जान पड़ते हैं; यह मैं स्वीकार करूँगा कि उन्होंने कहीं-कहीं अनुप्रास, यमक आदि के लोभ में पड़कर ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो गढ़े अथवा तोड़े-मरोड़े जान पड़ते हैं। परन्तु वे बहुत अल्प हैं और उनकी मनोहर रचना में आकर मनोहरता ही ग्रहण करते हैं, अमनोहर नहीं बनते। ब्रजभाषा के जितने नियम हैं उनका पालन तो उन्होंने किया ही है, प्रत्युत उसमें एक ऐसी सरस धारा भी बहा दी है जो बहुत ही मुग्धाकारी है और जिसका अनुकरण बाद के कवियों ने अधिकतर किया है। उनकी रचनाओं में अन्य प्रान्तों के भी शब्द मिल जाते हैं, इसका कारण उनका देशाटन है। परन्तु वे उनमें ऐसे बैठा ले मिलते हैं जैसे किसी सुन्दर स्वर्णाभरण में कोई नग। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कविवर देवदत्ता महाकवि थे और उनकी रचनाओं में अधिकांश महाकवि की-सी महत्ताएँ मौजूद हैं।

इस शताब्दी में देव के अतिरिक्त भिखारीदास, श्रीपति, कवीन्द्र, गुमान मिश्र, रघुनाथ, दूलह, तोष और रसलीन ये आठ प्रधान रीति ग्रन्थकार हुए हैं। वे सब ब्रजभाषा के कवि हैं, परन्तु प्रत्येक में कुछ न कुछ विशेषता है। इसलिए मैं प्रत्येक के विषय में कुछ लिख देना चाहता हूँ। मैं इस उद्देश्य से ऐसा करता हूँ कि जिससे ब्रजभाषा की परम्परा का यथार्थ और पूर्ण ज्ञान हो सके।

(1)

भिखारीदास जी गणना हिन्दी-संसार के प्रतिष्ठित रीति ग्रन्थकारों में है। उन्होंने भी काव्य के सब अंगों पर ग्रन्थ लिखे हैं और प्रत्येक विषयों का विवेचन पांडित्य के साथ किया है। कुछ नई उद्भावनाएँ भी की हैं। परन्तु ये सब बातें संस्कृत काव्य-प्रकाश आदि ग्रन्थों पर ही अवलम्बित हैं। हाँ, हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में उनकी चर्चा करने का श्रेय उन्हें अवश्य प्राप्त है। अब तक इनके नौ ग्रन्थों का पता लग चुका है जिनमें काव्य-निण्र्य और शृंगार-निर्णय विशेष प्रसिध्द हैं। ये श्रीवास्तव कायस्थ थे और प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीपति सिंह के भाई बाबू हिन्दूपति सिंह के आश्रय में रहते थे, इनकी कृति में वह ओज और माधुर्य नहीं है जैसा देवजी की रचनाओं में है, परन्तु प्रांजलता उनसे इनमें अधिक है। जैसा शब्द-संगठन देवजी की कृति में है वह इनको प्राप्त नहीं, परन्तु इनकी भाषा अवश्य परिमार्जित है। इनके ग्रन्थ की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है, और उस पर इनका पूर्ण अधिकार है। किन्तु प्रौढ़ता होने पर भी अनेक स्थानों पर इनकी रचना शिथिल है। ये कविता में विविधा प्रकार की भाषा के शब्दों के ग्रहण के पक्षपाती थे। जैसा इनके दोहों से प्रकट है-

तुलसी गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार।

इनकी रचना में मिली भाषा विविध प्रकार

ब्रजभाषा भाषा रुचिर कहै सुमति सब कोय।

मिलै संस्कृत पारसिंहुँ पै अति प्रगट जु होय

यही कारण है कि इनकी रचना में ऐसे शब्द भी मिल जाते हैं जो ब्रजभाषा के नहीं कहे जा सकते। ये अवधा प्रान्त के रहने वाले थे। इसलिए इन्होंने इच्छानुसार अवधी भाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है। फिर भी इनकी भाषा असंयत नहीं है और एक प्रकार की नियमबध्दता उसमें पाई जाती है। इनका 'काव्य निर्णय' नामक ग्रंथ साहित्य सेवियों में आदर की दृष्टि से देखा जाता है। मैं इनकी कुछ रचनाएँ नीचे लिखता हूँ। इनके द्वारा आप इनकी कविता-गत विशेषताओं को बहुत कुछ जान सकेंगे।

1. सुजस जनावै भगतन ही सों प्रेम करै

चित अति ऊजड़े भजत हरि नाम हैं।

दीन के न दुख देखै आपनो न सुख लेखै

विप्र पाप रत तन मैन मोहै धाम हैं।

जग पर जाहिर है धारम निबाहि रहै

देव दरसन ते लहत बिसराम हैं।

दास जू गनाये जे असज्जन के काम हैं

समुझि देखो येई सब सज्जन के काम हैं।

2. कढ़ि कै निसंक पैठि जात झुंड झुंडन मैं

लोगन को देखि दास आनँद पगति है।

दौरि दौरि जहीं तहीं लाल करि डारति है

अ( लगि कंठ लगिबे को उमगति है।

चमक झमकवारी ठमक जमक वारी

रमक तमकवारी जाहिर जगति है।

राम असि रावरे की रन मैं नरन मैं

निलज बनिता सी होरी खेलन लगति है।

3. नैनन को तरसैये कहाँ लौं कहाँ

लौं हियो बिरहागि मैं तैये।

एक घरी न कहूँ कल पैये कहाँ

लगि प्रानन को कलपैये।

आवै यही अब जी में विचार

सखी चलि सौतिहुँ के घर जैये।

मान घटे ते कहा घटिहै जुपै

प्रान प्रियारे को देखन पैये।

4. दृग नासा न तौ तप जाल खगी

न सुगन्धा सनेह के ख्याल खगी।

श्रुति जीहा विरागै न रागै पगी

मति रामै रँगी औ न कामै रँगी।

तप में ब्रत नेम न पूरन प्रेम न

भूति जगी न विभूति जगी।

जग जन्म बृथा तिनको जिनके

गरे सेली लगी न नवेली लगी।

5. कंज संकोच गड़े रहे कीच मैं

मीनन बोरि दियो दह नीरन।

दास कहै मृग हूँ को उदास कै

बास दियो है अरन्य गँभीरन।

आपुस मैं उपमा उपमेय ह्नै

नैन ये निंदित हैं कवि धीरन।

खंजन हूँ को उड़ाय दियो हलुके

करि डारयो अन ú के तीरन।

आप लोगों ने मतिराम के सीधो-सादे शब्द-विन्यास देखे हैं। वे न तो अनुप्रास लाने की चेष्टा करते हैं और न अलंकार पर उनकी अधिक दृष्टि है। फिर भी वैदर्भी रीति ग्रहण करके उन्होंने बड़ी सरस रचना की है। यही बात दासजी के विषय में भी कही जा सकती है। परन्तु मतिराम के शब्दों में जितना कल्लोल है, जितना संगीत है, जितना मनमोहिनी शक्ति है, उतनी दासजी की रचना में नहीं पाई जाती। उनके कोई-कोई पद्य इस प्रकार के हैं। परन्तु मतिराम के अधिकांश पद्य ऐसे ही हैं। दासजी ने श्रीपतिजी के भावों का अधिकतर अपहरण किया है और उनकी प्रणाली को ग्रहण कर अपने पद्यों में जीवन डाला है। परन्तु श्रीपति की शब्द-माला में जो मंजुलता मिलती है, दास जी में नहीं पाई जाती। फिर भी उनकी रचना कवि-कर्म से रहित नहीं है। उन्होंने 'विष्णु-पुराण' का भी अनुवाद किया है और अमरकोश का भी, जिससे पाया जाता है कि उनका संस्कृत का ज्ञान भी अच्छा था। विष्ण्ु-पुराण की रचना उतनी सरस और सुन्दर नहीं है। जितनी शृंगार-निर्णय अथवा काव्य-निर्णय की। फिर भी उसमें कवितागत सौन्दर्य है। हाँ, शिथिलता अवश्य अधिक है। दास जी का काव्य-शास्त्रा का ज्ञान उल्लेखनीय है। इसी शक्ति से उन्होंने काव्य-रचना में अपनी यथेष्ट योग्यता दिखलाई है। रीति-ग्रन्थ के जितने आचार्य हिन्दी साहित्य में हैं उनमें इनका भी आदरणीय स्थान है।

(2)

भाव-सौन्दर्य-सम्पादन और सुगठित शब्द-विन्यास करने में इस शताब्दी में देव जी के बाद श्रीपति का ही स्थान है। देवजी की रचना में कहीं-कहीं इतनी गम्भीरता है कि उसका भाव स्पष्ट करने के लिए अधिक मनोनिवेश की आवश्यकता होती है। किन्तु श्रीपतिजी की रचनाओं में यह बात नहीं पाई जाती। वह चाँदनी के समान सुविकसित है और मालती के समान प्रफुल्ल। जैसी चाँदनी सुधामई है, वैसी ही वह भी सरस है। जैसी मालती की सुरभि मुग्धाकारी है वैसी ही वह भी विमोहक है। श्रीपति जी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, उनका निवास स्थान कालपी में था। उनकी विशेषता यह है कि उनका स्वच्छन्द जीवन था और हृदय के स्वाभाविक उल्लास से वे कविता करते थे। इसलिए उनकी रचना भी उल्लासमयी है। सलिल का वह निर्मुक्त प्रवाह जो अपनी स्वतंत्रा गति से प्रवाहित होता रहता है, जैसा होता है, वैसा ही उनकी स्वत: प्रवाहिनी कविता भी है। उनका 'काव्य-सरोज' नामक ग्रंथ साहित्य-क्षेत्र में उच्च स्थान रखता है। दोषों का जैसा विशद वर्णन समालोचनात्मक दृष्टि से उन्होंने किया है वैसा उनके पहले का कोई कवि अथवा महाकवि नहीं कर सका। दोषों का इतना सूक्ष्म विवेचन उन्होंने किया है कि महाकवि केशवदास की उच्चतम रचनाएँ भी उनकी दोषदर्शक दृष्टि से न बच सकीं। इस ग्रंथ के अतिरिक्त उनके छ: ग्रन्थ और हैं जिनमें'कवि-कल्पद्रुम', 'रससागर', 'अनुप्रास-विनोद' और 'अलंकार-गंगा' विशेष उल्लेखनीय हैं। उन्होंने भी काव्य के सब अंगों का वर्णन किया है और वह भी इस शैली से, जो विशदता और विद्वत्ता से पूर्ण है, सेनापति के समान उन्होंने भी ऋतुओं का वर्णन बड़ी भावुकता के साथ किया है। परन्तु यह मैं कहूँगा कि उनके वर्णन में सरसता अधिक है उनका वर्षा का वर्णन बहुत ही हृदयग्राही है। एक विशेषता उनमें और पाई जाती है। वह यह कि उन्होंने नैतिक रचनाएँ भी की हैं और उसमें अन्योक्ति के आधार अथवा भावमय व्यंजनाओं के अवलम्बन से ऐसी भावुकता भर दी है कि उनके द्वारा हृदय अधिकतर प्रभावित होता है और उसमें सत्प्रवृत्तिा जागृत होती है। उनके इस विषय के कोई, कोई कवित्ता बड़े ही अनूठे और उपयोगी हैं, जो एक आचरणशील उपदेशक का काम यथावसर कर देते हैं। उनकी कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-

1. सारस के नादन को बाद ना सुनात कहूँ

नाहक ही बकवाद दादुर महा करै।

श्रीपति सुकबि जहाँ ओज ना सरोजन को

फूल ना फुलत जाहि चित दै चहा करै।

बकन की बानी की बिराजत है राजधानी

काई सो कलित पानी फेरत हहा करै।

घोंघन के जाल जामैं नरई सिवाल ब्याल

ऐसे पापी ताल को मराल लै कहा करै।

2. ताल फीको अजल कमल बिन जल फीको

कहत सकल कवि हवि फीको रूम को।

बिनु गुन रूप फीको , असर को कूप फीको

परम अनूप भूप फीको बिन भूम को।

श्रीपति सुकवि महा वेग बिनु तुरी फीको

जानत जहान सदा जोन्ह फीको धूम को।

मेंह फीको फागुन अबालक को गेह फीको

नेह फीको तिय को सनेह फीको सूम को।

3. तेल नीको तिल को फुलेल अजमेर ही को

साहब दलेल नीको सैल नीको चंद को।

विद्या को विवाद नीको राम गुन नाद नीको।

कोमल मधुर सदा स्वाद नीको कंद को।

गऊ नवनीत नीको ग्रीषम को सीत नीको

श्रीपति जू मीत नीको बिना फरफंद को।

जातरूप घट नीको रेसम को पट नीको

बंसीबट तट नीको नट नीको नंद को।

4. बेधा होत फूहर कलपतरु थूहर

परमहंस चूहर की होत परिपाटी को।

भूपति मँगैया होत कामधोनु गैया होत

चूवत मयंद गज चेरा होत चाटी को।

श्रीपति सुजान भनै बैरी निज बाप होत

पुन्न माहिं पाप होत साँप होत साटी को।

निर्धान कुबेर होत स्यार सम सेर होत

दिनन को फेर होत मेर होत माटी को।

5. जल भरै झूमैं मानो भूमैं परसत आय

दसहूँ दिसान घूमैं दामिनी लये लये।

धूरि धारधूमरे से धूम से धुँधारे कारे

धुरवान धारे धावैं छबि सों छये छये।

श्रीपति सुकवि कहै घोरि घोरि घहराहिं

तकत अतन तन ताप तैं तये तये।

लाल बिनु कैसे लाज चादर रहेगी आज

कादर करत मोहिं बादर नये नये।

6. हारि जात बारिजात मालती विदारि जात

वारिजात पारिजात सोधान मैं करी सी।

माखन सी मैन सी मुरारी मखमल सम

कोमल सरस तन फूलन की छरी सी।

गहगही गरुई गुराई गोरी गोरे गात

श्रीपति बिलौर सीसी ईंगुर सों भरी सी।

बिज्जु थिर धारी सी कनक-रेख करी सी

प्रवाल छबि हरी सी लसत लाल लरी सी।

7. भौंरन की भीर लैके दच्छिन समीर धीर

डोलत है मंद अब तुम धौं कितै रहे।

कहै कवि श्रीपति हो प्रबलबसंत

मति मंत मेरे कंत के सहायक जितै रहे।

जागहिं बिरह जुर जोर ते पवन ह्नै के

पर धूम भूमि पै सम्हारत नितै रहे।

रति को विलाप देखि करुना-अगार कछू

लोचन को मूंदि कै तिलोचन चितै रहे।

इनकी रचना में अनुप्रासों की कमी नहीं है, परन्तु अनुप्रास इस प्रकार से आये हैं कि शब्द-माला उनसे कंठगत पुष्पमाला समान सुसज्जित होती रहती है। वास्तव में ये ब्रजभाषा-साहित्य के आचार्य हैं और इनकी रचना भावरूपी भगवान शिव के शिर की मन्दार माला है। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें उसकी समस्त विशेषताएँ पायी जाती हैं।

कवीन्द्र (उदयनाथ) कालिदास त्रिवेदी के पुत्र थे। इनका एक ग्रन्थ 'रस-चन्द्रोदय' नामक अधिक प्रसिध्द है। पिता के समान ये भी सरस हृदय थे। अपनी रचनाओं ही के कारण इनका कई राज-दरबारों में अच्छा आदर हुआ। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसकी विशेषता यह है कि उसमें शृंगाररस का वर्णन उन्होंने बड़ी ही सरसता से किया है। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. कैसी ही लगन जामैं लगन लगाई तुम

प्रेम की पगनि के परेखे हिये कसके।

केतिको छपाय के उपाय उपजाय प्यारे

तुम ते मिलाय के चढ़ाये चोप चसके।

भनत कबिंद हमैं कुंज मैं बुलाय करि

बसे कित जाय दुख दे कर अबस के।

पगन में छाले परे , नाँघिबे को नाले परे

तऊ लाल लाले परे रावरे दरस के।

2. छिति छमता की , परिमिति मृदुता की कैधों

ताकी है अनीति सौति जनता की देह की।

सत्य की सता है सीलतरु की लता है

रसता है कै विनीत पर नीत निज नेह की।

भनत कविंद सुर नर नाग नारिन की

सिच्छा है कि इच्छा रूप रच्छन अछेह की।

पतिव्रत पारावार वारी कमला है

साधुता की कै सिला है कै कला है कुलगेह की।

'तोष' का मुख्य नाम तोषनिधि है। ये जाति के ब्राह्मण और इलाहाबाद जिले के रहने वाले थे। 'सुधानिधि' नामक नायिका-भेद का एक प्रसिध्द ग्रन्थ इन्होंने रचा। यही इनका प्रधान ग्रन्थ है। 'विनय शतक' और 'नख-शिख' नामक और दो ग्रन्थ भी इनके बताये जाते हैं। तोष की गणना ब्रजभाषा के प्रधान कवियों में होती है। इनकी विशेषता यह है कि इनकी भाषा प्रौढ़ और भावमयी है। मिश्र बन्धुओं ने इनका एक काल ही माना है और उसके अन्तर्गत बहुत से कवियों को स्थान दिया है। उन्होंने इनकी रचना को कसौटी मानकर और कवियों की रचनाओं को उसी पर कसा है। इस प्रकार जो कविता उन्होंने प्रौढ़ और गम्भीर पायी उसे तोष की श्रेणी में लिखा। अन्य हिन्दी-साहित्य का इतिहास लिखने वालों ने भी तोष को आदर्श कवि माना है। इनमें यह विशेषता अवश्य है कि इन्होंने अपनी रचनाओं में शिथिलता नहीं आने दी, और भाषा भी ऐसी लिखी जो टकसाली कही जा सकती है। उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और अधिकांश निर्दोष है। उनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं।

1. भूषन भूषित दूषन हीन

प्रवीन महारस मैं छवि छाई।

पूरी अनेक पदारथ तें जेहि

में परमारथ स्वारथ पाई।

औ उकतैं मुकतैं उलही कवि

तोष अनोखी भरी चतुराई।

होति सबै सुख की जनिता बनि

आवत जो बनिता कविताई।

2. श्रीहरि की छबि देखिबे को अखियाँ

प्रति रोमन में करि देतो।

बैनन के सुनिबे कहँ श्रौन

जितै चित तू करतो करि हेतो।

मो ढिग छोड़न काम कछू कहि

तोष यहै लिखतो बिधि ऐतो।

तौ करतार इती करनी करि कै।

कलि मैं कल कीरति लेतो।

रघुनाथ वन्दीजन महाराज काशिराज बरिवंड सिंह के राजकवि थे। उन्होंने इनको काशी के सन्निकट चौरा नामक एक ग्राम ही दे दिया था। रघुनाथ ने 'रसिक मोहन', 'काव्य कलाधार' और 'इश्क-महोत्सव' नामक ग्रन्थों की रचना की है और बिहारी सतसई की टीका भी बनाई है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने खड़ी बोलचाल में भी कुछ कविता की है। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इनके कुछ पद्य देखिए-

1. ग्वाल संग जैबो ब्रजगायन चरैबो ऐबो

अब कहा दाहिने ये नैन फरकत हैं।

मोतिन की माल वारि डारौं गुंज माल पर

कुंजन की सुधि आये हियो दरकत है।

गोबर को गारो रघुनाथ कछू याते भारो

कहा भयो पहलनि मनि मरकत है।

मंदिर हैं मदर ते ऊँचे मेरे द्वारिका के

ब्रज के खरक तऊ हिये खरकत है।

2. फूलि उठे कमल से अमल हितू के नैन

कहै रघुनाथ भरे चैन-रस सियरे।

दौरि आये भौंर से करत गुनी गान

सिध्दि से सुजान सुखसागर सों नियरे।

सुरभि सी खुलन सुकवि की सुमति लागी

चिरिया सी जागी चिन्ता जनक के जियरे।

धानुष पै ठाढ़े राम रवि से लसत आजु

भोर के से नखत नरिंद भये पियरे।

3. सूखति जात सुनी जब सों

कछु खात न पीवत कैसे धौं रैहै।

जाकी है ऐसी दसा अबहीं

रघुनाथ सो औधि अधार क्यों पैंहै।

ताते न कीजिये गौन बलाय

ल्यों गौन करे यह सीस बिसैहै।

जानत हौ दृग ओट भये तिय

प्रान उसासहिं के सँग जैंहै।

4. देखिबे को दूति पूनो के चंद की

हे रघुनाथ श्रीराधिका रानी।

आई बुलाय कै चौतरा ऊपर

ठाढ़ी भई सुख सौरभ सानी।

ऐसी गयी मिलि जोन्ह की जोत

मैं रूप की रासि न जाति बखानी।

बारन ते कछु भौंहन ते कछु

नैनन की छबि ते पहिचानी।

एक खड़ी बोली की रचना देखिए-

5. आप दरियाव पास नदियों के जाना नहीं

दरियाव पास नदी होयगी सो धावैगी।

दरखत बेलि आसरे को कभी राखत ना

दरखत ही के आसरे को बेलि पावैगी।

लायक हमारे जो था कहना सो कहा मैंने

रघुनाथ मेरी मति न्याव ही को गावैगी।

वह मुहताज आपकी है आप उसके न

आप कैसे चलो वह आप पास आवैगी।

गुमान मिश्र इसलिए प्रसिध्द हैं कि उन्होंने संस्कृत के नैषधा काव्य का अनुवाद ब्रजभाषा में किया। उनके रचे अलंकार नायिका-भेद आदि काव्य-सम्बन्धी कतिपय ग्रन्थ और 'कृष्ण-चन्द्रिका' नामक एक अन्य ग्रन्थ का भी पता चला है। परन्तु इनमें अब तक कोई प्रकाशित नहीं हुआ। ये संस्कृत के विद्वान् थे और हिन्दी भाषा पर इनका बड़ा अधिकार था। परन्तु इनका नैषधा का अनुवाद उत्ताम नहीं हुआ। उसमें स्थान-स्थान पर बड़ी जटिलता है। वाच्यार्थ भी स्पष्ट नहीं और जैसी चाहिए वैसी उसमें सरसता भी नहीं। फिर भी उसके अनेक अंश सुन्दर और मनोहर हैं। ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है किन्तु उसमें संस्कृत का पुट अधिक है। कुछ पद्य देखिए-

1. हाटक हंस चल्यो उड़ि कै नभ में

दुगुनी तन ज्योति भई।

लीक सी खैंचि गयो छन में

छहराय रही छबि सोन मई।

नैनन सों निरख्यो न बनाय कै

कै उपमा मन माँहिं लई।

स्यामल चीर मनो पसस्यो

तेहि पै कलकंचन बेलि नई।

2. दिग्गज दबत दबकत दिगपाल भूरि

धूरि की धुंधोरी सों ऍंधोरी आभा भानु की।

धाम औ धारा को माल बोल अबला को अरि

तजत परान राह चाहत परान की।

सैयद समर्थ भूप अली अकबर दल

चलत बजाय मारु दुंदुभी धुकान की।

फिरि फिरि फनसु फनीस उलटतु ऐसे

चोली खोलि ढोली ज्यों तमोली पाके पान की।

कहा जाता है कि पिता का गुण यदि पुत्र में नहीं तो पौत्र में आता है। दूलह कालिदास त्रिवेदी के पौत्र थे, किन्तु वे भाग्यवान थे कि उनके पिता कवीन्द्र भी सत्कवि थे। वास्तव में उनमें तीन पीढ़ियों द्वारा संचित कविकर्म्म का विकास था। दूलह की गणना हिन्दी-संसार के प्रसिध्द कवियों में है। उनका 'कवि-कुल-कंठाभरण' नामक अलंकार का केवल एक ग्रन्थ है,किन्तु इसी ग्रन्थ के आधार से वे ख्याति-प्राप्त हैं। उनकी कुछ स्फुट रचनाएँ भी मिलती हैं, परन्तु उनकी संख्या भी अधिक नहीं। 'कविकुल कंठाभरण' कवित्तों और सवैयों में रचा गया है। इसीलिए उसमें अलंकारों का निरूपण यथातथ्य हो सका है। उसकी प्रसिध्दि का कारण भी यही है। इसी सूत्रा से उस काल के अलंकारानुरागी कवियों में उसका अधिक आदर हुआ। ग्रन्थ की रचना साहित्यिक ब्रजभाषा में है, उसमें यथेष्ट सरसता और मनोहरता भी है। उनकी अन्य रचनाएँ भी ऐसी ही हैं। कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. उतर उतर उतकरख बखानौं ' सार '

दीरघ ते दीरघ लघू ते लघू भारी को।

सब ते मधुर ऊख ऊख ते पियूख औ

पियूख हूँ ते मधुर है अधार पियारी को।

जहाँ क्रमिकन को क्रमै ते यथा क्रम

' यथासंख्य ' नैन नैन कोन ऐसे जीवधारीको।

कोकिल ते कल कंज दल ते अदल भाव

जीत्यो जिन काम की कटारी नोकवारी को।

2. माने सनमाने तेई माने सनमाने

सनमाने सनमान सनमान पाइयतु है।

कहै कवि दूलह अजाने अपमाने

अपमान सों सदन तिनही को छाइयतु है।

जानत हैं जेऊ तेऊ जात हैं बिराने द्वार

जान बूझ भूले तिनको सुनाइयतु है।

काम बस परे कोऊ गहत गरूर है तो

अपनी जरूर जा जरूर जाइयतु है।

बेनी नाम के दो कवि हो गये हैं। दोनों बन्दीजन थे। पहले बेनी असनी के निवासी थे। इनका समय सत्राहवीं ईस्वी शताब्दी का प्रारम्भ है। ये अपनी कविता में बेनी नाम ही रखते थे। दूसरे बेनी जिला रायबरेली के थे। ये इस शताब्दी में हुए। पद्यों में अपने नाम के बाद ये प्राय: कवि भी लिखते हैं, यही दोनों की पहचान है। पहले बेनी का कोई ग्रन्थ अब तक नहीं मिला। उनकी स्फुट रचनाएँ अधिक मिलती हैं। शिवसिंह सरोजकार ने इनके एक ग्रन्थ की चर्चा की है। पर वह अब तक अप्रकाशित है। संभव है कि वह अप्राप्य हो। इनमें दूसरे बेनी के समान विशेषताएँ नहीं है। परन्तु ये एक सरस हृदय कवि थे,इनकी भाषा से रस निचुड़ा पड़ता है। इनके दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. छहरै सिरपै छवि मोर पखा

उनकी नथ के मुकता थहरैं।

फहरै पियरो पट बेनी इतै

उनकी चुनरी के झवा झहरैं।

रस रंग भिरे अभिरे हैं तमाल

दोऊ रस ख्याल चहैं लहरैं।

नित ऐसे सनेह सों राधिका

स्याम हमारे हिये में सदा बिहरैं।

2. कवि बेनी नई उनई है घटा

मोरवा बन बोलत कूकन री।

छहरैं बिजुरी छिति-मंडल छै

लहरै मन मैन भभूकन री।

पहिरौ चुनरी चुनि कै दुलही

सँग लाल के झूलहु झूकन री।

ऋतु पावस योंही बितावति हौ

मरिहौ फिर बावरी हूकन री।

दूसरे बेनी रीति-ग्रन्थकार हैं, उन्होंने 'टिकैतराय प्रकाश' और 'रसविलास', नामक दो ग्रन्थों की रचना की है। पहला ग्रन्थ अलंकार का और दूसरा रस सम्बन्धी है। भाषा इनकी भी सरस और सुन्दर है। भावानुकूल शब्द-विन्यास में ये निपुण हैं। इनमें विशेषता यह है कि इन्होंने हास्यरस की भी प्रशंसनीय रचना की है और अधिकतर उसमें व्यंग्य से काम लिया है। ये हिन्दी-संसार के 'सौदा' कहे जा सकते हैं। जैसे उर्दू कवियों में हजो कहने में सौदा का प्रधान स्थान है, उसी प्रकार किसी की हँसी उड़ाने अथवा किसी पर व्यंग्य-बाण वर्षा करने में ये भी हिन्दी कवियों के अग्रणी हैं। ये जिससे खिजे या बिगड़े उसी की गत बना दी, चाहे व कोई स्थान हो वा कोई मनुष्य। परन्तु इनकी भाषा की विशेषता सर्वथा सुरक्षित रहती है। इनकी अन्य रचनाएँ भी मनोहारिणी और ललित हैं। हाँ, चटपटी प्रकृति उनमें भी प्रतिबिम्बित मिलती है। कुछ पद्य देखिए-

1. घर घर घाट घाट बाट बाट ठाट ठटे ,

बेला औ कुबेला फिरैं चेला लिये आस पास।

कबिन सों बाद करैं भेद बिन नाद करैं ,

सदा उनमाद करैं धारम करम नास।

बेनी कबि कहै बिभिचारिन को बादसाह ,

अतन प्रकासत न सतन सरम तास।

ललना ललक नैन मैन की झलक ,

हँसि हेरत अलक रद खलक ललक दास।

इस पद्य में ललकदास एक महंत की पगड़ी उतारी गयी है-

2. कारीगर कोऊ करामात कै बनाय लायो

लीनो दाम थोरो जानि नई सुघरई है।

राय जू को राय जू रजाई दीन्हीं राजी ह्नै कै

सहर में ठौर ठौर सुहरत भई है।

बेनी कवि पाय कै अघाय रहे घरी द्वैक

कहत न बनै कछु ऐसी मति ठई है।

साँस लेत उड़िगो उपल्ला औ भितल्ला सबै

दिन द्वै के बाती हेत रूई रहि गई है।

इस पद्य में एक रायजी की गत बनाई गयी है-

3. संभु नैन जाल औ फनी को फूतकार कहा

जाके आगे महाकाल दौरत हरौली तें।

सातो चिरजीवी पुनि मारकंडे लोमस लौं

देखि कंपमान होत खोलें जब झोली तें।

गरल अनल औ प्रलय दावानल भर

बेनी कबि छेदि लेत गिरत हथोली तें।

बचन न पावैं धानवंतरि जौ आवैं।

हरगोबिंद बचावैं हरगोविंद की गोली तें।

इस पद्य में एक वैद्यजी की नाड़ी बेतरह टटोली गयी है-

4. गड़ि जात बाजी औ गयंद गन अड़ि जात

सुतुर अकड़ि जात मुसकिल गऊ की।

दाँवन उठाय पाय धोखे जो धारत कोऊ

आप गरकाप रहि जात पाग मऊ की।

बेनी कबि कहै देखि थर थर काँपै गात

रथन के पय ना विपद बरदऊ की।

बार बार कहत पुकार करतार तो सों

मीच है कबूल पै न कीच लखनऊ की।

इस पद्य में लखनऊ पर बेतरह कीच उछाली गयी है-

5. चींटी की चलावै को मसा के मुख आय जाय

साँस की पवन लागे कोसन भगत है।

ऐनक लगाय मरू मरू कै निहारे परैं

अनु परमानु की समानता खगत हैं।

बेनी कबि कहै हाल कहाँ लौं बखान करौं

मेरी जान ब्रह्म को बिचारबो सुगत है।

ऐसे आम दीन्हें दयाराम मन मोद करि

जाके आगे सरसों सुमेरु सी लगत है।

इस पद्य में बेचारे दयाराम को खटाई में डाल दिया गया है। दो पद्य इनके शान्त रस के भी देखिए-

1. पृथु नल जनक जजाति मानधाता ऐसे

केते भये भूप जस छिति पर छाइगे।

कालचक्र परे सक्र सैकरन होत जात

कहाँ लौं गनावौं बिधि बासर बिताइगे।

बेनी साज संपति समाज साज सेना कहाँ

पाँयन पसारि हाथ खोले मुख बाइगे।

छुद्र छिति पालन की गिनती गिनावै कौन

रावन से बली तेऊ बुल्ला से बिलाइगे।

2. राग कीने रंग कीने तरुनी प्रसंग कीने

हाथ कीने चीकने सुगंधा लाय चोली में।

देह कीने गेह कीने सुंदर सनेह कीने

बासर बितीत कीने नाहक ठिठोली में।

बेनी कबि कहै परमारथ न कीने मूढ़

दिना चार स्वाँग सो दिखाय चले होली में।

बोलत न डोलत न खोलत पलक हाय

काठ से पड़े हैं आज काठ की खटोली में।

दो रचनाएँ शृंगार रस की भी देखिए-

1. बिपत बिलोकत ही मुनि मन डोलि उठे

बोलि उठे , बरही बिनोद भरे बन बन।

अकल बिकल ह्नै बिकाने हैं पथिक जन

ऊर्धा मुख चातक अधोमुख मराल गन।

बेनी कबि कहत मही के महाभाग भये

सुखद संजोगिन बियोगिन के ताप तन।

कंज पुंज गंजन कृषी दल के रंजन

सो आये मान भंजन ए अंजन बरन घन।

2. करि की चुराई चाल सिंह को चुरायो लंक

ससि को चुरायो मुख नासा चोरी कीर की।

पिक को चुरायो बैन मृग को चुरायो नैन

दसन अनार हाँसी बीजुरी गँभीर की।

कहै कबि बेनी बेनी व्याल की चुराय लीनी।

रती रती सोभा सब रति के सरीर की।

अब तो कन्हैया जू को चित हूँ चुराय लीनो

छोरटी है गोरटी या चोरटी अहीर की।

इस कवि का वाच्यार्थ कितना प्रांजल है और उसके कथन में कितना प्रवाह है, इसके बतलाने की आवश्यकता नहीं, पद्य स्वयं इसको बतला रहे हैं। ये उर्दू फ़ारसी अथवा अन्य भाषा के शब्दों को जिस प्रकार अपनी रचना के ढंग में ढाल लेते हैं, वह भी प्रशंसनीय है। मेरा विचार है कि हिन्दी-साहित्य के प्रधान कवियों में भी स्थान लाभ के अधिकारी हैं।

प्रत्येक शतक में कोई न कोई सहृदय मुसलमान हिन्दी देवी की अर्चना करते दृष्टिगत होता है। सैयद गुलाम नबी (रसलीन) बिलग्रामी ऐसे ही सहृदय कवि हैं। मेरा विचार है कि अवधी की रचना में जो गौरव मलिक मुहम्मद जायसी को प्राप्त है,ब्रजभाषा की सरस रचना के लिए उसी गौरव के अधिकारी रसखान, मुबारक और रसलीन हैं। रसलीन ने 'अंग दर्पण', और 'रस प्रबोधा' नामक ग्रन्थों की रचना की है। ये अरबी फ़ारसी के नामी विद्वान् थे। फिर भी इन्होंने ब्रजभाषा में रचना की और इस निुपणता से की जो उल्लेखनीय है। इनके दोनों ग्रन्थ दोहों में हैं। पहले में अंगों का वर्णन है और दूसरे में नव रसों पर सरस और भावमयी कविता है। इनको परसी और उर्दू के शे'रों का अनुभव था जो बन्दों में ही बहुत कुछ चमत्कार दिखला जाते हैं। इसलिए इन्होंने उन्हीं का अनुकरण किया और अपने दोहों को वैसा ही चमत्कारक बनाया। इनकी सुन्दर सरस और भावमयी भाषा ब्रजभाषा देवी के चरणों पर चढ़ाने के लिए मुग्धाकर सुमनावलि-माला समान है। इनके दोहों को सुनकर यह जी कहने लगता है कि क्या कोई मुसलमान भी ऐसी टकसाली भाषा लिख सकता है? किन्तु रसलीन ने इस शंका का समाधान कर दिया है। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

1. अमी हलाहल मद भरे स्वेत स्याम रतनार।

जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवत एकबार।

2. मुख ससि निरखि चकोर अरु तन पानिप लखि मीन।

पद पंकज देखत भँवर होत नयन रसलीन।

3. सौतिन मुख निसि कमल भो पिय चख भये चकोर।

गुरुजन मन सागर भये लखि दुलहिन मुख ओर।

4. मुकुत भये घर खोय कै कानन बैठे आय।

अब घर खोवत और के कीजै कौन उपाय।

5. धारति न चौकी नग-जरी याते उर में लाइ।

छाँह परे पर पुरुष की जनि तिय धारम नसाइ।

इस शताब्दी में बहुत अधिक रीति-ग्रन्थकार हुए हैं। सबके विषय में कुछ लिखना हमारे उद्देश्य से सम्बन्धा नहीं रखता। सबकी भाषा लगभग एक ही है और एक ही विषय का वर्णन प्राय: सभी ने किया है। उनमें जो आदर्श थे और जिनमें कोई विशेषता थी उनके विषय में जो लिखना था, लिखा गया। परन्तु अब भी ऐसे कतिपय रीति-ग्रन्थकार शेष हैं, जिनका ब्रजभाषा-साहित्य में अच्छा स्थान है और प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाते हैं। सबके सविशेष वर्णन के लिए मेरे पास स्थान नहीं। हाँ, मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि उनकी रचना शैली का ज्ञान आप लोगों को करा दूँ, जिससे यह यथातथ्य ज्ञात हो सके कि इस शताब्दी में ब्रजभाषा का वास्तविक रूप क्या था इसलिए कुछ लोगों की रचनाएँ आप लोगों के सामने क्रमश: उपस्थित करताहूँ-

