हुश्शू / सातवाँ दौरा (मुल्ला पागल) / रतननाथ सरशार
मौलवी साहब गाड़ी पर सवार जोती परशाद को अपने जान बेवकूफ बनाते चले जाते थे और सोचते जाते थे कि लाला को यह खबर ही नही कि घड़ी-दो में मुरलिया बाजेगी; पागलखाने की सैर करते होंगे। दिल में रंज था, मगर करते भी क्या, अपने सर पड़ी आप ही झेलनी पड़ती है। पागलखाने की आलीशान कोठी के पास पहुँच कर मौलवी साहब ने गाड़ी रुकवाई और लाला जोती परशाद के बनाने और दिल बहलाने के लिए, कि पागलखाना देख के भड़कें नहीं, यों मजे-मजे की बातें करने लगे -
मौलवी - भई इस चारदीवारी के अंदर एक बाग है - कश्मीर के शालामार की नकल, इलाहाबाद के खुसरो बाग से बड़ा। अजब मुजहतबार (बहार की फिजा लिए हुए) बाग है! जा-ब-जा चमन और फुलवारियाँ, और उम्दा-उम्दा पौदे, और आसमान से बातें करनेवाले ऊँचे-ऊचे दरख्त, मेवे और फल से लदे हुए। और बीचो-बीच में एक परी-मंजिल कोठी है। कोठी क्या, नमूनए'जन्नत है। 'छतर-मंजिल' और 'दिलकुशा' और 'फरह-बख्श' जैसी इमारतों की कोई हकीकत नहीं। ताज बीबी के रौजे की भी कोई हकीकत नहीं। चार कोनों में चार परियाँ बनी हैं। इस काबिल है कि यहाँ दो घड़ी इंसान दिल बहलाए। इसमें हूर-खराम मलकए-मलकाते-आलम हजूर शहंशाह बेगम अपनी तफरीह के लिए आती थीं। इस लायक है कि रऊसा (रईस लोग) कभी-कभी आया करें, बहार का लुत्फ उठाया करें।
जोती - बाहर ही से देखने से जी खुश हो गया।
मौलवी - (दिल में खुश हो कर) अंदर और भी खुश हूजिएगा।
जो - हम तो बाहर ही से देख के फड़क गए।
मौ - शुक्र है कि आपने भी पसंद किया। रूह को बालीदगी (हिंदी मुहावरे में आत्मा) होती है।
जो - हमको तो यह मालूम होता है कि जैसे हम अट्ठारह बरस के हो गए।
मौ - अजी बूढ़ा आए तो जवान हो जाय और जवान कभी बूढ़ा न होने पाए। इसकी सैर से इंसान कुल रूहानी आरजों और जिस्मानी मरजों से बचा रहता है।
जो - क्यों नहीं? आप तो कभी-कभी यहाँ आते होंगे।
मौ - जी हाँ! सैर-कनाँ!
जो - आज यहीं रहिए।
मौ - (दिल में) - खुदा न करे, अल्लाह बचाए! (जाहिरदारी में) आप यहाँ रह सकते हैं।
इतने में लाला जोती परशाद गाड़ी से उतरे।
जो - मैं अभी आता हूँ। जरा इसके अंदर चल कर सैर करेंगे।
मौ - (खुश हो कर) जरूर। आप जिस काम को जाते हैं वहाँ से हो आइए!
जो - अभी-अभी आता हूँ।
दस मिनट गुजर गए, पंद्रह मिनट गुजर गए, बीस मिनट गुजर गए, जोती परशाद का पता नहीं। अब सुनिए कि लाला जोती परशाद साहब गाड़ी से उतर कर, घनी और लंबी-लंबी पतावर से हो कर पागलखाने के फाटक पर पहुँचे।
जोती - (पहरेवाले सिपाही से) सुपरिंटेंडेंट साहब हैं?
