हुश्शू / छठा दौरा (वहशत! वहशत! वहशत!) / रतननाथ सरशार
एक रईस एक जोड़ी गाड़ी पर सवार हो कर सदर बाजार गए, और एक मालदार बजाज की दुकान पर जा कर दो उम्दा सूट बनवाए - एक रेशमी और दूसरा सूती। इसके बाद टहलते-टहलते-बजाज की आँख जरा चूकी ही थी कि आपने एक चमड़े का बेग, जिसमें बोतल और गिलास सफर के लिए रक्खा जाता है, झप से गले में पहन लिया और दुकान से बाहर निकल आए। थोड़ी देर में एक सार्जेंट आया। अंग्रेजी में लाला से कहा - हम अपना बेग यहाँ भूल गए हैं। उसमें एक बोतल है और गिलास। बजाज के आदमी ने कहा - जी हाँ, रक्खा है। लाला ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में कहा - आप बैठें, मेरा आदमी लिए आता है।
आदमी ने इधर-उधर देखा, तो बेग मय बोतल और गिलास के गायब - और उसके साथ ही आदमी के होश! इधर ढूँढ़ा, उधर ढूँढ़ा मगर वह भला कहाँ मिलनेवाले हैं। हुश्शू तो थे ही; दुनिया भर में उनका कहीं पता नहीं। चौतर्फा ढूँढ़ मारा, कहीं हों तब तो मिलें। दुकान भर परेशान। बजाज अपने आदमी को ललकार रहा है - कि तूने झूठ-मूठ बक दिया; अब तुझको दाम देने पड़ेंगे। और वह सैकड़ों कस्में खाता है कि राम-दुहाई, अभी-अभी यहाँ पर रखा था!
बजाज और नौकर में यह जंग हो ही रही थी कि एक आदमी वही बेग ले कर आया और बजाज को एक चिट्ठी मय बेग के दी। बहुत उम्दा अंग्रेजी में लिखा था -
'लाला साहब, हम शराब और शराबी दोनों के दुश्मन हैं। तुम्हारी दुकान पर शराब की बोतल का बेग देखा। आग ही तो लग गई। सर से पाँव तक फुँक गया। गले में बेग डाला और लंबा हुआ। बोतल रास्ते में तोड़ डाली। गिलासके चार टुकड़े किए। चमड़े का बेग भेजता हूँ। इस आदमी को दो आने दे दो। मा ब-खैर व शुमा ब-सलामत।
राकिम -
हुश्शू'
बजाज ने यह खत बड़े अचंभे के साथ पढ़ कर सार्जेन्ट को दे दिया। पहले तो उनकी समझ में नहीं आया। मगर जब लाला साहब ने समझाया तो बहुत हँसा। बजाज ने आदमी को, लाला जोती परशाद साहब के हुक्म के मुताबिक, दो आने दिया, और सार्जेन्ट से बोतल और गिलास के दाम पूछे। वह नेक आदमी था। बेग गले में डाला और हँस कर कहा - अच्छे पागलों से लेन देन रखते हो! और चला गया।
लाला और उसका भाई और दुकानदार सब हैरान कि या अल्ला यह किसका काम है। जोती परशाद के सिवा और कोई यहाँ आया नहीं। और वह एक वजेदार और रईस आदमी हैं।
अब सुनिए कि लाला जोती परशाद साहब यहाँ से दुकानों की दूसरी लैन में गए और एक बिसाती की दुकान में उतर पड़े। दुकान बड़ी थी। बिसाती उठ कर असबाब दिखाने लगा। उससे आपने धूप की ऐनक माँगी। वह कोठरी में गया, कि इतने में मौका-वक्त गनीमत जान कर आपने जल्दी-जल्दी दो कार्क-स्क्रू यानी काग-पेच पाकट में रख ही तो लिए। और उधर बिसाती का सिख मुलाजिम जो इत्तफाक से इनकी तरफ देख रहा था - और इनको खबर न थी कि कोई हमारी ताक में है - वह झपटा। बिसाती ऐनकें निकाल कर आया ही था कि सिक्ख ने मियाँ हुश्शू का हाथ पकड़ लिया।
हुश्शू - हिस्ट! क्या बात है?।
बिसाती - हायँ! कुछ पागल हो गया है। अरे, एक रईस का हाथ पकड़ता है! छोड़ दे! सिड़ी है, कौन!