सूरति मिश्र आगरे के निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। ये बिहारी सतसई के प्रसिध्द टीकाकार हैं, रीति-सम्बन्धी सात-आठ ग्रन्थों की रचना भी इन्होंने की है। इनका एक पद्य देखिए-

तेरे ये कपोल बाल अति ही रसाल

मन जिनकी सदाई उपमा बिचारियत है।

कोऊ न समान जाहि कीजै उपमान

अरु बापुरे मधूकन की देह जारियत है।

नेक दरपन समता की चाह करी कहूँ

भये अपराधी ऐसो चित धारियत है।

सूरति सो याही ते जगत बीच आज हूँ लौं ,

उन के वदन पर छार डारियत है।

कृष्ण कवि बिहारीलाल के पुत्र कहे जाते हैं। इन्होंने बिहारीलाल के दोहों पर टीका की भाँति एक-एक सवैया लिखा है। वार्तिक में काव्य के समस्त अंगों का पूर्णतया निरूपण भी किया है। उनका एक पद्य देखिए-

1. थोरे ई गुन रीझते बिसराई वह बानि।

तुमहूँ कान्ह मनौं भये आजु काल्हि के दानि।

2. ह्नै अति आरत मैं बिनती ,

बहुबार करी करुना रस भीनी।

कृष्ण कृपानिधि दीन के बंधु ,

सुनी असुनी तुम काहे को कीनी।

रीझते रंचक ही गुनसों वह बानि ,

बिसारि मनो अब दीनी।

जानि परी तुम हूँ हरि जू ,

कलिकाल के दानिन की मति लीनी।

अमेठी के राजा गुरुदत्ता सिंह ने 'भूपति' नाम से कविताएँ की हैं। उनके तीन ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। 'कंठभूषण' और'रसरत्नाकर' दो रीति ग्रन्थों के अतिरिक्त उन्होंने एक सतसई भी बनाई थी। ये कवियों का बड़ा आदर सम्मान करते थे। इनकी रचनाएँ भी सरस हैं। दो दोहे देखिए-

1. घूँघट पट की आड़ दे हँसति जबै वह दार।

ससि मंडल ते कढ़ति छनि जनु पियूख की धार।

2. भये रसाल रसाल हैं भये पुहुप मकरंद।

मान सान तोरत तुरत भ्रमत भ्रमर मद मंद।

सोमनाथ माथुर ब्राह्मण थे, भरतपुर दरबार में रहते थे। इनका रस 'पियूषनिधि' नामक प्रसिध्द ग्रन्थ है, जिसमें काव्य के समस्त लक्षणों का विस्तृत वर्णन है। इनके अतिरिक्त इन्होंने एक प्रबन्धा काव्य भी लिखा है। यह सिंहासन बत्ताीसी का पद्य-बध्द रूप है। इसका नाम सृजन बिलास है। इनके दो ग्रन्थ और हैं जिनमें से एक नाटक है, जिसका नाम 'माधाव-विनोद' है। दूसरे का नाम 'लीलावती' है। 'माधाव विनोद' का नाम भर नाटक है वास्तव में वह प्रेम-सम्बन्धी प्रबंधा ग्रंथ है। इनकी रचना सुन्दर और सरस है। इनका एक पद्य देखिए-

दिसि बिदिसन ते उमड़ि मढ़ि लीन्हों नभ ,

छाँड़ि दीन्हें धुरवा जवासे जूथ जरिगे।

डहडहे भये द्रुम रंचक हवा के गुन

कहूँ कहूँ मोरवा पुकारि मोद भरिगे।

रहि गये चातक जहाँ के तहाँ देखत ही

सोमनाथ कहै बूँदा बूँदि हूँ न करिगे।

सोर भयो घोर चारों ओर महि मंडल मैं

आये घन आये घन आय कै उघरिगे।

शंभुनाथ मिश्र ने 'रस-कल्लोल', 'रस-तरंगिणी' और 'अलंकार दीपक' नामक तीन ग्रन्थ बनाये हैं। ये पतेहपुर के रहने वाले थे। इनकी रचना सुन्दर है। पर राजा भगवंत राय खीची की प्रशंसा ही उसमें अधिक है। वे उनके आश्रयदाता थे। एक पद्य देखिए-

आजु चतुरंग महाराज सेन साजत ही

धौंसा की धुकार धूर परी मुँह याही के।

भय के अजीरन ते जीरन उजीर भये

सूल उठी उर में अमीर जाही ताही के।

बीर खेत बीच बरछी लै बिरुझानो

इतै धीरज न रह्यौ संभु कौनहूँ सिपाही के।

भूप भगवंत बीर ग्वाही कै खलक सब

स्याही लाई बदन तमाम पादसाही के।

ऋषिनाथ बंदीजन और असनी के रहने वाले थे। 'अलंकार मणि मंजरी' नामक एक ग्रन्थ इन्होंने बनाया है। उसका एक पद्य देखिए। इनकी रचनाओं में प्रतिभा झलकती मिलती है-

छाया छत्रा ह्नै कर करत महिपालन को

पालन को पूरो फैलो रजत अपार है।

मुकुत उदार ह्नै लगत सुख श्रौनन में

जगत जगत हँस हास हीर हार है।

ऋषि नाथ सदानंद सुजस बलंद

तमवृंद के हरैया चंद्र चंद्रिका सुढार है।

हीतल को सीतल करत घनसार है

महीतल को पावन करत गंगधार है।

रतन कवि गढ़वाल के राजा पतेह साह के यहाँ थे। उन्होंने 'पतेहभूषण' और 'अलंकार-दर्पण' नाम के दो ग्रन्थ रचे। इनकी रचना शैली सुन्दर और विशद है। एक पद्य देखिए-

काजर की कोरवारे भारे अनियारे नैन

कारे सटकारे बार छहरे छवानि छ्वै।

स्याम सारी भीतर भभक गोरे गातन की

ओप वारी न्यारी रही बदन उँजारी ह्नै।

मृगमद बेंदी भाल अनमोल आभरन

हरन हिये की तू है रंभा रति ही अबै।

नीकै नथुनी के तैसे युगल सुहात मोती

चंद पर च्वै रहे सुमानो सुधा बुंद द्वै।

चंदन बंदीजन पुवांया के रहने वाले थे। राजा केसरीसिंह के यहाँ रहते थे। इन्होंने दस-बारह ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें से 'शृंगार-सागर' 'काव्याभरण' और 'कल्लोल तरंगिणी' अधिक प्रसिध्द हैं। इन्होंने एक प्रबन्धाकाव्य भी लिखा है जिसका नाम'शीत बसंत' है। ये परसी के भी शायर थे। इनका एक पद्य देखिए-

ब्रजवारी गँवारी दै जानै कहा यह चातुरता न लुगायन मैं।

पुनि बारिनी जानि अनारिनी है रुचि एती न चंदन नायन मैं।

छवि रंग सुरंग के बिंदु बने लगैं इन्द्रबधू लघुतायन मैं।

चित जो चहैं दी चकसी रहैं दी केहि दी मेंहदी इन पायन मैं।

देवकीनन्दन ब्राह्मण और कन्नौज के पास के रहने वाले थे। इन्होंने चार-पाँच ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें 'शृंगार चरित्रा' और 'अवधूत भूषण' अधिक प्रसिध्द हैं। इनका 'सरपराज़-चन्द्रिका' नामक ग्रंथ भी अच्छा है। इनकी भाषा टकसाली है और उसमें सहृदयता पाई जाती है। एक पद्य देखिए-

मोतिन की माल तोरि चीर सब चीरि डारे

फेरि कै न जैहों आली दुख बिकरारे हैं।

देवकी नंदन कहैं धोखे नाग छौनन के

अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरवारे हैं।

मानि मुखचंद भाव चोंच दई अधारन

तीनों ए निकुंजन में एकै तार तारे हैं।

ठौर ठौर डोलत मराल मतवारे

तैसे मोर मतवारे त्यों चकोर मतवारे हैं।

भानु कवि ने 'नरेन्द्र भूषण' नाम का एक ग्रन्थ लिखा है। उसमें विशेषता यह है कि अलंकारों के उदाहरण सब रसों के दिये हैं। इनकी रचना अच्छी है। ये बुन्देले थे। राजा रनजोर सिंह के यहाँ रहते थे। इनका एक पद्य देखिए-

घन से सघन स्याम इंदु पर छाय रहे

बैठी तहाँ असित द्विरेफन की पाँति सी।

तिनके समीप तहाँ खंज की सी जोरी लाल

आरसी से अमल निहारे बहुभाँति सी।

ताके ढिग अमल ललौहैं बिवि बिद्रुम से

फरकति ओप जामैं मोतिन की कांति सी।

भीतर ते कढ़ति मधुर बीन कैसी धुनि

सुन करि भानु परि कानन सुहाति सी।

थान कवि बंदीजन थे। इनका मुख्य नाम थानराय था। इनकी भाषा ललित है और 'दलेल प्रकाश' नामक एक रीति-ग्रन्थ भी इनका पाया जाता है। पद-विन्यास देखने से यह प्रतीति होती है कि भाषा पर इनको अच्छा अधिकार था। एक पद्य देखिए-

दासन पै दाहिनी परम हंस वाहिनी हौ ,

पोथी कर बीना सुर मंडल मढ़त है।

आसन कँवल अंग अंबर धावल

मुखचंद सो अमल रंग नवल चढ़त है।

ऐसी मातु भारती की आरती करत थान

जाको जस विधि ऐसो पंडित पढ़त है।

ताकी दया दीठि लाख पाथर निराखर के

मुख ते मधुर मंजु आखर कढ़त है।

रीति ग्रन्थकारों के बाद अब मैं उन प्रेम-मार्गी कवियों की चर्चा करूँगा जो प्रेम में मत्ता होकर अपने आन्तरिक अनुराग से ही कविता करते थे। उनका प्रेममय उल्लास उनकी पंक्तियों में विलसित मिलता है और उनके हृदय का मधुर प्रवाह प्रत्येक सहृदय को विमुग्धा बना देता है। इस शताब्दी में मुझको इस प्रकार के चार-पाँच कवि-पुúव ही ऐसे दिखलाई पड़ते हैं, जो उल्लेख योग्य हैं और जिनमें विशेषता पाई जाती है। वे हैं-घन आनन्द, नागरीदास, सीतल, बोधा और रसनिधि। क्रमश: इनका परिचय मैं आप लोगों को देता हूँ।

घन आनन्द वास्तव में आनन्द-घन थे। वे जाति के कायस्थ और निम्बार्क सम्प्रदाय के वैष्णव थे। कहा जाता है कि वे दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के मुंशी थे। ये सरस कवि तो थे ही, गान विद्या में भी निपुण थे। इनके रचे छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं, जिनमें 'सुजान-सागर', 'घनानंद कवित्ता' और 'रसकेलि-बल्ली' नामक ग्रंथ अधिक प्रसिध्द हैं। जनश्रुति है कि ये'सुजान' नामक एक वेश्या पर अनुरक्त थे। इनकी रचनाओं में उसका नाम बहुत आता है। उस वेश्या के दुर्भाव से ही इनके हृदय में विरक्ति उत्पन्न हुई और ये दिल्ली छोड़कर वृन्दावन चले गये और वहीं युगलमूर्ति के प्रेम में मत्ता होकर अपना शेष जीवन व्यतीत किया। सुना जाता है नादिरशाह ने इनके जीवन को समाप्त किया था। अन्तिम समय में इन्होंने यह रचना की थी-

बहुत दिनन की अवधि आस पास परे

खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान को।

कहि कहि आवत छबीले मन भावन को

गहि गहि राखत ही दै दै सनमान को।

झूठी बतियानि की पत्यानि ते उदास ह्नै कै

अब ना घिरत घन आनँद निदान को।

अधार लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान

चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को।

ये शुध्द ब्रजभाषा के कवि माने जाते हैं। इनका दावा भी यही है, जैसा इस पद्य से प्रकट होता है-

नेही महा ब्रजभाषा प्रवीन

औ सुन्दरता हुँ के भेद को जानै।

योग वियोग की रीति में कोविद

भावना भेद सरूप को ठानै।

चाह के रंग में भीज्यो हियो

बिछुरे मिले प्रीतम सांति न मानै।

भाषा प्रवीन सुछंद सदा रहै

जो घन जू के कबित्ता बखानै।

परन्तु मेरा विचार है कि इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा ही है, क्योंकि ये ब्रजभाषा के ठेठ शब्दों का प्रयोग करते नहीं देखे जाते। इसी प्रकार ये स्थान-स्थान पर ऐसे शब्द लिख जाते हैं जो ब्रजभाषा के नियमानुकूल नहीं कहे जा सकते। निम्नलिखित सवैया को देखिए-

हमसों हित कै कित को नितही

इत बीच वियोगहिं पोइ चले।

सु अखैबट बीज लौं फैलि परयो

बनमाली कहाँ धौं समोइ चले।

घन आनँद छाँह बितान तन्यो

हमैं ताप के आतप खोइ चले।

कबहूँ तेहि मूल तौ बैठिये आय

सुजान जो बीजहिं बोइ चले।

इस सवैया में 'पोइ', 'समोइ', 'खोइ', 'बोइ', के 'इ' के स्थान पर ब्रजभाषा के नियमानुसार यकार होना चाहिए। परन्तु इन्होंने अवधी के नियमानुसार 'इ' लिखा। इन्हीं को नहीं ब्रजभाषा के अन्य कवियों और महाकवियों को भी इस प्रकार का प्रयोग करते देखा जाता है। कविवर सूरदास जी की रचनाओं में भी ऐसे प्रयोग अधिकता से मिलते हैं। यदि कहा जाय कि प्राचीन ब्रजभाषा में ऐसे प्रयोग होते थे तो यही मानना पडेग़ा कि ब्रजभाषा में दोनों प्रकार के प्रयोग होते आये हैं। ऐसी अवस्था में यह नियम स्वीकृत नहीं हो सकता कि ऐसे स्थलों पर अवधी में जहाँ 'इ' का प्रयोग होता है, ब्रजभाषा में 'य' लिखा जाता है। मैं तो देखता हूँ कि सूरदास के समय से अब तक के ब्रजभाषा के कवि दोनों प्रयोग करते आये हैं और इसीलिए मैं घन आनन्द की भाषा को भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही मानता हूँ। घन आनन्दजी की भाषा में इतनी विशेषता अवश्य है कि उसमें ब्रजभाषा सम्बन्धी प्रयोग ही अधिक पाये जाते हैं। यह दिखलाने के लिए कि वे 'इ' के स्थान पर 'य' का प्रयोग भी करते हैं,मैं नीचे एक पद्य और लिखता हूँ। उसके चिद्दित शब्दों को देखिए-

तब तो दुरि दूरहिं ते मुसुकाय

बचाय कै और की दीठि हँसे।

दरसाय मनोज की मूरति ऐसी

रचाय कै नैनन मैं सरसे।

अब तौ उर माहिं बसाय कै मारत

ए जू बिसासी कहाँ धौं बसे।

कछु नेह निबाह न जानत हे तौ

सनेह की धार मैं काहें धाँसे।

घन आनन्द जी के पद्यों की यह विशेषता है कि उससे रस निचुड़ा पड़ता है। जो वे कहते हैं इस ढú से कहते हैं कि उनकी पंक्तियों में उनके आन्तरिक अनुराग की धारा बहने लगती है। उनके पद्य का एक-एक शब्द ऐसा ज्ञात होता है कि साँचे में ढला हुआ है और उसमें उनके भाव दर्पण में बिम्ब के समान प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। इनके समस्त ग्रन्थों की रचना वैदर्भी वृत्तिा में है। इसीलिए उनमें सरसता और मनोहरता भी अधिक पायी जाती है। ब्रजभाषा के मुहावरों और बोलचाल की मधुरताओं को उन्होंने जिस सफलता से अंकित किया है, वैसी सफलता कुछ महाकवियों को ही प्राप्त हुई है। उन्होंने अपनी'बिरह लीला' अरबी शब्द में लिखी है, जिससे यह पाया जाता है कि उस समय अरबी शब्द भी हिन्दी रचना में स्थान पाने लगे थे। इनके कुछ सरस और हृदयग्राही पद्य और देखिए-

1. गुरनि बतायो राधा मोहन हूँ गायो

सदा सुखद सुहायो वृन्दावन गाढ़े गहुरे।

अद्भुत अभूत महि मंडन परे ते परे

जीवन को लाहु हाहा क्यों न ताहि लहुरे।

आनँद को घन छायो रहत निरंतर ही

सरस सुदेय सों पपीहा पन बहुरे।

जमुना के तीर केलि कोलाहल भीर

ऐसे पावन पुलिन पर पतित परि रहु रे।

2. अति सूधो सनेह को मारग है

जहाँ नेको सयानप बाँक नहीं।

तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ

झिझकैं कपटी जै निसाँक नहीं।

घन आनँद प्यारे सुजान सुनो

इत एक ते दूसरो ऑंक नहीं।

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला

मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।

3. पर कारज देह को धारे फिरौ

परजन्य यथारथ ह्नै दरसौ।

निधि नीर सुधा के समान करौ

सब ही बिधि सज्जनता सरसौ।

घन आनँद जीवन दायक हौ।

कछु मेरीयौ पीर हिये परसौ।

कबहूँ वा बिसासी सुजान के ऑंगन

मो ऍंसुआन को लै बरसौ

4. पहले अपनाय सुजान सनेह सों

क्यों फिर नेह कौ तोरिये जू।

निरधार अधार दै धार मँझार

दई गहि बाँह न बोरिये जू।

घन आनँद आपने चातक को

गुन बाँधि कै मोह न छोरिये जू।

रस प्याय कै ज्याय बँधाय कै

आस बिसास में क्यों विष घोरिये जू।

उर्दू का एक शेर है, 'काग़ज़ पै रख दिया है कलेजा निकाल कर'। सच्ची बात यह है कि घन आनन्द जी कागज पर कलेजा निकालकर रख देते हैं। एक नायिका कहती है कि 'काढ़ि करेजो दिखैबो परो'। मैं सोचता हूँ, यदि उस नायिका के पास घन आनन्द की सी सरस रचना की शक्ति होती तो उसको यह न कहना पड़ता। इनका वाच्यार्थ जितना प्रांजल है, उतनी ही उसमें कसक है। दोनों के समागम से इनकी रचना में मणि-कांचन-योग हो गया है। वियोग-शृंगार की रचना में इन्होंने जो वेदना उत्पन्न की है, ऐसा कौन है कि जिसके हृदय पर वह प्रभाव नहीं डालती। वास्तव में घन आनन्द जी ने इस प्रकार की रचना करने में बड़ी सफलता लाभ की है। इनकी कृति में आन्तरिक पीड़ा प्रवाहित मिलती है, परंतु हृदयों में वह सृजन करती है विचित्रा मधुरता।

नागरीदास जी कृष्णगढ़ के महाराज थे। इनका मुख्य नाम सामंत सिंह था। वीर इतने बडे थे कि बूँदी के हाड़ा राजा को समर में पराजित कर स्वर्ग लोक पहुँचाया। साहसी इतने बड़े कि अपने छिन गये राज्य को भी अपने पौरुष से पुन: प्राप्त कर लिया। किंतु त्याग उनमें बड़ा था और भगवान कृष्णचन्द्र की भक्ति उत्तारोत्तार वृध्दि पा रही थी। इसलिए उन्होंने राज्य को तृण समान त्यागा और वृंदावन धाम में पधार कर भगवल्लीला में तल्लीन हो गये। जब तक जिये, कृष्ण-भक्ति-सुधा पान कर जिये, राज्य भोगों और विभवों की ओर फूटी ऑंख से भी नहीं देखा। राज्य सिंहासन से उनको ब्रज रज प्यारी थी और राजसी ठाटों से भक्तिमयी भावना। उनमें तदीयता इतनी थी कि वे सदा भगवद्भजन में ही मत्ता रहते और संसार के समस्त सुखों की ओर ऑंख उठाकर भी न देखते। राजा-महाराजों में ऐसा सच्चा त्यागी कोई दृष्टिगत नहीं होता। वे गोस्वामी हित हरिवंश वा चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय में थे अतएव उन्हीं के समान उनमें आत्म-विस्मृति भी थी। वे दिन-रात भगवद्गुणगान में रत रहते और हरि-यश वर्णन करके स्वर्गीय आनन्द लाभ करते मिलते। उनकी यह वृत्तिा उनकी समस्त रचनाओं में दृष्टिगत होती है। उन्होंने लगभग सत्तार-बहत्तार ग्रंथों की रचना की है। परन्तु उन सबमें ललित पदों में भगवल्लीला ही वर्णित है। अधिकांश ग्रंथ ऐसे ही हैं कि जिनमें थोड़े से पद्यों में भगवान की किसी लीला का गान है। इन ग्रन्थों की भाषा यद्यपि सरस ब्रजभाषा है फिर भी उसमें कहीं-कहीं राजस्थानी भाषा के शब्द भी मिल जाते हैं। इनके पदों में बहुत अधिक मोहकता एवं मधुरता है। सवैयाओं में भी बड़ा लालित्य है। अन्य रचनाएँ इस कोटि की नहीं हैं। परन्तु प्रेमधारा उनमें भी बहती मिलती है, जिनकी अनेक भावों की तरंगें बड़ी ही मुग्धाकारी हैं। ब्रजभाषा की जितनी विशेषताएँ हैं वे सब उनकी रचनाओं में मिलती हैं और कहीं-कहीं उनमें ऐसी अनूठी उक्तियाँ पाई जाती हैं जो स्वर्णाभरण में मणि सी जटित जान पड़ती हैं। कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-

1. उज्जल पख की रैन चैन उज्जल रस दैनी।

उदित भयो उडुराज अरुन दुति मन हर लैनी।

महाकुपित ह्नै काम ब्रह्म अ ò हिं छोड़यो मनु।

प्राची दिसि ते प्रजुलित आवति अगिनि उठी जनु।

दहन मानपुर भये मिलन को मन हुलसावत।

छावत छपा अमंद चंद ज्यों ज्यों नभ आवत।

जगमगाति बन जोति सोत अमृत धारा से।

नव द्रुम किसलय दलनि चारु चमकति तारा से।

स्वेत रजत की रैन चैन चित मैन उमहनी।

तैसी मंद सुगंधा पवन दिन मनि दुख दहनी।

सिला सिला प्रति चंद चमकि किरननि छवि छाई।

विच विच अंब कदंब झंब झुकि पायँन आई।

ठौर ठौर चहुँ फेर ढेर फूलन के सोहत।

करत सुगंधित पवन सहज मन मोहत जोहत।

ठौर ठौर लखि ठौर रहत मनमथ सो भारी।

बिहरत बिबिधा बिहार तहाँ गिरिवर गिरधारी।

2. भादौं की कारी ऍंधयारी निसा

झुकि बादर मंद फुही बरसावै।

स्यामा जू आपनी ऊँची अटा पै

छकी रसरीति मलारहिं गावै।

ता समै मोहन कौ दृग दूरि ते

आतुर रूप की भीख यों पावै।

पौन मया करि घूँघट टारै

दया कर दामिनि दाप दिखावै।

3. जौ मेरे तन होते दोय।

मैं काहू ते कछु नहिं कहतो

मोते कछु कहतो नहिं कोय।

एक जो तन हरि विमुखन के

सँग रहतो देस बिदेस।

विविधा भाँति के जब दुख सुख

जहँ नहीं भक्ति लवलेस।

एक जो तन सतसंग रंग रँगि

रहतो अति सुखपूर।

जनम सफल करि लेतो ब्रज

बसि जहँ ब्रज जीवन मूर।

द्वै तन बिन द्वै काज न ह्नै हैं

आयु तौ छिन छिन छीजै।

नागरिदास एक तन ते अब

कहौ काह करि लीजै।

आपको परसी भाषा का अच्छा ज्ञान था। इसलिए कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जिनमें परसी शब्दों का प्रयोग अधिकता से है। इन्होंने 'इश्क चमन'नाम का एक ग्रन्थ भी लिखा था। कुछ उसके पद्य भी देखिए-

1. इश्व चमन महबूब का वहाँ न जावै कोय।

जावै सौ जीवै नहीं जियै सो बौरा होय।

2. ऐ तबीब उठि जाहु घर अबस छुवै का हाथ।

चढ़ी इश्व की कैप यह उतरै सिर के साथ।

3. सब महज़ब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद।

अरे इश्व के असर बिन ये सब ही बरबाद।

4. आया इश्व लपेट में लागी चश्म चपेट।

सोई आया खलक में और भरैं सब पेट।

नागरीदास की सहचरी 'बनी ठनी' नाम की एक स्त्री थी। उनके सतसंग से वह भी युगल मूर्ति के प्रेम की प्र्रेमिका थी और उन्हीं के समान सरस रचना करती थी। परंतु उसकी रचना में राजस्थानी शब्द अधिक आये हैं। एक पद्य देखिए-

रतनारी हो थारी आखड़ियाँ

प्रेम छकी रस बस अलसाणी

जाणि कमल की पाँखड़ियाँ।

सुंदर रूप लुभाई गति मति

हो गईं ज्यों मधु माखड़ियाँ।

रसिक बिहारी वारी प्यारी

कौन बसे निसि काँखड़ियाँ।

स्वामी हरिवंस के टट्टी सम्प्रदाय में एक महन्त शीतल नाम के हो गये हैं। इन्होंने इश्कचमन नाम की एक पुस्तक चार भागों में लिखी है। ये संस्कृत के विद्वान थे और परसी का भी इन्हें अच्छा ज्ञान था। ये टट्टी सम्प्रदाय के महन्त तो थे ही, साथ ही प्रेममय हृदय के अधिकारी थे। इनकी रचना खड़ी बोली में हुई है, जिसमें परसी और ब्रजभाषा के शब्द भी अधिक आये हैं। हिन्दी में खड़ी बोली की नींव डालने वाले प्रथम पुरुष यही हैं। इनकी भाषा ओजमयी और रचना शैली सरस है,भाषा में प्रवाह है और कविता पढ़ते समय यह ज्ञात होता है कि सरस साहित्य का दरिया उमड़ता आ रहा है। इनमें लगन मिलती है और इनका प्रेम भी तन्मयता तक पहुँचा ज्ञात होता है। इस शताब्दी में यही एक ऐसे कवि पाये गये जिन्होंने ब्रजभाषा में कविता की ही नहीं! फिर भी इनकी रचना में ब्रजभाषा का पुट कम नहीं। इनकी रचनाओं में भक्ति की मर्म-स्पर्शिनी मधुरता नहीं पायी जाती। परन्तु उनका मानसिक उद्गार ओजस्वी है, जिसमें मनस्विता की पूरी मात्रा मिलती है। प्रेम के जिस सरस उद्यान में घूमकर रसखान और घन आनन्द बड़े सुन्दर कुसुम चयन कर सके, उसमें इनका प्रवेश जैसा चाहिए वैसा नहीं। इनकी रचना में संस्कृत तत्सम शब्दों का बाहुल्य है। मैं समझता हूँ, वह वर्तमान खड़ी बोली कविता के पूर्व रूप की सूचना है।

इन्होंने इच्छानुसार लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु बनाया है और संस्कृत के तत्सम शब्दों को यत्रा-तत्रा ब्रजभाषा के रूप में भी ग्रहण किया है। एक बात और इनमें देखी जाती है। वह यह कि नायिका के शिख-नख से सम्बन्धा रखने वाले कतिपय परसी उपमानों को भी इन्होंने अपनी रचना में ग्रहण कर लिया है, जैसा इनके पहले के किसी हिन्दी के कवि अथवा महाकवि ने नहीं किया था। उन्होंने शब्दों को इच्छानुसार तोड़ा-मरोड़ा भी है और कई प्रान्तिक शब्दों से भी काम लिया है। इनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं। उनको पढ़िए और चिद्दित शब्दों पर विचार भी करते जाइए-

1. शिव विष्णु ईश बहु रूप तुई A

नभ तारा चारु सुधाकर है।

अंबा धारानल शक्ति स्वधा

स्वाहा जल पौन दिवाकर है।

हम अंशाअंश समझते हैं

सब ख़ाक जाल से पाक रहैं।

सुन लाल बिहारी ललित ललन

हम तो तेरे ही चाकर हैं।

2. कारन कारज ले न्याय कहै

जोतिस मत रवि गुरु ससी कहा।

ज़ाहिद ने हक्व हसन यूसुप

अरहन्त जैन छवि बसी कहा।

रति राज रूप रस प्रेम इश्व

जानी छवि शोभा लसी कहा।

लाला हम तुम को वह जाना जो

ब्रह्म तत्व त्वम असी कहा।

3. मुख सरद चन्द पर ठहर गया।

जानी के बुंद पसीने का।

या कुन्दन कमल कली ऊपर

झमकाहट रक्खा मीने का।

देखे से होश कहाँ रहवै जो

पिदर बूअली सीने का।

या लाल बदख्शाँ पर खींचा

चौका इल्मास नगीने का।

4. हम खूब तरह से जान गये

जैसा आनँद का कन्द किया।

सब रूप सील गुन तेज पुंज

तेरे ही तन में बन्द किया।

तुझ हुस्न प्रभा की बाकी ले

फिर विधि ने यह फरफन्द किया।

चंपकदल सोनजुही नरगिस

चामीकर चपला चंद किया।

5. मुख सरद चन्द्र पर ò मसीकर

जगमगैं नखत गन जोती से।

कै दल गुलाब पर शबनम

के हैं कनके रूप उदोती से।

हीरे की कनियाँ मंद लगै हैं

सुधा किरन के मोती से।

आया है मदन आरती को

धार कनक थार में मोती से।

6. चंदन की चौकी चारु पड़ी

सोता था सब गुन जटा हुआ।

चौके की चमक अधार बिहँसन

मानो एक दाड़िम फटा हुआ।

ऐसे में ग्रहन समै सीतल इक

ख्याल बड़ा अटपटा हुआ।

भूतल ते नभ नभ ते अवनी ,

अग उछलै नट का बटा हुआ।

इनकी कविता की भाषा कवि-कल्पित स्वतंत्रा भाषा है। उसमें किसी भाषा के नियम की रक्षा नहीं की गयी है। सौन्दर्य के लिए हमारे यहाँ काम उपमान बनता है, परन्तु इन्होंने यूसुप को उपमान बनाया। यह परसी का अनुकरण है। इसी प्रकार की काव्य-नियम-सम्बन्धी अनेक अवहेलनाएँ इनकी रचना में पायी जाती हैं। परन्तु यह अवश्य है कि ये इस विचित्राता के पहले उद्भावक हैं।

बोधा प्रेमी जीव थे; कहा जाता है प्रेम अन्धा होता है (Love is Blind) प्रेम क्यों अन्धा होता है? इसलिए कि वह अपने रंग में मस्त होकर केवल अपने प्रेम पात्रा को देखता है, और किसी को नहीं, संसार को भी नहीं। इसीलिए वह अन्धा है। जब किसी का प्रेम वास्तविक रूप से हृदय में जाग्रत् हो जाता है, उस समय न तो हम उसके गुण-दोष को देखते हैं, न उसके व्यवहार की परवा करते हैं, न उसकी कठोरता को कठोरता मानते हैं, न उसकी कटुता को कटुता समझते हैं, और न उसकी पशुता को पशुता। प्रेमोन्माद में न तो हम लोक-मर्यादा का धयान करते हैं, न शिष्टता का, न कुल-परम्परा का, न इस बात का कि हमको संसार क्या कहता है। यदि यह अंधापन नहीं है तो क्या है। यदि यह प्रेम ईश्वरोन्मुख हो तो उसमें यह शक्ति होती है कि वह दुर्गुण को गुण बना देता है, पशुता को मानवता में बदल देता है, दुर्जनता को सुजनता में परिणत कर देता है और इस बात का अनुभव कराता है कि 'सर्वंखल्विदं ब्रह्म' जो कुछ विश्व में है, ब्रह्म है। अतएव उसका संसार सोने का हो जाता है और सब ओर उसको 'सत्यं शिवं सुंदरं' दृष्टिगत होता है। किंतु जब यह प्रेम मनुष्य तक ही परिमित होता है तो उसमें स्वार्थपरता की बू आने लगती है और मनुष्य का इतना पतन हो जाता है कि वह उस उच्च सोपान पर नहीं चढ़ सकता जो जीवन को स्वर्गीय बना देता है। 'घन-आनन्द', 'रसखान' का आदिम जीवन कैसा ही रहा हो, यौवन-प्रमाद उनको कुछ काल के लिए भले ही भ्रांत बना सका हो, किन्तु उनका अन्तिम जीवन उज्ज्वल है और वे उस महान-हृदय के समान हैं, जो पथ-च्युत होकर भी अंत में सत्पथावलंबी हो जाता है। मानव-प्रेम यदि उच्च होकर आदर्श प्रेम में परिणत हो जाये तो वह मानव-प्रेम अभिनन्दनीय है। जिस मानव-प्रेम में स्वार्थ की बू नहीं, वासनाओं का विकार नहीं, इन्द्रिय-लोलुपता की कालिमा नहीं, लोभ-लिप्सा का प्रलोभन नहीं,र् कर्तव्य-ज्ञान की अवहेलना नहीं, वह स्वर्गीय है और उसमें लोक-कल्याण की विभूति विद्यमान है। इसीलिए यह वांछनीय है। दुख है कि प्रेमिक जीव होने पर भी बोधा इस तत्तव को यथातथ्य नहीं समझ सकते। वे सरयूपारीण ब्राह्मण थे, परन्तु एक यवनी के प्रेम में ऐसे उन्मत्ता हुए कि अपनी कुल-मर्यादा को ही नहीं विसर्जन कर दिया,अपनी आत्मानुभूति को भी तिलांजलि दे दी। उनके मुख से प्रेम-मंत्रा-स्वरूप जब निकलता है तब 'सुभानअल्लाह' निकलता है। उनके पद्यों में 'सुभान' ही का गुणगान मिलता है। उसमें ईश्वरानुराग की गंधा भी नहीं आती। अच्छा होता यदि उन्होंने उस पंथ को स्वीकार किया होता, जिसको घनानंद और रसखान ने मानवी प्रेमोन्माद की समाप्ति पर ग्रहण किया, संतोष इतना ही है कि उन्होंने अपने धर्म को उस पर उत्सर्ग नहीं किया। हम अपने क्षोभ का शासन उसी से करते हैं। बोधा अपनी धुन के पक्के थे। प्रेम उनकी रग-रग में भरा था। उनमें जब इतनी आत्म-विस्मृति हो गयी थी कि वे सुभान के अभाव में संसार को अन्धाकारमय देखते थे और वही उनकी स्वर्गीय विभूति थी तो लोक-परलोक से उनका सम्बन्धा ही क्या था? देखिए, वे प्रेम के कंटकाकीर्ण मार्ग का चित्राण किस प्रकार करते हैं-

1. अति खीन मृनाल के तारहुँ ते

तेहि ऊपर पाँव दै आवनो है।

सुई बेह हूँ बेधि सकी न तहाँ

परतीति को टाँडो लदावनो है।

कवि बोधा अनी घनी नेजहुँ की

चढ़ितापै न चित्ता डगावनो है।

यह प्रेम को पंथ करार महा

तरवार की धार पै धावनो है।

2. लोक की लाज औ सोक प्रलोक को

वारिये प्रीति के ऊपर दोऊ।

गाँव को गेह को देह को नातो

सनेह में हाँ तो करै पुनि सोऊ।

बोधा सुनीति निबाह करै

धार ऊपर जाके नहीं सिर होऊ।

लोक की भीति डेरात जो मीत

तो प्रीति के पैंडे परै जनि कोऊ।

कवि के लिए सहृदय होना प्रधान गुण है। जिसका हृदय स्वभावत: द्रवणशील नहीं, जिसके हृदय में भावों का विकास नहीं, उसकी रचना में वह बात नहीं होती जिसको मर्मस्पर्शी कहा जाता है। बोधा की अधिकांश रचनाएँ ऐसी ही हैं, जिनसे उनका सरस हृदय कवि होना सिध्द है। उनके दो ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। एक का नाम 'विरह वारीश' और दूसरे का 'इश्वनामा'। इन दोनों में उन्होंने प्रेम सम्बन्धी सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों का बड़ा ही सुन्दर चित्राण किया है। इश्वनामा सुभान की प्रशंसा से पूर्ण है। उनके कुछ मानसिक उद्गार ऐसे हैं जिनमें भावुकता की मात्रा अधिक पाई जाती है। उनका वाच्यार्थ बहुत साप है। उनकी भाषा ललित ब्रजभाषा है यद्यपि उसमें कहीं-कहीं खड़ी बोली के प्रयोग भी मिल जाते हैं। उनकी रचना में जितने शब्द आते हैं वे उनके हृदय के रंग में रँगे होते हैं। इसलिए यदि वे कहीं शब्दों को तोड़-मरोड़ देते हैं या अन्य भाषा के शब्दों को लाते हैं तो उनका प्रयोग इस प्रकार करते हैं जिससे वे उनकी शैली के ढंग में ढले मिलते हैं। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

