हिन्दी भाषा की विभक्तियाँ सर्वनाम और उसकी क्रियाएँ / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'
हिन्दी विभक्तियों के विषय में कुछ विद्वानों ने ऐसी बातें कही हैं, जिससे यह पाया जाता है, कि वे विदेशीय भाषाओं से अथवा द्राविड़ भाषा से उसमें गृहीत हुई हैं, इसलिए इस सिध्दान्त के विषय में भी कुछ लिखने की आवश्यकता ज्ञात होती है। क्योंकि यदि हिन्दी भाषा वास्तव में शौरसेनी अपभ्रंश से प्रसूत है, तो उसकी विभक्तियों का उद्गम भी उसी को होना चाहिए। अन्यथा उसकी उत्पत्तिा का सर्वमान्य सिध्दान्त संदिग्धा हो जाएगा। किसी भाषा के विशेष अवयव और उसके धातु किसी मुख्य भाषा पर जब तक अवलम्बित न होंगे, उस समय तक उससे उसकी उत्पत्तिा स्वीकृत न होगी। ऐसी अनेक भाषाएँ हैं, जिनमें विदेशी भाषाओं की कुछ क्रियाएँ भी मिल जाती हैं। यदि केवल उनके आधार से हम विचार करने लगेंगे तो उस विदेशी भाषा से ही उनकी उत्पत्तिा माननी पड़ेगी, किन्तु यह बात वास्तविक और युक्ति-संगत न होगी। दूरी बात यह है कि एक ही भाषा में विभिन्न भाषाओं के अनेक व्यावहारिक शब्द मिलते हैं, विशेष करके आदान-प्रदान अथवा खान-पान एवं व्यवहार सम्बन्धाी। यदि ऐसे कुछ शब्दों को ही लेकर कोई यह निर्णय करे कि इस भाषा की उत्पत्तिा उन सभी भाषाओं से है, जिनके शब्द उसमें पाये जाते हैं, तो कितनी भ्रान्तिजनक बात होगी, और इस विचार से तथ्य का अनुसंधान कितना अव्यावहारिक हो जाएगा। इन्हीं सब बातों पर दृष्टि रखकर किसी भाषा का मूल निधर्रण करने के लिए उससे सम्बन्धा रखने वाले मौलिक आधारों की ही मीमांसा आवश्यक होती है। विभक्तियों और प्रत्ययों की गणना भाषा के मौलिक अंगों में ही की जाती है। इसलिए विचारणीय यह है कि हिन्दी भाषा की विभक्तियाँ कहाँ से आई हैं, और उनका आधार क्या है?
“डॉक्टर 'के' कहते हैं कि हिन्दी का 'को' (जैसे-हमको) और बँगला का 'के' (जैसे राम के) तातार देशीय अन्त्यवर्ण 'क' से आगत हुआ है। डॉक्टर 'काल्डवेल' अनुमान करते हैं कि द्राविड़ भाषा के 'कु' से हिन्दी भाषा का 'को' लिया गया है। वे यह भी कहते हैं कि हिन्दी प्रभृति देशी भाषाएँ द्राविड़ भाषा से उत्पन्न हुई हैं। डॉक्टर हार्नली और राजा राजेन्द्र लाल मित्रा ने इन सब मतों का अयुक्त होना सिध्द किया है।” डॉक्टर हार्नली की सम्मति यहाँ उठाई जाती है-
“डॉक्टर 'काल्डवेड' का कथन है कि आर्यगण, आर्यावर्त जय करके जितना आगे बढ़ने लगे, उतना ही देश में प्रचलित अनार्य भाषा संस्कृत शब्दों के ऐश्वर्य द्वारा पुष्टि लाभ करने लगी। इसलिए यह भ्रम होता है, कि अनार्य भाषाएँ संस्कृत से उत्पन्न हैं। किन्तु संस्कृत का प्रभाव कितना ही प्रबल क्यों न हो, इन सब भाषाओं का व्याकरण उसके द्वारा परिवर्तित न हो सका। इसके उत्तार में डॉक्टर हार्नली कहते हैं, आर्यगण बहुत समय तक आर्यर्वत्ता में रहकर सहसा अनार्य गणों की भाषा ग्रहण कर लेंगे, यह बात विश्वास योग्य नहीं। उन लोगों ने चिरकाल तक संस्कृत जातीय पाली और प्राकृत भाषा का व्यवहार किया था, यह बात विशेष रूप से प्रमाणित हो गई है। नाटकादिकों के प्राकृत द्वारा यह भी दृष्टिगत होता है कि विजित अनार्यों ने भी अपने प्रभुओं की भाषा को ग्रहण कर लिया था। इतने समय तक हिन्दू लोग अपनी भाषा और व्याकरण को अनार्यगण में प्रचलित रखकर भी अन्त में क्यों अनार्य व्याकरण के शरणागत होंगे, यह