हिन्दी भाषा पर अन्य भाषाओं का प्रभाव / भाषा की परिभाषा / 'हरिऔध'

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हिन्दी भाषा पर अन्य भाषाओं का प्रभाव

हिन्दी भाषा में सबसे अधिाक संस्कृत के शब्द पाये जाते हैं। इस हिन्दी भाषा से मेरा प्रयोजन साहित्यिक हिन्दी भाषा से है। बोलचाल की हिन्दी में भी संस्कृत के शब्द हैं, परन्तु थोड़े, उसमें तद्भव शब्दों की अधिाकता है। हिन्दुओं की बोलचाल में अब भी संस्कृत के शब्दों के प्रयुक्त होने का यह कारण है, कि विवाह यज्ञोपवीत आदि संस्कारों के समय कथावार्ता और धार्म-चर्चाओं में, व्याख्यानों में और उपदेशों में, नाना प्रकार के पर्व और उत्सवों में, उनको पंडितों का साहाय्य ग्रहण करना पड़ता है। पण्डितों का भाषण अधिाकतर संस्कृत शब्दों में होता है, वे लोग समस्त क्रियाओं को संस्कृत पुस्तकों द्वारा कराते हैं। अतएव उनके व्यवहार में भी संस्कृत शब्द आते रहते हैं। सुनते-सुनते अनेक संस्कृत शब्द उनको याद हो जाते हैं, अतएव अवसर पर वे उनका प्रयोग भी करते हैं। जब पुलकित चित्ता से भगवान का स्मरण करने के लिए गोस्वामी तुलसीदास के अथवा कविवर सूरदास के पदों को गाते हैं, अन्य भक्तों के भजनों को सुनते हैं, उस समय भी अनेक संस्कृत शब्द उनकी जिह्ना पर आते रहते हैं, और उनके विषय में उनका ज्ञान बढ़ता रहता है। इसलिए हिन्दुओं की बोलचाल में संस्कृत शब्दों का होना स्वाभाविक है। तथापि यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनकी संख्या अधिाक नहीं है। जो संस्कृत के शब्द अपने शुध्द रूप में व्यवहृत होते हैं,उनको तत्सम कहते हैं, यथा हर्ष, शोक, कार्य्य, कर्म्म, व्यवहार, धार्म्म आदि। जो संस्कृत शब्द प्राकृत में होते हुए हिन्दी तक परिवर्तित रूप में पहुँचे हैं, उनको तद्भव कहते हैं। जैसे काम, कान, हाथ इत्यादि। हिन्दी भाषा इन तद्भव शब्दों से ही बनी है। तद्भव शब्द के लिए यह आवश्यक नहीं है, कि जिस रूप में वह प्राकृत में था, उस रूप को बदलकर हिन्दी में आवे, तभी तद्भव कहलावे, यदि उसने अपना संस्कृत रूप बदल दिया है और प्राकृत रूप में ही हिन्दी में आया है तो भी तद्भव कहलावेगा। हस्त को लीजिए, जब तक इस शब्द का व्यवहार शुध्द रूप में होगा, तब तक वह तत्सम है। प्राकृत में हस्त का रूप हत्थ हो जाता है और हत्थ हिन्दी में हाथ हो जाता है। हिन्दी भाषा की रीढ़ ऐसे ही शब्द हैं, यह स्पष्ट तद्भव है। परन्तु यदि हत्थ के रूप में ही हिन्दी में ले लिया जाता तो भी तद्भव ही कहलाता। प्राकृत में लोचन, लोयन बन जाता है और हिन्दी में इसी रूप में गृहीत होता है, थोड़ा भी नहीं बदलता, तो भी तद्भव ही कहलाता है। क्योंकि लोचन से उत्पन्न होने के कारण लोयन में तद्भवता (उत्पन्न होने का भाव) मौजूद है। तत्सम शब्द के आदि और मधय का हलन्त वर्ण प्राय: हिन्दी में सस्वर हो जाता है, प्राकृत और अपभ्रंश में भी इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है, क्योंकि सुखमुखोच्चारण के लिए जनसाधारण प्राय: संयुक्त वर्णों के हलन्त वर्णों को सस्वर कर देता है, संस्कृत में इसको युक्तविकर्ष कहते हैं, ऐसे ही शब्द अर्ध्द तत्सम कहलाते हैं। धारम, करम;किरपा, हिरदय, अगिन, सनेह आदि ऐसे ही शब्द हैं जो धार्म, कर्म, कृपा, हृदय, अग्नि, स्नेह के वे रूप हैं जो जनता के मुखों से निकले हैं। अवधी और ब्रजभाषा में ऐसे शब्दों का अधिाकांश प्रयोग मिलता है। इन भाषा के कवियों ने भी भाषा को कोमल करने के लिए ऐसे कुछ शब्द गढ़े हैं।