1. एक सुभान के आनन पै

कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को।

कैयो सतक्रतु की पदवी लुटिये

लखिकै मुसकाहट ताको।

सोक जरा गुजरा न जहाँ कबि

बोधा जहाँ उजरा न तहाँ को।

जान मिलै तो जहान मिलै नहिं जान

मिलै तो जहान कहाँ को।

2. बोधा किसू सों कहा कहिये ,

सो बिथा सुनि पूरि रहै अरगाइ कै।

याते भलो मुख मौन धारैं उपचार

करैं कहूँ औसर पाई कै।

ऐसो न कोऊ मिल्यो कबहूँ

जो कहै कछु रंच दया उर लाइ कै।

आवत है मुखलौं बढ़ि कै

फिर पीर रहै या सरीर समाइ कै।

3. कबहूँ मिलिबो कबहूँ मिलिबो

यह धीरज ही में धारैबो करैं।

उर ते कढ़ि आवै गरेते फिरै

मन की मन ही में सिरैबो करै।

कवि बोधा न चाव सरो कबहूँ

नितहूँ हरबा से हरैबो करै।

सहतेइ बनै करते न बनै

मन ही मन पीर पिरैबो करै।

4. हिलि मिलि जानै तासों मिलि कै जनावै हेत ,

हित को न जानै ताको हितू न बिसाहिये।

होय मगरूर तापै दूनी मगरूरी कीजै

लघु ह्नै चलै जो तासों लघुता निबाहिये।

बोधा कवि नीति को निबेरो यही भाँति अहै

आप को सराहै ताहि आप हूँ सराहिये।

दाता कहा सूर कहा सुन्दर सुजान कहा

आप को न चाहै ताके बाप को न चाहिए।

रसनिधि का मुख्य नाम पृथ्वी सिंह था। वे दतिया राज्य के एक जागीरदार थे। उनका रचा हुआ 'रतन हज़ारा' नामक एक ग्रन्थ है। यह बिहारी सतसई के अनुकरण से लिखा गया है। बिहारी के दोहों से टक्कर लेने की इसमें चेष्ट की गई है। किन्तु कवि को इसमें सफलता नहीं प्राप्त हुई उनके कुछ दोहे अवश्य सुन्दर हैं उन्होंने 'अरिल्लों' और 'माझों' की भी रचना की है, वे भी संगृहीत हो चुके हैं। उनके कुछ स्फुट दोहे भी हैं। वे शृंगार रस के ही कवि थे। अन्य रसों की ओर उनकी दृष्टि कम गई। महंत सीतल की तरह वे भी परसी के शब्दों, मुहावरों, उपमाओं और मुस्लिम संसार के आदर्श पुरुषों के भी प्रेमी थे। अपनी रचनाओं में यथास्थान उन्होंने उनको ग्रहण किया है। उनकी कविता की भाषा ब्रजभाषा है परन्तु उन्होंने अन्य भाषा के शब्दों का व्यवहार भी स्वतंत्रातापूर्वक किया है। बिहारी लाल के भावों ही की नहीं, उनके शब्दों और वाक्यों तक को आवश्यकतानुसार ले लिया है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि रसनिधि चाहे रसनिधि न हों पर वे रसिक हृदय अवश्य थे। उनकी अनेक रचनाएँ सरस हैं और उनमें मधुरता पाई जाती है, उन्होंने परसी के कुछ ऐसे विषय भी ले लिये हैं जो अशिष्ट कहे जा सकते हैं। किन्तु उनकी मात्रा थोड़ी है। उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

1. रसनिधि वाके कहत हैं याही ते करतार।

रहत निरंतर जगत कों वाही के करतार।

2. हित करियत यहि भाँति सों मिलियत है वहि भाँति।

छीर नीर तैं पूछ लै हित करिबे की बात।

3. सुन्दर जोबन रूप जो बसुधा में न समाइ।

दृग तारन तिल बिच तिन्हैं नेही धारत लुकाइ।

4. मन गयंद छबि सद छके तोर जँजीरन जात।

हित के झीने तार सों सहजै ही बँधि जात।

5. उड़ो फिरत जो तृणसम जहाँ तहाँ बेकाम।

ऐसे हरुए कौ धारयो कहा जान मन नाम।

6. अद्भुत गति यह प्रेम की लखो सनेही आइ।

जुरै कहूँ , टूटै कहूँ , कहूँ गाँठ परि जाइ।

7. कहनावत मैं यह सुनी पोषत तन को नेह।

नेह लगाये अब लगी सूखन सगरी देह।

8. यह बूझन को नैन ये लग लग कानन जात।

काहू के मुख तुम सुनी पिय आवन की बात।

9. जेहि मग दौरत निरदई तेरे नैन कजाक

तेहि मग फिरत सनेहिया किये गरेबाँ चाक

10. लेउ न मजनूँ गोर ढिग कोऊ लैला नाम।

दरदवंत को नेक तौ लैन देउ बिसराम।

इन पद्यों में से छठे दोहे का उत्तारार्ध्द अक्षरश: बिहारीलाल के दोहे से ग्रहण कर लिया गया है। नौवें दोहे में 'गरेबाँ चाक'बिलकुल परसी का मुहावरा है। दसवें दोहे में लैला मजनूँ मुस्लिम संसार के प्रेमी और प्रेमिका हैं, जिनकी चर्चा कवि ने अपनी रचना में की है। ब्रजभाषा के नियमों का भी इन्होंने कहीं-कहीं त्याग किया है। चौथे दोहे के 'तोर' पाँचवें दोहे के 'जान'और आठवें दोहे के 'लग लग' शब्दों के अन्तिम अक्षरों की ब्रजभाषा के नियमानुसार इकार युक्त होना चाहिए। कवि ने ऐसा नहीं किया। दसवें दोहे का 'दरदवंत' शब्द भी इन्होंने गढ़ लिया है। 'दरद' परसी शब्द है और 'वंत' संस्कृत प्रत्यय है इन दोनों को मिलाकर जो कर्तृवाचक संज्ञा बनाई गई वह उनकी निरंकुशता है। इस प्रकार की शब्द-रचना युक्ति-संगत नहीं। उनकी रचना में इस तरह की बातें अधिकतर पाई जाती हैं। फिर भी वह आदरणीय कही जा सकती हैं।

इस शताब्दी के नीतिकार कवि, वृन्द, बैताल, गिरधार कविराय और घाघ हैं। इनकी रचनाओं ने हिन्दी संसार में नूतनता उत्पन्न की है, अच्छे-अच्छे उपदेशों और हितकर वाक्यों से उसे अलंकृत किया है। इसलिए मैं इन लोगों के विषय में भी कुछ लिख देना आवश्यक समझता हूँ। इस उद्देश्य से भी इन लोगों के विषय में कुछ लिखने की आवश्यकता है, जिससे यह प्रकट हो सके कि अठारहवीं शताब्दी में कुछ ऐसे नीतिकार कवि भी हुए जिन्होंने अपना स्वतन्त्रा पथ रक्खा, फिर भी उनकी रचना में ब्रजभाषा का पुट पाया जाता है। समाज के लिए नीति सम्बन्धी शिक्षा की भी यथासमय आवश्यकता होती है। इन कवियों ने इस बात को समझा और साहित्य के इस अंग की पूर्ति की, इसलिए भी उनकी चर्चा यहाँ आवश्यक है।

वृन्द औरंगजेब के दरबारी कवि थे। यह देखा जाता है कि अकबर के समय से ही मुगल सम्राटों के दरबार में कुछ हिन्दी कवियों का सम्मान होता आया है। अकबर के बाद जहाँगीर और शाहजहाँ के दरबारों में भी हिन्दी-सत्कवि मौजूद थे। इसी सूत्रा से औरंगजेब के दरबार में भी वृन्द का सम्मान था। औरंगजेब के पौत्र अजीमुश्शान ने ब्रजभाषा और उर्दू दोनों में अच्छी रचनाएँ की हैं। वृन्द प्राय: उन्हीं के साथ रहते थे। अजीमुश्शान बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा का सूबेदार था। वह ढाके में रहता था और वृन्द को भी अपने साथ ही रखता था। बिहारीलाल ने यदि शृंगार रस की सतसई बनाई तो वृन्द ने नीति सम्बन्धी विषयों पर सतसई की रचना कर ब्रजभाषा को एक उपयोगी उपहार अर्पण किया। कहा जाता है कि वृन्द संस्कृत और भाषा के विद्वान् थे और गौड़ ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। वे कृष्णगढ़ के राजा राजसिंह के गुरु थे; मारवाड़ प्रान्त उनका जन्म स्थान था। वृन्द के तीन ग्रन्थ बतलाये जाते हैं, 'शृंगार शिक्षा', 'भाव-पंचाशिका' और 'वृन्द सतसई'। प्रधानता वृन्दसतसई को ही प्राप्त है, यही उनका प्रसिध्द ग्रन्थ है। उनकी रचनाएँ सरस एवं भावमयी हैं और कोमल शब्दों में की गई हैं। उनका वाच्यार्थ प्रा)ल है और कथन-शैली मनोहर। उपयोगिता की दृष्टि से वृन्द सतसई आदरणीय ग्रन्थ है, उसका यथेष्ट सम्मान हुआ भी। ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। नीति विषयक रचना होने पर भी वह कवितागत विशेषताओं से रहित नहीं है। कुछ पद्य देखिए-

1. जो कुछ वेद पुरान कही

सुन लीनी सबै जुग कान पसारे।

लोकहुँ में यह ख्यात प्रथा छिन में

खल कोटि अनेकन तारे।

वृन्द कहै गहि मौन रहे किमि हां

हठि कै बहु बार पुकारे।

बाहर ही के नहीं सुनौ हे हरि

भीतर हूँ ते अहौ तुम कारे।

2. जो जाको गुन जानही सो तेहिं आदर देत।

कोकिल अंबहि लेत है काग निबौरी हेत।

3. ओछे नर की प्रीति की दीनी रीति बताय।

जैसे छीलर ताल जल घटत घटत घटि जाय।

4. करिये सुख को होत दुख यह कहु कौन सयान।

वा सोने कौ जारिये जासों टूटै कान।

5. भले बुरे सब एक सों जौ लौं बोलत नाहिं।

जानि परत हैं काक पिक ऋतु बसंत के माहिं।

इनके दोहों में विशेषता यह है कि प्रथमार्ध्द में जो विषय कहा गया है उत्तारार्ध्द में दृष्टान्त देकर उसी को पुष्ट किया गया है। यह दृष्टान्तालंकार का रूप है। इस प्रणाली के ग्रहण से उन्होंने जो बात कही है उसको अधिक पुष्टि प्राप्त हो गई है और इसी से इनकी सतसई की उपयोगिता बहुत बढ़ गई है। वृन्द पहले कवि हैं जिन्होंने इस मार्ग को ग्रहण कर पूरी सफलता लाभ की। स्फुट श्लोक और दोहे इस प्रकार के मिलते हैं, परन्तु ऐसे सात सौ दोहों का एक ग्रन्थ निर्माण कर देना वृन्द का ही काम था। इस दृष्टि से ब्रजभाषा साहित्य में उनका विशेष स्थान है।

नीति विषयक रचनाओं में वृन्द के बाद बैताल का ही स्थान है। वे जाति के बंदीजन थे और चरखारी के राजा विक्रमशाह के दरबार में रहते थे। उनका कोई ग्रन्थ नहीं है। परन्तु स्फुट छप्पय अधिक मिलते हैं जो नीति-सम्बन्धी हैं। उनकी मुख्य भाषा ब्रजभाषा है, परन्तु वे शब्द-विन्यास में अधिक स्वतंत्रा हैं। कभी ग्रामीण शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं, कभी बैसवाड़ी और अवधी का। उनकी भाषा चलती और प्रा)ल अवश्य है। भाव-प्रकाशन-शैली भी सुन्दर है, यद्यपि उसमें कहीं-कहीं उच्छृंखलता पाई जाती है। वे इच्छानुसार शब्द और मुहावरे भी गढ़ लेते हैं, परसी और श्रुति-कटु शब्द का प्रयोग भी ऐसे ढú से करते हैं जिससे भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार नहीं पाया जाता। रोचकता उनकी रचना में है, साथ ही कटुता भी। कुछ पद्य उनके देखिए-

1. दया चट्ट ह्नै गई धारम धाँसि गयो धारन में

पुन्न गयो पाताल पाप भयो बरन बरन में।

राजा करै न न्याय प्रजा की होत खुआरी

घर घर में बेपीर दुखित भे सब नर-नारी।

अब उलटि दानगजपति मँगै सील सँतोष कितै गयो।

बैताल कहै बिक्रम सुनो यह कलियुग परगट भयो।

2. ससि बिनु सूनी रैनि ज्ञान बिनु हिरदय सूनो।

कुल सूनो बिन पुत्र पत्रा बिनु तरुवर सूनो।

गज सूनो इक दंत ललित बिनु सायर सूनो।

बिप्र सून बिनु बेद और बन पुहुप बिहूनो

हरि नाम भजन बिनु संत अरु घटा सून बिनु दामिनी।

बैताल कहै विक्रम सुनो पति बिनु सूनी कामिनी

3. बुधि बिनु करै बेपार दृष्टि बिनु नाव चलावै।

सुर बिन गावै गीत अर्थ बिनु नाच नचावै।

गुन बिन जाय बिदेस अकल बिन चतुर कहावै।

बल बिन बाँधो जुध्द हौस बिन हेत जनावै।

अन इच्छा इच्छा करे अन दीठी बाताँ कहै।

बैताल कहै बिक्रम सुनो यह मूरख की जात है

4. पग बिन कटे न पन्थ बाहु बिन हटे न दुर्जन।

तप बिन मिलै न राज्य भाग्य बिन मिलै न सज्जन।

गुरु बिन मिलै न ज्ञान द्रव्य बिन मिलै न आदर।

बिना पुरुष शृंगार मेघ बिन कैसे दादुर।

बैताल कहै बिक्रम सुनो बोल बोल बोली हटे।

धिक्क धिक्क ता पुरुष को मन मिलाइ अन्तर कटे

चिद्दित शब्दों और वाक्यों को देखिए। उनसे ज्ञात हो जावेगा कि जो दोष मैंने उनकी रचना में बतलाये हैं, वे सब उनमें विद्यमान हैं। फिर भी उपयोगिता-दृष्टि से बैताल की रचना सम्मान योग्य है।

गिरधार कविराय इस शताब्दी के तीसरे नीतिकार हैं। इन्होंने अपनी प्रत्येक कुंडलियों के अन्त में अपने को गिरधार कविराय लिखकर प्रकट किया है। कविराय शब्द यह बतलाता है कि वे जाति के ब्रह्मभट्ट थे। किसी दरबार से इनका सम्बन्धा नहीं पाया जाता। यदि हो भी तो इस विषय में कहीं कुछ लिखा नहीं मिलता। जिस भाषा में उन्होंने अपनी रचनाएँ की हैं, उससे ये अवधा प्रान्त के मालूम होते हैं। इनकी भाषा में खड़ी बोली, अवधी (बैसवाड़ी) और ब्रजभाषा तीनों का मेल है। भाषा का झुकाव अधिकतर अवधी की ओर है। ये अनगढ़ और भद्दे शब्दों का प्रयोग भी कर जाते हैं, जिससे भाषा प्राय: कलुषित हो जाती हैं। ये सब दोष होने पर भी इनमें सीधो-सादे शब्दों में यथार्थ बात कहने का अनुराग पाया जाता है, जो गुण है। इसी से इनकी रचनाएँ अधिकतर प्रचलित भी हैं। इस कवि का उद्देश्य जनता में नीति-सम्बन्धी बातों का प्रचार करना ज्ञात होता है। इसलिए उसने ठेठ ग्रामीण शब्दों के प्रयोग करने में भी संकोच नहीं किया। इनका कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। स्फुट रचनाएँ ही पायी जाती हैं जो कुछ लोगों के कण्ठ से सुनी जाती हैं। जो पठित नहीं हैं उनके मुख से भी कभी-कभी कविराय जी की कुंडलियाँ सुन पड़ती हैं। इससे उनकी रचना की व्यापकता प्रकट होती है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि सन्तों की बानियों के समान उनकी रचना में भी साहित्यिकता नहीं मिलती, किन्तु यह सत्य है कि उनका शब्द-विन्यास संयत नहीं। ये ऊटपटाँग बातें नहीं कहते, परन्तु ऊटपटाँग शब्दों से अवश्य काम लेते हैं। उनके कुछ पद्य देखिए और उन शब्दों और वाक्यों पर भी विचार-दृष्टि डालते जाइए जो चिद्दित हैं-

1. रहिये लटपट काटि दिन बरु घामे माँ सोय

छाँह न वाकी बैठिये जो तरु पतरो होय

जो तरु पतरो होय एक दिन धोखा दैहै

जा दिन बहै बयारि टूटि तब जर से जैहै

कह गिरधार कविराय छाँह मोटे की गहिये।

पाता सब झरि जाय तऊ छाया में रहिये।

2. साई घोड़े आछतहिं गदहन पायो राज।

कौआ लीजे हाथ में दूरि कीजिये बाज।

दूरि कीजिये बाज राज पुनि ऐसो आयो।

सिंह कीजिये कैद स्यार गजराज चढ़ायो।

कह गिरधार कविराय जहाँ यह बूझि बड़ाई।

तहाँ न कीजे भोर साँझ उठि चलिये साँई।

3. साँई बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज।

हरिनाकस अरु कंस को गयउ दुँहुन को राज।

गयउ दुहुँन को राज बाप बेटा में बिगरे।

दुसमन दावादार भये महिमंडल सिगरे।

कह गिरिधार कविराय युगन याही चलि आई।

पिता पुत्र के बैर नफा कहु कौने पाई।

4. बेटा बिगरे बाप सों करि तिरियन सों नेहु।

लटापटी होने लगी मोहिं जुदा करि देहु।

मोहि जुदा करि देहु घरी माँ माया मेरी।

लैहौं घर अरु द्वार करौं मैं फजिहत तेरी।

कह गिधिर कविराय सुनो गदहा के लेटा।

समै परयो है आय बाप से झगरत बेटा।

इनकी दो सरस रचनाएँ भी सुनिये-

5. पानी बाढ़ो नाव में घर में बाढ़ो दाम।

दोनों हाथ उलीचिये यही सयानो काम।

यही सयानो काम राम को सुमिरन कीजै।

परस्वारथ के काज सीस आगे धारि दीजै।

कह गिरिधार कबिराय बड़ेन की याही बानी।

चलिये चाल सुचाल राखिये अपनो पानी।

6. गुन के गाहक सहस नर बिनु गुन लहै न कोय

जैसे कागा कोकिला सब्द सुनै सब कोय।

सब्द सुनै सब कोय कोकिला सबै सुहावन।

दोऊ को एक रंग काग सब भये अपावन।

कह गिरिधार कविराय सुनौ हो ठाकुर मन के।

बिनु गुन लहै न कोय सरस नर गाहक गुन के।

इनकी एक शृंगार रस की रचना भी सुनिये-

7. सोना लादन पिय गये सूना करि गये देस।

सोना मिला न पिय मिले रूपा ह्नै गये केस।

रूपा ह्नै गये केस रोय रँग रूप गँवाया

सेजन को बिसराम पिया बिन कबहुँ न पाया

कह गिरिधार कविराय लोन बिन सबै अलोना।

बहुरि पिया घर आउ कहा करिहौं लै सोना।

इनके किसी किसी पद्य में साँईं शब्द मिलता है। यह किंवदन्ती है कि जिन कुंडलियों में साँईं शब्द आता है वे उनकी स्त्री की बनाई हुई हैं। सम्भव है कि ऐसा हो। परन्तु निश्चित रूप से कोई बात नहीं कही जा सकती। जो दो सरस पद्य मैंने ऊपर लिखे हैं और एक पद्य जो शृंगार रस का लिखा गया है, उनसे कवि का सरस हृदय होना स्पष्ट है। शृंगार रस के पद्य में कितनी भावुकता है! इसका वाच्यार्थ कितना साफ है। मेरी सम्मति है कि गिरिधार कविराय वास्तव में कवि-हृदय थे। हाँ, कुछ पद्यों में वे असंयत शब्द-प्रयोग करते देखे जाते हैं। इसका कारण पद्य गत विषय के यथार्थ चित्राण की चेष्टा है। प्रमाणस्वरूप चौथे पद्य को देखिए। शिष्टता की दृष्टि से उसमें असंयत-भाषिता अवश्य है। परन्तु विषयानुसार वह बुरा नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टि से अपने इस प्रकार के प्रयोगों के विषय में वे इस योग्य नहीं कि उन पर कटाक्ष किया जाय। उनकी भाषा में भी अधिकतर अवधी और ब्रजभाषा के ही शब्द आते हैं। अन्य भाषा के या ग्रामीण शब्द जो यत्रा-तत्रा आ गये हैं, उनके लिए केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वे यदि और अधिक संयत होते तो अच्छा था। कुछ लोगों की सम्मति है कि बैताल की भाषा इनकी भाषा से अच्छी है। निस्संदेह, शब्द-विन्यास में बैताल उनसे अधिक संयत हैं। परन्तु दोनों के हृदय में अंतर है। वे असरस हृदय हैं और ये सरस-हृदय।

घाघ कौन थे, किस जाति के थे, यह नहीं कहा जा सकता। उनका नाम भी विचित्र है। उससे भी उनके विषय में कुछ अनुमान नहीं किया जा सकता। कुछ लोग कहते हैं, वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, वे जो हों, परन्तु उनके अनुभवी पुरुष होने में सन्देह नहीं। उन्होंने जितनी बातें कही हैं, वे सब नपी-तुली हैं और उनमें समाज के मानसिक भावों का अनेक स्थल पर सुन्दर चित्रा है। उन्होंने ऋतुओं के परिवर्तन और कृषि आदि के विषय में कुछ बातें ऐसी कही हैं जिनसे समय-ज्ञान पर उनका अच्छा अधिकार पाया जाता है। कैसी हवा बहने पर कितनी वृष्टि होने की आशा होती है, वर्षा के किन नक्षत्रों का क्या प्रभाव होता है, और किस नक्षत्रा में कृषिकार्य किस प्रकार करने से क्या फल होगा, इन सब बातों को उन्होंने बड़े अनुभव के साथ कहा है। भाषा उनकी ग्रामीण है और उसमें अवधी एवं बैसवाड़ी का मिश्रण पाया जाता है, उसमें ग्रामीणों की बोलचाल और मुहावरों का भी बहुत सुंदर व्यवहार है। उनके कथन में प्रवाह है और भाषा उनकी चलती है। कुछ रचनाएँ तो उनकी ऐसी हैं जो समाज के हृदय का दर्पण हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं का युक्त प्रान्त के पूर्वी भाग में अधिक प्रचार है। प्रचार ही नहीं,उसके अनुसार लोग किसानी का काम करने में ही सफलता की आशा करते हैं। मूर्ख किसानों को भी उनकी रचनाओं को पढ़ते और उनके अनुसार कार्य करते देखा जाता है। नीति और लौकिक व्यवहार-सम्बन्धी बातें भी उन्होंने अधिकता से कही हैं। उनकी रचना की विशेषता यह है कि जिस भाषा में उन्होंने रचना की है उस पर उनका पूरा अधिक ज्ञात होता है। उनकी दृष्टि इस ओर भी पाई जाती है कि उसमें सरलता और स्वाभाविकता की न्यूनता न हो। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. भुइयाँ खेड़े हर होइ चार।

घर होइ गिहिथिन गऊ दुधार।

रहर दाल जड़हन का भात।

गागल निबुआ औ घिउ तात।

2. सहरस खंड दही जो होइ।

बाँके नैन परोसै जोइ।

कहै घाघ तब सबही झूठा।

उहाँ छाड़ि इहँवैं बैकुंठा।

3. नसकट खटिया दुलकन घोड़।

कहै घाघ यह बिपति क ओर।

बाछा बैल पतुरिया जोय।

ना घर रहै न खेती होय।

4. बनियाँ क सखरज ठकुर क हीन।

बैद क पूत रोग नहिं चीन्ह।

पंडित चुप चुप बेसवा मइल।

कहै घाघ पाँचों घर गइल।

5. माघ क ऊषम जेठ क जाड़।

पहिले बरषे भरि गये गाड़।

कहै घाघ हम होब बियोगी।

कुऑं खोदि कै धोइहैं धोबी।

6. मुये चाम से चाम कटावै।

सकरी भुइँ महँ सोवै।

कहै घाघ ये तीनों भकुआ।

उढ़रि गये पर रोवै।

7. गया पेड़ जब बकुला बैठा।

गया गेह जब मुड़िया पैठा।

गया राज जहँ राजा लोभी।

गया खेत जहँ जामी गोभी।

8. नीचे ओद उपर बदराई।

कहै घाघ तब गेरुई खाई।

पछिवाँ हवा ओसावै जोई।

घाघ कहै घुन कबहुँ न होई।

घाघ की रचनाएँ ग्रामीण भाषा में होने के कारण प्राय: हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने उनकी उपेक्षा की है। परन्तु मैं समझता हूँ कि ऐसा करना उचित नहीं। घाघ ने जिस भाषा में अपनी रचना की है वह हिन्दी ही है और वास्तव में बोल-चाल की भाषा है। साथ ही उनकी उक्तियाँ उपयोगिनी हैं। इसलिए उनकी रचना का महत्तव कम नहीं। जिस समय ब्रजभाषा और अवधी में रचना हो रही थी, उस समय एक ग्रामीण भाषा की रचना लेकर घाघ का सामने आना साहस का काम था। उनका यह साहस प्रशंसनीय है, निन्दनीय नहीं। विषय की दृष्टि से भी उनकी रचना कम आदरणीय नहीं। उनकी रचनाओं में वह अनुभव भरा हुआ है, जिसका ज्ञान सबके लिए समान हितकारक है।

इन्हीं नीतिकार कवियों के साथ 'प्रीतम' कवि की चर्चा भी उचित जान पड़ती है। इनका असली नाम मुहिब्ब खाँ था। ये आगरे के रहने वाले थे। इन्होंने 'खटमल बाईसी' नामक एक छोटे से ग्रन्थ की रचना की है, जिसमें बाईस कवित्ता हास्य रस के हैं। शायद यही हिन्दी संसार का एक ऐसा कवि है जिसने एक रस पर इतनी थोड़ी रचना करके बहुत कुछ प्रसिध्दि प्राप्त की,चर्चा होने पर प्रीतम को हिन्दी-संसार का प्रत्येक सहृदय कवि प्रीति के साथ स्मरण करता है और उनकी रचनाओं को पढ़कर खिलखिला उठता है। उनकी रचना सरस है और साहित्यिक ब्रजभाषा में लिखी गई है। जिसमें प्रतिभा छलकती है। और वह चमत्कार दृष्टिगत होता है जो हास्य रस का चित्रा सामने खड़ा कर देता है। दो पद्य देखिए-

1. जगत के कारन करन चारों वेदन के

कमल में बसे वै सुजान ज्ञान धारिकै।

पोषन अवनि दुख सोषन तिलोकन के

समुद में जाय सोये सेस सेज करिकै।

मदन जरायो जो सँहारैं दृष्टि ही में सृष्टि

बसे हैं पहार बेऊ भाजि हरिबरिकै।

बिधि हरि हर और इनसे न कोऊ

तेऊ खाट पर न सोवैं खटमलन सों डरिकै।

2. बाघन पै गयो देखि बनन मैं रहैं छकि

साँपन पै गयो ते पताल ठौर पाई है।

गजन पै गयो धूलि डारत हैं सीस पर

वैदन पै गयो काहू दारू ना बताई है।

जब हहराय हम हरि के निकट गये

हरि मों सों कही तेरी मति भूल छाई है।

कोऊ ना उपाय भटकति जिन डोलै सुन

खाट के नगर खटमल की दोहाई है।

इस शताब्दी में तीन प्रसिध्द प्रबन्धकार भी हुए हैं। एक सूदन, दूसरे ब्रजवासीदास और तीसरे मधुसूदनदास। सूदन माथुर ब्राह्मण थे और भरतपुर के राजा सूरजमल के यहाँ रहते थे। भूषण और गोरेलाल के उपरान्त हिन्दी-संसार के वीर रस के अन्यतम प्रसिध्द कवि सूदन ही हैं। इनका सुजान-चरित्रा बड़ा विशद ग्रन्थ है, इसमें उन्होंने सूरजमल के अनेक युध्दों का वर्णन बड़ी ही ओजपूर्ण भाषा में किया है। इस ग्रन्थ की भाषा खड़ी बोलचाल मिश्रित ब्रजभाषा है। इसमें उनकी पंजाबी भाषा की कुछ रचनाएँ भी मिलती हैं। इसका कारण यह है कि प्रसंगवश जब किसी पंजाबी से कुछ कहलाना पड़ा है तब उसको उससे उन्होंने पंजाबी भाषा में ही कहलाया है, इसलिए उनकी कृति में पंजाबी शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। किन्तु उनकी संख्या थोड़ी है। अपने इस एक ग्रन्थ के कारण ही हिन्दी-संसार में सूदन को वीररस के कवियों में एक विशेष स्थान प्राप्त है। इनके ग्रन्थ में नाना छन्द हैं, उनमें कवित्ताों की संख्या भी पर्याप्त है। दशम ग्रन्थ साहब में वीर रस के जैसे 'तागिड़दं तीरं' इत्यादि छन्द लिखे गये हैं उसी प्रकार और उसी ढंग के कितने छंद इस ग्रन्थ में भी हैं। कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. एकै एक सरस अनेक जे निहारे तन

भारे लाज भारे स्वामि काज प्रतिपाल के।

चंग लौं उड़ायो जिन दिली की वजीर भीर

मारी बहु मीरन किये हैं बेहवाल के।

सिंह बदनेस के सपूत श्री सुजान सिंह

सिंह लौं झपटि नख दीन्हें करवाल के।

वेई पठनेटे सेल सांगन खखेटे

भूरि धूरि सों लपेटे लेटे भेंटे महाकाल के।

2. सेलन धाकेला ते पठान मुख मैला होत

केते भट मेला हैं भजाये भ्रुव भंग मैं।

तंग के कसेते तुरकानी सब तंग कीनी

दंग कीनी दिली और दुहाई देत बंग मैं।

सूदन सराहत सुजान किरवान गहि

धायो धीर धारि बीरताई की उमंग मैं।

दक्खिनी पछेला करि खेला तैं अजब खेल

हेला मारि गंग मैं रुहेला मारे जंग मैं।

3. बंगन के लाज मऊ खेत की अवाज यह

सुने व्रजराज ते पठान वीर बबके।

भाई अहमद खान सरन निदान जानि

आयो मनसूर तौ रहै न अब दब के।

चलना मुझे तो उठ खड़ा होना देर क्या है

बार बार कहेते दराज सीने सब के।

चण्ड भुज दण्ड बारे हयन उदण्ड वारे

कारे कारे डोलनि सवारे होत रब के।

एक पद्य इनका और सुनिए, जिसमें श्रीमती पार्वती अपने घर का विचित्र हाल वर्णन कर रही है-

आप विष चाखै भैया षट मुख राखै

देखि आसन मैं राखै बसवास जाको अचलै।

भूतन के छैया आस पास के रखैया

और काली के नथैया हूँ के धयान हूँ ते न चलै।

बैल बाघ वाहन वसन को गयन्द खाल

भाँग को धातूरे को पसारि देत ऍंचलै।

घर को हवाल यहै संकर की बाल कहै

लाज रहै कैसे पूत मोदक को मचलै।

सूदन की रचना की विशेषता यही है कि उन्होंने प्रौढ़ भाषा में वीर रस का एक उल्लेखनीय ग्रन्थ लिखा। ये ब्रजभूमि के ही निवासी थे और ब्रजराज कहलाने वाले राज-दरबार में रहते थे इसलिए वे अपने ग्रन्थ को साहित्यिक ब्रजभाषा में ही लिख सकते थे। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। अनेक भाषाओं पर अपना अधिकार प्रकट करने के लिए पंजाबी और खड़ी बोली के वाक्य और शब्द भी उसमें मिलाये। ऐसा करने से उनकी अनेक भाषा-भिज्ञता तो प्रकट हुई परन्तु ब्रजभाषा की साहित्यिकता सुरक्षित न रह सकी। उनकी ब्रजभाषा उतनी प्रौढ़ नहीं है जितनी उसे होना चाहिए था। फिर भी सुजान-चरित्रा में उसका बड़ा सुन्दर साहित्यिक रूप कहीं-कहीं दृष्टिगत होता है, जिससे उनका कवि-कर्म अपनी महत्ता बनाये रखता है।

ब्रजवासी दास अपने 'ब्रजविलास' के कारण बहुत प्रसिध्द हैं। ये जाति के ब्राह्मण और वल्लभ सम्प्रदाय के शिष्य थे। मथुरा या वृन्दावन में इनका निवास था। इन्होंने संस्कृत 'प्रबोधा चन्द्रोदय' नाटक का विविधा छन्दों में अनुवाद किया, परन्तु यह ग्रन्थ सर्वसाधारण को उतना प्रिय नहीं हुआ जितना 'ब्रज-विलास'। ब्रज-विलास की रचना उन्होंने सूरदास के पदों के आधार से की है। वरन् यह कहा जा सकता है कि उनके पदों को, चौपाइयों, दोहाओं, सोरठाओं और विविधा छन्दों में परिणत कर दिया है। ये स्वयं इसको स्वीकार करते हैं। यथा-

भाषा को भाषा करौं छमिये सब अपराधा।

जेहि तेहि विधि हरि गाइये कहत सकल श्रुति साधा।

या मैं कछुक बुध्दि नहिं मेरी।

उक्ति युक्ति सब सूरहिं केरी।

मोते यह अति होत ढिठाई।

करत विष्णु पद की चौपाई।

ब्रजवासी दास का यह महत्तव है कि वे ब्रजविलास की रचना से अपनी प्रतिभा का कोई सम्बन्धा स्वीकार नहीं करते। परन्तु उसमें उनका निजस्व भी देखा जाता है। उन्होंने स्थान-स्थान पर कथाओं को संगठित रूप में इस सरलता के साथ कहा है कि उनमें विशेष मधुरता आ गई है। यह उनकी भावमयी और सरस प्रकृति का ही परिणाम है। उन्होंने गोस्वामी जी का अनुकरण किया है, परन्तु उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, जिससे सरसता टपकी पड़ती है। उनके ग्रन्थ का शब्द-विन्यास इतना कोमल है और उसमें कुछ ऐसा आकर्षण मिलता है जो स्वभावतया हृदयों को अपनी ओर खींच लेता है। उनके इस ग्रन्थ का प्रचार भी अधिक है, विशेषकर ब्रजप्रान्त और युक्त-प्रान्त के पश्चिमीय भाग में। 'प्रबोधा चन्द्रोदय' का अनुवाद मेरे देखने में नहीं आया। सुना है उसकी भाषा भी ऐसी ही ललित है। मैं उनके कुछ पद्य ब्रजविलास से उठाता हूँ। उनके पढ़ने से आपको यह अनुभव होगा कि उनकी रचना में कितना लालित्य है। चन्द्रमा को देखकर कृष्णचन्द्र मचल गये हैं और उसको लेना चाहते हैं। माता ने एक थाली में जल भरकर चन्द्रमा को उनके पास पकड़ मँगाया। उसी समय का यह वर्णन है। देखिए उसकी मनोहरता और स्वाभाविकता-

लेहु लाल यह चन्द्र मैं लीन्हों निकट बुलाय।

रोवै इतने के लिए तेरी स्याम बलाय

देखहु स्याम निहारि या भाजन में निकट ससि।

करी इती तुम आरि जा कारन सुन्दर सुअन

ताहि देखि मुसुकाइ मनोहर।

बारबार डारत दोऊ कर।

चंदा पकरत जल के माहीं।

आवत कछू हाथ में नाहीं।

तब जल पुट के नीचे देखे।

तहँ चंदा प्रतिबिंब न पेखे।

देखत हँसी सकल व्रज-नारी।

मगन बाल-छबि लखि महतारी।

तबहिं स्याम कछु हँसि मुसकाने।

बहुरो माता सों बिरुझाने।

लउँगौ री या चंदा लउँगौ।

वाहि आपने हाथ गहूँगौ।

यह तो कलमलात जल माहीं।

मेरे कर में आवत नाहीं।

बाहर निकट देखियत नाहीं।

कहौ तो मैं गहि लावौं ताही।

कहत जसोमति सुनहु कन्हाई।

तुअ मुख लखि सकुचत उड़घराई।

तुम तेहि पकरन चहत गुपाला।

ताते ससि भजि गयो पताला।

अब तुमते ससि डरपत भारी।

कहत अहो हरि सरन तुम्हारी।

बिरुझाने सोये दै तारी।

लिय लगाय छतियाँ महतारी।

लै पोढ़ाये सेज पर हरि को जसुमति माय।

अति बिरुझाने आज हरि यह कहि कहि पछिताय

देखिए इस पद्य में बालभाव का अथच माता के प्यार का कितना स्वाभाविक वर्णन है। निस्सन्देह, यह प्रवाह सूर-सागर से आया है। परन्तु उसको अपने ढंग से प्रवाहित कर ब्रजवासीदास ने बहुत कुछ सहृदयता दिखलाई है और यही उनका निजस्व है। जो लोग सूर-सागर में धाँसकर उसका पूर्ण आनन्द लाभ करने के अधिकारी नहीं हैं, उनके लिए ब्रजविलास की रचना है जो सर्वसाधारण के हृदय में चिरकाल से आनन्द रस-धारा बहाती आई है।