विचारणीय है। दूसरी बात यह है कि देशभाषाओं की उत्पत्तिा के समय (आर्यभाषा की दीर्घकाल व्यापी अखंड राजत्व के उपरान्त) विजित अनार्यगण की भाषा देश में प्रचलित थी। इसका भी कोई प्रमाण् नहीं है। इतिहास में अवश्य कभी-कभी यह भी देखा गया है, कि विजेता जातियों ने विजित जातियों का व्याकरण ग्रहण कर लिया है,जैसे नार्मन लोगों ने इंग्लैण्ड में और अरब एवं तुर्की लोगों ने आर्यावर्त में तथा फ्रान्स वालों ने गल में। किन्तु इन सब स्थानों में विजेता लोग विजित लोगों की अपेक्षा अल्प शिक्षित थे। उपनिवेश स्थापन के प्रारम्भ काल से ही भाषा ग्रहण का सूत्रापात उन्होंने कर दिया था। विजयी जाति बहुकाल पर्यन्त अपनी भाषा और स्वातंत्रय गौरव की रक्षा करके अन्त में असभ्य जातियों के निकट उसको विसर्जित कर दे, इतिहास में कहीं यह बात दृष्टिगत नहीं होती।”1
देशीय भाषाओं को समस्त-विभक्तियाँ प्राकृत से ही प्राप्त हुई हैं, इस बात को डॉक्टर राजेन्द्र लाल मित्रा, हार्नली, और अन्य जर्मन पण्डितों ने दिखलाने की चेष्टा की है और विद्वानों ने भी इस सिध्दान्त को पुष्ट किया है। मैं क्रमश: प्रत्येक विभक्तियों के विषय में उन लोगों के विचारों का उल्लेख करता हूँ।
1. बंगभाषा और साहित्य, पृ. 36
1. कत्तर् कारक में भूतकालिक सकर्मक क्रिया के साथ ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली में 'ने' का प्रयोग होता है, किन्तु अवधाी में ऐसा नहीं होता। ब्रज भाषा में भी प्राय: कवियों ने इस प्रयोग का त्याग किया है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि अवधाी के समान ब्रजभाषा में 'ने' का प्रयोग होता ही नहीं। प्रथमा एकवचन में कहीं-कहीं कत्तर् के साथ 'ए' का प्रयोग देखा जाता है। यथा-”शु अणेहु शिक्षाण कम्प के शामीए निध्दण के विशोहेदि मृ. क. 3 अंक” बँगला भाषा में भी पहले इस प्रकार का प्रयोग देखा जाता है-यथा
कदाचित ना दे सिध्दहेनो रूप ठान।
कोन मते विधाता ए करिछे निर्माण। रामेश्वरी महाभारत, पृ. 89
“किन्तु अब बँगला में भी प्रथमा एकवचन में इस 'ए' का अभाव है, अब बँगला में प्रथमा का रूप संस्कृत के समान होता है, किन्तु अनुस्वार अथवा विसर्ग वर्ज्जित”। 1 प्रश्न यह है कि प्राकृत भाषा के उक्त 'ए' का सम्बन्धा क्या हमारी हिन्दी भाषा के'ने' सेहै?
'एक विद्वान की सम्मति है कि यह 'ने' वास्तव में करण कारक का चिद्द है, जो हिन्दी में गृहीत कर्मवाच्य रूप के कारण आया है, संस्कृत में करण कारक का 'इन' प्राकृत में 'एण' हो जाता है, इसी 'इन' का वर्ण विपरीत हिन्दी रूप में 'ने' है।”2
2. कर्म्म और सम्प्रदान। टम्प का अनुमान है कि बँगला कर्म और सम्प्रदान कारक का 'के' संस्कृत के सप्तमी में प्रयुक्त'कृते' शब्द से आया है। इस 'कृते' के निमित्तार्थक प्रयोग का उदाहरण स्थान-स्थान पर मिलता है-यथा।
वालिशो वत कामात्मा राजा दशरथो भृशम्।
प्रस्थापयामास वनं ò ीकृते य: प्रियंसुतम्ड्ड
यह कृते शब्द प्राकृते में 'किते' 'किउ' एवं 'को' इन तीनों रूपों में ही व्यवहृत हुआ है। इसलिए टम्प का यह अनुमान है कि शेषोक्त 'को' के साथ हिन्दी के 'को' और बँगला के 'के' का सम्बन्धा है। 3
'बंगभाषा और साहित्य' नामक ग्रन्थ के रचयिता टम्प की सम्मति से सहमत न होकर अपनी सम्मति यों प्रकट करते हैं-
“मैक्समूलर कहते हैं कि संस्कृत के स्वार्थे 'क' से बँगला का के (हिन्दी का