परन्तु खड़ीबोली के कवियों का मार्ग बिलकुल उलटा है, वे अर्ध्द तत्सम शब्दों का प्रयोग करते ही नहीं। हिन्दी का गद्य तो उस को पास फटकने नहीं देता। 1. तत्सम, 2. अर्ध्द तत्सम और 3. तद्भव के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में और एक प्रकार के शब्द पाये जाते हैं, इनको 4. देशज कहते हैं। ये देशज वे शब्द हैं जिनके आधार संस्कृत अथवा प्राकृत शब्द नहीं हैं। वे अनाय्र्यों अथवा विजातीय भाषाओं से हिन्दी में आये हैं। जैसे गोड़, टाँग, उर्दू आदि। किसी-किसी की यह सम्मति है कि ऐसे शब्दों के विषय में यह ठीक पता नहीं चलता, कि वे कहाँ से आये, इसलिए वे देशज मान लिये गये। कुछ अनुकरणात्मक शब्द भी हिन्दी में हैं-जैसे खटखटाना, गड़बड़ाना, बड़बड़ाना, फड़फड़ाना, चटपट, खटपट इत्यादि। कहा जाता है ऐसे कुल शब्द देशज हैं, परन्तु अनेक भाषा मर्मज्ञों ने इस प्रकार के बहुत से शब्दों की उत्पत्तिा संस्कृत से ही बतलाई है। सीधा मार्ग देशज शब्दों के निधर्रण का यही ज्ञात होता है कि जो तत्सम, तद्भव, अर्ध्द तत्सम, तत्समाभास अथवा विदेशी शब्द नहीं हैं, उन्हें देशज मान लिया जावे।

हिन्दी भाषा में कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त होते हैं, जो देखने में तत्सम ज्ञात होते हैं, परन्तु वास्तव में वे तत्सम शब्द नहीं होते। जिनको संस्कृत का ज्ञान साधारण होता है, आदि में उनके द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग होता है, जब उनके अनुकरण से दूसरे लोग भी उनका व्यवहार करने लग जाते हैं, तो काल पाकर वे गृहीत हो जाते और भाषा में चल जाते हैं। इस प्रकार के शब्द हैं, हरीतिमा, लालिमा, सत्यानाश, प्रण और मनोकामना आदि। कुछ संस्कृत के विद्वान इस प्रकार के शब्दों का व्यवहार करने के विरोधी हैं, उनके द्वारा अब भी इस प्रणाली का यथा समय विरोधा होता रहता है, परन्तु मेरा विचार है कि ऐसे चल गये और व्यापक बन गये, शब्दों का विरोधा सफलता नहीं लाभ कर सकता। कारण इसका यह है कि समस्त प्राकृतों और अपभ्रंश भाषाओं की उत्पत्तिा ही इस प्रकार हुई है। भाषा में जब स्थान मिल गया है, तब इस प्रकार के शब्दों का निकाल बाहर करना साधारण बात नहीं, ऐसी अवस्था में उनको उस भाषा का स्वतंत्र प्रयोग मान लेना ही अधिाक युक्ति-संगत ज्ञात होता है। अनेक व्याकरण रचयिताओं ने इस पथ का अवलम्बन किया है,ऐसे शब्दों को तत्समाभास कह सकतेहैं।