मधुसूदनदास माथुर चौबे थे। इन्होंने 'रामाश्वमेधा' नामक एक बड़ा मनोहर प्रबन्धा काव्य लिखा है, इसको संस्कृत रामाश्वमेधा का अनुवाद नहीं कह सकते। यह अवश्य है कि उसी के आधार से इस ग्रंथ की रचना हुई है। परन्तु मधुसूदनदास ने अनेक स्थानों पर स्वतंत्रा पथ भी ग्रहण किया है। उनके इस ग्रंथ को हम रामचरितमानस का परिशिष्ट कह सकते हैं। रामाश्वमेधाकार ने रामचरितमानस का ही अनुकरण किया है और उसमें अधिकतर सफलता लाभ की है। उनकी यह रचना कहीं-कहीं रामचरितमानस की भाषा से इतनी मिल जाती है कि वह ठीक गोस्वामीजी की कृति जान पड़ती है। अवधी भाषा ही में यह ग्रंथ लिखा गया है। परन्तु गोस्वामीजी की रचना के समान उसमें भी संस्कृत के तत्सम शब्द अधिक आते हैं। उनकी भाषा को हम परिमार्जित अवधी कह सकते हैं, जिसमें कहीं-कहीं गोस्वामीजी के समान ही ब्रजभाषा का पुट पाया जाता है। इस ग्रंथ का प्रचार बहुत कम हुआ, परन्तु ग्रंथ सुंदर और पठनीय है। इसके कुछ पद्य देखिए-

सिय रघुपति-पद-कंज पुनीता।

प्रथमहिं बंदन करौं सप्रीता।

मृदु मंजुल सुन्दर सब भाँती।

ससि कर सरिस सुभग नखपाँती।

प्रणत कल्पतरु तरु सब ओरा।

दहन अज्ञ तम जन चित चोरा।

त्रिविधा कलुष कुंजर घनघोरा।

जग प्रसिध्द केहरि बरजोरा।

चिंतामणि पारस सुर धोनू।

अधिक कोटि गुन अभिमत देनू।

जन मन मानस रसिक मराला।

सुमिरत भंजन बिपति बिसाला।

इस शताब्दी में निर्गुणवादियों में चरनदास का नाम ही अधिक प्रसिध्द है। उनके बाद उनकी शिष्या सहजोबाई और दयाबाई का नाम लिया जा सकता है। चरनदास जी राजपूताना निवासी थे। कहा जाता है कि उन्नीस वर्ष की अवस्था में उनको वैराग्य हो गया था। वे बाल ब्रह्मचारी थे। उनके शिष्यों की संख्या बावन बतलाई जाती है। उनकी बावन गद्दियाँ अब तक वर्तमान हैं। उनके पंथ वाले चरनदासी कहलाते हैं। उनके दो ग्रन्थ मिलते हैं, एक का नाम है 'ज्ञान-स्वरोदय' और दूसरे का'चरनदास की बानी'। दादूदयाल का जो सिध्दान्त था लगभग वही सिध्दान्त उनका भी था। कबीर पंथ की छाया भी उनके पंथ पर पड़ी है। वे भी एक प्रकार से अपठित थे। उनकी भाषा भी संत बानियों की-सी ही है। उसमें किसी भाषा का विशेष रंग नहीं। परन्तु ब्रजभाषा के शब्द उसमें अधिक मिलते हैं और कहीं-कहीं राजस्थानी की झलक भी दृष्टिगत होती है। 'स्वरोदय' की रचना जटिल है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द भी अधिक आये हैं, और वे कहीं-कहीं उसमें अव्यवस्थित रूप में पाये जाते हैं,जिससे भाषा का माधार्ुय्य बहुत कुछ नष्ट हो जाता है। यत्रा-तत्रा छन्दोभंग भी है। उनके कुछ पद्य देखिए और जो चिद्दित शब्द हैं, उन पर विशेष धयान दीजिए-

1. चार वेद का भेद है गीता का है जीव।

चरनदास लखु आपको तोमैं तेरा पीव।

2. मुक्त होय बहुरै नहीं जीव खोज मिटि जाय।

बुंद समुंदर मिलि रहै दुनिया ना ठहराय।

3. सूछम भोजन कीजिये रहिये ना पड़ सोय।

जल थोरा-सा पीजिये बहुत बोल मत खोय।

4. सतगुरु मेरा सूरमा करै शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का ढहै भरम का कोट।

5. धान नगरी धान देस है धान पुर पट्टन गाँव।

जहँ साधु जन उपजियो ताका बल बल जाँव।

6. जग माँही ऐसे रहो ज्यों अंबुज सर माहिं।

रहै नीर के आसरे पै जल छूवै नाहिं।

7. दया नम्रता दीनता छिमा सील संतोष।

इन कहँ लै सुमिरन करै निहचै पावै मोख।

8. चरनदास यों कहत हैं सुनियो संत सुजान।

मुक्ति मूल आधीनता नरक मूल अभिमान।

9. चंद सूर्ज दोउ सम करै ठोढ़ी हिये लगाय।

षट चक्कर को बेधा कर शून्य शिखर को जाय।

10. ब्याह दान तीरथ जो करै। बस्तर भूषण घर पगधारै।

11. दहिने स्वर झाड़े फिरै , बाएँ लघुशंकाय

मुक्ती ऐसी साधिये , दोनों भेद बताय।

सहजोबाई और दयाबाई दोनों चरनदास की शिष्या थीं और दोनों ही ढूसर वंश की थीं। दोनों ही आजन्म उनकी सेवा में रहीं और परमार्थ में ही अपना जीवन व्यतीत किया। इन दोनों की गुरु-भक्ति प्रसिध्द है। इनकी रचनाओं में भी इसकी झलक पायी जाती है। भाषा इन दोनों की ब्रजभाषा है। परंतु निर्गुणवादियों का ढंग भी उसमें पाया जाता है। ये दोनों भी चित्ता की उमंग से ही कविता करती थीं। उनके बोधा पर सत्संग का प्रभाव था, पढ़ी-लिखी वे थीं या नहीं, इस विषय में कहीं कुछ लिखा नहीं मिलता। सहजोबाई ने कोई ग्रन्थ नहीं बनाया। उनकी स्फुट कविताएँ पायी जाती हैं। उनमें से कुछ यहाँ लिखी जाती हैं-

1. निश्चय यह मन डूबता लोभ मोह की धार।

चरनदास सतगुरु मिले सहजो लई उबार।

2. सहजो गुरु दीपक दियो नैना भये अनंत।

आदि अंत मधा एक ही सूझि परै भगवंत।

3. जब चेतै जहँ ही भला मोह नींद सूँ जाग।

साधू की संगति मिलै सहजो ऊँचे भाग।

4. अभिमानी नाहर बड़ो भरमत फिरत उजार।

सहजो नन्ही बाकरी प्यार करै संसार।

5. सीस कान मुख नासिका ऊँचे ऊँचे नाँव।

सहजो नीचे कारने सब कोई पूजे पाँव।

दयाबाई का एक ग्रन्थ है, जिसका नाम है 'दयाबोधा'। उसके आधार से उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

1. बौरी ह्नै चितवत फिरूँ हरि आवैं केहि ओर।

छिन उट्ठू छिन गिर परूँ राम दुखी मन मोर।

2. प्रेम पुंज प्रगटै जहाँ तहाँ प्रगट हरि होय।

दया दया करि देत हैं श्रीहरिदरसन सोय।

3. दया कुँवारि या जगत में नहीं रह्यो थिर कोय।

जैसो बास सराय को तैसो यह जग होय।

4. बड़ो पेट है काल को नेक न कहूँ अघाय।

राजा राना छत्रापति सबकूँ लीले जाय।

5. दुख तजि सुख की चाह नहिं नहिं बैकुंठ विमान।

चरन कमल चित चहत हौं मोहि तुम्हारी आन।

उन्नीसवीं शताब्दी जैसे भारतवर्ष के लिए एक विचित्र शताब्दी है, वैसे ही हिन्दी भाषा के लिए भी। इस शताब्दी में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक बड़े-बड़े परिवर्तन जिस प्रकार हुए वैसे ही भाषा सम्बन्धी अनेक लौट-फेर भी हुए। हिन्दी भाषा ही नहीं, भारतवर्ष की समस्त प्रान्तिक भाषाओं का कायाकल्प इसी शताब्दी में हुआ। उर्दू भाषा की नींव अठारहवीं शताब्दी के उत्तारार्धा में पड़ चुकी थी। इस शताब्दी में वह भी खूब फली-फूली। मीर, इंशा, ज़ौव और नासिख़ ऐसे महाकवियों ने उसका लोकोत्तार शृंगार किया। मुसलमान राज्य का वह अंतिम प्रदीप जो दिल्ली में धुँधाली ज्योति धारण कर जल रहा था,उसका निर्वाण इसी शताब्दी में हुआ। जिससे ब्रिटिश सर्य्य अपनी अतुल आभा भारतवर्ष के प्रत्येक प्रान्तों में विस्तार करने में समर्थ हुआ। परिणाम उसका यह हुआ कि नवीन ज्योति के साथ नये-नये भाव एवं बहुत से नूतन विचार देश में फैले और एक नवीन जागृति उत्पन्न हो गयी। इस जागृति ने भारत की वर्तमान सभ्यता में हलचल मचा दी और उसमें नवीन आविष्कारों का उदय हुआ।

राजा राममोहन राय, परमहंस रामकृष्ण, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ ऐसे धर्म संस्कारक,न्यार्यमूत्तिा महादेव गोविन्द रानाडे ऐसे समाज-सुधारक, दादा भाई नौरौजी, लोकमान्य बालगंगाधार तिलक, माननीय गोपालकृष्ण गोखले, बाबू सुरेन्द्र नाथ बैनर्जी एवं महात्मा गांधी ऐसे राजनीतिक नेता, महर्षि मालवीय जैसे हिन्दू-धर्म के रक्षक, समाज के उन्नायक अथच राजनीति के धुरंधार संचालक इसी शताब्दी में उत्पन्न हुए। ऐसी दशा में यदि साहित्य में नव-स्फूर्ति उत्पन्न और हिन्दी भाषा को भी नवजीवन इस शताब्दी में प्राप्त हो तो कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि साहित्य सामाजिक भावों के विकास का ही परिणाम होता है। साहित्य के लिए अनुकूल भाषा की बड़ी आवश्यकता होती है। यही कारण है कि इस शताब्दी में हिन्दी भाषा ने अपना कलेवर विचित्र रूप से बदला। उसमें यह परिवर्तन इस शताब्दी के उत्तारार्ध्द में हुआ। पूर्वार्ध्द में पूर्वागत परम्परा ही अधिकतर दृष्टिगत होती है, यद्यपि उसमें परिवर्तन के लक्षण प्रकट हो गये थे। मैं क्रमश: परिवर्तन-प्रणाली को आपके सामने उपस्थित करूँगा।

इस शताब्दी में निम्नलिखित प्रसिध्द रीति ग्रंथकार हुए हैं। क्रमश: मैं इनका परिचय आपको दूँगा और यह भी बतलाता चलूँगा कि इनके समय में भाषा का क्या रूप था और उस समय का क्या प्रभाव पड़ा-पदमाकर, ग्वाल, राय रणधीर सिंह,लछिराम, गोविंदगिल्लाभाई, प्रताप शाह।

पदमाकर का कविता-काल अठारहवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है, किंतु उनकी प्रौढ़ कविता का काल यही शताब्दी है। इसलिए हमने इसी शताब्दी में उनको रक्खा है। हिन्दी-साहित्य-संसार में पदमाकर एक विशेष स्थान के अधिकारी हैं। उनकी रचना में ऐसा प्रवाह है, जो हृदय को रस-सिक्त किये बिना नहीं रहता। शब्द-विन्यास में उन्होंने ऐसी सहृदयता का परिचय दिया है जैसी महाकवियों में ही दृष्टिगत होती है। भाव को मूर्तिमन्त बनाकर सामने लाना उनकी विशेषता है। शब्द में झंकार पैदा करना, उसको भावचित्राण के अनुकूल बना लेना, अपनी उपज से उसमें अनोखे बेल- बूटे तराशना, जिनमें रस छलकता मिले, ऐसी उक्तियों को सामने लाना उनकी रचना के विशेष गुण हैं। अनुप्रास एवं वर्ण मैत्राी उनकी कविता का प्रधान अंग है, किन्तु इस सरसता और निपुणता से वे उसका प्रयोग करते हैं कि उनके कारण से न तो भाषा दब जाती है और न भाव के स्फुटन में व्याघात उपस्थित होता है। जैसे दर्पण में से आभा फूटती है, वैसे ही उनकी वाक्यावली में से भाव विकसित होता रहता है। अलंकार इनकी कृति में आते हैं, किंतु उसे अलंकृत करने के लिए, दुरूह बनाने के लिए नहीं, उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। उसमें कहीं-कहीं अन्य भाषा के शब्द भी आ जाते हैं, परन्तु वे आभूषण में नग का काम देते हैं। उन्होंने कुछ भाव संस्कृत और भाषा के अन्य कवियों के भी लिये हैं, किन्तु उनको बिलकुल अपना बना लिया है। साथ ही उनमें एक ऐसी मौलिकता उत्पन्न कर दी है, जिससे यह ज्ञात होता है कि वे उन्हीं की सम्पत्तिा हैं।

पदमाकर जी बड़े भाग्यशाली कवि थे। वे उस वंश के रत्न थे जो सर्वदा बड़े-बड़े राजाओं, महाराजाओं द्वारा आदृत होता आया था। जितने राजदरबारों में उनका प्रवेश हुआ और जितने राजाओं-महाराजाओं से उन्हें सम्मान मिला, हिन्दी-संसार के किसी अन्य कवि को वह संख्या प्राप्त नहीं हुई। वे तैलंग ब्राह्मण थे। इसलिए उनकी पूजा कहीं गुरुत्व लाभ करके हुई, कहीं कवि-कर्म्म द्वारा। उनके पूर्व पुरुष भी विद्वान् और कवि थे और उनके पुत्र एवं पौत्र भी। उनके पौत्र गदाधार हिन्दी-संसार के परिचित प्रसिध्द कवि हैं। वे कवि-कर्म्म में तो निपुण थे ही, सम्मान प्राप्त करने में भी बड़े कुशल थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है। कहा जाता है कि 'रामरसायन' नामक एक राम-चरित्रा सम्बन्धी-प्रबंधा काव्य भी उन्होंने लिखा था। परन्तु उसकी कविता ऐसी नहीं है जैसी उनके जैसे महाकवि की होनी चाहिए। इसलिए कुछ लोगों की यह सम्मति है कि वह ग्रंथ उनका रचा नहीं है। उनका सबसे प्रसिध्द ग्रन्थ जगद्विनोद है, जो हिन्दी भाषा कवि कुल का कण्ठहार है। प्रबोधा पचासा और गंगालहरी भी उनके सुंदर ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में निर्वेद जैसा मूर्तिमन्त होकर विराजमान है वैसी ही उनमें मर्म-स्पर्शिता भी है। पदमाकर के ग्रंथों की संख्या एक दर्जन से अधिक है, और उन सबों में उनकी प्रतिभा सुविकसित मिलती है। उनमें से कुछ कविताएँ नीचे लिखी जाती हैं-

1. व्याधाहूँ ते बिहद असाधु हौं अजामिल लौं

ग्राह ते गुनाही कहो तिन मैं गिनाओगे।

स्योरी हो नसूद हौं न केवट कहूँ को

त्यों न गौतमी तिया हौं जापै पग धारि आओगे।

राम सों कहत पदमाकर पुकारि

तुम मेरे महापापन को पारहूँ न पाओगे।

झूठो ही कलंक सुनि सीता ऐसी सती तजी

साँचों ही कलंकी ताहि कैसे अपनाओगे।

2. जैसो तैं न मोसों कहूँ नेकहूँ डरात हुतो

तैसो अब हौहूँ नेक हूँ न तोसों डरिहौं।

कहै पदमाकर प्रचंड जो परैगो

तो उमंड करि तोसों भुजदंड ठोंकि लरिहौं।

चलो चलु चलो चलु बिचलु न बीच ही ते

कीच बीच नीच तौ कुटुंब कौ कचरिहौं।

ऐ रे दगादार मेरे पातक अपार तोहि

गंगा की कछार में पछारि छार करिहौं।

3. हानि अरु लाभ जानि जीवन अजीवन हूँ

भोगहूँ वियोगहूँ सँयोगहूँ अपार है।

कहै पदमाकर इते पै और केते कहौं

तिनको लख्यो न वेदहूँ मैं निरधार है।

जानियत याते रघुराय की कला कौ कहूँ

काहू पार पायो कोऊ पावत न पार है।

कौन दिन कौन छिन कौन घरी कौन ठौर

कौन जानै कौन को कहा धौं होनहार है।

4. सोरह सिंगार कै नवेली के सहेलिन हूँ

कीन्हीं केलि मन्दिर मैं कलपित केरे हैं।

कहै पदमाकर सु पास ही गुलाब पास

खासे खस खास खुसबोइन के ढेरे हैं।

त्यों गुलाब नीरन सों हीरन को हौज भरे

दम्पती मिलाय हित आरती उंजेरे हैं।

चोखी चाँदनीन पर चौरस चमेलिन के

चन्दन की चौकी चारु चाँदी के चँगेरे हैं।

5. चहचही चहल चहूँघा चारु चन्दन की

चन्द्रक चुनिन चौक चौकन चढ़ी है आब।

कहै पदमाकर फराकत फरसबंद

फहरि फुहारनि की फरस फबी है फाब।

मोद मदमाती मनमोहन मिलै के काज

साजि मन मन्दिर मनोज कैसी महताब।

गोलगुलगादी गुल गोल में गुलाब गुल

गजक गुलाबी गुल गिंदुक गले गुलाब।

6. कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में

क्यारिन में कलिन कलीन किलकंत है।

कहै पदमाकर परागन में पौन हूँ मैं

पानन में पीक में पलासन पगंत है।

द्वार में दिसान में दूनी मैं देस देसन मैं

देखौ दीप दीपन मैं दीपति दिगन्त है।

बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में

बनन में बागन मैं बगरयो बसन्त है।

7. पात बिन कीन्हें ऐसी भाँति गन बेलिन के

परत न चीन्हें जे ये लरजत लुंज हैं।

कहै पदमाकर बिसासी या बसन्त के सु

ऐसे उतपात गात गोपिन के भुंज हैं।

ऊधो यह सूधो सो सँदेसो कहि दीजो भलो

हरि सों हमारे ह्याँ न फूले बन कुंज हैं।

किंसुक गुलाब कचनार औ अनारन की

डारन पै डोलत ऍंगारन के पुंज हैं।

8. संपति सुमेर की कुबेर की जो पावै ताहि

तुरत लुटावत बिलम्ब उर धारै ना।

कहै पदमाकर सुहेम हय हाथिन के

हलके हजारन के बितर बिचारै ना।

दीन्हें गज बकस महीप रघुनाथ राय

याहि गज धोखे कहूँ काहू देइ डारै ना।

याहि डर गिरिजा गजानन को गोय रही

गिरि ते गरे ते निज गोद ते उतारै ना।

9. झाँकति है का झरोखा लगी

लगि लागिबे को इहाँ फेल नहीं फिर।

त्यों पदमाकर तीखे कटाछनि की

सर कौ सर सेल नहीं फिर।

नैनन ही की घलाघल के घन

घावन को कछु तेल नहीं फिर।

प्रीति पयोनिधि मैं धाँसि कै हँसि कै

कढ़िबो हँसी खेल नहीं फिर।

10. ए ब्रजचन्द चलौ किन वा ब्रज

लूकैं बसन्त की ऊकन लागीं।

त्यों पदमाकर पेखौ पलासन

पावक सी मनो फूँकन लागीं।

वै ब्रजनारी बिचारी बधूबन

बावरी लौं हिये हूकन लागीं।

कारी कुरूप कसाइनैं ये सु कुहू

कुहू कैलिया कूकन लागीं।

ग्वाल कवि मथुरा के रहने वाले ब्रह्मभट्ट थे। जगदम्बा का उनको इष्ट था। वे प्रतिभावान कवि माने जाते हैं। कहा जाता है किसी सिध्द तपस्वी की कृपा से यह प्रतिभा उनको प्राप्त हुई थी। उनके बनाये ग्रन्थों की संख्या साठ से ऊपर है, जिनमें अधिकतर 'गोपी-पचीसी', 'रामाष्टक', 'कृष्णाष्टक' और गणेशाष्टक आदि के समान छोटे-छोटे ग्रन्थ हैं। उनके 'साहित्यानंद', 'साहित्य-दर्पण', 'साहित्य-दूषण' इत्यादि पाँच-चार बड़े ग्रन्थ हैं। इनमें साहित्य के समस्त अंगों का विशेष वर्णन है। ये राज-दरबारों मंम घूमा करते थे। महाराज रणजीत सिंह से भी मिले थे। उन्होंने इन्हें कुछ पुरस्कार भी दिया था। देशाटन अधिक करने के कारण उनको अनेक भाषाओं का ज्ञान था, उनमें उन्होंने कविता भी की है। वे ब्रज-निवासी थे और ब्रजभाषा पर उनको अधिकार भी था। परंतु स्वतंत्रा प्रकृति के थे, इसलिए उनकी रचना में ब्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का मिश्रण भी है। उनकी कविता में जैसी चाहिए वैसी भावुकता भी नहीं। आन्तरिक प्रेरणाओं से लिखी गयी कविताओं में जो बल होता है, उनकी रचनाओं में वह कम पाया जाता है। उन्होंने बहुत अधिक रचनाएँ की हैं, इसलिए सबमें कविकर्म्म का उचित निर्वाह नहीं हो सका, उनकी कविता में प्रवाह पाया जाता है, परन्तु यथेष्ट नहीं। उर्दू और फारसी शब्दों का प्रयोग उनकी कविता में प्राय: देखा जाता है। ज्ञात होता है कि उन पर उर्दू शायरी का भी कुछ प्रभाव था। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. मोरन के सोरन की नेकौ ना मरोर रही

घोर हूँ रही न घन घने या फरद की।

अंबर अमल सर सरिता बिमल भल

पंक को न अंक औ न उड़नि गरद की।

ग्वाल कवि चित में चकोरन के चैन भये।

पंथिन की दूरि भई दूखन दरद की।

जल पर थल पर महल अचल पर

चाँदी सी चमकि रही चाँदनी सरद की।

2. ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम धाम

गरमी झुकी है जाम नाम अति पापिनी।

भींजे खस बीजन झले हूँ ना सुखात स्वेद

गात ना सुहात बात दावा सी डरापिनी।

ग्वाल कवि कहै कोरे कुंभन ते कूपन ते

लै लै जलधार बार बार मुख थापिनी।

जब पियो तब पियो अब पियो फेर अब

पीवत हूँ पीवत मिटै न प्यास पापिनी।

3. जेठ को न त्रास जाके पास ये बिलास होंय ,

खस के मवास पै गुलाब उछरयो करै।

बिही के मुरब्बे डब्बे चाँदी के बरक भरे ,

पेठे पाग केवरे मैं बरफ परयो करै।

ग्वाल कवि चंदन चहल में कपूर चूर ,

चंदन अतर तर बसन खरयो करै।

कंज मुखी कंज नैनी कंज के बिछौनन पै ,

कंजन की पंखी कर कंज ते करयो करै।

4. गीधो गीधो तार कै सुतारि कै उतारि कै जू

धारि कै हिये में निज बात जटि जायगी।

तारि कै अवधि करी अवधि सुतारिबे की

बिपति बिदारिबे की फाँस कटि जायगी।

ग्वाल कवि सहज न तारिबो हमारो गिनो

कठिन परैगी पाप-पांति पटि जायगी।

यातें जो न तारिहौ तुम्हारी सौंह रघुनाथ

अधाम उधारिबे की साख घटि जायगी।

5. जाकी खूब खूबी खूब खूबन कै खूबी यहाँ

ताकी खूब खूबी खूब खूबी नभ गाहना।

जाकी बद जाती बद जाती इहाँ चारन में

ताकी बदजाती बद जाती ह्नाँ उराहना।

ग्वाल कवि येही परसिध्द सिध्द ते हैं जग

वही परसिध्द ताकि इहाँ ह्नाँ सराहना।

जाकी इहाँ चाहना है ताकि वहाँ चाहना है

जाकी इहाँ चाह ना है ताकी उहाँ चाह ना।

6. चाहिए जरूर इनसानियत मानस को

नौबत बजे पै फेर भेर बजनो कहा।

जाति औ अजाति कहा हिंदू औ मुसलमान

जाते कियो नेह ताते फेर भजनी कहा।

ग्वाल कवि जाके लिये सीस पै बुराई लई

लाजहूँ गँवाई ताते फेर लजनो कहा।

या तो रंग काहू के न रंगिये सुजान प्यारे।

रँगे तो रँगेई रहे फेर तजनो कहा।

7. दिया है खुदा ने खूब खुसी करो ग्वाल कवि

खाओ पियो देव लेव यही रह जाना है।

राजा राव उमराव केते बादसाह भये

कहाँ ते कहाँ को गये लाग्यो ना ठिकाना है।

ऐसी जिंदगानी के भरोसे पै गुमान ऐसे

देस देस घूमि घूमि मन बहलाना है।

परवाना आये पर चले ना बहाना

इहाँ नेकी कर जाना फेर आना है न जाना है।

उनकी अन्य भाषाओं की भी रचनाएँ हैं। पर मैं अब उनको उठाना नहीं चाहता। एक-एक पद उन भाषाओं का देख लीजिए-

पूरबी भाषा- मोर परवा सिर ऊपर सोहै।

अधार बँसुरिया राजत बाय।

गुजराती भाषा- तुम तौ कहो छो

छैया मोटो ऊधामी छै।

म्हारी मटकी मठानी ढुलकावा नो निदान छै।

पंजाबी भाषा- साड़ी खुशी एहौ आप

आरांदी खुशी दे बिच।

जेही चाहो तेही करो नेही कानूं नस्स दै।

गोकुलनाथ महाराज काशिराज के दरबार के प्रसिध्द कवि थे। वे कविवर रघुनाथ के पुत्र थे, इनका भाषा-साहित्य का ज्ञान उच्च कोटि का माना जाता है। इन्होंने साहित्य के सब अंगों पर रचनाएँ की हैं, रीति-सम्बन्धी सुन्दर ग्रन्थ भी बनाये हैं।'कवि मुखमंडन, राधाकृष्ण विलास और 'चेत चन्द्रिका' इनके प्रसिध्द ग्रन्थ हैं। इन्होंने अधयात्म रामायण का अनुवाद भी किया है। सीताराम गुणार्णव उसका नाम है। यह इनका प्रबन्धा ग्रन्थ है। इन्होंने एक बहुत बड़ा कार्य अपने पुत्र गोपीनाथ और शिष्य मणिदेव की सहायता से किया। वह है समस्त महाभारत और हरिवंश पर्ब का ब्रजभाषा में सरस अनुवाद। यह अनुवाद काशी के महाराज उदितनारायण सिंह की बहुत बड़ी उदारता का फल है। यह कार्य लगभग पचास वर्ष में हुआ और इसमें उन्होंने लाखों रुपये व्यय किये। यह मुझे ज्ञात है कि महाराज रणजीत सिंह ने भी समस्त महाभारत का अनुवाद सुन्दर ब्रजभाषा में किसी कवि से कराया था। उन्होंने भी यह कार्य बहुत व्यय स्वीकार करके किया था। मैंने इस ग्रन्थ को पढ़ा और देखा भी है। निज़ामाबाद निवासी स्व. बाबा सुमेर सिंह के पास इसकी एक हस्तलिखित प्रति मौजूद थी। परन्तु अब वह अप्राप्य है। जहाँ तक मुझे ज्ञात है, यह ग्रन्थ मुद्रित भी नहीं हुआ परन्तु काशिराज के अनुवाद के तीन संस्करण हो चुके हैं। इस ग्रन्थ की सुन्दर और मधुर रचना की बहुत अधिक प्रशंसा है। गोकुलनाथ ने ऐसे विशाल ग्रन्थ का अनुवाद अशिथिल और भावमयी भाषा में करके बहुत बड़ा गौरव प्राप्त किया है। इतना बड़ा प्रबन्धा काव्य अब तक हिन्दी के किसी कवि अथवा महाकवि द्वारा नहीं लिखा जा सका। सच बात तो यह है कि अकेले एक बहुत बड़ा प्रतिभाशाली कवि भी इस कार्य को नहीं कर सकता था। गोपीनाथ और मणिदेव भी गण्य कवियों में है। उनकी पूर्ण सहायता से ही गोकुलनाथ को इतनी बड़ी कीर्ति प्राप्त हो सकी। इसलिए वे भी कम प्रशंसनीय नहीं। इस अनुवाद की एक विशेषता यह है कि यदि यह न बताया जाय कि तीनों कवियों में से किस कवि ने किस पर्व का अनुवाद किया है तो ग्रन्थ की भाषा के द्वारा यह ज्ञात नहीं हो सकता है कि उसमें तीन कवियों की रचनाएँ हैं। वास्तव बात यह है कि तीनों ने इतनी योग्यता और विलक्षणता के साथ अनुवाद कार्य किया है कि भाषा में विभिन्नता आयी ही नहीं। ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, उसमें उर्दू, परसी अथवा अन्य भाषा के शब्द यत्रा-तत्रा आये हैं, परन्तु उसके अंगभूत बनकर, इस प्रकार नहीं कि जिससे भाषा की शैली में कोई व्याघात अथवा विषमता उत्पन्न हो। इन तीनों सुकवियों की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखे जाते हैं-

1. सखिन केति मैं उकुति कल कोकिल की

गुरुजन हूँ के पुनि लाज के कथन की।

गोकुल अरुन चरनांबुज पै गुंज पुंज

धुनि सी चढ़ति चंचरीक चरचान की।

पीतम के वन समीप ही जुगुति होति

मैन मंत्रा तंत्रा के बरन गुनगान की।

सौतिन के कानन मैं हालाहल ह्नै हलति

ऐरी सुखदानि तौन बजनि बिछुवान की।

2. पेंच खुले पगरी के उड़ैं फिरै

कुंडल की प्रतिमा मुख दौरी।

तैसिये लोल लसैं जुलफैं रहैं

एहो न मानति धावति धाौरी।

गोकुलनाथ किये गति आतुर

चातुर की छबि देखत बौरी।

ग्वालिन ते कढ़ि जात चल्यो

फहरात कँधा पर पीत पिछौरी।

- गोकुलनाथ

3. बिहँग अगनित भाँति के तहँ रमत बोलत बैन।

मृगा आवत तासु तर ते लहत अतिसय चैन।

पलित नामक मूष शतमुख विवर करि तर तासु।

भयो निवसत अति विचच्छन चपल लच्छन जासु।

- गोपीनाथ

4. काक के ये बचन सुनि कै कह्यो हंस सुजान।

एक गति सब बिहग की तुम काक शतगतिवान।

एक गति सों उड़ब हम तुम यथा रुचित सुबंस।

बाँधि यहि बिधि बहस लागे उड़न वायस हंस।

- मणिदेव

भाषा के विषय में इतना और कहना आवश्यक होता है कि अनुवादकों की प्रवृत्तिा कहीं-कहीं संस्कृत के शब्दों को तत्सम रूप में रखने ही की है। इसलिए ब्रजभाषा के नियमानुसार शकार को सकार न करके प्राय: शकार ही रहने दिया गया है। इसी प्रकार अनुप्रास आदि के आधार से अधिक ललित बनाने की चेष्टा न कर सरलता ही पर विशेष दृष्टि रखी गयी है।

राय रणधीर सिंह जिला जौनपुर, सिंगरामऊ के निवासी थे। आप वहाँ के एक प्रतिष्ठित जमींदार थे। आपके यहाँ पण्डितों,विद्वानों एवं कवियों का बड़ा आदर था। कविता में उनकी इतनी रुचि थी कि वह उनका एक व्यसन हो गया था, उन्होंने पाँच ग्रन्थों की रचना की थी। उनमें से 'नामार्णव' पिंगल का, 'काव्यरत्नाकर' नायिका भेद और अलंकार का और 'भूषण-कौमुदी',साहित्य-सम्बन्धी ग्रन्थ है। ये एक सरस हृदय कवि थे। उनका एक पद्य देखिए-

मंजुल सुरंगवर सोभित अंचित चारु

फल मकरंद कर मोदित करन हैं।

प्रमित विराग ज्ञान सर के सरस देस

विरद असेस जसु पांसु प्रसरन हैं।

सेवित नृदेव मुनि मधुप समाज ही के

रनधीर ख्यात द्रुत दच्छिन भरन हैं।

ईस हृदि मानस प्रकासित सहाई लसैं

अमल सरोज वर स्यामा के चरन हैं।

लछिराम ब्रह्मभट्ट थे और अमोड़ा, जिला बस्ती उनका जन्म-स्थान था। उन्होंने महाराज मानसिंह अवधा-नरेश के दरबार में रहकर साहित्य का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। उन्हीं से उन्होंने कविराज की पदवी भी प्राप्त की थी। वे उनके दरबार की शोभा तो थे ही, उनकी कृपा के कारण अवधा प्रान्त के अनेक राजाओं के यहाँ भी सम्मानित थे। उन्होंने अलंकार के कई ग्रन्थ लिखे हैं, जो उस राजा के नाम से ही प्रख्यात हैं जिसकी कीर्ति के लिए उनकी रचना हुई है-जैसे 'प्रताप रत्नाकर', 'लक्ष्मीश्वर रत्नाकर', 'रावणेश्वर-कल्पतरु', 'महेश्वर-विलास' आदि। इन्होंने नायिकाभेद, अलंकार और अन्य कुछ विषयों पर भी ग्रन्थ लिखे हैं और इस प्रकार इनके ग्रंथों की संख्या दस-पन्द्रह है। कविता-शक्ति इनमंक अच्छी थी, इनकी रचना भी सरस होती थी। परंतु अधिकतर इनकी कृति में अनुकरण मात्रा है। मौलिकता खोजने पर भी नहीं मिलती। इनकी भाषा ब्रजभाषा है और उसमें साहित्यिक गुण भी हैं। कोमल और सरस शब्द-विन्यास करने में भी वे दक्ष थे। कुछ पद्य देखिए-

1. भरम गँवावै झरबेरी संग नीचन ते

कंटकित बेल केतकीन पै गिरत है।

परिहरि मालती सुमाधावी सभासदनि

अधाम अरूसन के अंग अभिरत है।

लछिराम सोभा सरवर में बिलास हेरि

मूरख मलिंद मन पल ना थिरत है।

रामचन्द्र चारु चरनांबुज बिसारि देस

बन बन बेलिन बबूर मैं फिरत है।

2. भानु-बंस-भूषन महीष रामचन्द्र बीर

रावरो सुजस फैल्यो आगर उमंग मैं।

कवि लछिराम अभिराम दूनो सेस हूँ सों

चौगुनो चमकदार हिमगिरि गंग मैं।

जाको भट घेरे तासों अधिक परे हैं और

पच गुनो हीरा हार चमक प्रसंग मैं।

चंद मिलि नौगुनो नछत्रान सों सौगुनो ह्नै

सहस गुनो भो छीर-सागर तरंग मैं।

3. सजल रहत आप औरन को देत ताप

बदलत रूप और बसन बरेजे मैं।

तापर मयूरन के झुंड मतवाले साले

मदन मरोरैं महा झरनि मरेजे मैं।

कवि लछिराम रंग साँवरो सनेही पाय

अरज न मानै हिय हरष हरेजे मैं।

गरजि गरजि बिरहीन के बिदारैं उर

दरद न आवै धारे दामिनी करेजे मैं।

गोविन्द गिल्ला भाई चौहान राजपूत थे। उनकी शिक्षा तो साधारण थी, किन्तु उन्होंने परिश्रम करके हिन्दी साहित्य में अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने तीस से अधिक ग्रन्थों की रचना की है। जिनमें 'साहित्य-चिन्तामण्0श्निा', 'शृंगार-सरोजिनी', 'गोविन्द-हजारा' और 'विवेक-विलास' आदि बड़े ग्रन्थ हैं। इनमें 'शृंगार-सरोजिनी' और 'साहित्य चिन्तामणि' रीति ग्रंथ हैं। ये काठियावाड़ (गुजरात) के रहने वाले थे। फिर भी उन्होंने ब्रजभाषा में रचना की है। भाषा टकसाली तो नहीं कही जा सकती। परन्तु यह अवश्य स्वीकार करना पड़ता है कि उस पर उनका अच्छा अधिकार था। उनकी रचना में सहृदयता है और कोमलता भी। परन्तु जैसी चाहिए वैसी भावुकता उसमें नहीं मिलती। कुछ पद्य देखिए-