1. बंगभाषा और साहित्य, पृष्ठ 38
2. दे. हिन्दी भाषा और साहित्य, पृ. 138।
3. बंगभाषा और साहित्य, पृ. 39।
को) आया है। पिछले समय में संस्कृत में स्वार्थे 'क' का प्रयोग अधिाकतर देखा जाता है। मैं मैक्समूलर के मत को ही समीचीन समझता हूँ।
श्रीमान् पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी कहते हैं-
“पुरानी संस्कृत का एक शब्द 'कृते', है जिसका अर्थ है (लिए) होते-होते इसका रूपान्तर 'कहुँ' हुआ, वर्तमान 'को' इसी का अपभ्रंश है” हिन्दी-भाषा की उत्पत्तिा, पृ‑70।
एक विद्वान् की सम्मति और सुनिए-
“संस्कृत रूप 'कृते प्राकृत में किते हो गया, और नियमानुसार त का लोप होने से 'किये' हुआ, और फिर वही के में परिणत हो गया। 'को' प्रत्यय संस्कृतके कर्म्म-कारक के नपुंसक 'कृत' से हुआ। प्राकृत में 'कृत' बदलकर 'कितो' हुआ, और त के लोप होने से 'कियो' बना, और अन्त में उसने 'क' का रूप धारण कर लिया।”1
आप लोगों ने सब सम्मतियाँ पढ़ लीं, अधिाकांश सम्मति यही है कि 'को' की उत्पत्तिा 'कृते' से है। 'को' का प्रयोग कर्म-कारक में तो होता ही है, संप्रदान के लिए भी होता है, संप्रदान की एक विभक्ति 'के लिए' भी है। 'कृते' में यह निमित्तार्थक भाव भी है, जैसा कि ऊपर दिखलाया गया है। इसलिए मैं भी 'कृते' से ही 'को' की उत्पत्तिा स्वीकार करता हूँ।
3. करण और अपादान कारक की विभक्ति हिन्दी भाषा में 'से' है। करण कारक के साथ 'से' प्राय: उसी अर्थ का द्योतक है,जिसको संस्कृत का 'द्वारा' शब्द प्रकट करता है, इस 'से' में एक प्रकार से सहायक होने अथवा सहायक बनने का भाव रहता है। यदि कहा जाये कि 'बाण से मारा' तो इसका यही अर्थ होगा कि बाण द्वारा अथवा बाण के सहारे से या बाण की सहायता से मारा। परन्तु अपादान का 'से' इस अर्थ में नहीं आता, उसके 'से' में अलग करने का भाव है। जब कहा जाता है 'घर से निकल गया' तो यही भाव उससे प्रकट होता है कि निकलने वाला घर से अलग हो गया। जब कहते हैं 'पर्वत से गिरा' तो भी वाक्य का 'से' पर्वत से अलग होने का भाव ही सूचित करता है। 'से' एक विभक्ति होने पर भी करण और अपादान कारकों में भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है। 'बंग-भाषा और साहित्य' कार लिखते हैं-”प्राकृत में 'हिंतो' शब्द पंचमी के बहुवचन में व्यवहृत होता है, इसी 'हिंतो' शब्द से बँगला 'हइते' की उत्पत्तिा हुई है।” उन्होंने प्रमाण के लिए वररुचि का यह सूत्रा भी लिखा है 'भावो हिंतो सुंतो'। ब्रजभाषा में 'से' का प्रयोग नहीं मिलता उसमें तें का प्रयोग 'से' के स्थान पर देखा जाता है। 'से' के स्थान पर कबीरदास को 'सेती' अथवा 'सेंती' और चन्दबरदाई को 'हुँत' लिखते पाते हैं। इससे अनुमान होता है कि जैसे बँगला में 'हिंतो' से हइते बना, उसी प्रकार हिन्दी में 'हुँत' और
1. देखिए, ओरिजिन ऑफ दी हिन्दी लैंग्वेज, पृ. 11।
'तें' और ऐसे ही 'सुंतो' के आधार से 'सेंती' और से। कुछ विद्वानों की यह सम्मति है कि संस्कृत के 'सह' अथवा सम से 'से'की उत्पत्तिा हुई है। करण में सहयोग का भाव पाया जाता है, ऐसी अवस्था में उसकी विभक्ति की उत्पत्तिा 'सह' होने की कल्पना स्वाभाविक है। इसी प्रकार 'सम' से 'से' की उत्पत्तिा का विचार इस कारण से हुआ पाया जाता है कि प्राचीन कवियों को सम को'से' के स्थान पर प्रयोग करते देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यों को देखिए-