हिन्दी शब्द-भण्डार पर विदेशी भाषाओं के शब्द का भी बहुत कुछ प्रभाव पड़ा है। 'नानक' शब्द का प्रयोग नामकरण के लिए प्राय: काम में लाया जाता है, नानकचंद, नानक बख्शनाम अब भी रखे जाते हैं परन्तु वास्तव में 'नानक' यूनानी शब्द है।'कचहरी' शब्द घर-घर प्रचलित है, और साहित्यिक भाषा में भी चलता रहता है परन्तु है यह पुर्तगाली भाषा का शब्द। शक और हूणों के शब्द भी प्राकृत और अपभ्रंश से होकर हिन्दी में आये हैं, परन्तु सबसे अधिाक उसमें फारसी, अरबी और अंग्रेजी के शब्द पाये जाते हैं। 900 ईस्वी के लगभग मुहम्मद बिन कासिम ने सिन्धाु को जीता, भारत के एक बड़े प्रदेश में मुसलमानों की यह पहली विजय थी, उसके बाद 100 वर्ष तक पंजाब में मुसलमानों का राज्य रहा, तदुपरान्त वे धीरे-धीरे भारत भर में फैल गये और लगभग 800 वर्ष तक उनका शासन चलता रहा। विजेता की भाषा का कितना प्रभाव विजित जाति पर पड़ता है, यह अप्रकट नहीं। इस आठ सौ वर्ष के बहुव्यापी समय में उसने कितना अधिाकार भारतीय भाषाओं पर जमाया,इसका प्रमाण वे स्वयं दे रही हैं। हिन्दी भाषा वहाँ की भाषा थी, जहाँ पर मुसलमानों के साम्राज्य का केन्द्र था, और जहाँ उनकी विजय वैजयन्ती उस समय तक उड़ती रही जब तक उनका साम्राज्य धवंस नहीं हुआ। इसीलिए हिन्दी भाषा पर उनकी भाषा का बहुत अधिाक प्रभाव देखा जाता है। अरबी मुसलमानों की धार्मिक भाषा थी। विजयी मुसलमान भारत में अरब से ही नहीं, ईरान और तुर्किस्तान से भी आये। इसलिए हिन्दी भाषा पर अरबी, फारसी और तुर्की तीनों का प्रभाव पड़ा। इन तीनों भाषाओं के शब्द अधिाकता से उसमें पाये जाते हैं। अधिाकता का प्रत्यक्ष प्रमाण उर्दू है, जो कठिनता से हिन्दी कही जा सकती है।

इन भाषाओं के अधिाकतर शब्द संज्ञा रूप में गृहीत हुए हैं। मुसलमानों के साथ बहुत से ऐसे पदार्थ और सामान भारत में आये, जिनका कोई संस्कृत और देशज नाम नहीं था, इसलिए हिन्दी में उनका अरबी, फारसी आदि नाम ही व्यवहार में आया। जैसे साबुन, चिलम, नैचा, हुक्का, रिकाबी, तश्तरी आदि। प्राय: देखा जाता है कि शिक्षित जन ही नहीं, अपठित लोग भी राजकीय भाषा बोलने में अपना गौरव समझते हैं, इस कारण अनेक संस्कृत और हिन्दी शब्दों के स्थान पर भी अरबी, फारसी एवं तुर्की शब्दों का प्रचार हुआ और यह दूसरा हेतु हिन्दी में विदेशी शब्दों के आधिाक्य का हुआ।

आजकल वायु, मसिभाजन, लेखनी आदि के स्थान पर हवा 'दावात' और कलम आदि का ही अधिाक प्रयोग देखा जाता है। नीचे लिखे शब्दों जैसे अनेक शब्द ऐसे हैं कि जिनके स्थान पर हम गढ़े शब्दों का ही प्रयोग कर सकते हैं, फिर भी वे इतने सुबोधा न होंगे, इसलिए ऐसे शब्द ही प्राय: मुखों से निकलते, और उनकी व्यापकता हिन्दी में बढ़ाते हैं-

मजदूर, वकील, गुलाब, कोतल, परदा, रसद कारीगर आदि।

इस प्रकार के शब्दों को छोड़कर इन भाषाओं के कुछ संज्ञाओं को लेकर भी उन्हें क्रिया का रूप हिन्दी नियमानुसार दिया गया और आजकल वे क्रियाएँ हिन्दी में निस्संकोच भाव से प्रचलित हैं। शरमाना, फरमाना, कबूलना, बदलना, बख्शना, आदि ऐसी ही क्रियाएँ हैं। शर्म, फरमान, कबूल, बदल, बख्श, आदि संज्ञाओं के अन्त में हिन्दी का धातु चिद्द लगाकर इन्हें क्रिया का रूप दिया गया, और आजकल उनसे सब काल की क्रियाएँ हिन्दी व्याकरण के नियमानुसार बनती रहती हैं। इन भाषाओं के आधार से बहुत से ऐसे शब्द भी बन गये हैं, कि जिनका आधा हिस्सा हिन्दी शब्द है, और दूसरा आधा अरबी-फारसी इत्यादि का कोई शब्द। जैसे पानदान, पीकदान, हाथीवान, समझदार, ठीकेदार आदि। इस प्रकार की कुछ क्रियाएँ भी बना ली गई हैं। जैसे खुश होना, रवाना होना, दिल लगाना, जख़म पहुँचाना, इलाज करना, हवा हो जाना आदि।