सिपाही - (जंगी सलाम करके) हाँ, हजूर हैं।
जो - हमारा कार्ड भेज दो। उस पर छपा था - लाला जोती परशाद, एम-ए. फेलो आफ दि कलकत्ता युनिवर्सिटी।
सिपाही ने एक चपरासी के हाथ कार्ड भेजा। उसने आनके कहा - हुजूर को साहब ने सलाम दिया है।
जोती परशाद ने टोपी उतार कर अंग्रेजी में सलाम किया। और साहब ने खड़े हो कर हाथ मिलाया।
साहब - बेल, हम आपके लिए क्या कर सकते हैं?
जो - मैं एक पागल को ले कर आया हूँ। साहब मैजिस्ट्रेट का यह खत आपके नाम है।
सा - अभी हाल में पागल हो गया है?
जो - जी, हाँ। बोतलें, बर्तन, घड़े और गगरे और चिलमचियाँ और लोटे तोड़ता फिरता है, और जो शख्स उसके साथ रहता है उसको सिड़ी समझता है, और सबसे चुपके से कहता है कि यह आदमी पागल हो गया है।
सा - अभी शुरुआत है, शायद अच्छा हो जाय। उसको बुलवाइए।
जोती परशाद ने चपरासी से कहा कि गाड़ी पर बाहर जो साहब बैठे हैं उनसे कहना कि सुपरिंटेंडेंट साहब बुलाते हैं। मेरा जिक्र न करना। वह बेचारे पागल हो गए है, और जो उनके पास जाता है, उसको पागल कहते हैं। तत्तो-तत्तो करके चीते यार बनाके ले आओ।
चपरासी ने जा कर कहा - चलिए, आपको साहब बुलाते हैं।
मौलवी साहब ने कोचमैन और साईस और खिदमतगार से कहा कि लाला अगर आएँ तो फौरन वहाँ भेज देना। यह कह कर अंदर तशरीफ लाए। जोती परशाद को साहब के पास बैठा देख कर मुस्कराए। कहा - पहले ही से यहाँ आनके डट गए!
साहब ने अंग्रेजी में जोती परशाद से पूछा - ये अंग्रेजी जानते हैं?
जोती - जी नहीं।
सा - चेहरे ही से दीवानापन बरसता है।
जो - जी हाँ, जनून कहीं छिपा रहता है?
सा - और फिर खास कर हम लोगों से?
जो - जी हाँ, जिन्होंने हजारों पागल चंगे किए हैं।
सा - मुद्दत से यही काम है।
जो - आप तो स्पेशलिस्ट हो गए हैं ना?
मौ - (साहब से) मुझे आप से कुछ अर्ज करना है।
सा - (मुस्करा कर) मतलब की बात पर आ रहे हैं - कहिए।
मौ - (अलैहदा ले जा कर) हजूर ये रईस के लड़के हैं, मगर दिमाग में खलल हो गया है। आप इनको पागलखाने में रखिए।
सा - बेहतर।
मौ - इनका कायदा है कि बोतलें...
सा - (मुस्करा कर) हम समझ गए।
मौ - हजूर साहब मजिस्ट्रेट का खत भी हजूर के नाम है।
जेब टटोली, मगर खत कहाँ! खत तो जोती परशाद ने जेब से निकाल लिया था। उस्तादी कर गए थे - और साहब ने पढ़ कर अपनी मेज पर रख लिया था।
सा - उस खत की कोई जरूरत नहीं है।
जोती परशाद को बुलवाया।
साहब और मौलवी साहब और लाला जोती परशाद और जमादार और चपरासी जाने लगे। जमादार से साहब ने कह दिया था कि कोई अच्छा कमरा खाली कर दो। रईस आदमी है। एक मुकाम पर जमादार ने इशारे से कहा कि यही कमरा तजवीजा है। साहब ने मौलवी साहब से कहा - हम और आप इस कमरे में चल कर बैठें, जिसमें यह पागल भड़क न जाय, और खुद ही चला आए, और उधर जोती परशाद से अंग्रेजी में कहा कि इस कमरे से हम जल्द भाग आएँगे, तुम बाहर रहना। मौलवी साहब सीधे-सादे मुसलमान, साहब के साथ चले गए, और दिल में बहुत ही खुश थे कि आज बड़ा काम मारा। जोती परशाद के चचा और दोस्त सब खुश होंगे, कि किस खूबसूरती से इनको पागलखाने में ले गया। किसी की जुर्रत नहीं होती थी। भारी पत्थर हमीं ने उठाया।
साहब जा कर मोंढे पर बैठे, और मौलवी साहब चारपाई पर बैठने ही को थे कि साहब जन से बाहर, और जमादार ने दरवाजा बंद करके ताला डाल दिया, जब तक मौलवी साहब उठें और यहाँ और गुल मचाएँ, ताला पड़ गया, और जनाब मौलाना साहब पागलों की कोठरी में बंद - जल्ले जलाल हू!