सिक्ख - रईस इसको कौन कहता है? यह चोर, इसका बाप चोर!
हुश्शू - देखो, इसको समझाओ।
बिसाती - कपूर सिंह, तुमको आज जनून हो गया है? तुम हमारी दुकान से निकल जाओ।
सिक्ख - अरे सरकार, ये तुम्हारे देस की सरदार, और चोरी-चकारी करें! पाकट में हाथ डाल कर देखिए : यह चोर, इसका बाप-दादा चोर!
बिसाती - लाहौल विला कुव्वत! ले, बस जाइए। कोई दूसरा होता तो मारके उधेड़ डालता।
सिपाही - वह तो कपूर सिंह न देखते तो मार ही ले गया था। अब चलो थाने! काग-पेच चुराने चले थे! चलो थाने! बीस बेंत से कम न पड़ेंगे।
बिसाती - ले जाओ थाने पर।
इतने में इनका खिदमतगार आया। और कोचमैन घोड़ों को साईसों के सुपुर्द करके कूद पड़ा। अब ये भी तीन आदमी हो गए; और आपस में दंगा होने लगा।
कोचमैन - किसी रईस की इज्जत लेते हो?
खिदमतगार - ये काग-पेच चुरानेवाले लोग हैं, जिनके नौकर चाँदी के कड़े पहने हैं।
सिक्ख - अरे, आँखों में खाक झोंकता है! पूछ तो, यह पेच कहाँ से निकला। हिंदू धरम - इससे गंगाजली उठवा! चौड़ी-गाड़ी पर सवार और चोरी!
कोचमैन - बस, जबान सँभालके बोल! बड़ा वह बनके आया है!
यह हंगामा हो ही रहा था कि एक दुकानदार ने चुपके से कोचमैन के कान में कहा - अरे भई, इस तू-तू मैं-मैं से क्या होगा! दुकानदार को कुछ ले-दे के वैस्ट कर दो! माला (मामला) रईस आदमी हैं; बड़े बदनाम होंगे!
कोचमैन ने कहा - अगर यों ही सब रईस डरने लगे, तो जिसका जी चाहे धमका ले। बिसाती ने आदमियों से कहा कि कान्स्टेबुल को बुलाओ। इनको चचा ही बना के छोड़ूँगा। जाते कहाँ है चिड्डा-गुलखैरू!
अब दस-पाँच आदमी और जमा हो गए।
1 - अरे मियाँ, चौड़ी गाड़ी पर सवार हैं, चोरी क्या करते? हजूर गाड़ी पर हों! यह बिसाती बड़ा बदजात है।
2 - किसी रईस को बेइज्जत करना कौन भलमन्सी है?
3 - अरे, तो क्या दुकानदार को कुत्ते ने काटा था?
1 - कोई किसी को झूठ नहीं ले मरता।
गर्जे कि बड़ी ले-दे के बात खिदमतगार ने बिसाती के मुलाजिम को बीस रुपए दिए और उसने अपने मालिक के हवाले किए। तब जाके कहीं लाला जोती परशाद की आबरू बची। और सोचा कि बहुतों को गप्पे दिए थे मगर ये एक गुरू मिले! कोशिश तो यह की थी कि बोतल के खोलने के पेच घुमाके खारी कुएँ में फेंक दें; मगर लेने के देने पड़े - हात्तेरे की! धर लिया गया ना, ओ गीदी!
यहाँ से मियाँ हुश्शू साहब बहुत ही रंजीदा और दुखी और मरी हुई-सी तबीअत ले कर गाड़ी पर सवार हुए। सैकड़ों जूते पड़े। चोर बने; बाप को सलवातें सुनवाई। हाथ पकड़ा गया। जेब से कार्क-स्क्रू निकले; सिक्ख बिगड़ा। दूसरे आदमी ने औंधी-सीधी सुनाई। लोग जमा हुए। सब के सामने चोर बने; आदमियों के सामने जलील हुए। कान्स्टेबुल बुलवाए जाते थे। बीस जरब बेंत का फतवा जमाया गया।
उस रोज मारे रंज के खाना नहीं खाया। घर में जाके सो रहे। दूसरे रोज बुखार आ गया। एक हफ्ते तक बीमार रहे। जब आराम हुआ, तो सदर बाजारवाले बिसाती की कुल कार्रवाई भूल गए, और फिर सदर बाजार चले। इस मर्तबा बैगनर पर सवार थे। न वह खिदमतगार, न कोचमैन, न वह साईस। वर्ना वह लोग जरूर समझाते कि हजूर सदर बाजार की तरफ से न चलें। अभी अठवारा ही हुआ है कि वहाँ फजीता हो चुका है। सदर बाजार में जाके अब उँगलियाँ उठने लगी :
1 - वही जाते है, वही, जिन्होंने काग-पेच की चोरी थी।
2 - इतने बड़े रईस और टके-टके के माल की चोरी, वाह!