कहि सनकादिक इन्द्र सम।
बलि लागौ जुधा इन्द्र समड्ड
पृथ्वीराज रासो।
अवधाी में, कहीं ब्रजभाषा में भी 'से' के स्थान पर 'सन' का प्रयोग किया जाता है। इस 'सन' के स्थान पर 'सें' और सों भी होता है। इसलिए कुछ भाषा-मर्मज्ञों ने यह निश्चित किया है कि 'सम' से 'सन' हुआ और 'सन' से सों और फिर 'से' हुआ। ऊपर लिख आया हँ कि प्राकृत में पंचमी बहुवचन में 'हितो' होता है। अनुमान किया गया है कि 'हितो' से ही पंचमी का 'तें'बना परन्तु 'से' का ग्रहण पंचमी में कैसे हुआ, यह बात अब तक यथार्थ रूप से निर्णीत नहीं हुई।
4. सम्बन्धा कारक की विभक्ति के विषय में अनेक मत देखा जाता है-मि. बप् अनुमान करते हैं कि हिन्दी का 'का' और बँगला-भाषा की षष्ठी विभक्ति का चिद्द, संस्कृत षष्ठी बहुवचन के 'अस्माकम्' एवं 'युष्माकम्' इत्यादि के 'क' से गृहीत है। 1किन्तु हार्नली साहब ने बप् के अनुमान के विरुध्द अनेक युक्तियाँ दिखलाई हैं, उनके मत से संस्कृत के 'कृते' के प्राकृत रूपान्तर से ही बँगला और हिन्दी के षष्ठी कारक का चिद्द, 'का' अथवा विभक्ति ली गई है2 'कृते' से प्राकृत 'केरक' उत्पन्न हुआ है। इस 'केरक' का अनेक उदाहरण पाया जाता है, जहाँ यह 'केरक', शब्द प्रयुक्त हुआ है, वहाँ उसका कोई स्वकीय अर्थ दृष्टिगत नहीं होता, वहाँ वह केवल षष्ठी के चिद्द-स्वरूप ही व्यवहृत हुआ है-यथा
“ तुमम पि अप्पणो केरिकम् जादि मसुमरेसि “
“ कस्स केरकम् एदम् पवँणम् “ मृ-क षष्ठ-अंक
इसी केरक अथवा केरिक से हिन्दी 'कर' 'केर' और 'केरी' की उत्पत्तिा हुईहै। 3
पहले लिखा गया है कि मैक्समूलर की यह सम्मति है कि संस्कृत का स्वार्थे 'क' ही बदलकर कर्म्मकारक का 'को' हो गया है, 'बंगभाषा और साहित्य' के रचयिता
1-2. बंगभाषा और साहित्य, पृ. 43, 44
3. बंगभाषा और साहित्य पृ. 43, 44
ने इसको स्वीकार भी किया है, मेरा विचार है कि इसी स्वार्थे 'क' से षष्ठी विभक्ति के 'का' की उत्पत्तिा हुई है। केरक के स्थान में प्राकृत भाषा में केरओ प्रयोग मिलता है, यही केरओ काल पाकर केरो बन गया, कर,केर और केरी भी हुआ परन्तु सम्बन्धा का चिद्द 'का' 'की' 'के' भी यही बन गया, यह कुछ क्लिष्ट कल्पना ज्ञात होती है। जैसे-केरो, केरी, और कर का प्रयोग हिन्दी-साहित्य में मिलता है-यथा
बंदों पदसरोज सब केरे-तुलसी
क्षत्रा जाति कर रोष-तुलसी
हौं पंडितन केर पछलगा-जायसी
उसी प्रकार 'क' का प्रयोग भी देखा जाता है-यथा
वनपति उहै जेहि क संसारा-
बनिय d सखरज ठकुर क हीन।
वैद क पूत व्याधा नहिं चीन।
जब सम्बन्धा में d का प्रयोग देखा जाता है, तो यह विचार होता है कि क्या यही स्वार्थे क बदल कर सम्बन्धा की विभक्ति तो नहीं बन गया है? जो कहीं अपने मुख्य रूप में और कहीं 'का' 'के' 'की' बनकर प्रकट होता है! यदि वह कर्म्म का चिद्द मैक्समूलर के कथनानुसार हो सकता है, तो सम्बन्धा का चिद्द क्यों नहीं बन सकता। पहला विचार यदि विवाद-ग्रस्त हो तो हो सकता है, परन्तु यह विचार उतना वादग्रस्त नहीं वरन् अधिाकतर संभव परक है, यदि कहा जावे कि स्वार्थे d का अर्थ वही होता है, जो उस शब्द का होता है, जिसके साथ वह रहता है, उसका अलग अर्थ कुछ नहीं होता, जैसे संस्कृत का वृक्षक,चारुदत्ताक, अथवा पुत्राक आदि, एवं हिन्दी का बहुतक, कबहुँक एवं कछुक आदि। तो जाने दीजिए उसको, निम्नलिखित सिध्दान्त को मानिए-