मौलवी - खुदावंद, क्या इस कमजोर गरीब को ही पागल बना दिया
साहब - आप इसमें आराम करें, मौलवी साहब!
मौ - पीर-मरशद! गुलाम एक मौलवी आदमी, हाफिज मुल्ला अनवारुल हक साहब सब्जवारी कुद्स सिर्रहुलशरीज का जिलःरुबा और गुलाम को जनून क्या मानी? कभी कुतरफब भी जो अव्वल मुकद्दमा दफ्तर मालेखोलिया का है, नहीं हुआ! (मैं जो कि सब्जबारी कुदस का मुजाविर हूँ, और कहाँ पागलपन की बीमारी। मुझे तो कभी मिरगी भी नहीं हुई, जो कि इस रोग की भूमिका होती है।)
सा - (जोती परशाद से) - उर्दू में क्या कहता है?
जो - मैं जानता हूँ, अरबी पढ़ रहा है।
सा - अच्छी बात है। मौलवी साहब, आप आराम से पढ़िए।
जमादार - मौलवी साहब, पागलखाना तो है ही। यहाँ दाद न फरियाद।
मौ - बाबा, यह अजब पागलखान एस्त, कि हर कोई यहाँ पागल है।
सा - मौलवी साहब, यह जमादार लोग हम तक को कभी-कभी पागलों के साथ बंद कर देता है।
मौ - (बहुत गुस्से में भर कर) ब-खुदाए लम'जयल, हजूर इसी काबिल हैं कि पागलखाने में रहें। जाय-शुमा दुरीं पागलखानाए-सब्ज अस्त। (आपकी जगह इसी पागलखाने के अंदर है।)
सा - यह क्या बोला?
जोती - हजूर फारसी जबान में अपने बाप के बारे में कहता है कि वह भी पागल था।
साहब और जमादार बहुत हँसे। और मौलवी साहब और भी गुस्से में भर गए, और कहा - सौगंद मी खुरम ब-तंगरीए-तआला, कि कलमए-सख्त खिलाफे-शाने जनाबे -वालिद मेरे-बुर्द अल्लाह मजहजअ विन्नार अल्लाह बुर-हानहू!! कलेजे पर कार तीर मीकुनद! (अल्लाह की सौगंद! तूने मेरे पिता को अपशब्द कहे। अल्लाह तुझे आग में डालेगा। तूने मेरा कलेजा छलनी कर दिया है।)
सा - क्या बोला?
जो - अपने नाना के बारे में कहते हैं कि वह भी उसी पागलखाने में मरे थे।
इतना सुनना था कि मौलवी साहब आग ही तो हो गए, और मारे गुस्से के लोहे की सलाखों को जोर से हिलाने लगे। मालूम होता था कि सीखचों को तोड़के बाहर आके दो-एक को खा जायगा। मौलवी साहब ने बड़े जोर से दाँत किटकिटाए और ऐसी भयानक सूरत बनाई, कि खुदा की पनाह! अव्वल तो आपका चेहरा-मोहरा बस क्या कहिए, यों दीद के काबिल था - सर घुटा, भवौं का सफाया, कद सात फिट का, दुबले-पतले। और अब और भी शक्ल निकल आई। साहब को पहले ही इनके पागल होने का यकीन था, अब और भी पूरा-पूरा यकीन हो गया। जमादार ने कहा - हजूर रात को इसकी बड़ी चौकसी करनी होगी।
साहब ने कहा - बेशक।
जोती परशाद ने सीखचों के पास जा कर कहा - जनाब मौलवी साहब, किबला! कोर्निश अर्ज करता हूँ! कहिए कश्मीर के शालामार की नकल है या इलाहाबाद के खुसरौबाग की!