3 - इनका उसमें कोई कसूर नहीं। इनके दिमाग में खलल है।
4 - मियाँ, जिन्होंने बोतलें चुराई थीं, और काग-पेच पाकेट में रख कर भागे थे, वह आज फिर आए हैं।
इनको क्या खबर कि यहाँ क्या हँडिया पक रही है। एक सौदागार की दुकान में धँसने ही को थे कि उसने ललकारा - यहाँ नही, यहाँ नही। और दुकान देखिए! जैसे कोई किसी फकीर से कहता है।
एक और दुकान पर कदम रक्खा ही था कि दुकानदार ने कहा - हजूर हमने दुकान बढ़ा दी। जो लेना हो वह और दुकान से लीजिए।
यहाँ से चलते-चलते एक और दुकान में घुसे। दुकानदार वाकिफ था कि हुश्शू यही हैं, मगर तहजीब से पेश आनेवाला आदमी था; जबान से कुछ न कहा। खुद भी साथ हो लिया और उनको मौका चोरी करने का न दिया।
हुश्शू - कोई बढ़िया मनीबेग है?
जवाब - जी नहीं।
हुश्शू - कोई कीमती पेंसिल है?
जवाब - मैं तो एक टुटपुँजिया बिसाती हूँ। हजूर किसी बड़ी दुकान में जायँ!
हुश्शू - अच्छा, हम यहाँ टहल रहे हैं; तुम किसी बड़ी दुकान से जाके ला दो!
जवाब - ह हँ। बस, अब तशरीफ ले जाइए। मैं इस धोखाधड़ी में न आने का। तसलीमात।
हुश्शू कुछ-कुछ अब समझे कि लोग उनके आने के रवादार नहीं हैं। अब किसी दुकान में जाने की जुर्रत न हुई; और गाड़ी में सवार हो कर रवाना शुद। सवार हो कर चले ही थे कि आवाज आई - लदा है! लदा है!
हुश्शू समझ गए कि यह आवाज हमीं पर कसा गया। मगर करते क्या! किसी ने नाम तो लिया ही न था। और नाम लिया भी होता, तो बाजार भर एक तरफ और टुटरूँ-टूँ, काना टट्टू, बुद्धू नफर। एक की दवा दो - मसल मशहूर है।
यहाँ से जलील हो कर चले तो सीधे घर आए; और दो दिन तक घर ही में रहे। बाहर नहीं निकले।
घर में लेक्चरबाजी यों शुरू कर दी -
साहबो, यह शराब वह चीज है कि बस तोबा ही तोबा! खुदा बचाए! अल्लाह न करे कि इसके पास कोई कभी फटके! बचो - इससे जहाँ तक हो सके, बचो! यह वह नागन है, जिसका काटा पानी तक नहीं माँगता...
तीसरे दिन फिर शैतान ने उँगली दिखाई, और हुश्शू साहब ने वहशत की ली, और ये चंद शेर बरजस्ता फरमाए -
परसों गए हम सदर बाजार : आए वहाँ से जलील-औ-ख्वार।
दुबक-दुबक कर भागे हम : पीछे जूती, आगे हम।
आवाजें सबने कसीं हम पर : भागे! लूल है! गीदी खर!
इक्का-दुक्का हम, वह लाख : हम हुश्शू औ' उनकी साख!
कोई दोस्त न कोई यार; दुश्मन सारा सदर बाजार,
बोला कोई - सुन लो भाई! हुश्शू की जब शामत आई।
मारामार गया दर-दर - फिरने लगा दुकानों पर,
बंबूक बड़ा यह हुश्शू है! हुश्शू है, भई हुश्शू है!