1. संपति करन और दारिद दरन सदा

कष्ट के हरन भव तारन तरन हैं।

भौन के भरन चारों फल के फरन

महाताप के हरन असरन के सरन हैं।

भक्त उध्दरन और बिघन हरन सदा

जनम मरन महादुख के दरन हैं।

गोबिंद कहत ऐसे बारिज बरन बर

मोद के करन मेरे प्रभु के चरन हैं।

2. दाहिबो सरीर अरु लहिबो परमपद

चाहिबो छनिक माहिं सिंधुपार पाइबो।

गहिबो गगनअरु बहिबो बयारि संग

रहिबो रिपुन संग त्रास नहिं लाइबो।

सहिबो चपेट सिंह लहिबो भुजंग मनि

कहिबो कथन अरु चातुर रिझाइबो।

गोबिंद कहत सोई सुगम सकल

पर कठिन कराल एक नेह को निभाइबो।

प्रताप साहि बंदीजन थे और चरखारी के महाराज विक्रमशाह के दरबारी कवि थे। इन्होंने आठ-दस ग्रन्थों की रचना की है,जिनमें से अधिकतर साहित्य सम्बन्धी हैं। व्यंग्यार्थ कौमुदी नामक एक धवनि-सम्बन्धी ग्रन्थ भी लिखा हुआ है जो अधिक प्रशंसनीय है। कहा जाता है कि रीति ग्रन्थों के अन्तिम आचार्य ये ही हैं। साहित्य में इनका ज्ञान विस्तृत था। इसलिए हिन्दी में साहित्य-विषयक जो न्यूनताएँ थीं, उनको उन्होंने पूरी करने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त की। इनकी भाषा सरस ब्रजभाषा है। साथ ही वह बड़ी भावमई है। कोमल और मधुर शब्द विन्यास पर भी उनका अच्छा अधिकार देखा जाता है। कुछ रचनाएँ देखिए-

1. सीख सिखाई न मानति है बरही बससंग सखीन के आवै।

खेलत खेल नये जग में बिन काम था कत जाम बितावै।

छोड़ि कै साथ सहेलिन को रहि कै कहि कौन सवादहिं पावै।

कौन परी यह बानि अरी नित नीर भरी गगरी ढरकावै।

2. चंचलता अपनी तजि कै रस ही रस सों रस सुन्दर पीजियो।

कोऊ कितेक कहै तुमसों तिनकी कही बातन को न पतीजियो।

चीज चबाइनि के सुनियो न यही इक मेरी कही नित कीजियो।

मंजुल मंजरी पै हो मलिंद बिचारि कै भारसँभारि कै दीजियो।

3. तड़पै तड़िता चहुँ ओरन ते छिति छाई समीरन की लहरैं।

मदमाते महा गिरि सृंगन पैगन मंजु मयूरन के कहरैं।

इनकी करनी बरनी न परै मगरूर गुमानन सों गहरैं।

घन ये नभ मंडल में छहरैं हरैं कहुँ जाय कहूँ ठहरैं।

4. चंचला चपल चारु चमकत चारों ओर

झूमि झूमि धुरवा धारनि परसत है।

सीतल समीर लगै दुखद बियोगिन

सँयोगिन समाज सुख साज सरसत है।

कहै परताप अति निबिड़ ऍंधोरी माँहि

मारग चलत नाहिं नेकु दरसत है।

झुमड़ि झलानि चहुँ कोद ते उमड़ि आज

धाराधार धारन अपार बरसत है।

5. महाराज रामराज रावरो सजत दल

होत मुख अमल अनंदित महेस के।

सेवत दरीन केते गब्बर गनीम रहैं

पन्नगपताल त्योंही डरन खगेस के।

कहै परताप धारा धाँसत चसत कसमसत

कमठ पीठि कठिन कलेस के।

कहरत कोल हहरत हैं दिगीस दस

लहरत सिंधु थहरत फन सेस के।

इस शताब्दी के प्रबन्धाकारों में महाराज रघुराज सिंह का नाम विशेष उल्लेख योग्य है। गोकुलनाथ की चर्चा पहले मैं कर चुका हूँ। वे भी बहुत बड़े प्रबन्धाकार इस शताब्दी के हैं। परन्तु उनकी कृति में दो और कवियों का हाथ है। वे प्रसिध्द रीति ग्रन्थकार भी हैं। इसलिए मैंने उनकी चर्चा रीति ग्रंथकारों में की है। महाराज रघुराजसिंह की जितनी रचनाएँ हैं, सब उन्हीं की कृतियाँ हैं और उनमें प्रबन्धा ग्रन्थों की संख्या अधिक है। इसलिए मैं उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वश्रेष्ठ प्रबंधाकार उन्हीं को मानता हूँ। रीवाँ राज्य वंश वैष्णव है। उसकी धर्मपरायणता प्रसिध्द है। महाराज रघुराजसिंह के पितामह जैसिंह बड़े भक्त और सच्चे वैष्णव थे। उन्होंने अपने जीवन काल में ही अपने पुत्र विश्वनाथ सिंह को अपना राज्य भार सौंप दिया था। भगवत्-भजन में ही वे रत रहते थे और भक्ति-सुख को राज्य-सुख से उच्च मानते थे। वे बड़े सहृदय कवि भी थे, लगभग अठारह ग्रन्थों की उन्होंने रचना की थी। उनमें से हरिचरित चन्द्रिका, हरेचरितामृत, कृष्ण-तरंगिणी आदि अधिक प्रसिध्द हैं। 'निर्णय-सिध्दान्त'और 'वेदान्त प्रकाश' भी उनके सुन्दर ग्रन्थ हैं। उनकी रचना बड़ी ललित होती थी और कोमल एवं सरस पद-विन्यास उनकी रचना का प्रधान गुण था। उन्होंने अधिकतर प्रबन्धा ग्रन्थ ही लिखे और वह आदर्श उपस्थित किया, जिसका अनुकरण बाद को उनके पुत्र महाराज विश्वनाथ सिंह और पौत्र महाराज रघुराज सिंह ने बड़ी श्रध्दा के साथ किया। उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। परन्तु उसमें अवधी के शब्द भी प्राय: आते रहते हैं। इनकी अधिकांश रचनाएँ दोहा और चौपाइयों में हैं। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. परसि कमल कुवलय बहत , वायु ताप नसि जाइ।

सुनत बात हरि गुननयुत , जिमि जन पाप पराइ।

2. वन वाटिका उपवन मनोहर फूल फल तरु मूल से।

सर सरित कमल कलाप कुवलय कुमुद बन बिकसे लसे।

सुख लहत यों फल चखत मनुपीयत मधुप सों नीति सों।

मन मगन ब्रह्मानंद रस जोगीस मुनिगन प्रीति सों।

3. कूजि रहे खग कुल मधुप , गूँजि रहे चहुँ ओर।

तेहि बन लै गोगन सकल प्रविसे नंद किसोर।

उनके पुत्र महाराज विश्वनाथ सिंह ने भी अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उन्होंने कबीर के बीजक और विनय पत्रिका की भी सुन्दर टीकाएँ लिखी हैं। 'आनन्द रघुनन्दन' नामक एक नाटक भी बनाया है। छोटे-मोटे कई प्रबन्धा ग्रन्थ भी लिखे हैं। अपने पिता के समान इन्होंने भी अनेक धार्मिक ग्रन्थों की रचना की है। इन्होंने संस्कृत में भी ग्रन्थ लिखे हैं उनमें से'राधावल्लभी भाष्य', 'सर्वसिध्दान्त' आदि अधिक प्रसिध्द हैं। इन्होंने भी कविता रचने में पिता का ही अनुकरण किया है। परन्तु इनकी भाषा उतनी ललित नहीं है। संयुक्त वर्ण भी इनकी रचना में अधिक आये हैं। फिर भी इनकी अधिकतर कविताएँ मनोहर हैं। एक पद्य देखिए-

1. बाजी गज सोर रथ सुतुर कतार जेते ,

प्यादे ऐंडवारे जे सबीह सरदार के।

कुँवर छबीले जे रसीले राजबंस वारे ,

सूर अनियारे अति प्यारे सरकार के।

केते जातिवारे केते केते देसवारे जीव ,

स्वान सिंह आदि सैल वारे जे सिकार के।

डंका की धुकार ह्नै सवार सबै एकै बार

राजैं वार पार बीर कोसल कुमार के।

महाराज रघुराजसिंह में पिता से पितामह का गुण अधिक है। इनकी कितनी ही रचनाएँ बड़ी सरस हैं। इन्होंने भी अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जिसमें 'आनन्दांबुनिधि' जैसे विशाल ग्रन्थ भी हैं। वंश-परम्परा से यह राज्य कवियों का कल्पतरु रहा है। महाराज रघुराज सिंह के आश्रय में भी अनेक कवि थे, जो उनके लिए कल्पतरु के समान ही कामद थे। आनन्दांबुनिधि श्रीमद्भागवत का अनुवाद है। मैंने बाल्यावस्था में इस ग्रन्थ का कई पारायण किया है। इस ग्रन्थ की भाषा चलती और सुन्दर है। इनका भक्ति भाव अपने पिता पितामह के समान ही मधुर और स्निग्धा था। उसी की स्निग्धाता और माधुरी इनकी रचनाओं में पाई जाती है। इन्होंने भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही लिखी है, जिसमें यत्रा-तत्रा अवधी का पुट भी पाया जाता है। उनके ग्रन्थों की संख्या जब देखी जाती है और कई विशाल ग्रंथों की विशालता पर जब धयान दिया जाता है तो बड़ा आश्चर्य होता है। राज्य कार्य का संचालन करते हुए जो इनकी लेखनी धारावाहिक रूप से सदा चलती ही रही, यह कम चकितकर नहीं। उनके 'राम-स्वयंवर', 'रुक्मिणी परिणय' आदि ग्रंथ भी सुन्दर सरस और मनोहर हैं। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

1. कल किसलय कोमल कमल पद-तल सरि नहिं पाय।

एक सोचत पियरात नित एक सकुचत झरि जाय।

2. विलसत जदुपति नखनि मैं अनुपम दुति दरसाति।

उडुपति जुत उडु अवलि लखि सकुचि सकुचि दुरिजाति।

3. सविता दुहिता स्यामता सुरसरिता नख जोत।

सुतल अरुनता भारती चरन त्रिबेनी होत।

4. गुलुफ कुलुफ खोलनि हृदै हो तौ उपमा तूल।

ज्यों इंदीवर तट असित द्वैगुलाब के फूल।

5. चारु चरन की ऑंगुरी मोपै बरनि न जाय।

कमल कोस की पाँखुरी पेखत जिनहिं लजाय।

6. जदुपति नैन समान हित बिधि ह्नै बिरचै मैन।

मीन कंज खंजन मृगहुँ समता तऊ लहै न।

7. सखि लखन चलो नृप कुँवर भलो।

मिथिला पति सदन सिया बनरो।

सिरमौर बसन तन में पियरो।

हठहेरि हरत हमरो हियरो।

8. उर सोहत मोतिन को गजरो

रतनारी ऍंखियन में कजरो।

चितये चित चोरत सखि समरो

चितये बिन जिय न जिये हमरो।

9. अलकैं अलि अजब लसैं चेहरो।

झपि झूलि रह्यो कटि लौं सेहरो।

चित चहत अरी लगि जाउँ गरे।

रघुराज त्यागि जग को झगरो।

10. माधुरी माधाव की वह मूरति देखत ही दृग देखे बनैरी।

तीन हूँ लोक की जो रुचिराई सुहाई अहै तिनही ते घनैरी

सोभा सचीपति और रति के पति की कछु आयी न मेरेमनैरी

हेरि मैं हारयो हिये उपमा छबि हूँ छबि पायी विराजित नैरी।

महाराज रघुराजसिंह के वाच्यार्थ में कहीं-कहीं अस्पष्टता है, कहीं-कहीं शब्दों का समुचित प्रयोग भी नहीं है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि साहित्य के अधिकतर उत्ताम गुण उनकी रचनाओं में पाये जाते हैं। उनकी रचनाएँ भगवती वीणापाणि के चरणों में अर्पित सुन्दर सुमन मालाओं के समान हैं।

इन भक्त महाराजाओं के साथ हम एक और सहृदय भक्त की चर्चा करना चाहते हैं। वे हैं दीनदयाल गिरि। इनकी गणना दस नामी संन्यासियों में है। कोई इन्हें ब्राह्मण संतान कहता है और कोई क्षत्रिय-संतान। वे जो हों परंतु त्यागी पुरुष थे। हृदय भी उदार था और भावुकता उसमें भरी थी। इनके बनाये पाँच ग्रन्थ हैं। उनके नाम हैं-अनुराग बाग, दृष्टान्त तरंगिणी, अन्योक्ति माला, वैराग्यदिनेश और अन्योक्ति कल्पद्रुम। इन ग्रन्थों का विषय इनके नामानुकूल है। ये थे शैव किंतु हृदय उदार था,इसलिए इनकी रचना में वह कटुता नहीं आयी है, जिसकी जननी साम्प्रदायिकता है। वह बड़ी ही सरस और मधुर है साथ ही बड़ी उपयोगिनी। इन्होंने संन्यासी का कार्य ही अधिकतर किया है। समाज को सत् शिक्षा देने में ही वे आजन्म प्रवृत्ता रहे। इनकी भाषा टकसाली ब्रजभाषा है, वे संस्कृत के विद्वान् होकर भी अपनी रचना में संस्कृत के शब्दों का अधिक व्यवहार नहीं करते थे। इनकी रचना में प्रवाह है और उसमें एक बड़ी ही मनोहर गति पायी जाती है। अन्य भाषा या उर्दू के शब्द भी कहीं-कहीं इनके पद्यों में आ जाते हैं परंतु वे नियमित होते हैं। उनकी व्यंजनाएँ मधुर हैं और भाव स्पष्ट। कहीं-कहीं उत्तामोत्ताम धवनियाँ भी उनमें मिल जाती हैं। अन्योक्ति की रचनाएँ जितनी सुन्दर और सरस इन्होंने कीं उसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। इनके कुछ पद्य देखिए-

1. छाडयो गृहकाज कुललाज को समाज सबै

एक व्रजराज सो कियो री प्रीतिपन है।

रहत सदाई सुखदाई पद पंकज में

चंचरीक नाईं भईं छाँड़ैं नाहिं छन है।

रति-पति मूरति बिमोहन को नेमधारि

विषै प्रेमरंग भरि मति को सदन है।

कँवर कन्हाई की लुनाई लखि माई मेरो

चेरो भयो चित औ चितेरो भयो मन है।

2. कोमल मनोहर मधुर सुरताल सने

नूपुर निनादनि सों कौन दिन बोलि हैं।

नीके मम ही के बुंद वृंदन सुमोतिन को

गहि कै कृपा की अब चोंचन सों तोलि हैं।

नेम धारि छेम सों प्रमुद होय दीन द्याल

प्रेम कोक नद बीच कब धौं कलोलि हैं।

चरन तिहारे जदुवंस राजहंस कब

मेरे मन मानस मैं मंद-मंद डोलि हैं।

3. पराधीनता दुख महा सुखी जगत स्वाधीन।

सुखी रमत सुक बनविषै कनक पींजरे दीन।

4. केहरि को अभिषेक कब कीन्हों विप्र समाज।

निज भुजबल के तेज ते विपिन भयो मृगराज।

5. नाहीं भूलि गुलाब तू गुनि मधुकर गुंजार।

यह बहार दिन चार की बहुरि कटीली डार।

बहुरि कटीली डार होहिगी ग्रीषम आये।

लुवैं चलेंगी संग अंग सब जैहैं ताये।

बरनै दीन दयाल फूल जौ लौं तौ पाहीं।

रहे घेरि चहुँ फेर फेरि अलि ऐहैं नाहीं।

6. चारों दिसि सूझै नहीं यह नद धार अपार।

नाव जर्जरी भार बहु खेवन हार गँवार।

खेवनहार गँवार ताहि पै है मतवारो।

लिये भँवर में जाय जहाँ जल जंतु अखारो।

बरनै दीन दयाल पथी बहु पौन प्रचारो।

पाहि पाहि रघुबीर नाम धारि धीर उचारो।

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में कुछ ऐसे कवि भी हुए हैं जो न तो रीति ग्रन्थकार हैं, न प्रबन्धाकार, वरन प्रेममार्गी हैं अथवा शृंगारिक कवि। उनकी संख्या बहुत बड़ी है, परन्तु मैं उनमें से कुछ विशेषता प्राप्त सहृदयों का ही उल्लेख करूँगा, जिससे यह ज्ञात हो सके कि उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा किस प्रकार हिन्दी साहित्य को अलंकृत किया। इन लोगों में से सबसे पहले हमारे सामने ठाकुर कवि आते हैं। ठाकुर तीन हो गये हैं। इनमें से दो ब्रह्मभट्ट थे, और एक कायस्थ। असनी के रहने वाले प्राचीन ठाकुर सत्राहवीं सदी के अन्त में या अठारहवीं के आदि में पड़ते हैं। इन तीनों ठाकुरों की रचनाएँ एक-दूसरे के साथ इतनी मिल गयी हैं कि इनको अलग करना कठिन है। तीनों ठाकुरों की सवैयाओं में कुछ ऐसी मधुरता है कि वह अपनी ओर हृदय को खींच लेती है, इससे अनेक सहृदयों को ठाकुर की सवैयाओं को पढ़ते सुना जाता है। प्राचीन ठाकुर के विषय में कोई ऐसा परिचय चिद्द नहीं मिलता कि जिसके आधार से उनको औरों से अलग किया जा सके। परन्तु जो दो ठाकुर उन्नीसवीं शताब्दी में हुए हैं, उनका अन्तर जानने के लिए जो बातें कही जाती हैं वे ये हैं। असनी वाले ब्रह्मभट्ट की रचना अधिकतर कवित्ताों में है। उन्होंने सवैया भी लिखे हैं, किन्तु उसके अंत में कोई कहावत लाने का नियम उन्होंने नहीं रखा है। दूसरे ठाकुर, जो कायस्थ थे, उन्होंने प्राय: अपनी रचना सवैया में की है और उसके अंत में कोई न कोई कहावत अवश्य लाये हैं। इसी परिचय चिद्द के आधार से उन लोगों की रचना आप लोगों के सामने उपस्थित करूँगा। प्राचीन ठाकुर की रचना मैं हिन्दी साहित्य के इतिहास से लेता हूँ, क्योंकि उसके रचयिता ने यह बतलाया है कि यह रचना उन्हीं की है। प्राचीन ठाकुर के विषय में यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि वे असनी के ब्रह्मभट्ट थे। परन्तु उनकी और बातों के विषय में सभी चुप हैं। ऐसी अवस्था में मुझको भी चुप रहना पड़ता है। उनकी रचनाओं के पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि वे एक सरस हृदय कवि थे और ब्रजभाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। दो पद्य देखिए-

1. सजि सूहे दुकूलनि बिज्जु छटा सी

अटान चढ़ी घटा जोवति हैं।

सुचिती ह्नै सुनैं धुनि मोरन की

रसमाती सँजोग सँजोवति हैं।

कवि ठाकुर वै पिय दूरि बसैं

हम ऑंसुन सों तन धोवति हैं।

धानिवै धानि पावस की रतियाँ

पति की छतियाँ लगि सोवति हैं।

2. बौर रसालन की चढ़ि डारन

कूकत क्वैलिया मौन गहै ना।

ठाकुर कुंजन कुंजन गुंजत

भौंरन भीर चुपैबो चहै ना।

सीतल मंद सुगंधित बीर

समीर लगे तन धीर रहै ना।

व्याकुल कीन्हों बसंत बनाय कै।

जाय कै कंत रो कोऊ कहैना।

दूसरे ठाकुर भी असनी के रहने वाले थे। उन्होंने बिहारी की सतसई पर टीका भी लिखी है। उनकी रचनाएँ भी सुंदर और सरस होती थीं। उन्होंने नीति सम्बन्धी जो कवित्ता बनाये हैं वे बड़े ही उपयोगी और उपदेशमय हैं। जैसे ही उनके शृंगार रस के कवित्ता सुन्दर हैं वैसे ही नीति सम्बन्धी भी। उनके कुछ सवैये भी बड़े ही हृदयग्राही हैं। नीति सम्बन्धी कवित्ता यदि विवेकशील मस्तिष्क की उपज हैं तो सरस सवैये उनकी सहृदयता के नमूने हैं। उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं-

1. बैर प्रीति करिबे की मन में न राखै संक

राजा राव देखि कै न छाती धाक धा करी।

आपने अमेंड के निबाहिबे की चाह जिन्हें

एक सों दिखात तिन्हें बाघ और बाकरी।

ठाकुर कहत मैं विचार कै बिचारि देख्यो

यहै मरदानन की टेक औ अटाकरी।

गही तौन गही जौन छाड़ी तौन छाड़ी।

जौन करी तौन करी बात ना करी सोनाकरी।

2. सामिल में पीर में सरीर में न भेद राखै

हिम्मत कपाट को उघारै तौ उघरि जाय।

ऐसो ठान ठानै तो बिनाही जंत्रा मंत्रा किये।

साँप के जहर को उतारै तौ उतरि जाय।

ठाकुर कहत कछु कठिन न जानौ मीत

साहस किये ते कहौ कहा ना सुधारि जाय।

चारि जने चारि हूँ दिसा ते चारों कोन गहि

मेरु को हलाय कै उखारैं तो उखरि जाय।

3. हिलि मिलि लीजिये प्रवीनन ते आठो जाम

कीजिये अराम जासों जिय को अराम है।

दीजिये दरस जाको देखिबे को हौस होय

कीजिये न काम जासों नाम बदनाम है।

ठाकुर कहत यह मन में विचारि देखो

जस अपजस को करैया सब राम है।

रूप से रतन पाय चातुरी से धान पाय

नाहक गँवाइबो गँवारन को काम है।

4. ग्वालन को यार हैं सिंगार सुभ सोभन को

साँचो सरदार तीन लोक रजधानी को।

गाइन के संग देखि आपनो बखत लेखि

आनँद बिसेख रूप अकह कहानी को।

ठाकुर कहत साँचो प्रेम को प्रसंगवारो

जा लखि अनंग रंग दंग दधिदानी को।

पुत्र नंद जी को अनुराग ब्रजबासिन को

भाग जसुमति को सुहाग राधारानी को।

5. कोमलता कंज ते गुलाब ते सुगंधा लैके

चंद ते प्रकास गहि उदित उँजेरो है।

रूप रति आनन ते चातुरी सुजानन ते

नीर लै निवानन ते कौतुक निबेरो है।

ठाकुर कहत यों सँवारयो बिधि कारीगर

रचना निहारि जनचित होत चेरो है।

कंचन को रंग लै सवाद लै सुधा को

बसुधा को सुख लूटि कै बनायो मुख तेरो है।

6. लगी अंतर में करै बाहिर को

बिन जाहिर कोऊ न मानतु है।

दुख औ सुखहानि औ लाभ सबै

घर की कोऊ बाहर भानतु है।

कवि ठाकुर आपनी चातुरी सों

सब ही सब भाँति बखानतु है।

पर बीर मिले बिछुरे की बिथा

मिलि कै बिछुरै सोई जानतु है।

7. एजे कहैं ते भले कहिबो करैं मान

सही सो सबै सहि लीजै।

ते बकि आपुहिं ते चुप होंयगी

काहे को काहुवै उत्तार दीजै।

ठाकुर मेटे मतै की यहै धानि

मान कै जोबन रूप पतीजै।

या जग में जनमे को जिये को

यहै फल है हरि सों हित कीजे।

8. वह , कंज सों कोमल अ गुपाल

को सोऊ सबै तुम जानती हौ।

बलि नेकु रुखाई धारे कुम्हिलात

इतोऊ नहीं पहचानती हौ।

कवि ठाकुर या कर जोरि कह्यौ

इतने पै बिनै नहीं मानती हौ।

दृग बान औ भौंह कमान कहो

अब कान लै कौन पै तानती हौ।

तीसरे ठाकुर बुंदेलखंडी थे और सरस रचना करते थे। मैं यह बतला चुका हूँ कि उनकी रचनाओं के अन्त में प्राय: कहावतें आती हैं। दो पद्य उनके भी देखिए-

1. यह चारहूँ ओर उदौ मुख चन्द को

चाँदनी चारु निहारि लैरी।

बलि जो पै अधीन भयो पिय प्यारी

तौ ए तौ बिचार बिचारि लैरी।

कबि ठाकुर चूकि गयो जुगोपाल तौ

तू बिगरी को सम्हारि लैरी।

अब रैंहै न रैहै यहौ समयो

बहती नदी पाँव पखारि लैरी।

2. पिय प्यार करै जेहि पै सजनी

तेहि की सब भाँतिन सैयत है।

मन मान करौं तौ परौं भ्रम में

फिर पाछे परे पछतैयत है।

कबि ठाकुर कौन की कासों कहौं

दिन देखि दसा बिसरैयत है।

अपने अटके सुन एरी भटू

निज सौत के मायके जैयत है।

इन तीनों ठाकुरों की रचनाओं में यह बड़ी विशेषता है कि सीधो शब्दों में रस की धारा बहा देते हैं। न अनुप्रास की परवा, न यमक की खोज, न वर्ण मैत्राी की चिन्ता। वे अपनी बातें अपनी ही बोल-चाल में कह जाते हैं और हृदय को अपनी ओर खींच लेते हैं। कवि कर्म्म है भी यही। जो बातें आगे-पीछे होती रहती हैं, उनको लेकर उनका चित्रा बोल-चाल में खींच देना सबका काम नहीं, सरस हृदय कवि ही ऐसा कर सकते हैं।

रामसहायदास, भवानीदास के पुत्र थे। वे जाति के कायस्थ थे और काशिराज महाराज उदितनारायण सिंह के आश्रय में रहते थे। उन्होंने चार ग्रन्थों की रचना की है-'वृत्ता-तरंगिनी', 'ककहरा', 'रामसतसई' और 'वाणी-भूषण्'। 'वाणी भूषण' अलंकार का, 'वृत्तातरंगिनी' पिंगल का, और 'ककहरा' नीति सम्बन्धी-ग्रन्थ है। राम सतसई बिहारी सतसई के अनुकरण से लिखी गई है। बिहारी ने अपने सतसई का नाम अपने नाम के आधार पर रक्खा है तो रामसहाय दास ने भी अपनी सतसई का नाम अपने नाम के सम्बन्धा से ही रखा। इतना ही अनुकरण नहीं, उन्होंने बिहारी सतसई का अनुकरण सभी बातों में किया है। उनके दोहे बिहारी के टक्कर के हैं। परन्तु सहृदयता और भावुकता में बिहारी की समता वे नहीं कर सके। चंदन सतसई और विक्रम सतसई भी बिहारी सतसई के ही आधार से लिखी गई हैं। परन्तु उन सतसइयों को भी बिहारीलाल की सतसई की-सी सफलता भाव-चित्राण में नहीं प्राप्त हुई। शब्द-विन्यास में बोल-चाल की भाषा लिखने में ब्रजभाषा के टकसाली शब्दों में सरसता कूट-कूट भर देने में बिहारी लाल अपने जैसे आप हैं। राम सतसई के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. गुलफनि लौं ज्यों त्यों गयो करि करि साहस जोर।

फिरि न फिरयो मुरवान चपि चित अति खात मरोर।

2. यों बिभाति दसनावली ललना बदन मँझार।

पति को नातो मानि कै मनु आई उडुनार।

3. सखि सँग जाति हुतो सुती भट भेरो भो जानि।

सतरौंही भौंहनि करी बतरौंही ऍंखियाँनि।

4. सतरौहैं मुख रुख किये कहैं रुखौहैं बैन।

रैन जगे के नैन ये सने सनेह दुरैं न।

5. खंजन कंज न सरि लहैं बलि अलि को न बखानि।

एनी की ऍंखियानि ते ए नीकी ऍंखियानि।

पजनेस एक प्रतिभाशाली कवि माने जाते हैं। इनका जन्म-स्थान पन्ना कहा जाता है और परिचय के विषय में कुछ विशेष ज्ञात नहीं। इन्होंने 'मधुर प्रिया' और 'नखशिख' नामक दो ग्रंथ बनाये थे। किन्तु दोनों ग्रंथ अमुद्रित हैं। इनकी स्फुट रचनाएँ कुछ पाई जाती हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि उनको संस्कृत और परसी का भी अच्छा ज्ञान था। इनकी रचनाओं की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है, किन्तु उनमें अन्य भाषाओं के शब्द अधिकता से पाये जाते हैं, इस विषय में वे अधिक स्वतंत्रा हैं। इनकी रचनाओं में अकोमल शब्दों का प्रयोग भी अधिक मिलता है। परुषा वृत्तिा इन्हें अधिक प्यारी है। जो स्फुट पद्य मिले हैं, वे सब शृंगार रस के ही हैं। अवधा नरेश महाराज मानसिंह इनकी रचनाओं को लोहे का चना कहते थे। तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने सरस पद-विन्यास किया ही नहीं। दोनों प्रकार के दो पद्य नीचे लिखे जातेहैं-

1. छहरै छबीली छटा छूटि छिति मंडल पै

उमँग उँजेरो महा ओज उजबक सी।

कवि पजनेस कंज मंजुल मुखी के गात

उपमाधिकात कल कुंदन तबक सी।

फैली दीप दीप दीप दीपति दिपति जाकी

दीप मालिका की रही दीपति दबकि सी।

परत न ताब लखि मुखमहताब

जब निकसी सिताब आफताब के भभकसी।

2. मानसी पूजामयी पजनेस

मलेछन हीन करी ठकुराई।

रोके उदोत सबै सुर गोत

बसेरन पै सिकराली बसाई।

जानि परै न कला कछु आज की

काहे सखी अजया इकल्याई।

पोखे मराल कहो केहि कारन एरी

भुजंगिनी क्यों पुसवाई।

पजनेस की रचना पदमाकर की रचना से सर्वथा विपरीत है। जैसी ही वह सरस, मधुर और प्रसाद गुणमयी है, वैसी ही इनकी रचना जटिल परुष और अस्पष्ट है। किन्तु इनकी प्रसिध्दि ऐसी ही रचनाओं के कारण हुई है।

महाराज मानसिंह अवध नरेश थे। नीतिज्ञता, गुणज्ञता, सहृदयता, उदारता, भावुकता अथच बहुदर्शिता के लिए प्रसिध्द थे। आपके दरबार में कवियों का बड़ा सम्मान था, क्योंकि उनमें कवि-कर्म की यथार्थ परख थी। वे स्वयं भी बड़ी सुन्दर कविता करते थे। कविता में अपना नाम 'द्विजदेव' लिखते थे। वे अवधी की गोद में पले थे, परन्तु कविता टकसाली ब्रजभाषा में लिखते थे। इस सरसता से पद-विन्यास करते थे कि कविता पंक्तियों में मोती पिरो देते थे। जैसी सुन्दर धवनि होती थी, वैसी ही सुन्दर व्यंजना। वास्तविक बात यह है कि इनकी कविता भाव प्रधान है, इसी से उसमें हृदयग्राहिता भी अधिक है। केवल एक ग्रन्थ'शृंगार-लतिका' इनका पाया जाता है। उसमें से कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. बाँके संक हीने राते कंज छबि छीने माते

झुकि झुकि झूमि झूमि काहू को कछू गनैन।

द्विजदेव की सौं ऐसी बानक बनाय बहु

भाँतिन बगारे चित चाह न चहूँघा चैन।

पेखि परे पात जो पै गातन उछाह भरे

बार बार तातैं तुम्हैं बूझती कछूक बैन।

एहो ब्रजराज मेरे प्रेम-धान लूटिये को

बीरा खाइ आये कितै आपके अनोखे नैन।

2. घहरि घहरि घन सघन चहूँघा घेरि

छहरि छहरि बिष बूँद बरसावै ना।

द्विजदेव की सौं अब चूक मत दाँव अरे

पात की पपीहा तू पिया की धुन गावै ना।

फेरि ऐसो औसर न ऐहै तेरे हाथ एरे

मटकि मटकि मोर सोर तू मचावै ना।

हौं तो बिन प्रान प्रान चाहत तजोई अब

कत नभ चन्द तू अकास चढ़ि धावै ना।

3. चित चाहि अबूझ कहैं कितने छबि

छीनी गयंदनि की टटकी।

कबि केते कहैं निज बुध्दि उदै

यह लीनी मरालनि की मटकी।

द्विजदेव जू ऐसे कुतर्कन में सब की

मति यों ही फिरै भटकी।

वह मन्द चलै किन भोरी भटू

पग लाखन की ऍंखियाँ अटकी।

गिरधारदास का मुख्य नाम गोपालचन्द्र था। आप भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के पिता थे। इन्होंने चालीस ग्रन्थ बनाये, जिनके आधार से बाबू हरिश्चन्द्र जी की यह गर्वोक्ति है-

जिन पितु गिरिधार दास ने रचे ग्रन्थ चालीस।

ता सुत श्री हरिचन्द को को न नवावै सीस।

ग्रन्थों की संख्या अवश्य बड़ी है, पर अधिकांश ग्रन्थ छोटे और स्तोत्रामात्रा हैं। 'जरासन्धा-वधा' महाकाव्य बड़ा ग्रन्थ है,परन्तु अधूरा है। इनकी अधिकांश रचनाएँ नैतिक हैं और उनमें सदाचार आदि की अच्छी शिक्षा है। इनकी भाषा ब्रजभाषा है,परन्तु उसे हम टकसाली नहीं कह सकते। इनकी रचना जितनी युक्तिमयी है, उतनी ही भावमयी। युक्तियाँ उत्ताम हैं, परन्तु उनमें उतनी सरलता और मधुरता नहीं। कहीं-कहीं रचना बड़ी जटिल है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि हिन्दी देवी की अर्चा इन्होंने सुंदर सुमनों से की है। इनके कुछ पद्य देखिए-

1. सब के सब केसव केसव के हित के

गज सोहते सोभा अपार है।

जब सैलन सैलन ही फिरै सैलन

सैलन सैलहि सीस प्रहार है।

गिरि धारन धारन सों पद के

जल धारन लै बसुधारन कार है।

अरि बारन बारन पै सुर बारन

बारन बारन बारन बार है।

2. बातन क्यों समुझावत हो मोहि

मैं तुमरो गुन जानति राधो।

प्रीति नई गिरधारन सों भई

कुंज में रीति के कारन साधो।

घूँघट नैन दुरावन चाहति दौरति

सो दुरि ओट ह्नै आधो।

नेह न गोयो रहै सखि लाज सो

कैसे रहै जल जाल के बाँधो।

3. जाग गया तब सोना क्या रे।

जो नरतन देवन को दुरलभ सो पाया अब रोना क्या रे।

ठाकुर से कर नेह आपना इंद्रिन के सुख होना क्या रे।

जब बैराग्य ज्ञान उर आया , तब चाँदी औ सोना क्या रे।

दारा सुवन सदन में पड़ि कै भार सबों का ढोना क्या रे।

हीरा हाथ अमोलक पाया काँच भाव में खोना क्या रे।

दाता जो मुख माँगा देवे तब कौड़ी भर दोना क्या रे।

गिरिधार दास उदर पूरे पर मीठा और सलोना क्या रे।

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में कोई ऐसा निर्गुणवादी संत सामने नहीं आता, जिसने अपने सम्प्रदाय में कोई नवीनता उत्पन्न की हो या जिसने ऐसी रचनाएँ की हों, जिनका प्रभाव साहित्य पर ऐसा पड़ा हो जो अंगुलि-निर्देश-योग्य हो। सत्राहवीं शताब्दी में पारी साहब नामक एक मुसलमान ने कबीर साहब का मार्ग ग्रहण कर कुछ हिन्दी के शब्द (भजन) बनाये। ये सूपी सम्प्रदाय के थे, परन्तु हिन्दी में प्रचार करने के कारण हिन्दुओं पर भी इनका प्रभाव पड़ा। इनके दो शिष्य थे-केशवदास और बुल्ला साहब। पहले हिन्दू थे और दूसरे मुसलमान, ये अठारहवीं शताब्दी में हुए। इनकी रचनाएँ भी हिन्दी में हुईं और इन्होंने भी हिन्दू जनता को अपनी ओर आकर्षित किया। बुल्ला साहब के शिष्य गुलाल साहब हुए। ये जाति के क्षत्रिय थे, और इन्होंने भी निर्गुण-वादियों की-सी रचनाएँ हिन्दी में कीं। पारी साहब अथवा बुल्ला साहब के रहन-सहन की प्रणाली अधिकतर हिन्दुओं के ढंग में ढली हुई थी। गुलाल साहब तक पहुँचकर वह सर्वथा हिन्दू भावापन्न हो गई। वैष्णवों की तरह इन्होंने तिलक और माला इत्यादि का प्रचार किया और सत्य राम मंत्रा का उपदेश। इनके शिष्य भीखा साहब हुए। ये जाति के ब्राह्मण थे। इसलिए इनके समय में इस परम्परा में ऐसे परिवर्तन हुए जो अधिकांश में वैष्णव सम्प्रदाय की अनुकूलता करते थे। ये अठारहवीं शताब्दी के अन्त में हुए और इन्होंने भी हिन्दी भाषा में रचनाएँ कीं, जो वैसी ही हैं जैसी निर्गुणवादी साधुओं की होती हैं। इनके शिष्य गोविन्दधार हुए जो गोविन्द साहब के नाम से प्रसिध्द हैं। इन्होंने अपना एक अलग सम्प्रदाय चलाया,जिसका मंत्रा है 'सत्य गोविन्द'। ये भी ब्राह्मण और संस्कृत के विद्वान् थे। इसलिए इनके सम्प्रदाय की ओर हिन्दू जनता भी अधिक आकर्षित हुई। इनकी हिन्दी रचनाएँ भी पायी जाती हैं, परन्तु थोड़ी हैं और उनमें गंभीरता अधिक है। इसलिए सर्वसाधारण में उसका अधिक प्रचार नहीं हुआ। इन्हीं के शिष्य पलटूदास हुए जो इस उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में जीवित थे। पारी साहब की परम्परा, इनके साथ ही समाप्त होती है। पलटू साहब जाति के बनिया थे, किन्तु सहृदय थे। जितनी रचनाएँ उन्होंने कीं, चलती और सरल भाषा में। इसलिए उनकी रचनाओं का प्रचार अधिक हुआ। वे अपने को निर्गुण बनिया कहा करते और लिखते थे। कबीर साहब के समान कभी-कभी ऊँची उड़ान भी भरते थे। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. पलटू हम मरते नहीं ज्ञानी लेहु बिचार।