मौलवी - आपके वालिद और पिदर-जन की खाहिश यही है कि आप कुछ दिन इस जनूँसरा में जिसको अवाम पागलखाना कहते है, कायम करें।
वकुजी रब्बुक अल्ला तसब्दु वा इल्ला अमा वह विलवालदैन इहसानन। अमा लवलगन उनिदक इलकब्र अहदहुमा वकुललहमा कौलन करीमा व हिफिज लहमा जनाह अलज्ले मिन उर्रहमत : वकुल रब्बे अरहमहा रब्बयानी सगीरा। कहते है माँ के पाँव के नीचे बहिश्त है।
सा - अब क्या बोलता है।
जो - अब ऊल-जलूल बकने लगा।
सा - हम इलाज करेंगे।
जो - आप सही फरमाते हैं, जनाब मौलबी साहब, कि यह मुकाम इस काबिल है कि इन्सान यहाँ दो घड़ी दिल बहलाए।
मौ - (झल्ला कर) इस वक्त आपके वालिद होते तो आपका सर काटके फेंक देते। अफसोस कि वह हमसे दूर हैं।
जो - कहिए, वह परी-मंजिल कोठी कहाँ है?
मौ - (सर पटक कर) अगर बस चले तो खा जाऊँ!
जो - शालीमार बाग की नकल है ना?
मौ - खुदा समझेगा तुझ मरदूद से।
जो - अब यह तो फरमाइए कि वह हूर-खराम मलकए-मलकाते-आलम हजूर शहंशाह बेगम कहाँ हैं?
मौ - अल्सब्र मफ्ताहुक फर्रह।
जो - अंदर से तो यह कोठी और भी अच्छी होगी!
जो - जो फिकरे मौलवी साहब ने पागलखाने के बाहर कहे थे, वह जोती परशाद ने दोहराए।
मौ - मैं एकाध को मार डालूँगा।
सा - देखो जमादार, बहुत होशियार।
जमादार - हजूर, बहुत होशियार रहूँगा।
सा - सिपाही लोग सब चौकस।
जमादार - हजूर, निशाखातिर रहें।
मौ - आज कजा का मुकाबला है।
जो - यह क्यों? हमसे तो कहते थे कि परीमंजिल कोठी है।
मौ - कजा का सामना है।
जो - आप तो फरमाते थे कि अजब नुजहतबार बाग है!
मौ - खैर, हमारी अजल हमसे इस पागलखाने ही में दोचार हुई।
जो - अपने खोदे गड्ढे में आप ही गिर पड़े। हमको पगलखाने भेजने आए थे। हत्तेरे मौलवी की दुम में हुसैनाबाद का घंटाघर!