मुसलमानों की अदालत और दफ्तरों के काम पहले प्राय: हिन्दी में होते थे, परन्तु अकबर के समय में राजा टोडरमल ने दफ्तर को हिन्दी से फारसी में कर लिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दू फारसी पढ़ने के लिए विवश हुए, और कचहरी एवं दफ्तरों का काम फारसी में होने लगा। इससे भी प्रचुर फारसी अरबी आदि के शब्दों का प्रचार जन-साधारण और हिन्दी में हुआ, और कानून एवं अदालत सम्बन्धाी सैकड़ाे पारिभाषिक शब्द व्यवहार में आने लगे। काजी, नाजिम, कानूनगो,समन, नाबालिग़, बालिग़, दस्तावेज आदि ऐसे ही शब्द हैं।

अरबी, फारसी में कुछ ऐसी धवनियाँ हैं, जो उनकी वर्णमाला में मौजूद हैं, परन्तु हिन्दी वर्णमाला में उनका अभाव है। जब फारसी, अरबी और तुर्की के शब्दों का प्रचार हुआ तो उनके शब्दगत अक्षरों की विशेष धवनियों की ओर भी लोगों की दृष्टि आकर्षित हुई, क्योंकि बिना उन धवनियों की रक्षा किये शब्दों का शुध्दोच्चारण असंभव था। परिणाम यह हुआ कि कुछ विशेष चिद्द के द्वारा इस न्यूनता की पूर्ति की गई। यह विशेष चिद्द वह बिन्दु है जो अरबी के अपेक्षित अक्षरों के नीचे लगाया जाता है। की धवनियों की रक्षा अ, ग़, क़, ख़, ज़, फ़, लिख कर की जाती है। किन्तु कुछ भाषा-मर्मज्ञ इस प्रणाली के प्रतिकूल हैं। उनका यह कथन है कि ग्राहक भाषा सदा ग्राह्य भाषाओं के शब्दों को अपने स्वाभाविक उच्चारणों के अनुकूल बना लेती है। ऐसी अवस्था में हिन्दी वर्णों पर बिन्दु लगाकर अरबी-फारसी के अक्षरों की धवनियों की रक्षा करना युक्तिमूलक नहीं। ऐसा करने से व्यर्थ वर्णमाला के वर्णों का विस्तार होता है। मेरा विचार है कि जब पठित समाज अरबी, फारसी के विशेष अक्षरों का उच्चारण उसी रूप में करता है, जिस रूप में उनका उच्चारण उन भाषाओं में होता है तो इस प्रकार के उच्चारणों की रक्षा के लिए हिन्दी भाषा के अक्षरों में विशेष संकेतों के द्वारा कुछ परिवर्तन करने की जो प्रणाली गृहीत हैं, वह सुरक्षित क्यों न रखी जावे। उर्दू कोर्ट की भाषा है, कचहरी दरबार में उसी का प्रचार है। सरकारी दफ्तरों में उसी से ही काम लिया जाता है। उर्दू की लिपि वही है, जो अरबी, फारसी की है, इसलिए अरबी, फारसी के शब्द उसमें शुध्द रूप में लिखे जाते हैं। शुध्द रूप में लिखे जाने के कारण उनका उच्चारण भी शुध्द रूप में होता है। सरकारी कचहरियों से कुछ न कुछ सम्बन्धा प्रजा मात्रा का होता है। मान की रक्षा कौन नहीं करता। जब लोग देखते हैं कि अरबी, फारसी शब्दों का शुध्द उच्चारण न करने से प्रतिष्ठा में बट्टा लगता है,शिष्ट-प्रणाली में अन्तर पड़ता है, अधिाकारियों की दृष्टि से गिरना पड़ता है, तो उनको विवश होकर अरबी, फारसी शब्दों के उच्चारण के समय उनकी विशेषताओं की रक्षा करनी पड़ती है। पठित समाज अवश्य ऐसा करता है, गँवार और मूर्खों की बात दूसरी है। यदि आवश्यकताएँ अथवा कारण विशेष हमको अरबी और फारसी शब्दों का शुध्दोच्चारण करने के लिए विवश करते हैं और सभा, समाज, पारस्परिक व्यवहार, एवं कुछ अंतर्जातीय लोगों से सम्मिलन के अवसरों पर हमको शुध्द उर्दू बोलने की आवश्यकता होती है, तो उसके फारसी, अरबी के विशेष शब्दों को हिन्दी अक्षरों में शुध्द लिखने की प्रणाली प्रचलित क्यों न रखी जावे। दूसरी बात यह कि पूर्णता लाभ के लिए जैसे भाषा के व्यापक और पूर्ण होने की आवश्यकता है, वैसे ही लिपि को। लिपि की अपूर्णता प्राय: भाषा की पूर्णता की बाधाक होती है। यह ज्ञात है कि उर्दू अरबी लिपि में लिखी जाती है, अरबी लिपि में हिन्दी का ट वर्ण है ही नहीं, उसमें हिन्दी के ख, घ, छ, झ, थ, धा, फ, भ अक्षरों का भी अभाव है। उर्दू वालों ने एक नहीं,अनेक चिद्दों का उद्भावन कर अपने अभावों की पूर्ति की, और इस प्रकार अपनी लिपि को पूर्ण बना लिया है। रोमन अक्षरों को पूर्ण बनाने के लिए आये दिन इस प्रकार की उद्भावनाएँ होती ही रहती हैं। फिर हिन्दी, वह हिन्दी पीछे क्यों रहे, जो सभी लिपियों से शक्तिशालिनी है और जिसमें ही यह गुण है, कि जो लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है। यदि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करके, कोई लिपि पूर्ण बन सकती है, तो हिन्दी में यह शक्ति सबसे अधिाक है। वह अपूर्ण क्यों रहे, और क्यों यह प्रकट करे कि वह न्यूनताओं से भरी है, और पूर्णता लाभ करने की उसमें शक्ति नहीं।