चारों युग परलै भई हमहीं करने हार।

हमहीं करनेहार हमहिं कत्तर् के कत्तर्।

कत्तर् जिसका नाम धयान मेरा ही धारता।

पलटू ऐना संत हैं सब देखै तेहि माँहिं

टेढ़ सोझ मुँह आपना ऐना टेढ़ा नाहिं।

जैसे काठ में अगिन है फूल में है ज्यों बास।

हरिजन में हरि रहत हैं ऐसे पलटू दास।

सुनि लो पलटू भेद यह हँसि बोले भगवान।

दुख के भीतर मुक्ति है सुख में नरक निदान।

मरते मरते सब मरे मरै न जाना कोय।

पलटू जो जियतै मरै सहज परायन होय।

उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध्द ऐसा काल है जिसमें बहुत बड़े-बड़े परिवर्तन हुए। मैं पहले इस विषय में कुछ लिख चुका हूँ। परिवर्तन क्यों उपस्थित होते हैं, इस विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं। किन्तु मैं यह बतलाऊँगा कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तारार्ध्द में राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक अवस्था क्या थी। मुसलमानों के राज्य का अन्त हो चुका था और ब्रिटिश राज्य का प्रभाव दिन-दिन विस्तार लाभ कर रहा था। अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ योरोपीय भावों का प्रचार हो रहा था और 'यथा राजा तथा प्रजा' इस सिध्दान्त के अनुसार भारतीय रहन-सहन-प्रणाली भी परिवर्तित हो चली थी। अंग्रेजों का जातीय भाव बड़ा प्रबल है। उनमें देश-प्रेम की लगन भी उच्चकोटि की है। विचार स्वातंत्रय उनका प्रधान गुण है। कार्य को प्रारम्भ कर उसको दृढ़ता के साथ पूर्ण करना और उसे बिना समाप्त किये न छोड़ना यह उनका जीवन-व्रत है। उनके समाज में स्त्री जाति का उचित आदर है, साथ ही पुरुषों के समान उनका स्वत्व भी स्वीकृत है। ब्रिटिश राज्य के संसर्ग से और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पाकर ये सब बातें और इनसे सम्बन्धा रखने वाले और अनेक भाव इस शताब्दी के उत्तारार्ध्द में और प्रान्तों के साथ-साथ हमारे प्रान्त में भी अधिकता से फैले। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज का डंका बजाया, और हिन्दुओं में जो दुर्बलताएँ, रूढ़ियाँ और मिथ्याचार थे, उनका विरोधा सबल कंठ से किया। इन सब बातों का यह प्रभाव हुआ कि इस प्रकार के साहित्य की देश को आवश्यकता हुई जो कालानुकूल हो और जिससे हिन्दू समुदाय की वह दुर्बलताएँ दूर हों,जिनसे उसका प्रतिदिन पतन हो रहा था। यही नहीं, इस समय यह लहर भी वेग से सब ओर फैली कि किस प्रकार देशवासी अपनेर् कत्ताव्यों को समझें और कौन-सा उद्योग करके वे भी वैसे ही बनें जैसे योरोप के समुन्नत समाज वाले हैं। कोई जाति उसी समय जीवित रह सकती है, जब वह अपने को देशकालानुसार बना ले और अपने को उन उन्नतियों का पात्रा बनावे जिनसे सब दुर्बलताओं का संहार होता है, और जिनके आधार से लोग सभ्यता के उन्नत सोपानों पर चढ़ सकते हैं। इन भावों का उदय जब हृदयों में हुआ तब इस प्रकार की साहित्य-सृष्टि की ओर समाज के प्रतिभा-सम्पन्न विबुधों की दृष्टि गई और वे उचित यत्न करने के लिए कटिबध्द हुए। अनेक समाचार-पत्रा निकले और विविधा पुस्तक-प्रणयन द्वारा भी इष्ट-सिध्दि का उद्योग प्रारम्भ हुआ।

बाबू हरिश्चन्द्र इस काल के प्रधान कवि हैं। प्रधान कवि ही नहीं, हिन्दी साहित्य में गद्य की सर्व-सम्मत और सर्व-प्रिय शैली के उद्भावक भी आप ही हैं। हम इस स्थान पर यही विचार करेंगे कि उनके द्वारा हिन्दी पद्य में किन प्राचीन भावों का विकास और किन नवीन भावों का प्रवेश हुआ। बाबू हरिश्चन्द्र महाप्रभु वल्लभाचार्य के सम्प्रदाय के थे। इसलिए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीमती राधिका में उनका अचल अनुराग था। इस सूत्रा से वे ब्रजभाषा के भी अनन्य प्रेमी थे। उनकी अधिकांश रचनाएँ प्राचीन-शैली की हैं और उनमें राधाकृष्ण का गुणानुवाद उसी भक्ति और श्रध्दा के साथ गाया गया है,जिससे अष्टछाप के वैष्णवों की रचनाओं को महत्ता प्राप्त है। उन्होंने न तो कोई रीति ग्रन्थ लिखा है और न कोई प्रबंधा-काव्य। किन्तु उनकी स्फुट रचनाएँ इतनी अधिक हैं तो सर्वतोमुखी प्रतिभा वाले मनुष्य द्वारा ही प्रस्तुत की जा सकती हैं।

उन्होंने होलियों, पर्वों, त्योहारों और उत्सवों पर गाने योग्य सहòों पद्यों की रचना की है। प्रेम-रस से सिक्त ऐसे-ऐसे कवित्ता और सवैये बनाये हैं जो बड़े ही हृदयग्राही हैं। जितने नाटक या अन्य गद्य ग्रन्थ उन्होंने लिखे हैं, उन सबमें जितने पद्य आये हैं वे सब ब्रजभाषा ही में लिखे गये हैं। इतने प्राचीनता प्रेमी होने पर भी उनमें नवीनता भी दृष्टिगत होती है। वे देश दशा पर अश्रु बहाते हैं, जाति-ममता का राग अलापते हैं, जाति की दुर्बलताओं की ओर जनता की दृष्टि आकर्षित करते हैं, और कानों में वह मन्त्रा फूँकते हैं जिससे चिरकाल की बन्द ऑंखें खुल सकें, उनके 'भारत-जननी' और 'भारत-दुर्दशा' नामक ग्रन्थ इसके प्रमाण हैं। बाबू हरिश्चन्द्र ही वह पहले पुरुष हैं जिन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य में देश-प्रेम और जाति ममता की पवित्रा धारा बहाई। वे अपने समय के मयंक थे। उनकी उपाधि 'भारतेन्दु' है। इस मयंक के चारों ओर जो जगमगाते हुए तारे उस समय दिखला पड़े, उन सबों में भी उनकी कला का विकास दृष्टिगत हुआ। सामयिकता की दृष्टि से उन्होंने अपने विचारों को कुछ उदार बनाया और ऐसे भावों के भी पद्य बनाये जो धार्मिक संकीर्णता को व्यापकता में परिणत करते हैं। 'जैन-कुतूहल'उनका ऐसा ही ग्रन्थ है। उनके समय में उर्दू शायरी उत्तारोत्तार समुन्नत हो रही थी। उनके पहले और उनके समय में ऐसे उर्दू भाषा के प्रतिभाशाली कवि उत्पन्न हुए जिन्होंने उसको चार चाँद लगा दिये। उनका प्रभाव भी इन पर पड़ा और इन्होंने अधिक उर्दू शब्दों को ग्रहण्कर हिन्दी में 'फूलों का गुच्छा' नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें लावनियाँ हैं जो खड़ी बोली में लिखी गई हैं। वे यद्यपि हिन्दी भाषा ही में रचित हैं, परन्तु उनमें उर्दू का पुट पर्याप्त है। यदि सच पूछिए तो हिन्दी में स्पष्ट रूप से खड़ी बोली रचना का प्रारम्भ इसी ग्रन्थ से होता है। मैं यह नहीं भूलता हूँ कि यदि सच्चा श्रेय हिन्दी में खड़ी बोली की कविता पहले लिखने का किसी को प्राप्त है तो वे महन्त सोतल हैं। वरन मैं यह कहता हूँ कि इस उन्नीसवीं शताब्दी में पहले पहल यह कार्य भारतेन्दु जी ही ने किया। कुछ लोग उसको उर्दू की ही रचना मानते हैं। परन्तु मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं। इसलिए कि जैसे हिन्दी भाषा और संस्कृत के तत्सम शब्द उसमें आये हैं वैसे शब्द उर्दू की रचना में आते ही नहीं।

बाबू हरिश्चन्द्र नवीनता-प्रिय थे और उनकी प्रतिभा मौलिकता से स्नेह रखती थी। इसलिए उन्होंने नई-नई उद्भावनाएँ अवश्य कीं, परन्तु प्राचीन ढंग की रचना ही का आधिक्य उनकी कृतियों में है। ऐसी ही रचना कर वे यथार्थ आनन्द का अनुभव भी करते थे। उनके पद्यों को देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। उनके छोटे-बड़े ग्रन्थों की संख्या लगभग 100 तक पहुँचती है। इनमें पद्य के ग्रन्थ चालीस- पचास से कम नहीं हैं। परन्तु ये समस्त ग्रन्थ लगभग ब्रजभाषा ही में लिखे गये हैं। उनकी भाषा सरस और मनोहर होती थी। वैदर्भी वृत्तिा के ही वे उपासक थे। फिर भी उनकी कुछ ऐसी रचनाएँ हैं जो अधिकतर संस्कृत गर्भित हैं। वे सरल से सरल और दुरूह से दुरूह भाषा लिखने में सिध्दहस्त थे। ग़ज़लें भी उन्होंने लिखी हैं, जो ऐसी हैं जो उर्दू के उस्तादों के शे'रों की समता करने में समर्थ हैं। मैं पहले कह चुका हूँ कि वे प्रेमी जीव थे। इसलिए उनकी कविता में प्रेम का रंग बड़ा गहरा है। उनमें शक्ति भी थी और भक्तिमय स्तोत्रा भी। उन्होंने अपने इष्टदेव के लिए लिखे हैं, परन्तु जैसी उच्च कोटि की उनकी प्रेम संबंधी रचनाएँ हैं वैसी अन्य नहीं। उनकी कविता को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि उनकी कविकृति इसी में अपनी चरितार्थता समझती है कि वह भगवल्लीलामयी हो। वे विचित्र स्वभाव के थे। कभी तो यह कहते-

जगजिन तृण सम करि तज्यो अपने प्रेम प्रभाव।

करि गुलाब सों आचमन लीजत वाको नाँव।

परम प्रेम निधि रसिकबर अति उदार गुनखान।

जग जन रंजन आशु कवि को हरिचंद समान।

कभी सगर्व होकर यह कहते-

चंद टरै सूरज टरै टरै जगत के नेम।

पै दृढ़ श्री हरिचंद को टरै न अविचल प्रेम।

जब वे अपनी सांसारिकता को देखते और कभी आत्म-ग्लानि उत्पन्न होती तो यह कहने लगते।

जगत-जाल में नित बँधयो परयो नारि के फंद।

मिथ्या अभिमानी पतित झूठो कवि हरिचंद।

उनकी जितनी रचनाएँ हैं, इसी प्रकार विचित्रताओं से भरी हैं। कुछ उनमें से आप लोगों के सामने उपस्थित की जाती हैं-

1. इन दुखियान को न सुखसपने हूँ मिल्यो

यों ही सदा व्याकुल विकल अकुलायँगी।

प्यारे हरिचंद जूकी बीती जानि औधि जोपै

जै हैं प्रान तऊ एतो संग ना समायँगी।

देख्यो एक बार हूँ न नैन भरि तोहिं यातें

जौन जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायँगी।

बिना प्रान-प्यारे भये दरस तिहारे हाय

मुएहूश् पै ऑंखें ये खुली ही रह जायँगी।

2. हौं तो याही सोच में बिचारत रही रे काहें

दरपन हाथ ते न छिन बिसरत है।

त्योंही हरिचंद जू वियोग औ सँजोग दोऊ

एक से तिहारे कछु लखि न परत है।

जानी आज हम ठकुरानी तेरी बात तू तो

परम पुनीत प्रेम-पथ बिचरत है।

तेरे नैन मूरति पियारे की बसति ताहि

आरसी में रैन दिन देखिबो करत है।

3. जानि सुजानहौं नेह करी

सहि कै बहुभाँतिन लोक हँसाई।

त्यों हरिचंद जू जो जो कह्यो

सो करयो चुप ह्नै करि कोटि उपाई।

सोऊ नहीं निबही उन सों

उन तोरत बार कछू न लगाई।

साँची भई कहनावति या अरि

ऊँची दूकान की फीकी मिठाई।

4. आजु लौं जौन मिले तो कहा

हम तौ तुम्हरे सब भाँति कहावैं।

मेरो उराहनो है कछु नाहिं

सबै फल आपने भाग को पावैं।

जो हरिचंद भई सो भई अब

प्रान चले चहैं याते सुनावैं।

प्यारे जू है जग की यह रीति

बिदा के समै सब कंठ लगावैं।

5. पियारो पैये केवल प्रेम मैं।

नाहिं ज्ञान मैं , नाहिं धयान मैं , नाहिं करम कुल नेम मैं।

नाहिं मंदिर मैं नहिं पूजा मैं , नहिं घंटा की घोर मैं।

हरीचंद वह बाँधयो डोलै एक प्रेम की डोर मैं।

6. सम्हारहु अपने को गिरिधारी।

मोरमुकुट सिर पागपेच कसि राखहु अलक सँवारी।

हिय हलकत बनमाल उठावहु मुरली धारहु उतारी।

चक्रादिकन सान दै राखे कंकन फँसन निवारी।

नूपुर लेहु चढ़ाय किंकिनी खींचहु करहु तयारी।

पियरो पट परिकर कटि कसिकै बाँधो हो बनवारी।

हम नाहीं उनमें जिनको तुम सहजहिं दीन्हों तारी।

बानो जुगओ नीके अबकी हरीचंद की बारी।

एक उर्दू की ग़ज़ल भी देखिए-

दिल मेरा ले गया दग़ा कर के।

बेवप हो गया वप कर के।

हिज्र की शब घटा ही दी हमने।

दास्तां जुल्प की बढ़ा करके।

वक्ते रहलत जो आये बालीं पर।

ख़ूब रोये गले लगा कर के।

सर्वे वमत ग़ज़ब की चाल से तुम।

क्यों वयामत चले बपा कर के।

ख़ुद बखुद आज जो वह बुत आया।

मैं भी दौड़ा ख़ुदा ख़ुदा कर के।

दोस्तो कौन मेरी तुरबत पर।

रो रहा है रसा रसा कर के।

8. श्रीराधामाधाव युगल प्रेम रस का अपने को मस्त बना।

पी प्रेम-पियाला भर भरकर कुछ इसमैं का भी देखमज़ा।

इतबार न हो तो देख न ले क्या हरीचंद का हाल हुआ।

9. नव उज्ज्वलजल धार हार हीरक सी सोहति।

बिच बिच छहरति बूंद मधय मुक्ता मनि पोहति।

लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।

जिमि नर गन मन विविधा मनोरथ करत मिटावत।

10. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।

झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये।

किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज निज सोभा।

कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।

मनु आतप वारन तीर को सिमिट सबै छाये रहत।

कै हरि सेवा हित नै रहे निरखि नयन मन सुख लहत।

उनकी इस प्रकार की रचनाएँ भी मिलती हैं, जिनमें खड़ी बोली का पुट पाया जाता है। जैसे यह पद्य-

डंका कूच का बज रहा मुसापिर जागो रे भाई।

देखो लाद चले पंथी सब तुम क्यों रहे भुलाई।

जब चलना ही निश्चय है तो लै किन माल लदाई।

हरीचंद हरिपद बिनु नहि तौ रहि जैहौ मुँह बाई।

किन्तु उनकी इस प्रकार की रचना बहुत थोड़ी हैं। क्योंकि उनका विश्वास था कि खड़ी बोलचाल में सरस रचना नहीं हो सकती। उन्होंने अपने हिन्दी भाषा नामक ग्रन्थ में लिखा है कि खड़ी बोली में दीर्घान्त पद अधिक आते हैं, इसलिए उसमें कुछ-न-कुछ रूखापन आ ही जाता है। इस विचार के होने के कारण उन्होंने खड़ी बोलचाल की कविता करने की चेष्टा नहीं की। किन्तु आगे चलकर समय ने कुछ और ही दृश्य दिखाया, जिसका वर्णन आगे किया जावेगा। बाबू हरिश्चन्द्र जो रत्न हिन्दी भाषा के भण्डार को प्रदान कर गये हैं वे बहुमूल्य हैं, यह बात मुक्तकंठ से कही जा सकती है-

पंडित बदरीनारायण चौधरी बाबू हरिश्चन्द्र के मित्रों में से थे। दोनों के रूप- रंग में समानता थी और हृदय में भी। दोनों ही रसिक थे और दोनों ही हिन्दी भाषा के प्रेमी। दोनों ही ने आजन्म हिन्दी भाषा की सेवा की और दोनों ही ने उसको यथाशक्ति अलंकृत बनाया। दोनों ही अमीर थे और दोनों ही ऐसे हँसते मुख, जो रोते को भी हँसा दें। आज दोनों ही संसार में नहीं हैं, परन्तु अपनी कीर्ति द्वारा दोनों ही जीवित हैं। चौधरी जी की रचनाएँ अधिक नहीं हैं। किन्तु जो हैं वे हिन्दी भाषा का शृंगार हैं। पंडित जी सरयू पारीण ब्राह्मण और प्रचुर सम्पत्तिा के अधिकारी थे। परसी और संस्कृत का उन्हें अच्छा ज्ञान था,अंग्रेजी भी कुछ जानते थे। उन्होंने मिर्ज़ापुर में रसिक समाज आदि कई सभाएँ स्थापित की थीं और 'आनन्दकादम्बिनी' नामक मासिक पत्रिका तथा 'नागरी-नीरद' नामक साप्ताहिक पत्रा भी निकाला था। दोनों ही सुन्दर थे और जब तक रहे अपने रस से हिन्दी संसार को सरस बनाते रहे और क्यों न बनाते, जब प्रेमघन उनके संचालक थे। घन आनन्द के उपरान्त कविता में चौधरी जी ने ही ऐसा सरस उपनाम अपना रखा जिसके सुनते ही प्रेम का घन उमड़ पड़ता है। वे आनन्दी जीव थे और अपने रंग में सदा मस्त रहते थे, इसलिए कुछ लोग यह समझते थे कि वे जैसा चाहिए वैसे मिलनसार नहीं थे। किंतु ऐसा वे ही कहते हैं जो उनके अंतरंग नहीं। वास्तव में वे बड़े सहृदय और सरस थे और जिस समय जी खोलकर मिलते, रस की वर्षा कर देते। उनकी रचनाएँ सब प्रकार की हैं। किंतु ग्रंथाकार बहुत कम छपीं। भारत-सौभाग्य-नाटक उनका प्रसिध्द नाटक है। जहाँ तक मुझे स्मरण है, उन्होंने 'वेश्या-विनोद' नामक एक महानाटक लिखा था। परंतु वह छप न सका और कदाचित् पूरा भी नहीं हुआ। कुछ छोटी-छोटी कविताएँ उनकी छपी हैं, जो विशेष अवसरों पर लिखी जाकर वितरण की गयीं। उन्होंने हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति पद को भी सुशोभित किया था। सभापतित्व के पद से जो भाषण उन्होंने दिया था, वह बड़ा ही विद्वत्तापूर्ण था, वह छप भी चुका है। उनके बहुत से सुंदर लेख और कितनी ही सरस कविताएँ उनके सम्पादित पत्रों में मौजूद हैं। परन्तु दुख है कि न तो अब तक उनका संकलन हुआ और न वे ग्रंथ रूप में परिणत हुए। उनकी अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं और आजीवन उन्होंने उसी की सेवा की। अंतिम समय में जब खड़ी बोली का प्रचार हो चुका था, उन्होंने कुछ खड़ी बोली की रचनाएँ भी की थीं। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. बगियान बसंत बसेरो कियो

बसिये तेहि त्यागि तपाइये ना।

दिन काम कुतूहल के जे बने

तिन बीच बियोग बुलाइये ना।

घन प्रेम बढ़ाय कै प्रेम अहो

बिथा बारि वृथा बरसाइये ना।

इतै चैत की चाँदनी चाह भरी

चरचा चलिवे की चलाइये ना।

2. अब तो लखिये अलि ए अलियन

कलियन मुखचुंबन करन लगे।

पीवत मकरंद मनो माते ,

ज्यों अधार सुधा रस मैं राते।

कहि केलि कथा गुंजरन लगे।

रस मनहुँ प्रेम घन बरसत घन निज प्यारी के

करि आलिंगन लिपटे लुभाय मन हरन लागे।

उनके हृदय में भी समय के प्रभाव से देश प्रेम जाग्रत था। अतएव उन्होंने इस प्रकार की रचनाएँ भी की हैं। एक पद्य देखिए-

जय जय भारत भूमि भवानी।

जाकी सुजस पताका जग के दसहूँ दिसि फहरानी।

सब सुखसामग्री पूरित ऋतु सकल समान सुहानी।

जा श्री सोभा लखि अलका अरु अमरावती खिसानी।

प्रनमत तीस कोटि जन अजहूँ जाहि जोरि जुग पानी।

जिन मैं झलक एकता की लखि जग मति सहमि सकानी।

ईस कृपा लहि बहुरि प्रेमघन बनहु सोई छवि खानी।

सोई प्रताप गुन जन गरबित ह्नै भरी पुरी धान धानी।

उनकी एक खड़ी बोली की रचना भी देखिए जो अंतिम दिनों में की गयीहै।

मन की मौज

1. मन की मौज मौज सागर सी सो कैसे ठहराऊँ।

जिसका वारापार नहीं उस दरिया को दिखलाऊँ।

तुमसे नाजुक दिल की भारी भँवरों में भरमाऊँ।

कहो प्रेमघन मन की बातें कैसे किसे सुनाऊँ।

2. तिरछी त्योरी देखि तुम्हारी क्योंकर सीस नवाऊँ।

हौ तुम बड़े ख़बीस जान कर अनजाना बन जाऊँ।

हर्पे शिकायत ज़बाँ प आये कहीं न यह डर लाऊँ।

कहो प्रेमघन मन की बातें कैसे किसे सुनाऊँ।

3. लूट रहे हो भली तरह मैं जानूँ वले छुपाऊँ।

करते हो अपने मन की मैं लाख चहे चिल्लाऊँ।

डाह रहे हो खूब परा परबस मैं गो घबराऊँ।

कहो प्रेमघन मन की बातें कैसे किसे सुनाऊँ।

प्रेमघन जी ने गद्य में बहुत बड़ा कार्य किया है, उनके गद्यों में विलक्षणताएँ और माधुर्य भी अधिक हैं। इसका वर्णन आगे गद्य विभाग में होगा। इसलिए उसकी यहाँ कुछ चर्चा नहीं की जाती।

पं. प्रतापनारायण मिश्र भारतेन्दु काल के एक जगमगाते हुए नक्षत्र थे। प्रकृति बड़ी स्वतंत्र थी, लगी-लिपटी बातें पसंद नहीं थीं। इसलिए खरी बातें कहना ही उनका व्रत था। वे बाबू हरिश्चन्द्र के बड़े प्रेमी थे और अपने 'ब्राह्मण' मासिक पत्र पर'हरिश्चन्द्राय नम:' लिखा करते थे। इनसे उनका हिन्दी भाषा-प्रेम प्रकट है। वे अधिक अर्थकृच्छ् होने पर भी अपने 'ब्राह्मण' को बराबर निकालते रहे और उस समय तक अपने इस धर्म को निबाहा जब तक उनकी गाँठ में दाम रहा। देश-ममता, जाति-ममता और भाषा प्रेम उनकी रग-रग में भरा था। आजीवन उन्होंने इसको निबाहा। इन तीनों विषयों पर उन्होंने बड़ी सरस रचनाएँ की हैं। जितनी पंक्तियाँ उन्होंने अपने जीवन में लिखीं, वे चाहे गद्य की हों या पद्य की, उन सबों में इन तीनों विषयों की धारा ही प्रबल वेग से बहती दृष्टिगत होती है। वे मूर्तिमन्त देशभक्त थे। इसीलिए उनकी सब रचनाएँ इसी भाव से भरी हैं। उन्होंने एक दर्जन पुस्तकें बँगला से अनुवादित कीं और पन्द्रह बीस पुस्तकें स्वयं लिखीं, जिनमें से 'प्रताप-संग्रह', 'मानस-विनोद', 'मन की लहर', 'ब्रैडला-स्वागत', 'लोकोक्तिशतक', 'तृप्यंताम्' आदि अनेक ग्रन्थ पद्य में लिखे गये हैं। इन सबमें उनकी मानसिक प्रवृत्तिा स्पष्टतया दृष्टिगत होती है। उन्होंने प्रार्थना और विनय के पद भी कहे हैं और ईश्वर एवं धर्म-सम्बन्धी रचनाएँ भी की हैं, परन्तु उनमें वह ओज और आवेश नहीं पाया जाता, जो देश अथवा जाति-सम्बन्धी रचनाओं में मिलता है। उनके पद्यों की एक ही भाषा नहीं है। कभी उन्होंने अपनी बैसवाड़ी बोलचाल में रचना की है, कभी उर्दू-मिश्रित खड़ी बोली में,और कभी ब्रजभाषा में। अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा ही में हैं। जितने पद्य उन्होंने देश और जाति-सम्बन्धी लिखे हैं, उनमें उनके हृदय का जीवन्त भाव बहुत ही जाग्रत् मिलता है, जो हृदयों में तीव्रता के साथ जीवनी-धाराएँ प्रवाहित करता है। जब ब्रैडला साहब भारत में पधारे उस समय उन्होंने उनके स्वागत में जो कविता लिखी; उसमें देश की दशा का ऐसा सच्चा चित्राण किया कि उसकी बड़ी प्रशंसा हुई, यहाँ तक कि विलायत तक में उसकी चर्चा हुई। उनकी अधिकांश रचनाएँ इसी प्रकार की हैं। उनमें से कुछ मैं आप लोगों के सामने रखूँगा। पहले देखिए वे 'हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान' के विषय में क्या कहते हैं-

चहहु जो साँचो निज कल्यान।

तो सब मिलि भारत संतान।

जपो निरंतर एक ज़बान।

हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्थान।

तबहि सुधारिहै जन्म निदान।

तबहि भलो करि है भगवान

जब रहिहै निसि दिन यह धयान।

हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान।

अपनी 'तृप्यंताम्' नामक कविता में से वे किस प्रकार अपने जातीय दुख को प्रकट करते हैं, उसे भी सुनिए-

केहि विधि वैदिक कर्म होत

कब कहा बखानत ऋक यजु साम।

हम सपने हूँ में नहिं जानैं

रहैं पेट के बने गुलाम।

तुमहिं लजावत जगत जनम ले

दुहुँ लोकन में निपट निकाम।

कहैं कौन मुख लाइ हाय

फिर ब्रह्मा बाबा तृप्यंताम्।

अपने बैसवाड़ी बोलचाल में देखिए, गोरक्षा के विषय में क्या कहते हैं-

गैया माता तुम काँ सुमिरौं

कीरति सब ते बड़ी तुम्हारि।

करौ पालना तुम लरिकन कै

पुरिखन बैतरनी देउ तारि।

तुम्हरे दूधा दही की महिमा

जानैं देव पितर सब कोय।

को अस तुम बिन दूसर जेहि

का गोबर लगे पवित्तार होय।

बुढ़ापा का वर्णन अपनी ही भाषा में देखिए किस प्रकार करते हैं-

हाय बुढ़ापा तोरे मारे अब तो

हम नकन्याय गयन।

करत धारत कछु बनतै नाहीं

कहाँ जान औ कैस करन।

छिन भरि चटक छिनै माँ मध्दिम

जस बुझात खन होइ दिया।

तैसे निखवख देखि परत हैं

हमरी अक्किल के लच्छन।

असु कुछु उतरि जाति है जीते

बाजी बिरियाँ बाजी बात।

कैसेउ सुधि ही नाहीं आवत

मूँड़घइ काहें न दै मारन।

कहा चाहौं कुछु निकरत कुछु है

जीभ राँड़ का है यहु हालु।

कोऊ येहका बात न समझै

चाहे बीसन दाँय कहन।

दाढ़ी नाक याकमाँ मिलिगै

बिन दाँतन मुँहु अस पोपलान।

दढ़िही पर बहि बहि आवति है

कबौं तमाखू जो फाँकन।

बारौ पकिगै रीरौ झुकिगै

मुँड़ौ सासुर हालन लाग।

हाथ पाँव कछु रहे न आपन

केहि के आगे दुख बखान।

उनकी एक ग़ज़ल देखिए-

वो बदख़ू राह क्या जाने वप की।

अगर ग़पलत से बाज़ आया जप की।

मियाँ आये हैं बेगारी पकड़ने ,

कहे देती है शोख़ी नवशे पा की।

पुलिस ने और बदकारों को शहदी ,

मरज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।

उसे मोमिन न समझो ऐ बिरहमन ,

सताये जो कोई ख़िलवत ख़ुदा की।

बिधाता ने याँ मक्खियाँ मारने को ,

बनाये हैं खुशरू जवाँ कैसे कैसे।

अभी देखिए क्या दशा देश की हो ,

बदलता है रंग आसमाँ कैसे कैसे।

एक भजन भी देखिए-

माया मोह जनम के ठगिया

तिनके रूप भुलाना।

छल परपंच करत जग धूनत

दुख को सुख करि माना।

फिकिर वहाँ की तनक नहीं है

अंत समै जहँ जाना।

मुख ते धारम धारम गुहरावत

करम करत मनमाना।

जो साहब घट घट की जानत

तेहि ते करत बहाना।

येहि मनुआ के पीछे चलि के

सुख का कहाँ ठिकाना।

जो परताप सुखद को चीन्हे

सोई परम सयाना।

दो सवैयाओं को भी देखिए-

बनि बैठी है मान की मूरति सी , मुख खोलत बोलै न ' नाहीं ' न ' हाँ ' ।

तुमहीं मनुहारि कै हारि परे सखियान की कौन चलाई तहाँ।

बरषा है प्रताप जू धीर धारौ अब लौं मन को समझायो जहाँ।

यह व्यारि तबै बदलैगी कछू पपिहा जब पूछि है ' पीव कहाँ ' ।

आगे रहे गनिका गज गीधा सुतौ अब कोऊ दिखात नहीं हैं।

पाप परायन ताप भरे परताप समान न आन कहीं हैं।

हे सुखदायक प्रेमनिधो जग यों तो भले औ बुरे सबहीं हैं।

दीनदयाल औ दीन प्रभो तुमसे तुमहीं हमसे हमहीं हैं।

पंडित अम्बिकादत्ता व्यास संस्कृत के प्रसिध्द विद्वान् थे। बाबू हरिश्चन्द्र आपको बहुत आदर की दृष्टि से देखते थे। बिहार प्रान्त में आपका बड़ा सम्मान था। वहाँ आप संस्कृत के प्रोफेसर थे। वे संस्कृत के विद्वान् ही नहीं थे, बहुत बड़े वक्ता भी थे। व्याख्यान के समय जनता को अपनी मूठियों में कर लेना उनके बाएँ हाथ का खेल था। बिहार में आर्यसमाज के संग जब-जब उनका शास्त्रार्थ हुआ, तब-तब उन्होंने विजय-पत्रा प्राप्त किये। धारा-प्रवाह संस्कृत बोलते थे और कठिन से कठिन शास्त्रीय विषयों को इस प्रकार सुलझाते थे कि प्रतिपक्षियों के दाँत खट्टे हो जाते थे। वे शास्त्रा-पारंगत विद्वान् तो थे ही, उनकी धारणा शक्ति भी बड़ी प्रबल थी। एक काल में वे कई कार्य साथ-साथ कर सकते थे। इस विषय में उनकी कई बार परीक्षा ली गयी और वे सदा उसमें सफलता के साथ उत्ताीर्ण हुए। उन्होंने संस्कृत ग्रंथों की भी रचना की है। बाबू हरिश्चन्द्र की 'ललिता' नाटिका का अनुवाद संस्कृत में किया था। वे घटिका शतक थे। एक घंटे में संस्कृत के 100 अनुष्टुप वृत्ताों की रचना कर देते थे। संस्कृत के इतने बड़े विद्वान होने पर भी हिन्दी भाषा के बड़े अनुरागी थे। उन्होंने हिन्दी भाषा में 'पीयूष-प्रवाह' नाम का एक मासिक पत्रा भी निकाला था। उनकी गद्य और पद्य दोनों की रचनाएँ सुंदर और सरस होती थीं। वे आशु कवि थे। इसलिए हिन्दी समस्याओं की पूर्ति बात की बात में कर देते थे। उनके पिता पंडित दुर्गादत्ता भी हिन्दी भाषा के बड़े अच्छे कवि थे। उन्हीं के प्रभाव से ये सब विलक्षणताएँ उनमें एकत्राीभूत थीं। एक बार उन्हें समस्या दी गयी-

मूँदि गयी ऑंखैं तब लाखैं कौन काम की।

उन्होंने तत्काल उसकी पूर्ति की-

चमकि चमाचम रहे हैं मनिगन चारु

सोहत चहूँगा धूम धाम धान धाम की।

फूल फुलवारी फलफैलि कै फबे हैं तऊ

छबि छटकीली यह नाहिंन अराम की।

काया हाड़ चाम की लै राम की बिसारी सुधि

जामकी को जानै बात करत हराम की।

अम्बादत्ता भाखैं अभिलाखैं क्यों करत झूठ

मूँदि गयीं ऑंखैं तब लाखैं कौन काम की।

वे साहित्याचार्य तो थे ही, 'भारत-रत्न', 'बिहार-भूषण', 'शतावधान' और 'भारत-भूषण' आदि पदवियाँ भी उन्हें राजे-महाराजाओं तथा सनातन धर्म मण्डल दिल्ली से प्राप्त हुई थीं। उनको कितने ही स्वर्ण पदक भी मिले थे। जब तक जीवित रहे,पटना कॉलेज की प्रोफेसरी बड़ी ख्याति के साथ की । उनके जीवन का बहुत बड़ा काम यह है कि उन्होंने बिहार में 'संस्कृत-संजीवनी-समाज' नाम की एक संस्था स्थापित की थी। इस समाज के द्वारा संस्कृत की अनियमित शिक्षा प्रणाली का ऐसा सुधार हुआ कि अब भी उसकी सहायता से सैकड़ों विद्यार्थी संस्कृत शिक्षा पाकर प्रतिवर्ष नाना उपाधियाँ प्राप्त करते हैं। संस्कृत के अतिरिक्त वे बँगला, मराठी, गुजराती और कुछ ऍंग्रेजी भी जानते थे। उनकी संस्कृत और हिन्दी की छोटी-बड़ी पुस्तकों की संख्या लगभग 78 है, जिसमें 'बिहारी-बिहार' जैसे बड़े ग्रंथ भी हैं। बिहारीलाल के 700 दोहों पर उन्होंने जो कुंडलियाँ बनाई थीं,मुद्रित रूप में उन्हीं का नाम 'बिहारी-बिहार' है। इस ग्रंथ की भूमिका भी बड़ी विशद और सुन्दर है। उसी से इनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं। इनका हिन्दी उपनाम सुकवि था-