प्राय: तत्सम्बन्धाी अर्थ में संस्कृत में एक प्रत्यय 'क' आता है-
जैसे-मद्रक = मद्र देश का, रोमक = रोम देश का। प्राचीन हिन्दी में का के स्थान में क पाया जाता है, जिससे यह जान पड़ता है कि हिन्दी का 'का' संस्कृत के d प्रत्यय से निकला है। 1
जो कुछ अबतक कहा गया उससे इस सिध्दान्त पर उपनीत होना पड़ता है कि प्राकृत भाषा का 'केरक, केरओ', आदि से'केरा, केरी, और केरो', आदि की और सम्बन्धा सूचक संस्कृत के 'क' प्रत्यय से “का, के,” की उत्पत्तिा अधिाकतर युक्तिसंगत है।
5. अधिाकरण कारक का चिद्द हिन्दी में 'मैं' 'मांहि' 'मांझ' इत्यादि है। साथ
1. देखो, 'हिन्दी भाषा और साहित्य', पृष्ठ 143।
ही “पै, पर” आदि का प्रयोग भी सप्तमी में देखा जाता है जैसे कोठे पर है। केवल “ए का प्रयोग भी संस्कृत के समान ही हिन्दी में भी देखा जाता है-जैसे, आप का कहा सिर माथे, में थे का “ए”। सप्तमी में इस प्रकार का जो क्वचित् प्रयोग खड़ी बोलचाल में देखा जाता है, यह बिलकुल संस्कृत के 'गहने' 'कानने' आदि सप्तम्यन्त प्रयोग के समान है, ब्रजभाषा और अवधी में इस प्रकार का अधिक प्रयोग मिलता है-जैसे घरे गैलें, आदि। “पर और पै” का प्रयोग संस्कृत के “उपरि” शब्द से हिन्दी में आया है। एक विद्वान् की यह सम्मति है-
“हिन्दी के कुछ रूपों में अधिाकरण कारक के 'में' चिद्द के स्थान पर 'पै' का प्रयोग होता है, इसकी उत्पत्तिा संस्कृत के उपरि शब्द से हुई है। पहले पहल उपरि का पर हुआ, जैसे मुख पर-बाद को पै बन गया।”1
मैं, माँहि, माँझ इत्यादि की उत्पत्तिा कहा जाता है कि मधय से हुई है। ब्रजभाषा और अवधाी दोनों में माँहि और माँझ का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु खड़ी बोली में केवल 'में' का व्यवहार होता है। ब्रजभाषा में 'में' के स्थान पर 'मैं' ही प्राय: लिखा जाता है। प्राकृत भाषा का यह नियम है कि पद के आदि का 'धय' 'झ' और अन्त का 'धय' 'ज्झं' हो जाता है। 2 इस नियम के अनुसार मधय शब्द का अन्त्य 'धय' जब 'ज्झ' से बदल जाता है, तो मज्झ शब्द बनता है, यथा-बुधयते, बुज्झते,सिधयति-सिज्झति इत्यादि। यही मज्झ शब्द ब्रजभाषा और अवधाी में माँझ, और अधिाक कोमल होकर माँह, माहिं आदि बनता है। इसी माँह, माँहि से मैं और में की उत्पत्तिा भी बतलाई जाती है। प्राकृत की सप्तमी एक वचन में “स्ंमि” का प्रयोग होता है। कुछ लोगों की सम्मति है कि प्राकृत के स्ंमि अथवा म्मि से में अथवा मैं की उत्पत्तिाहै। 3
विभक्तियों के विषय में यद्यपि यह निश्चित है कि वे संस्कृत अथवा प्राकृत से ही हिन्दी अथवा अन्य गौड़ीय4 भाषाओं में आई हैं। परन्तु कभी-कभी विरुध्द बातें भी सुनाई पड़ती हैं, जैसे-यह कि द्राविड़ भाषा के सम्प्रदान कारक के 'कु' विभक्ति से हिन्दी भाषा के 'को' अथवा बँगला भाषा के 'के' की उत्पत्तिा हुई। ऐसी बातों में प्राय: अधिाकांश कल्पना ही होती है। इसलिए,उनमें वास्तवता नहीं होती, विशेष विवेचन होने पर उनका निराकरण हो जाता है। तो भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि अब तक निर्विवाद रूप से विभक्तियों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। जितनी बातें ज्ञात हो सकी हैं, उनका ही उल्लेख यहाँ किया जा सका।
1. देखो 'ओरिजन ऑफ दी हिन्दी लैंग्वेज', पृ. 12
2. देखो 'पालिप्रकाश' मुख्य ग्रन्थ का, पृ. 19
3. देखिए पालि प्रकाश, पृ. 84, हिन्दी भाषा और साहित्य, पृ. 147