अरबी फारसी लिपियों में जो ऐसे वर्ण हैं, जिनका उच्चारण हिन्दी वर्णों के समान है, उनके लिखने में कुछ परिवर्तन नहीं होता, वरन् फारसी-अरबी के कई वर्णों के स्थान पर हिन्दी का एक ही वर्ण प्राय: काम देता है। परिवर्तन उसी अवस्था में होता है जब उनमें फारसी-अरबी वर्णों से अधिाकतर उच्चारण की विभिन्नता पाई जाती है। नीचे कुछ इसका वर्णन किया जाता है।

अरबी में कुल 28 अक्षर हैं, इनमें फारसी भाषा के चार विशेष अक्षरों पे, चे, जे, गाफ़ के मिलाने से वे 32 हो जाते हैं। उनको मैं नीचे लिखता हूँ-

इनमें से, से, हे, साद, जाद, तो, जो, अैन और क़ाफ़ अरबी के विशेष अक्षर हैं-फारसी और अरबी के विशेष अक्षरों को,निम्नलिखित शेर में स्पष्ट किया गयाहै-

सावो, हावो, सादो, ज़ादो, तोवो, जोवो, अैन, क़ाफ़। हर्फे ताज़ी फ़ारसीदां, पे, वो, चे, वो, ज़े, वो, गाफ़। इनमें से के स्थान पर हिन्दी में, अ, ब, प, ज, च, द, र, श, क, ग, ल, म, न, व, य, लिखा जाता है। दोनों भाषाओं के उक्त अक्षरों का उच्चारण कुछ भिन्न ज्ञात होता है परन्तु प्रयोग मेे कोई भिन्नता नहीं है, इसलिए फ़ारसी के इन तेरह अक्षरों के स्थान पर हिन्दी अक्षरों का व्यवहार बिना किसी परिवर्तन के होता है। फारसी के शेष अक्षरों में से कुछ अक्षर तो ऐसे हैं जिनमें से दो या तीन अक्षरों के स्थान पर हिन्दी का एक अक्षर काम देता है और कुछ ऐसे हैं जिनके लिए समान उच्चारित अक्षरों के नीचे बिन्दु लगाना पड़ता है, नीचे ऐसे अक्षर लिखे जाते हैं। (1) के स्थान पर क़ ख़ अ ग़ और फ़ लिखा जाता है जैसे का क़ौम का ख़रबूज़ा का अैनक का ग़ायब और का फ़ज़ूल आदि किन्तु के स्थान पर प्राय: अ ही लिखने की प्रणाली है। कारण इसका यह है कि अैन का उच्चारण अधिाकतर पठित समाज भी अ का सा-ही करता है, इसका प्रमाण यह है कि मअलूम के स्थान पर मालूम ही लिखा जाता है को अम नहीं आम ही कहते और लिखते हैं।

2. और दोनों के स्थान पर हिन्दी का ह ही काम देता है जैसे का हाल और हवा का हवा। और का काम हिन्दी का त देता है। और तौर और तीर ही लिखे जाते हैं।