1. मेरी भव वाधा हरो राधा नागरि सोय।

जा तन की झाईं परे स्याम हरित दुति होय।

स्याम हरितदुति होय परत तन पीरी झाईं।

राधाहूँ पुनि हरी होति लहि स्यामल छाईं।

नैन हरे लखि होत रूप औ रंग अगाधा।

सुकवि जुगुल छवि धाम हरहु मेरी भव बाधा।

2. सोहत ओढ़े पीति पट स्याम सलोने गात।

मनो नीलमनि सैल पर आतप परयो प्रभात।

आतप परयो प्रभात ताहि सों खिल्यो कमल मुख।

अलक भौंर लहराय जूथ मिलि करत विविधा सुख।

चकवा से दोउ नैन देखि एहि पुलकत मोहत।

सुकवि विलोकहु स्याम पीतपट ओढ़े सोहत।

देखिए 'भौंह' सम्बन्धी उनकी यह रचना कितनी सुन्दर है-

3. नैन कमल लखि उमँग भरे से।

भृकुटिब्याज जनु पाँति करे से।

फरफरात पुनि ठटकारे से।

घूमत मलिंद मतवारे से।

उनके दो दोहे भी देखिए-

4. गुंजा री तू धान्य है बसत तेरे मुख स्याम।

याते उर लाये रहत हरि तोको बसुयाम।

5. मोर सदा पिउ पिउ करत नाचत लखि घनश्याम।

या सों ताकी पाँख हूँ सिर धारी घनश्याम।

व्यास जी जयपुरनिवासी थे। इसलिए बड़ी सरस ब्रजभाषा में रचना करते थे। जिसे इसके प्रमाण की आवश्यकता हो, वह इनकी रची 'सतसई' को देखे। वे जब तक जीवित रहे, हिन्दी संसार में भारतेन्दु के समान ही उनकी कीर्ति भी थी। उन्होंने हिन्दी-संसार को गद्य और पद्य के जितने ग्रन्थ दिये हैं वे बड़े अमूल्य हैं और उनके लिये हिन्दी संसार उनका सदा ऋणी रहेगा।

बाबा सुमेरसिंह सिक्ख गुरु और पटने के महन्त थे। जिला आजमगढ़ के निजामाबाद कस्बे में उनका निवास था। वे सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास के वंशज थे। इसलिए साहबजादे कहे जाते थे। जाति के भले खत्री थे। परमात्मा ने उनको बड़ा सुन्दर रूप दिया था। जैसा सुन्दर स्वरूप था, वैसा ही सुन्दर उनका हृदय भी था। हिन्दी भाषा के बड़े प्रेमी थे, इस भाषा का ज्ञान भी उन्हें अच्छा था। वे संस्कृत भी जानते थे। बाबू हरिश्चन्द्र से उनकी बड़ी मैत्राी थी। बनारस के महल्ले रेशम-कटरे की बड़ी संगत में आकर वे प्राय: रहते थे और यहीं दोनों का बड़ा सरस समागम होता था। बाबा सुमेरसिंह ब्रजभाषा की बड़ी सरस कविता करते थे। उन्होंने इस भाषा में एक विशाल प्रबंधा काव्य लिखा था, जो लगभग नष्ट हो चुका है। केवल उसका दशम मंडल अब तक यत्रा-तत्रा पाया जाता है। इस ग्रन्थ का नाम 'प्रेम-प्रकाश' था। इसमें उन्होंने सिक्खों के दश गुरुओं की कथा दश मंडलों में बृहत् रूप से बड़ी ललित भाषा में लिखी थी। दशम मंडल में गुरु गोविंद सिंह का चरित्रा था। गुरुमुखी में वह मुद्रित हुआ और वही अब भी प्राप्त होता है। शेष नौ मण्डल कराल काल के उदर में समा गये। बहुत उद्योग करने पर भी न तो वे प्राप्त हो सके, न उनका पता चला। उन्होंने 'कर्णभरण' नामक एक अलंकार ग्रन्थ भी लिखा था। अब वह भी अप्राप्य है। गुरु गोविंदसिंह ने परसी में जो 'जपरनामा' लिखा था, उसका अनुवाद भी उन्होंने 'विजय-पत्रा' के नाम से किया था। वह भी लापता है। उन्होंने संत निहालसिंह के साथ दशम ग्रन्थ साहब के जापजी की बड़ी बृहत् टीका लिखी थी, जो बहुत ही अपूर्व थी। वह मुद्रित भी हुई है, किन्तु अब उसका दर्शन भी नहीं होता। उन्होंने छोटे-छोटे और भी कई ग्रन्थ धार्मिक और रस-सम्बन्धी लिखे थे। परन्तु उनमें से एक भी अब नहीं मिलता। उन्होंने जितने ग्रन्थों की रचना की थी, सब में हिन्दू भाव ओत-प्रोत था और यही उनकी रचनाओं का महत्तव था। आजकल कुछ सिक्ख सम्प्रदाय वाले अपने को हिन्दू नहीं मानते, वे उनके विरोधी थे। इसलिए भी उनके ग्रन्थ दुष्प्राप्य हो गये। फिर भी उनकी स्फुट रचनाएँ 'सुन्दरी-तिलक' इत्यादि ग्रन्थों में मिल जाती हैं। जब वे पटने में महन्त थे तो वहाँ से उन्होंने एक कविता-सम्बन्धी मासिक पत्रिका भी हिन्दी में निकाली थी। वह एक साल चलकर बन्द हो गई। उसमें भी उनकी अनेक कविताएँ अब तक विद्यमान हैं। उनकी दो कविताएँ मुझे याद हैं। उनको मैं यहाँ लिखता हूँ। उन्हीं से आप लोग उनकी कविता की भाषा और उनके विचार का अनुमान कर सकते हैं-

1. सदना कसाई कौन सुकृत कमाई नाथ

मालन के मन के सुफेरे गनिका ने कौन।

कौन तप साधाना सों सेवरी ने तुष्ट कियो

सौचाचार कुबरी ने कियो कौन सुख भौन।

त्यों हरि सुमेर जाप जप्यो कौन अजामेल

गज को उबारयो बार-बार कवि भाख्यो तौन।

एते तुम तारे सुनो साहब हमारे राम।

मेरी बार विरद बिचारे कौन गहि मौन।

2. बातें बनावती क्यों इतनी हमहूँ

सों छप्यो नहीं आज रहा है।

मोहन के बनमाल को दाग दिखाइ

रह्यो उर तेरे अहा है।

तू डरपै करै सौहैं सुमेर हरी

सुन साँच को ऑंच कहाँ है।

अंक लगी तो कल( लग्यो जो

न अ( लगी तो कल( कहा है।

बाबा सुमेर सिंह ने आजीवन कविता देवी ही की आराधाना की। उन्होंने न तो गद्य लिखने की चेष्टा की और न गद्य ग्रन्थ रचे। उनका जीवन काव्यमय था और वे कविता पाठ करने और कराने में आनन्द लाभ करते थे। अपनी कविता के विषय में उनकी बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं। वे उसका बहुत प्रचार चाहते थे अैर कहा करते थे कि हिन्दू सिक्खों की भेद-नीति का संहार इसी के द्वारा होगा। परन्तु दुख से कहना पड़ता है कि अपने उद्योग में सफलता लाभ करने के पहले ही उनका स्वर्गवास हुआ और उनके स्वर्गवास होने पर उनकी कविता का अधिकांश लोप हो गया। जो कुछ शेष है वह यद्यपि उनको वास्तविक कीर्ति के विस्तार के लिए पर्याप्त नहीं है, फिर भी अब उसी पर संतोष करना पड़ता है। काल की लीला ही ऐसी है।

भारतेन्दु का काल गद्य के उत्थान का काल था। सामयिक आवश्यकताओं के कारण इस समय गद्य का बहुत अधिक प्रचार हुआ। इन दिनों अनेक पत्रा पत्रिकाएँ निकलीं और गद्य की पुस्तकें भी अधिक छपीं। स्कूलों एवं ग्रामीण पाठशालाओं के लिए कोर्स की बहुत अधिक पुस्तकें भी गद्य में ही लिखी गयीं। सनातन धर्म और आर्य समाज के विवाद के कारण अधिकतर वाद सम्बन्धी ग्रन्थ भी गद्य में ही लिखे गये। इसी प्रकार बहुत-सी सामाजिक और राजनीतिक पुस्तकों को भी गद्य का अवलम्बन ग्रहण करना पड़ा, क्योंकि पद्य द्वारा ये सब कार्य न तो व्यापक रूप से किये जा सकते थे और न वह सुविधा ही प्राप्त हो सकती थी जो गद्य द्वारा प्राप्त हो सकी। पश्चिमोत्तार प्रांत में ही नहीं, बिहार मधयभारत और पंजाब तक में हिन्दी भाषा का विस्तार इन दिनों हुआ और इसका आधार गद्य ही था। जितनी हिन्दी पत्रा-पत्रिकाएँ इन प्रांतों में निकलीं या जो ग्रन्थ आवश्यकतानुसार लिखे गये, उनमें से अधिकांश का आधार भी गद्य ही था। इसलिए इस समय के जितने विद्वान् धार्मिक अथवा राजनीतिक पुरुष किंवा शिक्षा प्रचारक साहित्य क्षेत्र में उतरे, उनको गद्य से ही अधिकतर काम लेना पड़ा फिर क्यों न इस समय अधिकतर गद्य ग्रन्थकार ही उत्पन्न होते। बाबू हरिश्चन्द्र के समय में जितने हिन्दी के प्रसिध्द लेखक हुए वे अधिकतर गद्य ग्रन्थकार हैं। उनका वर्णन मैं आगे चलकर करूँगा। गद्य के साथ-साथ उस समय जिन प्रतिष्ठा प्राप्त लेखकों ने पद्य-रचनाएँ भी कीं, उनका वर्णन मैं ऊपर कर चुका। महामहोपाधयाय पं. सुधाकर द्विवेदी ऐसे कुछ मान्य पुरुषों ने भी उस समय गद्य के साथ कुछ पद्य-रचना भी की थी। परन्तु उनकी पद्य-रचनाएँ बहुत थोड़ी हैं। इसलिए पद्य विभाग में मैंने उन्हें स्थान नहीं दिया। यद्यपि किसी-किसी के कुछ पद्य बड़े सुन्दर हैं। द्विवेदीजी की भी कोई-कोई खास रचना बड़ी ही हृदय-ग्राहिणी है, एक पद्य देखिए-

1. पिया हो कसकत कुस पग बीच।

लखन लाज सिय पिय सन बोलीं हरुए आइ नगीच।

सुनि तुरंत पठयो लखनहिं प्रभु जलहित दूरि सुजान।

लेइ अंक सिय जोवत कुस कन धोवत पग ऍंसुआन।

बार बार झारत कर सों रज निरखत छत बिललात।

हाय प्रिये मान्यो न कह्यो लखु नहिं बन बिच कुसलात।

सहस सहचरी त्यागि सदन मधि सासु ससुर सुखकारि।

हठ करि लगि मो संग सहत तुम हाहा यह दुख भारि।

कहत जात यों प्रभु बहु बतियाँ तिया पिया की छाँह।

देइ गल बहियाँ चलीं बिहँसि कहि यह सुख नाथ अथाह।

तो भी यह उचित नहीं ज्ञात हुआ कि उनको पद्य-विभाग में स्थान दिया जाय। क्योंकि उल्लेख योग्य पद्य-ग्रन्थों के रचयिताओं को ही उसमें अब तक स्थान मिलता आया है। बाबू हरिश्चन्द्र के स्वर्गारोहण के उपरान्त हिन्दी संसार में एक बहुत बड़ा आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। वह विवाद यह था कि हिन्दी पद्य-रचना भी ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली में होनी चाहिए। उनके सामने इसका सूत्रापात्रा मात्रा हुआ था। कुछ लोगों के जी में यह बात उत्पन्न हो रही थी और आपस में इसकी चर्चा भी होने लगी थी। परन्तु विचार ने आन्दोलन का रूप नहीं ग्रहण किया था। अब वह वास्तविक आन्दोलन बन गया था और ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली के पक्षपातियों में द्वन्द्व होने लगा था। इसका कारण सामयिक परिस्थिति थी। उर्दू का इस समय बोलबाला था और सरकारी कचहरियों में उसको स्थान प्राप्त हो गया था। वह दिन-दिन वृध्दि लाभ कर रही थी और हिन्दी-क्षेत्रों पर भी अधिकार करती जाती थी। पंजाब से बिहार की सीमापर्यन्त उसका डंका बज रहा था और अन्य प्रान्तों में भी प्रवेश-लाभ की चेष्टा वह कर रही थी। उसके पुष्ट पोषक मुस्लिम समाज और उसके नेता ही नहीं थे, हिन्दुओं का एक बहुत बड़ा दल भी उसका पक्षपाती था। उसके जहाँ और गुण वर्णन किये जाते थे वहाँ यह भी कहा जाता था कि उर्दू के गद्य और पद्य की भाषा एक है,हिन्दी को तो यह गौरव भी नहीं प्राप्त है। वास्तव बात यह है कि इन सुविधाओं के कारण वह उत्तारोत्तार उन्नत हो रही थी और उसका साहित्य-भंडार दिन-दिन उपयोगी ग्रन्थों से भर रहा था। उस समय जितने ग्रन्थ हिन्दी के निकले उनकी गद्य की भाषा तो खड़ी बोली की और पद्य की ब्रजभाषा होती थी। यह पद्य की भाषा युक्त प्रान्त के सब विभागों में तो किसी प्रकार समझ भी ली जाती थी, परन्तु बिहार या पंजाब या मधय हिंद में उसका समझना दुस्तर था, क्योंकि वह एक प्रान्तीय भाषा थी। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि उसका विस्तार एक प्रान्त ही तक परिमित नहीं था, वह अन्य प्रान्तों तक विस्तृत हो चुकी थी, जिसकी चर्चा मैं पहले कर भी चुका हूँ। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उस समय जैसी सुगमता से खड़ी बोलचाल या गद्य की भाषा को लोग पश्चिमोत्तार प्रान्त या अन्य प्रान्तों में समझ लेते थे, ब्रजभाषा को नहीं समझ सकते थे। इस कारण हिन्दी भाषा उतनी निर्बाधा रूप से उन्नति नहीं कर सकती थी जितना उर्दू। यह एक ऐसी बात थी जिससे उक्त आन्दोलन को उस समय बहुत बड़ा बल मिला। उन दिनों यह भी देखा जाता था कि अंग्रेजी स्कूलों और ग्रामीण् पाठशालाओं के अधिकतर हिन्दू लड़के कोर्स में उर्दू लेना ही पसन्द करते थे। जहाँ और कारण थे वहाँ एक यह कारण भी उपस्थित किया जाता था कि हिन्दी पुस्तकों की गद्य की भाषा और होती है और पद्य की और, जिससे हिन्दू बालकों को एक प्रकार से कठिनता का सामना करना पड़ता है और विवश होकर उन्हें (सुविधा की दृष्टि से) हिन्दी के स्थान पर उर्दू लेना पड़ता है। उन दिनों इस विचार से भी उक्त आन्दोलन को बहुत कुछ सहायता मिली थी। मुझको स्मरण है कि इस आन्दोलन को लेकर उस समय के दैनिक'हिन्दुस्थान' तथा अन्य पत्रों में उभय पक्ष के लोगों में बड़ा द्वंद्व हुआ था। बिहार प्रान्त के बाबू अयोधयाप्रसाद खत्री के हाथ में इस आन्दोलन का झण्डा था, वे बिहार और पश्चिमोत्तार प्रान्तों के अनेक स्थानों में घूम-घूमकर उन दिनों यह प्रयत्न कर रहे थे कि पद्य में भी खड़ी बोली को स्थान मिले और ब्रजभाषा का बहिष्कार किया जाय। यह आन्दोलन सामयिक परिस्थिति के कारण सफल हुआ और हिन्दी साहित्यिकों का एक दल इसके लिए कटिबध्द हो गया कि ब्रजभाषा के स्थान पर वह खड़ी बोलचाल में कविता करे। इस दल के नेता पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी कहे जा सकते हैं। 'सरस्वती' के सम्पादन काल में उन्होंने खड़ी बोली का बड़ा आदर किया और बहुतों को उत्साहित कर खड़ी बोली की रचनाएँ उनसे कराईं। स्वयं भी उन्होंने खड़ी बोली की कविताएँ लिखीं परन्तु स्व. पं. श्रीधार पाठक ही ऐसे पहले पुरुष हैं जिन्होने खड़ी बोलचाल में एक कविता पुस्तक आदि में लिखी। यह कविता पुस्तक 'हरमिट' (Hermit) का अनुवाद है, जिसका हिन्दी नाम एकान्तवासी योगी है। उन्होंने पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के पहले ही इस आन्दोलन में अग्र भाग लिया था और पंडित प्रतापनारायण मिश्र से खड़ी बोली के पक्ष में खड़े होकर पूरा वाद-विवाद किया था। मैं ऊपर लिख आया हूँ कि बाबू हरिश्चन्द्र ने भी खड़ी बोली की कविता की है। ऐसे ही पं. बदरीनारायण चौधरी, पं. प्रतापनारायण मिश्र की भी कुछ रचनाएँ खड़ी बोली की हैं। परन्तु ग्रन्थ रूप में खड़ी बोली में सर्वप्रथम रचना करने का श्रेय पं. श्रीधार पाठक को ही प्राप्तहै।

खड़ी बोली और ब्रजभाषा में क्या अन्तर है, यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है। यहाँ यह भी धयान रखना चाहिए कि ब्रजभाषा के विरोधा के अन्तर्गत अवधी भाषा भी है। विवाद के समय खड़ी बोली के सामने ब्रजभाषा ही इसलिए रखी गई कि जिस समय आन्दोलन आरम्भ हुआ, उस समय ब्रजभाषा ही सर्वोत्ताम समझी जाती थी और उसी का व्यापक विस्तार था,अवधी लगभग साहित्य संसार से उठ चुकी थी। कभी-कभी कोई उसको निस्संदेह स्मरण कर लेता था। वास्तव बात तो यह है कि दोनों का बहुत बड़ा सम्बन्धा प्राकृत भाषा से है। दोनों अनेक अंशों में प्राकृत भाषा के ढंग में ढली हुई हैं। दोनों में प्राकृत भाषा के कई शब्द बिना परिवर्तित हुए पाये जाते हैं। दोनों का बहुत बड़ा सम्बन्धा बोलचाल की भाषा से है। परन्तु खड़ी बोलचाल जिस रूप में गृहीत है, उस रूप में न तो वह जनता की बोलचाल की भाषा से अपेक्षित मात्रा में सम्बन्धा रखती है,न प्राकृत भाषा से और यह बहुत बड़ा अन्तर ब्रजभाषा और खड़ी बोली में है। इस बात को और स्पष्ट करने के लिए मैं दोनों की विशेषताओं पर विशेष प्रकाश डालना चाहता हूँ।

ब्रजभाषा और अवधी की विशेषताएँ मैं पहले बता चुका हूँ। उनसे आप लोग अभिज्ञ हैं। अब मैं खड़ी बोली की विशेषताओं को बतलाऊँगा जिससे उनके परस्पर अन्तर का ज्ञान यथातथ्य हो सके। हिन्दी भाषा के अब तक जितने व्याकरण बने हैं,उनका सम्बन्धा खड़ी बोली से ही है। न तो कभी ब्रजभाषा और अवधी का व्याकरण बना और न इधार किसी की दृष्टि गई। आजकल कुछ लोगों का धयान इधार आकर्षित है। नहीं कहा जा सकता कि यह कार्य होगा या नहीं। खड़ी बोली भाग्यवान है कि गद्य में स्थान मिलते ही उसके एक क्या कई व्याकरण बन गये। मुझको व्याकरण-सम्बन्धी सब बातें यहाँ नहीं लिखनी हैं और न ब्रजभाषा अवधी और खड़ी बोली के कारक चिद्दों, सर्वनामों और धातु-सम्बन्धी नाना रूपों के पारस्परिक अन्तरों को विशद रूप में दिखलाना इष्ट है। मैं यहाँ केवल यही दिखलाना चाहता हूँ कि अवधी और ब्रजभाषा से खड़ी बोलचाल में कवितागत शब्दविन्यास और प्रयोगों का क्या अन्तर है। अवधी एवं ब्रजभाषा का अधिकतर सम्बन्धा तद्भव और अर्ध्द तत्सम शब्दों से है। इसके विरुध्द खड़ी बोली का सम्बन्धा अधिकतर तत्सम शब्दों से है। खड़ी बोलचाल का यह नियम है कि उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुध्द रूप में ही लिखने की चेष्टा की जाती है। खड़ी बोली वालों को तद्भव शब्द लिखने में कोई आपत्तिा नहीं। परन्तु वे जहाँ तक हो सकेगा हिन्दी के शब्दों को तत्सम रूप में ही लिखेंगे। ब्रजभाषा और अवधी में शकार, णकार, क्षकार आते ही नहीं। परन्तु खड़ी बोलचाल में ये तीनों अपने शुध्द रूप में आते हैं। उसमें लोग 'गुन', 'ससि'और 'पच्छ' कभी न लिखेंगे। जब लिखेंगे तब 'गुण', 'शशि' और 'पक्ष' ही लिखेंगे, जो संस्कृत के तत्सम शब्द हैं। ब्रजभाषा और अवधी वाले शब्द के आदि के यकार को प्राय: 'ज' लिखते हैं, परन्तु खड़ी बोलचाल वाले ऐसा नहीं करेंगे। वे 'जोग', 'जस', 'जाम', 'जम' न लिखकर 'योग', 'यश', 'याम' और 'यम' ही लिखेंग।े युक्त विकर्ष अवधी और ब्रजभाषा का प्रधान गुण है। परन्तु खड़ी बोलचाल वाले ऐसा करना उचित नहीं समझते। वे 'गरब', 'दरप', 'सरप', 'बरन', 'धारम', 'करम' न लिख कर 'गर्व', 'दर्प', 'सर्प', 'वर्ण', 'धर्म', 'कर्म' आदि ही लिखेंगे। व्यंजनों का पंचम वर्ण ब्रजभाषा और अवधी में प्राय: अनुस्वार बन जाता है। खड़ी बोलचाल वाले संस्कृत के शुध्द रूप की धुन में उनको मुख्य रूप में ही लिखना अच्छा समझते हैं। जैसे'कल(', 'अ)न', 'कण्ठ', 'अन्त', 'लम्पट' को 'कलंक', 'अंजन', 'कंठ', 'अंत', 'लंपट' न लिखेंगे। किन्तु कुछ लोग ऐसा करना पसंद नहीं करते। वे इस विषय में ब्रजभाषा की प्रणाली ही ग्रहण करते हैं। मेरा विचार है कि सुविधा की दृष्टि से ऐसा ही होना चाहिए, विशेष अवस्थाओं की बात दूसरी है। अवधी और ब्रजभाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के वकार प्राय: बकार बन जाते हैं, किन्तु खड़ी बोली में वे अपने शुध्द रूप में ही रहते हैं। अधिकांश यह बात शब्द के आदिगत वकार के विषय में ही कही जा सकती है। मधयगत या शब्दांत के वकार के विषय में नहीं। खड़ी बोलचाल के कवियों की रुचि यह देखी जाती है कि वे 'मुँह' के स्थान पर 'मुख', 'सिर' के स्थान पर 'शिर', 'होठ' या 'ओठ' के बजाय 'ओष्ठ', 'बाँह' के स्थान पर 'बाहु' इत्यादि लिखना ही पसंद करेंगे, यद्यपि उनका हिन्दी रूप लिखा जाय तो भाषा सदोष न हो जायगी। कुछ इस विचार के लोग हैं कि'स्नेह', के स्थान पर 'सनेह', 'आलाप' के स्थान पर 'अलाप' 'केश' के स्थान पर 'केस', 'पलाश' के स्थान पर 'पलास', 'कमल'के स्थान पर 'कँवल' या 'कौल' लिखना ठीक नहीं समझते, यद्यपि इनका लिखा जाना अनुचित नहीं। क्योंकि बोलचाल में वे इसी रूप में गृहीत हैं। ये वे तद्भव शब्द हैं हिन्दी भाषा जिनके आधार से ही प्राकृत भाषा से अलग होकर अपने मुख्य रूप में परिणत हुई। ब्रजभाषा और अवधी में समस्त कारक-चिद्दों का आवश्यकतानुसार लोप कर दिया जाता है, विशेषकर कत्तर्,कर्म, करण और अधिकरण के चिद्दों का। किन्तु खड़ी बोलचाल की रचनाओं में इनमें से किसी एक का भी लोप नहीं किया जाता। गद्य के अनुसार समस्त कारक-चिद्दों का अपने स्थान पर विद्यमान रहना नियम के अंतर्गत माना जाता है। उन्हीं अवस्थाओं में ऐसा नहीं किया जाता जब वाक्य मुहावरे के अंतर्गत हो जाता है। जैसे 'कान पड़ी आवाज़', 'ऑंखों देखी बात', 'रात बसे' इत्यादि। ब्रजभाषा और अवधी में आवश्यकता होने पर लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु प्राय: कर देते हैं और ऐसा करना उनमें नियमानुकूल माना जाता है। किन्तु खड़ी बोली इस प्रणाली को सदोष समझती है, इसलिए उससे बचती है। हाँ,पढ़ने के समय वह दीर्घ कारक चिद्दों और सर्वनामों को Ðस्व अवश्य पढ़ लेती है और पदान्त में Ðस्व वर्ण को दीर्घ मान लेती है। परंतु कभी-कभी, सब जगह नहीं। शब्दों का तोड़ना-मरोड़ना और शब्द गढ़ लेना भी खड़ी बोली के नियमानुकूल नहीं है। वह ऐसा करना अच्छा नहीं समझती। खड़ी बोली में एक यह बात भी देखी जाती है कि संस्कृत के जिन शब्दों से अवधी या ब्रजभाषा का लिंग-भेद हो गया है उनको वह संस्कृत के अनुसार लिखती है। पवन, वायु इत्यादि शब्द इसके उदाहरण हैं। ब्रजभाषा और अवधी में प्राय: ये शब्द स्त्रीलिंग लिखे जाते हैं, परंतु खड़ी बोली में अब ये पुल्लिंग लिखे जाने लगे हैं,यद्यपि यह सिध्दान्त अभी सर्व-सम्मत नहीं है। संस्कृत का यह नियम है कि संयुक्त वर्णों के आदि का अक्षर दीर्घ समझा जाता है और उसका उच्चारण् भी वैसा ही होता है। ब्रजभाषा और अवधी में ऐसा सब अवस्थाओं में नहीं होता, विकल्प से होता है। किन्तु खड़ी बोली में उसको दीर्घ ही माना जाता है और प्राय: उसका उच्चारण भी संस्कृत के अनुसार ही होता है। जैसे'रामप्रसाद', 'देवस्वरूप', 'गर्वप्रहारी' इत्यादि। इन तीनों शब्दों में हिन्दी बोलचाल में 'राम' के म का, 'देव' के व का और 'गर्व'के ब का उच्चारण विशेषकर अवधी और ब्रजभाषा में Ðस्व ही करेंगे। परंतु खड़ी बोली में उसका दीर्घ उच्चारण करने की चेष्टा की जाती है, यद्यपि अब तक यह प्रणाली हिन्दी भाषा में कुछ संस्कृत प्र्रेमियों ने ही ग्रहण की है। मेरा विचार है कि ऐसा करने से सरल हिन्दी भाषा में एक प्रकार की कठोरता आ जाती है। विशेष अवस्था अथवा विकल्प की बात दूसरी है। ब्रजभाषा और अवधी के नियमों के बहिष्कार के साथ-साथ उनके सुन्दर और मधुर शब्दों का भी खड़ी बोली में परित्याग किया जा रहा है। वरन यह कहना चाहिए कि लगभग परित्याग कर दिया गया है। तो भी कुछ क्रियाएँ ऐसी हैं जो अब तक खड़ी बोली के गद्य पद्य दोनों में गृहीत हैं मैं समझता हूँ ऐसी क्रियाओं का संयत प्रयोग अनुचित नहीं। जैसे 'लखना', 'निहारना', 'निरखना'इत्यादि। ब्रजभाषा में 'दरसाना' एक क्रिया है जो संस्कृत के 'दर्शन' शब्द का तद्भव रूप है। कुछ लोग खड़ी बोलचाल में इसका अब इस रूप में लिखना पसन्द नहीं करते। वे उसके स्थान पर 'दर्शाना' लिखते हैं। ब्रजभाषा और अवधी दोनों में 'न', 'नि'और 'न्ह' को शब्दों के अन्त में लाकर एक वचन से बहुवचन बनाया जाता है। खड़ी बोली में ऐसा नहीं किया जाता। उसने अपने गद्य की प्रणलाी ही को स्वीकृत कर लिया है। विशेष विशेष बातें मैंने बतला दीं। इस विषय में और अधिक लिखना बाहुल्य होगा।

खड़ी बोली की कविता में अधिकतर संस्कृत तत्सम शब्दों को ग्रहण कर लेने और उसको बिलकुल गद्य की प्रणाली में ढाल देने का यह परिणाम हुआ है कि वह कर्कश हो गई है। उसमें जैसा चाहिए वैसा माधार्ुय्य अब तक नहीं आया। खड़ी बोली की कविता ने प्राय: वही मार्ग ग्रहण किया है जो उर्दू भाषा की कविता का है। परंतु ब्रजभाषा या अवधी के शब्दों को लेने में वह उससे भी संकीर्ण है वरन संकीर्णतम है। उर्दू में आवश्यकतानुसार अब भी ब्रजभाषा के कोमल शब्द गृहीत हैं, यहाँ तक कि संस्कृत के शब्द भी अपने ढंग में ढालकर ले लिये जाते हैं। परंतु खड़ी बोली के प्रेमी ऐसा करना पाप समझते हैं। यद्यपि वे अपने इस उद्योग में पूर्णतया सफलता नहीं लाभ कर सके। उर्दू भाषा की कविता अधिकांश अरबी शब्द में की जाती है, जिसमें अधिकतर धयान वज़न पर रक्खा जाता है। इसलिए उसकी कविताओं का शब्द-विन्यास शिथिल नहीं जान पड़ता। वरन् उसमें एक प्रकार का विचित्र ओज आ जाता है। हाँ, यह अवश्य है कि इस ओज के प्रपंच में पड़कर हिन्दी के कितने शब्दों,सर्वनामों, कारक चिद्दों का कचूमर निकल जाता है और कितने बेतरह पिस जाते हैं। परंतु उर्दू वालों के छन्दोनियम कुछ ऐसे हैं कि वे इस प्रकार शब्दों की तोड़-मरोड़ को सदोष नहीं मानते। हिन्दी-भाषा में यह प्रणाली गृहीत नहीं हो सकती, क्योंकि उससे कविता की भाषा अधिकतर दूषित हो जावेगी। ऐसी दशा में मेरा विचार है कि खड़ी बोली के पद्यकारों को हिन्दी के उपयुक्त शब्दों का परित्याग कभी नहीं करना चाहिए, चाहे वह अवधी का हो चाहे ब्रजभाषा का। इससे भाषा सरस और ललित बन जावेगी और उसका कर्कशपन जाता रहेगा।

आन्दोलन के समय में बहुत-सी ऐसी बातें गृहीत हो जाती हैं जो यथार्थ उपयोगिनी नहीं होतीं, किंतु स्थिरता आने पर उनका परित्याग ही उचित समझा जाता है। खड़ी बोली के आन्दोलन काल में कुछ ऐसे नियम स्वीकृत हुए हैं जो पद्य को सरस,सुन्दर, मनोहर और कोमल बनाने के बाधाक हैं। मैं सोचता हूँ, अब उनका विचारपूर्वक परित्याग किया जाना अनुचित नहीं। परिस्थिति के अनुसार सदा त्याग और ग्रहण होता आया है। अब भी इस सिध्दान्त से काम लिया जा सकता है। कुछ भाषा मर्मज्ञों का यह कथन है कि भाषा की कोमलता और मधुरता का बहुत अधिक सम्बन्धा संस्कार से है। यदि यह हम स्वीकार भी कर लें तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि गद्य और पद्य की भाषा में कोई अन्तर नहीं होता और पद्य के लिए कोमल,सरस और मधुर शब्द चुनने की आवश्यकता नहीं होती। संसार के साहित्य पर दृष्टि डालकर देखिए, सब जगह इस सिध्दान्त का पालन हुआ है और वर्तमान काल में भी हो रहा है। फिर संस्कार विषयक तर्क कैसा? मेरा कथन इतना ही है कि पद्य की भाषा को यदि पद्य के योग्य बनाना अभीष्ट हो तो उसी भाषा के विभिन्न अंगों के उपयुक्त शब्दों का त्याग नहीं होना चाहिए। विशेषकर ऐसे शब्दों का जो व्यापक हों और जिनमें प्रान्तिकता अथवा ग्रामीणता की छूत अधिक न लगी हो। मैं यह भी मानता हूँ कि हिन्दी भाषा राष्ट्रीयता की ओर बढ़ रही है, इसलिए उसके गद्य और पद्य में भी ऐसे ही शब्द प्रयुक्त होने चाहिए जो अन्य प्रान्तों में भी सुगमता से समझे जा सकें। निस्संदेह अगर ऐसे शब्द हैं तो संस्कृत ही के शब्द हैं। इसीलिए मैं भी उनके अधिक व्यवहार का विरोधी नहीं हूँ। पंरतु क्या संस्कृत में कोमल, मधुर और सरस शब्द नहीं हैं। फिर क्यों खड़ी बोली के पद्यों में संस्कृत के परुष शब्दों का प्रयोग प्राय: किया जाता है। दूसरी बात यह कि अवधी अथवा ब्रजभाषा के ऐसे ही शब्दों के लेने का अनुरोधा किया जाता है जो व्यापक, उपयुक्त और संस्कृत-सम्भूत हों, विदेशी भाषा के शब्द लिये जायँ और उनको खड़ी बोली की रचना में स्थान दिया जाय और अपने उपयोगी शब्दों को यह कहकर त्याग किया जावे कि वे ब्रजभाषा या अवधी के हैं तो यह कहाँ तक युक्तिसंगत है। ब्रजभाषा, खड़ी बोली और अवधी अन्य नहीं हैं, वे एक ही हैं, आवश्यकता और देशकालानुसार हम उनके भण्डार से उपयुक्त शब्द-संचय कर सकते हैं। इससे सुविधा ही होगी, असुविधा नहीं। मत-भिन्नता भी हितकारी है, यदि उसमें व्यर्थर् ईष्या-द्वेष की मात्रा न हो।

जिस समय यह खड़ी बोली और ब्रजभाषा का आन्दोलन चल रहा था, उस समय एक और आन्दोलन भी बल प्राप्त कर रहा था। वह था सरकारी कचहरियों में हिन्दी भाषा के प्रचलित होने का उद्योग। हिन्दी-हितैषियों का दल महर्षि-कल्प पूज्य पं. मदनमोहन मालवीय जी के नेतृत्व में उस काल इस आन्दोलन की ओर विशेष आकर्षित था। इसलिए हिन्दी की समुन्नति के लिए उन दिनों जो साधान उपयुक्त समझे गये काम में लाये गये। नगर-नगर में नागरी-प्रचारिणी-सभाओं का जन्म हुआ। नागरी के स्वत्व और उसके महत्तव-सम्बन्धी छोटी-बड़ी अनेक पुस्तिकाएँ निकाली गईं। स्थान-स्थान पर नागरी लिपि के प्रचार की महत्ता का राग अलापा गया और दूसरे यत्न जो उचित समझे गये, काम में लाये गये। इस आन्दोलन से भी खड़ी बोली की कविता के आन्दोलन को बड़ी सहायता पहुँची क्योंकि विपक्षी हिन्दी भाषा पर जो दोषारोपण करते थे, उचित मात्रा में उनका निराकरण करना भी आवश्यक ज्ञात हुआ। उस समय ऐसी बातें अवश्य कही गईं कि खड़ी बोली की कविता ऐसी हो जो उर्दू कविताओं से पूरी तौर पर टक्कर ले सके। इस अवसर से कुछ कट्टर खड़ी बोली के प्रेमियों ने लाभ उठाकर इस बात का अवश्य प्रचार किया कि जहाँ तक हो, ब्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का कोई सम्पर्क न रहे। इसको बहुत कुछ व्यावहारिक रूप भी दिया गया, परन्तु यह उत्तोजना के समय की बात थी। वह समय निकल जाने पर इस विषय में जो कट्टरता व्यापक रूप ग्रहण कर रही थी वह बहुत कुछ कम हो गई और विवेकशील हृदयों से वह दुर्भाव निकल गया जो ब्रजभाषा से किसी प्रकार की सहायता न लेने के पक्ष में था। इस स्थिरता के समय में खड़ी बोलचाल की जो रचनाएँ हुई हैं, उनमें ब्रजभाषा के सरस शब्दों का प्रयोग देखा जाता है। परन्तु अब तक इस विषय में संतोषजनक प्रवृत्तिा नहीं उत्पन्न हुई। मेरी सम्मति यह है कि अब वह समय आ गया है जब संयत चित्ता से भाषा मर्मज्ञ लोग इस विषय पर विचार करें और खड़ी बोली की कविता को कर्कशता दोष से दूषित होने से बचावें।

इस खड़ी बोली के आन्दोलन के समय में जो कवि उत्पन्न हुए और कार्य-क्षेत्र में आये उनकी चर्चा इस स्थान पर आवश्यक है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि किस प्रकार खड़ी बोली की कविता साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर हुई। यहाँ यह बात स्मरण रखना चाहिए कि ब्रजभाषा के कवि उस समय भी थे, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे। केवल अन्तर इतना ही है कि अब हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में खड़ी बोली को प्रधानता प्राप्त हो गई है। आन्दोलन के पहले बाबू हरिश्चन्द्र और उनके सम-सामयिक कवियों को भी खड़ी बोली की दो-एक स्फुट कविताएँ करते देखा जाता है, यद्यपि उनमें खड़ी बोली का वह आदर्श नहीं पाया जाता जो बाद को दृष्टिगत हुआ। बाबू हरिश्चन्द्र के एक पद्य का कुछ अंश नीचे दिया जाता है जिससे आप अनुमान कर सकेंगे कि वे भी उस समय खड़ी बोली की रचना की ओर कुछ आकर्षित हुए थे। वे पंक्तियाँ ये हैं-