4. हार्नली साहब ने निम्नलिखित भाषाओं को गौड़ीय भाषा कहा है। सुविधा के लिए इन भाषाओं को हम भी कभी-कभी इसी नाम से स्मरण करेंगे।
उड़िया, बँगला, हिन्दी, नेपाली, महाराष्ट्री, गुजराती, सिंधाी, पंजाबी और काश्मीरी।
सर्वनाम भी भाषा के प्रधान अंग हैं, और किसी भाषा के वास्तविक स्वरूप ज्ञान के लिए क्रिया सम्बन्धाी प्रयोगों का अवगत होना भी आवश्यक है, इसलिए यहाँ पर कुछ उनकी चर्चा भी की जाती है।
उत्ताम पुरुष एकवचन में 'मैं' और बहुवचन में 'हम' होता है, संस्कृत के 'अस्मद्' शब्द से दोनों की उत्पत्तिा बतलाई जाती है। प्राकृत में तृतीया के एकवचन का रूप 'मया' और बहुवचन का रूप 'अम्हेहि' और 'अम्हेभि' होता है। प्रथमा के बहुवचन का रूप 'अम्हे' है1 अपभ्रंश में यह “मया” 'मइ; महँ हो जाता है। यथा-'ढोला महँ तुहुँ वारिया' इसी मइँ से हिन्दी के मैं की और बहुवचन “अम्हेहि” अथवा “अम्हे” से हम की उत्पत्तिा बतलायी जाती है। मृच्छकटिक नाटक में “अस्मद्” का प्राकृत रूपआम्हि भी मिलता है, कहा जाता है, इसी आम्हि से बँगला के आमि की उत्पत्तिा हुई है। 2 बँगला के आमि से हमारे मैं और हम की बहुत कुछ समानता है। आगे चलकर इसी मैं से “मुझे” “मुझको” और “मेरा” आदि और हम से “हमको और हमारा”आदि रूप बनते हैं। एक विद्वान की सम्मति है कि अहम् से 'हम' की उत्पत्तिा वैसे ही है, जैसे v के गिर जाने से अहै से हैकी।
मधयम पुरुष का तू, तुम संस्कृत युष्मन् से बनता है। प्राकृत में प्रथमा का एकवचन त्वं और तुवं और बहुवचन 'तुम्ह'होता है। चतुर्थी और षष्ठी का एकवचन “तुम्हं” बनता है। 3 इन्हीं के आधार से तू और तुम की उत्पत्तिा हुई है। बँगला में तुम को तुमि लिखते हैं, दोनों में बहुत अधिाक समानता है, कहा जाता है इस तुमि की उत्पत्तिा भी 'तुम्हि' से ही हुई है4 इसी तुम से “तुझ” और तुम्हारा एवं तेरा आदि रूप आगे चलकर बने। हिन्दी में अब तक “तुम्ह” का प्रयोग भी होता है।
मधयम पुरुष के लिए आप शब्द भी प्रयुक्त होता है, इस शब्द का आधार संस्कृत का 'आत्मन्' शब्द है। इसका प्राकृत रूप अप्पा और अप्पि है। 5इसी से आप शब्द निकलता है, बँगला में आपके स्थान पर आपनि और बिहार में आपुन बोला जाता है, जिसमें, आत्मन् की पूरी झलक है।
अन्य पुरुष के शब्द वह और वे संस्कृत के (अदस्) शब्द से बने हैं, यह कुछ लोगों की सम्मति है। प्रथमा एकवचन में इसका प्राकृतरूप असु और बहुवचन में अमू होता है, 6संस्कृत के प्रथमा एकवचन में असौ होता है, प्राकृत में यही असौ, अखु हो जाता है। अपभ्रंश में प्राय: वह के स्थान पर सु प्रथमा एकवचन में आता
1. देखिए, पालिप्रकाश, पृ. 153
2. देखिए 'बंगभाषा और साहित्य', पृ. 25
3. देखिए, पालिप्रकाश, पृ. 152
4. देखिए, बंगभाषा और साहित्य, पृ. 26
5. वही, पृ. 24
6. देखिए, पालि प्रकाश,
है-यथा “अन्नु सुघण थण हारु” “सु गुण लायण्ण निधिा” ऐसी अवस्था में कहा जा सकता है कि इसी 'सु' से वह की उत्पत्तिा है। परन्तु यहाँ स्वीकार करना पड़ेगा कि अ गिर गया है। यह क्लिष्ट कल्पना है। एक दूसरे विद्वान् भी संस्कृत के असौ से ही वह और वे की उत्पत्तिा मानते हैं। 1 तद् के प्रथमा एकवचन का रूप 'स' और बहुवचन का रूप ते होता है पुंल्लिंग में। स्त्राीलिंग में यही सा और ता हो जाता है। तद् के द्वितीया का एकवचन पुंल्लिंग में तं और स्त्राीलिंग में ताम होगा। अपभ्रंश के निम्नलिखित पद्यों में इनका व्यवहार देखा जाता है।