नज्म है, यह हुश्शू की नानी - चूरनवालों की है बानी,
चूरन खा लो हुश्शू यार - तोड़ के ला-दो एक अनार।
खाए अनार अब जाएँगे - खबर जहाँ की लाएँगे।
जाम है क्या और मय है कैसी! पीनेवाले की ऐसी-तैसी!
साकी की दुम में नम्दा है - जभी य' बूढ़ा गम्जा है।
भट्टी चाहे जैसी है - कलवार की ऐसी-तैसी है।
काग-चोर ए, एजी, वाह! तोड़ी बोतल इल्लिल्लाह!
इनके कुछ दोस्त एक रोज मिलने गए तो यों बातें हुईं -
जो - 'शीन' 'रे' 'अलिफ' 'बे' (श, र, आ, ब) - ये चार हरफ आज से हम कभी इस्तैमाल न करेंगे।
च - यह तो हो नहीं सकता। ऐसा कोई जुमला लिखो तो सही!
ब - गैर मुमकिन है, जनाब।
जो - (कलम दवात कागज ले कर) अम्मे-मन तसलीम! हम कल तप में दिक थे। हकीम-वैद किसी को हुक्म दीजिए कि नुस्खा लिख दें। कुनैन मुझे मुफीद होती है। वह दो तोले दीजिए, कि पी लूँ। दो शीशी कुनैन की।
मेंड मी सून। फेथ फुल नेव्यू।
ब - वल्लाह खूब लिखा है!
च - बेशक खूब लिखा है। अंग्रेजी में क्या लिखा है?
ब - 'मेंड' के मानी ठीक करना, 'मी' के मानी, मुझे; 'सून' के मानी जल्द, 'फेथफुल' के मानी, खैरख्वाह; 'नेव्यू' के मानी, भतीजा।
च - (आहिस्ता से) अब इसको पागलपन कौन कहे!
मौलवी - क्या अच्छा खत लिखा है!
जो - मय उम्दः चीज नहीं है।
ब - क्या खूब! इस फिकरे में भी कोई 'शराब' का हरफ नहीं है। न 'शीन' 'रे', न 'अलिफ', न, 'बे',
च - हाँ, बेशक नहीं है।
जो - मखटूम-मन ('हजूर'), मैं सिड़ी नहीं हूँ।
ब - क्या खूब! इस वक्त तो जेहन तरक्कियों पर है।
जो - शेर-शायरी बहुत अच्छा शगल चार रोज तबीअत बहलाने का कयास किया गया।
ब - इसके क्या मानी?
म - यह बेतुकी हुई, बंदानेवाज।
च - बेतुकी नहीं हुई। यह खूब हुई। इसके यह मानी, कि कोई लफ्ज इस जुमले में ऐसा नहीं जिसमें 'शीन' या 'अलिफ' या 'बे' न हो।
म - बड़ा तबीअतदार आदमी है।
च - बस इसी तरह, होश की बातें करो।
दस दिन के बाद तबीअत ने फिर पलटा खाया और छै रोज तक इतनी पी, इतनी पी, कि होश-हवाश गायब-गुल्ला। सातवें दिन शराब के नशे में खुदबदौलत बाजार में आए और दुकानों पर इतनी अनोखी बेहूदगियाँ कीं कि पुलिस को दस्तअंदाजी करनी पड़ी। चूँकि इनके चचा एक मशहूर आदमी और रईस और आनरेरी मजिस्ट्रेट थे, इनके साथ रिआयत की; और खुद पुलिसवालों ने इनको इनके घर पहुँचा कर इनके चचा के सुपुर्द कर दिया। इन्होंने घर पर भी आसमान सर पर उठा लिया, और एक हफ्ते तक सिवाय गाली-गलौज, मार-धाड़, जूती-पैजार, धर-पकड़ के और कोई काम न था। चचा और दोस्त और भाई और मोहल्लेवाले आजिज आ गए, और साहब मजिस्ट्रेट से पागलखाने के सुपरिंटेंडेंट के नाम चिट्ठी लिखवाई, और सलाह हुई कि मौलवी साहब के साथ गाड़ी पर बैठ कर पागलखाने जाएँ और इनसे जिक्र भी न किया जाय। एक खिदमतगार ने इनको समझा दिया कि मौलवी साहब के साथ आप कल सुबह को पागलखाने भेजे जाएँगे। चिट्ठी वहाँ के साहब के नाम ले आए हैं।