कहाँ हो ऐ हमारे राम प्यारे।

किधार तुम छोड़ कर हमको सिधारे।

बुढ़ापे में यह दुख भी देखना था।

इसी के देखने को मैं बचा था।

इनके उपरान्त पं. बदरीनारायण चौधरी और पं. प्रतापनारायण मिश्र को भी हिन्दी भाषा में खड़ी बोली की दो-एक स्फुट कविता करते देखा जाता है। मैं इनकी कविताएँ पहले के पृष्ठों में उद्धृत कर आया हूँ। इसके बाद हमारे सामने श्रीधार पाठक आते हैं, जिन्होंने 'एकान्तवासी योगी' नामक खड़ी बोलचाल की एक पद्य पुस्तक ही लिख डाली।

पं. श्रीधार पाठक ब्रज प्रान्त के रहने वाले थे, आगरे में उनका निवास था। इसीलिए ब्रजभाषा से उनको स्वाभाविक प्रेम था। वे अंग्रेजी और संस्कृत दोनों के विद्वान थे। किन्तु सरस-प्रकृति होने के कारण कविता रचने की ओर उनकी विशेष प्रवृत्तिा थी। पहले वे ब्रजभाषा में ही कविता करते थे। परन्तु समय की गति उन्होंने पहिचानी और बाद को खड़ी बोली की ओर आकर्षित हुए। वे हिन्दी-संसार में खड़ी बोली के पहले पद्यकार होने की दृष्टि से ही आदृत हैं। हिन्दी के कुछ स्फुट गद्य लेख और'तिलस्माती मुँदरी' नामक एक उपन्यास भी उन्होंने लिखा है। परन्तु कीर्ति उन्होंने पद्य-ग्रन्थ लिखकर ही पाई। संयुक्त प्रांत की गवर्नमेंट के दफ्तर में पहले वे डिप्टी सुपरिन्टेण्डेण्ट थे, किन्तु बाद को सुपरिन्टेण्डेण्ट हो गये थे। इस कारण उनको समयाभाव था। फिर भी वे यथावकाश हिन्दी देवी की सेवा में रत रहे। खड़ी बोली का उनका पहला पद्य ग्रन्थ एकान्तवासी योगी है। इसके बाद उन्होंने जगत सचाई सार और श्रान्त पथिक नामक दो और छोटे ग्रंथ लिखे। जगत सचाई सार उनका स्वरचित ग्रंथ है,शेष दोनों ग्रंथ अंग्रेजी ग्रंथों के अनुवाद हैं। ये दोनों ग्रंथ भी छोटे हैं परन्तु इन्हीं के द्वारा उनको खड़ी बोली का पहला ग्रन्थकार होने का गौरव प्राप्त है। इन दोनों ग्रंथों की भाषा अधिकतर संस्कृत गर्भित है, उनमें खड़ी बोलचाल के नियमों की रक्षा भी यथार्थ रीति से नहीं हुई है। किसी भाषा की आदिम रचना में जो त्रुटियाँ होती हैं, वे सब उनमें मौजूद हैं। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्होंने इन ग्रन्थों की रचना करके खड़ी बोली की कविता का मार्ग बहुत कुछ प्रशस्त बनाया, उनके कुछ पद्य देखिए-

1. साधारण अति रहन सहन

मृदु बोल हृदय हरने वाला।

2. मधुर मधुर मुसक्यान मनोहर

मनुज वंश का उँजियाला।

3. सभ्य सुजन सत्कर्म परायण सौम्य सुशील सुजान।

4. शुध्द चरित्रा उदार प्रकृति शुभ विद्या बुध्दि निधान।

5. प्राण पियारे की गुण गाथा साधु कहाँ तक मैं गाऊँ।

6. गाते गाते नहीं चुके वह चाहे मैं ही चुक जाऊँ।

7. विस्व निकाई विधि ने उसमें की एकत्रा बटोर।

8. बलिहारौं त्रिभुवन धान उस पर वारौं काम करोर।

- एकान्तवासी योगी

9. शीतल मृदुल समीर चतुर्दिक

सुखित चित्ता को करती है।

10. कोमल कल संगीत सरस धवनि

तरु तरु प्रति अनुसरती है।

11. सकल सृष्टि की सुघर सौम्य

छबि एकत्रित तहँ छाई है।

12. अति की बसै मनुष्यों ही के

मन में अति अधिकाई है।

13. मनन वृत्तिा प्रति हृदय-मधय

दृढ़ अधिकृत पाई जाती है।

14. अति गरिष्ट साहसिक लक्ष्य

उत्साह अमित उपजाती है।

15. गति में गौरव गर्व दृष्टि में

दर्प धाृष्टता युत धारी।

16. देखूँ हूँ मैं इन्हें मनुज कुल

नायकता का अधिकारी।

17. सदा बृहतव्यवसाय निरत

सुविचारवंत दीखे सारे।

18. सुगम स्वल्प आचार शील

औ शुध्द प्रकृति के गुण धारे।

19. कृषिकर भी प्रत्येक स्वत्व की

जाँच गर्व युत करता है।

20. त्यों मनुष्य होने का मान

सबके समान मन धारता है।

21. धान तृष्णा का घृणित एक

सामान्य कुण्ड बन जावैगा।

22. नृपति शूर विद्वान आदि।

कोई भी मान नहिं पावैगा।

- श्रान्त पथिक

1. इन पद्यों में किस प्रकार संस्कृत तत्सम शब्दों का आधिक्य है, यह कथन करने की आवश्यकता नहीं। यह मैं स्वीकार करूँगा कि चन्द बरदाई के समय से ही हिन्दी भाषा की कविता में संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग होने लगा था। उत्तारोत्तार यह प्रवृत्तिा बढ़ती गई। यहाँ तक कि अवधी भाषा के मुसलमान कवियों ने भी अवसर आने पर संस्कृत के तत्सम शब्दों का व्यवहार किया। परंतु इन लोगों का संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग परिमित है। उनकी प्रवृत्तिा तद्भव या अर्धा तत्सम शब्दों के व्यवहार की ओर ही अधिक देखी जाती है। संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग वे किसी कारण विशेष के उपस्थित हो जाने पर ही करते थे। हाँ, गोस्वामी तुलसीदास अथवा प्रज्ञाचक्षु सूरदास आदि कुछ महाकवियों ने किसी-किसी रचना में विशेषकर स्तुति और वंदना-सम्बन्धी पद्यों में संस्कृत शब्दों का प्रयोग बहुत अधिक किया है और इस प्रकार किसी-किसी पद्य को संस्कृतमय बना दिया है। परंतु ऐसे पद्यों की संख्या बहुत थोड़ी है। हम उनको अपवाद मानते हैं, वे नियम के अंतर्गत नहीं। पाठक जी के पद्यों में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य नियम के अंतर्गत है और यही खड़ी बोलचाल की रचना की बहुत बड़ी विशेषता है। तत्सम शब्दों के प्रयोग का जो आदर्श इन पद्यों में पाया जाता है, वह खड़ी बोली-संसार में आज तक गृहीत है। किसी-किसी ने पाँव आगे भी बढ़ाया है और इससे अधिक संस्कृत-परुष शब्दों से गर्भित रचनाएँ की हैं। अब तक यह प्रवाह चल रहा है। परंतु कुछ लोगों ने इसका पूरा अनुकरण नहीं किया, उन्होंने कोमल तथा ललित शब्दों को ही अपनी रचनाओं में स्थान दिया। आजकल विशेषकर कोमल और सरस शब्दों में रचना करने की ओर लोगों की दृष्टि आकर्षित है, और पहले से खड़ी बोलचाल की रचनाएँ अधिक कोमल और सरस होने लगी हैं। प्राकृत भाषाएँ संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोग के प्रतिकूल थीं। इसकी कुछ प्रतिक्रिया अवधी और ब्रजभाषा में हुई। खड़ी बोली की रचना में वह पूर्णता में परिणत हो गई।

2. ब्रजभाषा और अवधी में हलन्त का सस्वर प्रयोग होता है। प्राकृत में भी अनेक स्थलों पर यह प्रणाली गृहीत है। श्रीधारजी ने अपनी खड़ी बोली की रचना में इस प्रणाली को स्वीकार कर लिया है। इसीलिए उनके ऊपर के पद्यों में चतुर्दिक'बृहत', एवं 'विद्वान' के अंतिम अक्षर जिन्हें हलन्त होना चाहिए, सस्वर लिखे गये हैं। आजकल कुछ लोगों को देखा जाता है कि हलन्त वर्णों को हलन्त ही लिखना चाहते हैं। मैं समझता हूँ ऐसा करने से मुद्रण कार्य में ही असुविधा न होगी, अनेक खड़ी बोली के पद्यों की रचना में भी कठिनता होगी। विशेषकर उन रचनाओं में जो संस्कृत वृत्ताों में की जायेगी। इसलिए मेरा विचार है कि इस प्रणाली को स्वीकृत रहना चाहिए।

3. संस्कृत का नियम है कि संयुक्त वर्ण के पहले जो वर्ण होता है उसका उच्चारण दीर्घ होता है। एक शब्द के अन्तर्गत इस प्रकार का उच्चारण स्वाभाविक होता है। इसलिए उसमें जटिलता नहीं आती। वह स्वयं सरलता से दीर्घ उच्चरित होता रहता है। जैसे 'समस्त', 'कलत्रा', 'उन्मत्ता' आदि। परंतु जहाँ वह समस्त रूप में होता है वहाँ उसका उच्चारण दीर्घ रूप में करने से हिन्दी-रचनाओं में एक प्रकार की जटिलता आ जाती है। इसलिए विशेष अवस्थाओं को छोड़कर, मेरा विचार है कि उसका Ðस्व उच्चरित होना ही सुविधाजनक है। ऊपर के पद्यों में 'सरस ध्वनि' और 'वृहत व्यवसाय' ऐसे ही प्रयोग हैं। संस्कृत के नियमानुसार 'सरस' के अंतिम 'स' को और 'बृहत' के 'त' को दीर्घ होना चाहिए। किंतु उसको दीर्घ बनाने से छन्दोभंग होगा। इसीलिए पद्यकार ने उसको Ðस्व रूप ही में ग्रहण किया। हिन्दी भाषा के पहिले आचार्यों की भी यही प्रणाली है। मेरा विचार है,इस प्रणाली को स्वीकृत रहना चाहिए। विशेष अवस्थाओं में उसके दीर्घ करने का मैं विरोधी नहीं।

4. ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर आया है 'तरुतरुप्रति' और दूसरे स्थान पर आया है 'मन धारता है'। खड़ी बोल-चाल के नियमानुसार इनको 'तरुतरु के प्रति' और 'मन में धारता है' होना चाहिए। इनमें कारक चिद्दों का लोप है। यह प्रयोग खड़ी बोलचाल के नियम के विरुध्द है। 'के' का प्रयोग क्षम्य भी हो सकता है, क्योंकि वहाँ उसके बिना अर्थ की भ्रांति नहीं होती। परन्तु 'में' का प्रयोग न होने से वाक्य का यह अर्थ होता है कि 'मन' स्वयं किसी वस्तु को धारता या पकड़ता है। कवि का भाव यह नहीं है। वह यह कहता है कि अपने 'मन' में कोई कुछ रखता या धारता है। ऐसा प्रयोग निस्सन्देह सदोष है। ऐसा होना नियमानुकूल नहीं। कवि ने ऐसा प्रयोग संकीर्णता में पड़कर किया है। इससे उसकी असमर्थता प्रकट होती है। मेरा विचार है कि खड़ी बोलचाल के कवियों को इस असमर्थता-दोष से बचना चाहिए। खड़ी बोलचाल की रचनाओं में वहीं ऐसा प्रयोग करना चाहिए जहाँ वह मुहावरों के अंतर्गत हो, जैसा मैं ऊपर लिख आया हूँ।

5. समस्त पदों को पद्य में यदि लाया जावे तो उसको उसी रूप में लाना चाहिए जो शुध्द है। उनके शब्दों को उलटना-पुलटना नहीं चाहिए। परन्तु प्राय: हिन्दी-पद्यों में इस नियम की रक्षा पूर्णतया नहीं हो पाती। प्रयोजन यह कि सुन्दर बालक,कमल-दल, कमल-नयन, पंचमुख और बहुचिद्दित इत्यादि वाक्यों को इसी रूप में लिखा जाना चाहिए किन्तु वृत्ता एवं छन्द के बन्धानों में पड़कर उनके शब्दों को उलट-पुलट दिया जाता है। ऐसा अन्य भाषाओं में भी होता है। किन्तु यथासम्भव इस दोष से बचना चाहिए। विशेषकर तत्पुरुष और बहुब्रीहि समासों में। ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर 'साधारण अति' लिखा गया है। ऐसा प्रयोग उचित नहीं था। विशेषकर उस अवस्था में जब 'अति साधारण' लिखा जा सकता था। मैं समझता हूँ ऐसा अमनोनिवेश के कारण असावधानी से हो गया है। ऐसी असावधानी कदापि वांछनीय नहीं।

6. ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर 'तहाँ' के स्थान पर 'तहँ' और दूसरी जगह 'नहीं' के स्थान पर 'नहि' आया है। खड़ी बोलचाल के नियमानुसार उनको शुध्द रूप में ही आना चाहिए था। संस्कृत में 'नहि' का प्रयोग 'नहीं' के अर्थ में होता है, जैसे'नहि नहि रक्षति डुक्रिय करणम्'। इस दृष्टि से देखा जावे तो 'नहि' का प्रयोग सदोष नहीं है। क्योंकि वह संस्कृत का तत्सम शब्द है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि गद्य में 'नहिं' का प्रयोग न होना इस विचार का बाधाक है। किन्तु मैं इस बात को इसलिए नहीं मानता कि इससे पद्य की वह सुविधा नष्ट होती है जो गद्य की अपेक्षा उसे अधिक प्राप्त है। मेरा विचार है कि पद्य में संस्कृत के तत्सम शब्द होने का धयान रखकर यदि उसका प्रयोग संकीर्ण स्थलों पर किया जाय तो वह सदोष न होगा। हाँ, 'नहि' के 'हि' पर बिन्दी नहीं लगानी चाहिए। पद्य की बीसवीं पंक्ति का 'का' और बाईसवीं पंक्ति का 'भी' लघु पढ़ा जाता है यद्यपि वह लिखा गया है दीर्घ। हिन्दी भाषा के प्रचलित नियमानुसार दीर्घ को लघु पढ़ना छन्दो-नियम के अन्तर्गत है। सवैया में प्राय: ऐसा किया जाता है। परन्तु इस प्रकार का प्रयोग न होना ही वांछनीय है, क्योंकि प्राय: लोग ऐसे स्थानों पर अटक जाते हैं और छन्द को ठीक-ठीक नहीं पढ़ सकते। यद्यपि उर्दू में ऐसे प्रयोगों की भरमार है। उर्दू में इस प्रकार का प्रयोग इसलिए नहीं खटकता कि उर्दू वाले इस प्रकार के प्रयोगों के पढ़ने के अभ्यस्त हैं। हिन्दी पद्यों में इस प्रकार के प्रयोग बहुत ही अल्प मिलते हैं, इसलिए प्राय: पढ़ने में रुकावट उत्पन्न करते हैं। ऐसी दशा में जहाँ तक सम्भव हो, इस प्रकार के प्रयोग से बचने की चेष्टा की जानी चाहिए।

7. अठारहवीं पंक्ति में 'और' के स्थान पर 'औ' लिखा गया है। खड़ी बोलचाल की कविता में प्राय: 'और' ही लिखा जाना अच्छा समझा जाता है। कुछ लोग अंग्रेजी प्रणाली के अनुसार 'औ' के ऊपर 'कामा' लगाकर उसके 'र' को उड़ा देते हैं। उनका कथन है कि जब औ' से और का भाव प्रगट हो जाता है, तो संकीर्ण स्थलों में उसका प्रयोग क्यों न किया जाय। मैं भी इस विचार से सहमत हूँ। उर्दू वाले लिखने को तो अपने पद्यों में 'और' लिख देते हैं, परन्तु अनेक स्थानों में उसका उच्चारण 'औ'ही कर लेते हैं। यह प्रणाली अच्छी नहीं, और न हिन्दी के लिए उपयुक्त है। इसलिए जहाँ तीन मात्रा वाला 'और' न प्रयुक्त हो सके, द्विमात्रिक 'औ' का लिखना आक्षेप-योग्य नहीं।

8. पंक्ति सात और आठ में 'निकाई' और 'करोर' शब्द आये हैं। 'निकाई ठेठ ब्रजभाषा' है, 'करोर' ब्रजभाषा के नियमानुसार अनुप्रास के झमेले में पड़कर 'करोड़' से बनाया गया है। पाठक जी के बाद के खड़ी बोली के कविगण इस प्रकार के प्रयोग को अच्छा नहीं समझते और वे ब्रजभाषा के इस प्रकार के शब्दों से बचना चाहते हैं। परन्तु फिर भी 'निकाई', की निकाई पर कुछ लोग मुग्धा हैं। वे अब तक इसको अपनी रचनाओं में स्थान देते हैं। मेरा विचार है कि ब्रजभाषा के ऐसे सरस शब्दों का बहिष्कार उचित नहीं। ऐसे शब्दों के ग्रहण करने से ही खड़ी बोली की कर्कशता दूर होगी। 'करोड़' को 'करोर' कर देना मैं भी अच्छा नहीं समझता। ऐसे परिवर्तनों से बचना चाहिए यदि भावुकता भी साथ दे।

9. दसवीं पंक्ति में अनुसरती है। और अठारहवीं पंक्ति में 'धारे' क्रियाओं का प्रयोग है। न तो खड़ी बोली में अनुसरना कोई क्रिया है, न धारना। खड़ी बोलचाल में 'धारना' के स्थान पर 'रखना' का प्रयोग होता है। फिर भी उन्होंने इन क्रियाओं का प्रयोग अपनी खड़ी बोली की रचना में किया है। 'धारना' क्रिया के रूपों का व्यवहार अब तक खड़ी बोलचाल की कविता में हो रहा है। 21वीं और 22वीं पंक्तियों में 'जावैगा', 'पावैगा' लिखा गया है। ये दोनों क्रियाएँ हिन्दी की हैं और अब तक इनका प्रयोग भी खड़ी बोली की रचना में हो रहा है। अन्तर इतना ही है कि 'जावेगा', 'पावेगा' अथवा 'जाएगा', 'पाएगा' लिखा जाता है।'जावेगा', 'पावेगा' के विषय में मुझको कुछ अधिक नहीं कहना है। यदि थोड़ा सम्हलकर प्रयोग किया जावे तो खड़ी बोलचाल में उसका प्रयोग शुध्द रूप में हो सकता है। हाँ, 'धारना' क्रिया के रूपों का प्रयोग अवश्य विचारणीय है। क्योंकि उसका प्रयोग दो अर्थों में होता है एक 'रखना' के और दूसरा 'पकड़ना' क्रिया के रूप में। उर्दू वाले इसके स्थान पर 'रखना' और 'पकड़ना' क्रिया रूपों ही का प्रयोग करते हैं। हिन्दी गद्य में भी ऐसा ही होता है। इसलिए उसका प्रयोग खड़ी बोली की कविता के लिये अधिक अनुकूल नहीं है। उसमें एक प्रकार की ग्रामीणता है। परन्तु यह क्रिया उपयोगिनी बड़ी है। अनेक अवसरों पर वह अकेली दो-दो क्रियाओं का काम दे जाती है और इसीलिए वह अब तक खड़ी बोली के पद्यों में स्थान पाती आती है। मेरा विचार है कि उसका सर्वथा त्याग उचित नहीं। हाँ, उसका बहुल प्रयोग अच्छा नहीं कहा जा सकता। अब रहा अनुसरती है का प्रयोग। निस्सन्देह'अनुसरना' हिन्दी में कोई धातु नहीं है। यह क्रिया ब्रजभाषा से ही आई है, परन्तु उसको खड़ी बोली का रूप दे दिया गया है। क्रिया है बड़ी मधुर। इस पर कवित्व की छाप है। मेरा विचार है कि ब्रजभाषा की ऐसी क्रियाओं को खड़ी बोलचाल का रूप देकर ग्रहण कर लेना युक्ति-संगत है। इससे खड़ी बोली वह सिध्दि प्राप्त कर लेगी जो सरसता की जननी है। पंक्ति 12 में'अधिकाई' और 'बसैहै' का प्रयोग है। 'बसैहै' में गहरा दूरान्वय दोष है। वह तो ग्रहणीय नहीं। अब रहा यह कि 'बसैहै', 'जलैहै'इत्यादि प्रयोग खड़ी बोलचाल की कविता में होना चाहिए या नहीं। किसी क्रिया का वर्तमान काल का रूप खड़ी बोलचाल में इस प्रकार नहीं बनता। इसलिए इस प्रकार का प्रयोग अच्छा नहीं 'अधिकाई' लिखा जाना भी असुन्दर है। 'देखूँहूँ' और 'दीखैं'क्रियाओं का प्रयोग पंक्ति 16 और 17 में हुआ है, यह प्रयोग भी खड़ी बोली के नियमों के अनुकूल नहीं है। इसी प्रकार पंक्ति 8के 'बलिहारौ', 'वारौ' क्रियाओं का व्यवहार भी खड़ी बोली के नियमों के अनुसार नहीं। इसलिए मेरी सम्मति यही है कि इस प्रकार की क्रियाओं से खड़ी बोलचाल की रचनाओं को सुरक्षित रखना चाहिए। पाठक जी की खड़ी बोली की आदिम रचनाओं में इस प्रकार की क्रियाओं का आना उतना तर्क-योग्य नहीं, क्योंकि वह खड़ी बोली के प्रसार का आदिम काल था। मुझे हर्ष है कि उनके बाद के सहृदय कवियों ने इस प्रकार के प्रयोगों की उपेक्षा करके खड़ी बोली की कविता का मार्ग अधिकतर निर्दोष बना दिया है।

आप लोग यदि एक बार सिंहावलोकन से काम लेंगे तो यह ज्ञात हो जायगा कि खड़ी बोली का अस्तित्व उसी समय से है जब से ब्रजभाषा अथवा अवधी का। खुसरो की कविता में उसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वरन् यह कहा जा सकता है कि जैसा सुन्दर आदर्श खड़ी बोली की कविता का उन्होंने उपस्थित किया, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक वैसा आदर्श नहीं उपस्थित किया जा सका। कबीर साहब की रचनाओं में भी उसका रंग पाया जाता है। भूषण् के कवित्ताों में भी उसकी झलक मिलती है। महन्त सीतल ने तो एक प्रकार से उसकी बाँह ही पकड़ ली और उस निरावलम्बा को बहुत कुछ अवलम्बन दिया। इंशा अल्ला खाँ ने अपनी रानी केतकी की कहानी में और नजीर अकबराबादी ने अपनी स्फुट रचनाओं में उसका रंग रूप दिखलाया। रघुनाथ, ग्वाल कवि और सूदन की रचनाओं में भी उसकी छटा दृष्टिगत होती है और वह करवट बदलती ज्ञात होती है। बाबू हरिश्चन्द्र, पं. प्रतापनारायण और पं. बदरीनारायण चौधरी ने तो उसके कतिपय स्फुट पद्य बनाकर उसे वह शक्ति प्रदान की जिसके आधार से पं. श्रीधार पाठक ने उसको दो सुन्दर पुस्तकें भी प्रदान कीं। इसी समय पं. अम्बिकादत्ता व्यास ने 'कंस वधा' नामक एक साधारण काव्य निदर्शन रूप में लिखा परन्तु अपने उद्योग में वे सर्वथा असफल रहे। खड़ी बोलचाल की कविता का रूप इन लोगों की रचनाओं में अधिकतर अस्पष्ट है और उसके शब्द विन्यास भी अनियमबध्द पाये जाते हैं। परन्तु पाठक जी के दो ग्रन्थों (एकान्तवासी योगी और श्रान्त पथिक) में उसका रूप बहुत कुछ स्पष्ट हो गया है और उसके शब्द-विन्यास के नियम भी बहुत कुछ व्यवस्थित देखे जाते हैं। पाठक जी का हृदय वास्तव में ब्रजभाषामय था। उनकी ब्रजभाषा की रचनाएँ जितनी हैं, बड़ी सरस और सुन्दर हैं। उनकी 'काश्मीर-सुखमा' नाम की पुस्तिका उनकी समस्त रचनाओं में सर्वोत्ताम है,किन्तु उसकी भाषा ब्रजभाषा है। उनके जीवन का अन्तिम समय भी ब्रजभाषा की सेवा ही में बीता। यदि वे इस स्वाभाविक प्रेम के जाल में न फँसते और दो एक मौलिक ग्रन्थ खड़ी बोल-चाल के पद्यों में और लिख जाते तो उस समय वह कुछ और अधिक उन्नत हो जाती। फिर भी उन्होंने पहले पहल जितना किया, उसके लिए वे चिर स्मरणीय हैं और खड़ी बोली कविता का क्षेत्र उसके लिए उनका कृतज्ञहै।

पाठकजी के उपरान्त खड़ी बोली के कविता-क्षेत्र में हमको पं. नाथूराम शंकर शर्मा का दर्शन होता है। ये ब्रजभाषा के ही कवि थे और उसमें सुन्दर और सरस रचना करते थे। परन्तु सामयिक रुचि का इन पर भी प्रभाव पड़ा और ये खड़ी बोली में ही कविता लिखने लगे। शर्माजी आर्य-समाजी विचार के हैं। आर्य-समाज की कट्टरता प्रसिध्द है। शर्मा जी भी अपने विचार के कट्टर हैं। इनकी यह कट्टरता इनकी रचना में ही नहीं, इनके शब्दों में भी फूटी पड़ती है। आर्य-समाज के सिध्दान्त के अनुसार समाज संशोधान सम्बन्धी विचार प्रकट करने के लिए इनको खड़ी बोली उपयुक्त ज्ञात हुई। इसलिए इनका उसकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था। इनके धार्मिक विचारों में भी उग्रता है। इस सूत्रा से भी इनको खड़ी बोली की कविता करनी पड़ी क्योंकि उस समय आर्य-समाज को जनता में अपना सिध्दान्त प्रचार करने के लिए ब्रजभाषा से खड़ी बोली ही उन्हें अधिक प्रभाव जनक जान पड़ी। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनकी खड़ी बोली की रचना में ब्रजभाषा का पुट बराबर आवश्यकता से अधिक रहा और अब तक है। इन्होंने छोटी-मोटी कई पुस्तकें बनाई हैं किन्तु इनकी छपी हुई चार पुस्तकें अधिक प्रसिध्द हैं। इनके नाम ये हैं-शंकर सरोज, अनुराग-रत्न, गर्भ रण्डारहस्य और वायस विजय। इनकी रचना की विशेषता यह है कि उसमें समाज संशोधान, मिथ्याचार खंडन और परम्परागत रूढ़ियों का निराकरण उत्कट रूप में पाया जाता है। इनसे पहले इस ढंग की रचनाओं का अभाव था। समय ने इनके ही द्वारा इस अभाव की पूर्ति कराई। खड़ी बोलचाल में आपकी ही ऐसी पहली रचना है, जिसमें समाज को उसके अन्धाविश्वासों के लिए गहरी फटकार मिलती है। इस विषय में हिन्दी साहित्य क्षेत्र में कबीर के बाद इनका ही स्थान है। मुँहफट और अक्खड़ भी ये वैसे ही हैं। जब आवेश में आते हैं तो इनके उद्गार में ऐसे शब्द भर जाते हैं जिनसे एक प्रकार का स्फोट-सा होता ज्ञात होता है। शर्मा जी हिन्दी संसार के एक ख्याति प्राप्त और मान्य कवि हैं। इनको गुण ग्राहकों ने पदक और उपयुक्त पदवियाँ भी प्रदान की हैं। इनका ब्रजभाषा का एक पद्य नीचे लिखा जाता है-

1. मंगल करन हारे कोमल चरन चारु

मंगल से मान मही गोद में धारत जात।

पंकज की पाँखुरी सी ऑंगुरी ऍंगूठन की

जाया पंचबान जी की भँवरी भरत जात।

शंकर निरख नख नग से नखत ò ेनी

अंबर सों छूटि छूटि पाँयन परत जात।

चाँदनी में चाँदनी के फूलन की चाँदनी पै

हौले हौले हंसन की हाँसी सी करत जात।

एक पद्य खड़ी बोलचाल का देखिए-

2. कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है

कि श्याम घनमंडल में दामिनी की धारा है।

यामिनी के अंक में कलाधार की कोर है

कि राहु के कबंधा पै कराल केतु तारा है।

शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है

कि तेज ने तिमिर के हिये में तीर मारा है।

काली पाटियों के बीच मोहिनि की माँग है

कि ढाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है।

एक पद्य ऐसा देखिए जिसमें खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों का गहरा रंगहै-

3. ताकत ही तेज न रहैगो तेजधारिन में

मंगल मयंक मंद पीले पड़ जायँगे।

मीन बिन मारे मर जायँगे तड़ागन में

डूबडूब शंकर सरोज सड़ जायँगे।

खायगो कराल काल केहरी कुरंगन को

सारे खंजरीटन के पंख झड़ जायँगे।

तेरी ऍंखियान सों लड़ैगे अब और कौन

केवल अड़ीले दृग मेरे अड़ जायँगे।

एक पद्य डाँट फटकार का भी देखिए-

4. ईश-गिरिजा को छोड़ यीशु गिरजा में जाय

शंकर सलोने मैन मिस्टर कहावेंगे।

बूट पतलून कोट कमफाट टोपी डाटि

जाकेट की पाकेट में वाच लटकावेंगे।

घूमेंगे घमंडी बने रंडी का पकड़ हाथ

पिएँगे बरंडी मीट होटल में खावेंगे।

फारसी की छार सी उड़ाय ऍंग्रेजी पढ़ि

मानो देवनागरी का नाम ही मिटावेंगे।

इनकी एक रचना विचित्र भाषा भाव की देखिए-

5. बाबा जी बुलाये बीर डूँगरा के डोकरा ने

जैमन को आसन बछेल के बिछाये री।

ओंड़े ऊदला महेरी के सपोट गये झार

गये झोर रोट झार पेट भरे खाये री।

छोड़ी न गजरभत नेक हूँ न दोरिया में

रोंथ रोंथ रूखी दर भुजिया अघाये री।

संतन के रेवड़ जो चमरा चरावत हैं

शंकर सो बाने बंद बेदुआ कहाये री।

एक पद्य ऐसा देखिए जिसमें परसी के मुहावरे और शब्द दोनों कसरत से शामिल है-

बाग़ की बहार देखी मौसिमे बहार में तो

दिल अन्दलीप को रिझाया गुल तरसे।

हम चकराते रहे आसमाँ के चक्कर में

तौभी लौ लगी ही रही माह के महर से।

आतिशे मुसीबत ने दूर की गुदूरत को

बात की नबात मिली लज्ज़ते शकर से।

शंकर नतीजा इस हाल का यही है बस

सच्ची आशिकी में नप होता है ज़रर से।

एक उर्दू पद्य देखिए जो हसब हाल है-

बुढ़ापा नातवानी ला रहा है।

ज़माना ज़िन्दगी का जा रहा है।

किया क्या ख़ाक आगे क्या करेगा।

आख़ीरी वक्त दौड़ा आ रहा है।

इस खड़ी बोली के उत्थान के समय में ब्रजभाषा के कवियों की कमी नहीं है। इस समय भी ब्रजभाषा के सुकवि उत्पन्न हुए और उन्होंने उसी की सेवा आजन्म की। उनमें से जो दो से अधिक प्रसिध्द हैं, वे हैं लाला सीताराम बी. ए. और स्वर्गीय रायदेवी प्रसाद पूर्ण। लाला सीताराम बी. ए. बहुभाषाविद् हैं। उनको संस्कृत, अंगरेज़ी, परसी, अरबी आदि कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान है। उन्होंने कई अंग्रेजी नाटकों का अनुवाद उर्दू में भी किया है। ब्रजभाषा की उन्होंने यह सेवा की 'मेघदूत', 'ऋतु-संहार', 'रघुवंश' का पद्यानुवाद सरल भाषा में करके उसे सौंपा। संस्कृत के 'मालती माधाव', 'उत्तार राम चरित' आदि नाटकों का अनुवाद भी गद्यपद्यमयी भाषा में किया। आप गद्य-पद्य दोनों लिखने में अभ्यस्त हैं। अपनी वृध्दावस्था में भी कुछ न कुछ हिन्दी-सेवा करते ही रहते हैं। आपके पद्य के कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं जो रघुवंश के पद्यानुवाद से लिये गये हैं-

भये प्रभात धोनु ढिग जाई।

पूजि रानि माला पहिराई।

बच्छ पियाइ बाँधि तब राजा।

खोल्यो ताहि चरावन काजा।

परत धारनि गा चरन सुवाहन।

सो मगधूरि होत अति पावन।

चली भूप तिय सोई मग माहीं।

स्मृति , श्रुति अर्थ संग जिमि जाहीं।

चौसिंधुन थन रुचिर बनाई।

धारनिहिं मनहुँ बनी तहँ गाई।

प्रिया फेरि अवधोश कृपाला।

रक्षा कीन्ह तासु तेहि काला।

कबहुँक मृदु तृन नोचि खिलावत।

हाँकि माछि कहुँ तनहिं खुजावत।

जो दिसि चलत चलत सोई राहा।

एहि बिधि तेहि सेवत नरनाहा।

राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' कानपुर के एक प्रसिध्द वकील थे। आपने आजन्म हिन्दी भाषा की सेवा की और जब तक जिये उसको अपनी सरस रचनाओं से अलंकृत करते रहे। आप बड़े सहृदय कवि और वक्ता थे, धर्म प्रेमी भी थे। ब्रह्मर्वत्ता सनातनधर्म मण्डल की स्थापना भी आप ही ने की थी। 'काव्य-शास्त्रा विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्' के आप प्रत्यक्ष प्रमाण थे। उन्होंने रसिक-वाटिका नामक एक मासिक पत्रिका भी निकाली थी। पीछे से धर्म कुसुमाकर नामक एक मासिक पत्रा भी प्रकाशित किया। आपने ब्रजभाषा में अनेकसुन्दर रचनाएँ की हैं। उनमें से कुछ पुस्तकाकार भी छपी हैं। उन्होंने मेघदूत का'धाराधार धावन' नाम से बड़ा सुन्दर और सरस अनुवाद किया है। उनका 'चन्द्र कला भानुकुमार' नाटक भी अच्छा है। उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

वर्षा-आगमन

1. सुखद सीतल सुचि सुगन्धिात पवन लागी बहन।

सलिल बरसन लगो बसुधा लगी सुखमा लहन।

लहलहीलहरान लागीं सुमन बेली मृदुल।

हरित कुसुमित लगे झूमन वृच्छ मंजुल बिपुल

हरित मनि के रंग लागी भूमि मन को हरन।

लसति इन्द्रबधून अवली छटा मानिक बरन।

बिमल बगुलन पाँति मनहुँ बिसाल मुक्तावली।

चन्द्रहास समान-दमकति चंचला त्यों भली

नील नीरद सुभग सुरधुन बलित सोभाधाम।

लसत मनु बनमाल धारे ललित श्री घनस्याम।

कूप कुंड गँभीर सरवर नीर लाग्यो भरन।

नदी नद उफनान लागे लगे झरना झरन

रटत दादुर त्रिविधि लागे रुचन चातक बचन।

कूक छावत मुदित कानन लगे केकी नचन।

मेघ गरजत मनहुँ पावस भूप को दल सकल।

विजय दुंदुभि हनत जग में छीनि ग्रीसम अमल।

2. तुम्हरे अद्भुत चरित मुरारी।

कबहूँ देत बिपुल सुख जग में कबहुँ देत दुख झारी।

कहुँ रचि देत मरुस्थल रूखो कहुँ पूरन जल रासि।

कहुँ ऊसर कहुँ कुंज विपिन कहुँ कहुँ तम हूँ परकास।

3. माता के समान परपतिनी बिचारी नहीं ,

रहे सदा पर धान लेन ही के धयानन मैं।

गुरुजन पूजा नहीं कीन्हीं सुचि भावन सों ,

गीधो रहे नानाविधि विषय विधानन मैं।

आयुस गँवाई सबै स्वारथ सँवारन मैं ,

खोज्यो परमारथ न वेदन पुरानन मैं।

जिनसों बनी न कछु करत मकानन मैं ,

तिनसों बनैगी करतूत कौन कानन मैं।

उनका एक बिरहा भी देखिए-

1. अच्छे अच्छे फुलवा बीन री मलिनियाँ

गूँधि लाओ नीके नीके हार।

फूलन को हरवा गोरी गरे डरिहौं

सेजिया में होइ है बहार।