' सा दिसि जोइ म रोइ ' ' सा मालइ देसन्तरिअ '
' तंतेवड्डउँ समरभर ' ' सो च्छेयहु नहिंलाहु '
तं तेत्तिाउ जलु सायर हो सो ते बहुवित्थारु
' जइ सो वड़दि प्रयावदी ' ' ते मुग्गडा हराविआ '
' अन्ने ते दीहर लोअण '
इससे पाया जाता है कि स: से 'सो' और वह की और 'ते' से 'वे' की उत्पत्तिा है। ब्रजभाषा और अवधाी दोनों में वह के स्थान पर 'सो' का और वे के स्थान पर ते का बहुत अधिाक प्रयोग है। गद्य में अब भी 'वह' के स्थान पर 'सो' का प्रयोग होते देखा जाता है। यदि ते से वे की उत्पत्तिा मानने में कुछ आपत्तिा हो तो उसको वह का बहुवचन मान सकते हैं।
प्राकृत भाषा का यह सिध्दान्त है कि त वर्ग; 'ण' 'ह', और 'र' के अतिरिक्त जब किसी दूसरे व्यंजन वर्ण के बाद यकार होता है तो प्राय: उसका लोप हो जाता है, और तत् संयुक्तवर्ण के द्वित्व प्राप्त होता है। 2 इस सिध्दान्त के अनुसार कस्य को कस्स और यस्य का जस्स और तस्य का तस्स प्राकृत में होता है, और फिर उनसे क्रमश: किस, कास, कासु जास, जासु और तास, तासु आदि रूप बनते हैं। ऐसे ही संस्कृत क: से प्राकृत को और हिन्दी कौन-संस्कृत य: से प्राकृत में जो बनता है। जो हिन्दी में उसी रूप में गृहीत हो गया है। संस्कृत किम् से हिन्दी का क्या और कोपि से हिन्दी का कोई निकला है। अपभ्रंश में किम् का रूप काँइ और कोपि का रूप कोवि पाया जाता है यथा “अम्हे निन्दहु कोबिजण अम्हे बप्णउ कोबि” “काइँ न दूरे देक्खइ।”
हिन्दी भाषा की अधिाकांश क्रियाएँ संस्कृत से ही निकली हैं। संस्कृत में क्रियाओं के रूप 500 से अधिाक पाये जाते हैं,उन सबके रूप हिन्दी में नहीं मिलते, फिर भी जो क्रियाएँ संस्कृत से हिन्दी में आई हैं, उनकी संख्या कम नहीं है। हिन्दी में कुछ क्रियाएँ, अन्य भाषाओं से भी बना ली गई हैं, परन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी
1. पालिप्रकाश,
2. ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज,
है। उनकी चर्चा आगे के प्रकरण में की जाएगी। संस्कृत क्रियाओं का विकास हिन्दी में किस रूप में हुआ है, और हिन्दी में किस विशेषता से वे ग्रहण की गई हैं, केवल इसी विषय का वर्णन थोड़े में यहाँ करूँगा, प्रत्येक विषयों का दिग्दर्शन मात्रा ही इस ग्रन्थ में हो सकता है, क्योंकि अधिाक विस्तार का स्थान नहीं। विशेष उल्लेख योग्य खड़ी बोली की क्रियाएँ हैं। जिनका मार्ग अपनी पूर्ववर्ती भाषाओं से सर्वथा भिन्नहै।
खड़ी बोल-चाल को हिन्दी में 'है' का एकाधिापत्य है 'था' का व्यवहार भी उसमें अधिाकता से देखा जाता है। बिना इनके अनेक वाक्य अधाूरे रह जाते हैं और यथार्थ रीति से अपना अर्थ प्रकट नहीं कर पाते। 'है' की उत्पत्तिा के विषय में मतभिन्नता है! कोई-कोई इसकी उत्पत्तिा अस् धातु से बतलाते हैं और कोई भू धातु से। ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज के रचयिता यह कहते हैं-
“संस्कृत में भू-भवानि-भव, भोमि के स्थान पर वररुचि ने भू-हो-हुआ आदि रूप दिया है। दो सहò वर्ष से 'हो' का प्रयोग होने पर भी ब्रजभाषा के भूतकाल के भू-धातु का रूप भया-भये-भयो आदि का प्रयोग अब तक होता है। 'हो' का प्रकृत रूप”होमे” और हिन्दी रूप 'हूं' है। 1
इस अवतरण से यह स्पष्ट है कि वररुचि ने भू धातु से ही होना धातु की उत्पत्तिा मानी है, इसी होना का एक रूप 'है'है। अवधाी में 'है' के स्थान पर 'अहै का प्रयोग भी होता है' यथा