3. और हिन्दी में स बन जाते हैं। जैसे का सूरत का सवाब और का सर इत्यादि।

इन पाँचों अक्षरों का उच्चारण प्राय: ज़ के समान है, इसलिए हिन्दी में इनके स्थान पर ज़ ही लिखा जाता है जैसे का ज़ैल का ज़ोर, का ज़ामिन का ज़ाहिर इत्यादि।

फ़ारसी में एक हे मुख़फ़ी कहा जाता है, के अन्त में जो हे है वही हे मुख़फष्ी है। हिन्दी में यह आ हो जाता है जैसे रोज़ा, कूज़ा, सबज़ा, ज़र्रा आदि। कुछ लोगों ने इस हे के स्थान पर विसर्ग लिखना प्रारम्भ किया था, अब भी कोई-कोई इसी प्रकार से लिखना पसन्द करते हैं जैसे रोज़:, कूज़:, सब्ज़:, ज़र्र: आदि। परन्तु अधिाक सम्मति इसके विरुध्द है, मैं भी प्रथम प्रणाली को ही अधिाकतर युक्ति सम्मत समझता हूँ।

हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप उर्दू है। दिल्ली मुसलमान सम्राटों की राजधानी अन्तिम समय तक थी। दिल्ली के आसपास और उसके समीपवर्ती मेरठ के भागों में जो हिन्दी बोली जाती है, उसी में लश्कर के लोगों की बोलचाल का मिश्रण होने से जिस भाषा की उत्पत्तिा हुई, शाहजहाँ के समय भी उसी का नाम उर्दू पड़ा। कारण इसका यह है कि तुर्की भाषा में लश्कर को उर्दू कहते हैं। किसी भाषा में अन्य भाषा के कुछ शब्द मिल जाएँ तो इससे उस भाषा का कुछ रूप बदल जा सकता है परन्तु वह भाषा अन्य भाषा नहीं बन जाती। उर्दू भाषा की रीढ़ हिन्दी भाषा के सर्वनाम, विभक्तियाँ, प्रत्यय और क्रियाएँ ही हैं, उसकी शब्द-योजना भी अधिाकतर हिन्दी भाषा के समान ही होती है, ऐसी अवस्था में वह अन्य भाषा नहीं कही जा सकती।

मैंने चतुर्दश हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापतित्व-सूत्रा से जो इस बारे में लिखा था, विषय को और स्पष्ट करने के लिए उसे भी यहाँ उध्दाृत करता हूँ।

“यदि अन्य भाषा के शब्द सम्मिलित होने से किसी भाषा का नाम बदल जाता है, तो फ़ारसी, अंग्रेजी आदि बहुत-सी भाषाओं का नाम बदल जाना चाहिए। फ़ारसी में अरबी और तुर्की के इतने अधिाक शब्द मिल गये हैं, कि उतने शब्द आज भी हिन्दी में इन भाषाओं अथवा फ़ारसी के नहीं मिले, फिर क्यों फ़ारसी फ़ारसी कही जाती है और हिन्दी उर्दू कहलाने लगी। फ़ारस के विख्यात महाकवि फ़िरदोसी ने अपने शाहनामा में एक स्थान पर लिखा है, “फ़लक गुफ्त अहसन मलक गुफ्त जेह” अहसन और जेह अरबी शब्द हैं, अतएव उनसे प्रश्न हुआ कि आपने कुल किताब तो ख़ालिस फ़ारसी में लिखी, इस शेर में दो अरबी के शब्द कैसे आ गये? उन्होंने कहा कि “फ़लक व मलक गुफ्त न मन गुफ्त” मतलब यह कि फ़लक और मलक ने कहा मैंने नहीं कहा1! कहाँ यह भाव और कहाँ यह कि एक तिहाई से अधिाक अरबी शब्द फ़ारसी में दाख़िल हो गये, तो भी फ़ारसी का नाम फ़ारसी ही रहा। उर्दू भाषा की प्रकृति आज भी हिन्दी है, व्याकरण उसका आज भी हिन्दी प्रणाली में ढला हुआ है, उसमें जो फारसी मुहावरे दाख़िल हुए हैं, वे सब हिन्दी रंग में रँगे हैं। फ़ारसी के अनेक शब्द हिन्दी के रूप में आकर उर्दू की क्रिया बन गये हैं। एक वचन बहुधा हिन्दी रूप में बहुवचन होते हैं, फिर उर्दू हिन्दी क्यों नहीं है? यदि कहा जावे फ़ारसी, अरबी,और संस्कृत शब्दाे के न्यूनाधिाक्य से ही उर्दू हिन्दी का भेद स्थापित होता है, तो यह भी नहीं स्वीकार किया जा सकता,क्योंकि अनेक उर्दू शायरों का बिलकुल हिन्दी से लबरेज शेर उर्दू माना जाता है और अनेक हिन्दी कवियों का फारसी और अरबी से लबालब भरा पद्य हिन्दी कहा जाता है-कुछ प्रमाण लीजिए-