“ साँची अहै कहनावतिया अरी ऊँची दुकान की फीकी मिठाई “
इसलिए यह विचार अधिाकता से माना जाता है कि अस् से ही है की उत्पत्तिा है। अस् से अहै स् के ह हो जाने के कारण बना, और व्यवहाराधिाक्य से v के गिर जाने के कारण केवल है का प्रयोग होने लगा। दोनों सिध्दान्तों में कौन माननीय है,यह बात निश्चित रीति से नहीं कही जा सकती, दोनों ही पर तर्क-वितर्क चल रहे हैं, समय ही इसकी उचित मीमांसा कर सकेगा। 'था' की उत्पत्तिा 'स्था' धातु से मानी जाती है, ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज के रचयिता भी इसी सिध्दान्त को मानते हैं। 2
इस है, और था के आधार से बने कुछ हिन्दी क्रियाओं के प्रयोग की विशेषताओं को देखिए। संस्कृत चलति का अपभ्रंश एवं अवधाी में चलइ और ब्रजभाषा में चलय अथवा चलै रूप वर्तमान-काल में होगा।
परन्तु खड़ी बोलचाल की हिन्दी में इसका रूप होगा-चलता है। संस्कृत में
1. देखो, ओरिजन ऑफ दि हिन्दी लैंग्वेज,
2. वही,
प्रत्यय न तो शब्द से पृथक् है, न अवधाी में, ब्रजभाषा में भी नहीं जो कि पश्चिमी हिन्दी ही है। इनके शब्द संयोगात्मक हैं,उनमें है का भाव मौजूद है। परन्तु खड़ी बोली का काम बिना है के नहीं चला, उसमें है लगा, और बिलकुल अलग रह कर। खड़ी बोली की अधिाकांश क्रियाएँ हैं से युक्त हैं। था के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं। खड़ी बोली के प्रत्ययों और विभक्तियों को प्रकृति से मिलाकर लिखने के लिए दस बरस पहले बड़ा आन्दोलन हो चुका है। कुछ लोग इस विचार के अनुकूल थे और कुछ प्रतिकूल। संयोगवादी प्राचीन प्रणाली की दुहाई देते थे, और कहते थे कि वैदिककाल से लेकर आज तक आर्य्यभाषा की जो सर्वसम्मत रीति प्रचलित है, उसका त्याग न होना चाहिए। प्रकृति से प्रत्ययों और विभक्तियों को अलग करने से पहले तो शब्दों का अयथा विस्तार होता है, दूसरे उनके स्वरूप पहचानने और प्रयोग में बाधा उपस्थित होती है। वियोगवादी कहते संयोग जटिलता का कारण है, संयुक्त वर्ण जिसके प्रमाण हैं। इसलिए सरलता जनसाधारण की सुविधा और बोलचाल पर धयान रखकर जो नियम आजकल इस बारे में प्रचलित हैं, उनको चलते रहना चाहिए। जीत वियोग वादियों की ही हुई। अब भी कुछ लोग प्रकृत और प्रत्ययों को मिलाकर लिखते हैं; परन्तु साधारणतया वे अलग ही लिखे जाते हैं! कहा जाता है, हिन्दी भाषा में यह प्रणाली फारसी भाषा से आई है। फारसी में प्राय: इस प्रकार के शब्द अलग लिखे जाते हैं और उर्दू उन्हीं अक्षरों में लिखी जाती है जिन अक्षरों में फारसी। इसलिए जैसे हिन्दी की क्रिया आदि उर्दू में लिखे जाते हैं, वैसे ही हिन्दी में भी लिखे जाने लगे। 1इस कथन में बहुत कुछ सत्यता है, परन्तु मैं इस विवाद में पड़ना नहीं चाहता। मेरा कथन इतना ही है कि विभक्तियाँ अथवा प्रत्यय प्रकृति के साथ मिलाकर लिखे जाएँ या न लिखे जाएँ। परन्तु ये ही हिन्दी भाषा के वे सहारे हैं, जिनके आधार से वह संसार को अपना परिचय दे सकती है। इस प्रकरण में मैंने जिन विभक्तियों, सर्वनामों, प्रत्ययों और क्रियाओं का वर्णन किया है, वे हिन्दी भाषा के शब्दों, वाक्यों और उनके अवयवों के ऐसे चिद्द हैं, जो उसको अन्य भाषाओं से अलग करते हैं, इसलिए उनका निरूपण आवश्यक समझा गया।
1. दे., ओरिजन ऐंड डेवलपमेंट आफष् दि बँगला लैंग्वेज,