1. मुसलमानों का धार्मिक विश्वास है कि फ़लक (आकाश) और मलक (देवता) की भाषा अरबी है।

तुम मेरे पास होते हो गोया।

जब कोई दूसरा नहीं होताड्ड

( मोमिन)

लोग घबरा के यह कहते हैं कि मर जाएँगे।

मर के गर चैन न पाया तो किधार जाएँगेड्ड

( ज़ौक)

लटों में कभी दिल को लटका दिया।

कभी साथ बालों के झटका दियाड्ड

( मीरहसन)

हिन्दी-भरी कविता आपने उर्दू की देख ली। अब अरबी फ़ारसी भरी हिन्दी की कविता देखिए-

जेहि मग दौरत निरदई तेरे नैन कजाक।

तेहि मग फिरत सनेहिया किये गरेबां चाक।

- रसनिधिा।

यों तिय गोल कपोल पर परी छूट लट साफ़।

खुशनवीस मुंशी मदन लिख्यो कांच पर क़ाफ़।

- शृंगार सरोज्

मैं यहाँ कुछ अंग्रेज और भारतीय विद्वानों की सम्मति उठाना चाहता हूँ-आप लोग देखें, वे क्या कहते हैं-

'उर्दू का व्याकरण ठीक हिन्दी के व्याकरण से मिलता है' उर्दू हिन्दी से भिन्न नहीं है। 1

डॉक्टर राजेन्द्र लाल मित्रा

“उर्दू के बड़े प्रसिध्द कवि वली और सौदा की भाषा तथा हिन्दी के अति प्रसिध्द कवि तुलसीदास और बिहारी लाल की भाषा में कुछ अन्तर नहीं है, दोनों ही आर्य्य-भाषा हैं। इसलिए हिन्दी उर्दू को अलग मानना बड़ी भारी भूल है।”2

मि. बीम्स

1. The Grammar of Urdu is unmistakably the same as that of Hindi, and it must follow therefore that the Urduis, a Hindi and an Aryan dialect. -Dr. R. L. Mittra

2. Such words, however, in no way altered or influenced the language itself, which, when its inflectional of phonetic elements are considered, remains still a pure Aryan dialect, just as pure in the pages of Walli and Souda, as it is in those of Tulsi Das or Biharilal. It betrays, therefore, a radical misunderstanding of the whole learnings of the question and of whole Science of philology to speak of Urdu and Hindi as two distinct languages.

-Mr. Beems

“जो भाषा आज हिन्दुस्तानी कहलाती है उसी का नाम हिन्दी, उर्दू और देख़ता भी है। इसमें अरबी, फ़ारसी और संस्कृत भाषा के शब्द हैं।”1 डॉ. गिल क्राइस्ट

आजकल उर्दू अधिाक बदल रही है, उसमें फ़ारसी तरकीबों का अधिाकतर प्रयोग होने लगा है। मेवा का मेवों, निशान का निशानों, मजदूर का मजदूरों, शहर का शहरों, दवा का दवाओं और क़सबा का क़सबों ही पहले लिखा जाता था, क्योंकि हिन्दी के नियमानुसार उनका बहुवचन रूप यही बनता है। परन्तु अब फ़ारसी के अनुसार उनका बहुवचन रूप मेवात, निशानात,मजदूरान, शहरात, अदबिया, क़सबात अथवा क़सबाजात लिखना अधिाक पसंद किया जाता है। इसी प्रकार हिन्दी के कुछ कारक-चिद्दोंका लोप करके फ़ारसी शब्दों को फ़ारसी तरकीब में ढाला जाने लगा है, रोज़ेसियह, इशरते क़तरा, नशयेइश्क़, मुर्दादिल,ग़रीबुलवतनी, मसायलेतसव्वुफ़ आदि इसके प्रमाण हैं! लम्बे-लम्बे समस्त पदों की भी अधिाकता हो चली है-जैसे 'ज़ेरे क़दमे वालदा फ़िरदोस बरीं है, परन्तु तो भी उर्दू का अधिाकांश प्रचलित रूप हिन्दी ही है।'

इस प्रकार के प्रयोगों से हिन्दी में कुछ फ़ारसी शब्द अधिाक मिल गये हैं, और उर्दू नामकरण ने विभेद मात्रा अधिाक बढ़ा दी है; तथापि आज तक उर्दू हिन्दी ही है, कतिपय प्रयोगों का रूपान्तर हो सकता है भाषा नहीं बदल सकती। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हिन्दी भाषा पर अरबी फ़ारसी और तुर्की शब्दों का इतना अधिाक प्रभाव पड़ रहा है कि एक विशेष रूप से वह अन्य भाषा-सी प्रतीत होती है।

सौ वर्ष के भीतर हिन्दी में बहुत से योरोपियन विशेषकर अंग्रेजी शब्द भी मिल गये हैं और दिन-दिन मिलते जा रहे हैं। रेल, तार, डाक, मोटर आदि कुछ ऐसे शब्द हैं, जो शुध्द रूप में ही हिन्दी में व्यवहृत हो रहे हैं, और लालटेन, लैम्प आदि कितने ऐसे शब्द हैं, जिन्होंने हिन्दी रूप ग्रहण कर लिया है और आजकल इनका प्रचार इसी रूप में है। बहुत से सामान पाश्चात्य देशों से भारतवर्ष में ऐसे आ रहे हैं, जिनका हिन्दी नाम है ही नहीं। ऐसी अवस्था में उनका योरोपियन अथवा अमेरिकन नाम ही प्रचलित हो जाता है और इस प्रकार उन देशों की भाषा के अनेक शब्द इस समय हिन्दी भाषा में मिलते जा रहे हैं। यह स्वाभाविकता है, विजयी जाति के अनेक श्ब्द विजित जाति की भाषा में मिल जाते ही हैं, क्योंकि परिस्थिति ऐसा कराती रहती है। किन्तु इससे चिन्तित न होना चाहिए। इससे भाषा पुष्ट और व्यापक होगी और उसमें अनेक उपयोगी विचार संचित हो जाएँगे। यत्न इस बात का होना चाहिए,

1. The language at present best known as the Hindustanee, is also frequently denominated Hindi, Urdu and Rekhta. It is compounded of the Arabic, Persian and Sanskrit, or Bhasha which last appears to have been in former ages the current language of Hindustan.

-Dr. Gilchrist

कि भाषा विजातीय शब्दों, वाक्यों और भावों को इस प्रकार ग्रहण करे कि उसकी विजातीयता हमारी जातीयता के रंग में निमग्न हो जावे।

आजकल कुछ शब्द अन्य प्रान्तों के भी हिन्दी भाषा में गृहीत हो गये हैं। कुछ विचारवान पुरुष इसको अच्छा नहीं समझते, वे सोचते हैं, इससे अपनी भाषा का दारिद्रय सूचित होता है। मैं कहता हूँ, इस विचार में गम्भीरता नहीं है। प्रथम तो हिन्दी भाषा राष्ट्रीय पद पर आरूढ़ हो रही है, इसलिए राष्ट्र की सम्पत्तिा उसी की है। दूसरी बात यह है कि राष्ट्रोपयोगी जो व्यापक शब्द हैं, अथवा जो कारण विशेष से ऐसे बन गये हैं, जो भावद्योतन में किसी शब्द से विशेष क्षमतावान हैं, तो वे क्यों न ग्रहण कर लिये जावें। यदि विदेशीय शब्दों का कुछ स्वत्व हिन्दी भाषा पर विशेष कारणों से है, तो ऐसे शब्दों का आदर क्यों नहीं किया जावे। मेरा विचार है कि उनका तो सादर अभिनन्दन करना चाहिए। इस प्रकार के शब्द मराठी के लागू, चालू आदि, गुजराती के हड़ताल आदि, बँगला के गल्प, प्राणपण आदि और तमिल भाषा के चुरुट आदि हैं। जब ये शब्द प्रचलित हो गये हैं, और सर्वसाधारण के बोधागम्य हैं, तो इनके स्थान पर न तो दूसरा शब्द गढ़ने का उद्योग करना चाहिए और न इनका बायकाट। इस प्रकार का सम्मिलन भाषा-विकास का साधाक है, बाधाक नहीं, यदि वह सीमित और मर्यादित हो।