लाला जोती परशाद साहब ने जमादार को दो रुपए इनाम दिए और हसन खाँ को एक रुपया, और मौलवी साहब से रुखसत होते कहा - जनाब मौलवी साहब, आप न घबराएँ, कल हजूर की फस्द खोली जाएगी और इन्शा अल्लाह जल्द अपका दिमाग सही हो जाएगा। अब शैतान को सौंपा आपको। जमादार साहब, जरा इनकी देख भाल करना! मियाँ हसन खाँ, भाई हमारे पागल मौलवी को तकलीफ न होने पाए।
यह कह कर जोती परशाद बाहर आए। गाड़ी पर बैठे। खिदमतगार को कोचबक्श पर बिठाया। जमादार और हसन खाँ ने सलाम किया और गाड़ी चली। कोचबक्श से खिदमतगार ने पूछा - हजूर घर चलें ना? फरमाया - सीधे अमीनाबाद चलो। अमीनाबाद में एक दोस्त को साथ लिया और उनसे कुल कार्रवाई बयान की। हँसते-हँसते पेट में बल पड़-पड़ गए। कहा - भई, वल्लाह कमाल किया। मानता हूँ, उस्ताद! मौलवी बेचारे झक मार रहे होंगे। लाहौल-विला कुव्वत! जोती परशाद ने कहा - मुझे सैकड़ों गालियाँ दी, और अरबी में खुदा जाने क्या-क्या पढ़ा। मगर कौन पूछता है! अब एक काम करो। बिलोचपुरे की गढ़ैया है ना? हम मौलवी साहब का मकान बता देंगे।
तुम वहाँ जा कर छोटे मौलवी साहब से सारा माजरा बयान करो। उन दोस्त ने ऐसा ही किया और मौलवी साहब के फर्जन्द पर जो गुजरी वह बयान से बाहर है।
अब लाला जोती परशाद का हाल सुनिए कि ये मौलवी के लड़के को उल्लू बना कर और खुद अलग रह कर रवाना बाशद, तो घर पर आके दम लिया और दोस्त को रास्ते में छोड़ा। घर पर पहुँचे तो गाड़ीवाले को किराया दिया और मकान में गए। वहाँ इनके भाई और यार दोस्त शतरंज खेल रहे थे। जाते ही इन्होंने कहा - अस्सलाम आलेकुम!
ऐं!
क्या खूब!
एक - दूसरे को ताज्जुब की नजर से देखने लगा।
भाई - अरे भाई, कहाँ गए थे?
जोती - मौलवी साहब को एक 'बागो-नुजहतबार' की सैर कराने।
भाई - मौलवी साहब कहाँ हैं?
जो - (मुस्करा कर) आपने सुना नहीं?
शुद गुलामे कि आबेजू आरद, आबेजू आमद-ओ-गुलाम बबुर्द!
(एक गुलाम नहर से पानी लाने गया था। पानी तो आ गया मगर गुलाम नहर ही में रह गया।)
भाई - इसके क्या मानी? - कोई है? जरा कोचमैन को बुला लाओ! ...कोचमैन! अरे मियाँ तुम गाड़ी कब लाए?
को - सरकार, अभी आया।
भाई - और वह लोग सब कहाँ हैं?
को - हजूर, मौलवी साहब तो पागलखाने में बारह रुपए महीने के जमादार हो गए।
भाई - क्या बकता है, सूअर!
को - हाँ सरकार। छोटे सरकार वहीं रहे।
भाई - छोटे सरकार वहीं रहे! और ये कौन खड़े हैं?
को - (ताज्जुब से) ये हजूर कब आए?
भाई - अच्छा, दूर हो यहाँ से! मौलवी साहब कहाँ हैं, जी?
जो - जनाब कहता तो हूँ कि वह उसी बाग में रह गए।
भाई - बाग कौन?
जो - एक कोठी के बाहर जाके ठहरे, और मुझसे कहा - इसमें बड़ा नुजहतबार बाग है। और इन्सान यहाँ आ कर दो-चार दिन रहे, तो बड़ी तफरीह हो। मैं भी खामोश रहा। वह कुछ खुदा की कुदरत ऐसी हुई कि साहब सुपरिंटेंडेंट इनको पागल समझ बैठे।
दोस्त - मौलवी साहब को?
जो - जी हाँ, और नहीं तो क्या मुझको?
1 - सुपरिंटेंडेंट ने मौलवी साहब को पागल बना दिया?
जो - बेशक। वह तो सूरत देखते ही समझ गया। और मुझसे कहा - यह पक्का सिड़ी है। और मौलवी साहब वहाँ अरबी बोलने लगे। बस, उनको और भी यकीन हो गया।
2 - अच्छा फिर क्या हुआ?
जो - होता क्या! जो वर्ताव पागल के साथ किया जाता है, वह किया। इस पर बड़ा कहकहा पड़ा और सब हँसने लगे।
1 - तुम्हें कसम है, जोती परशाद, जो सच न बताओ।
2 - क्या मौलवी साहब को उलटा पागल बनाया?
जो - उलटा की अच्छी कही?
3 - भई तुम्हें इलम की कसम, साफ बताओ कि मौलवी साहब को दीवानागाह में रख आए?
जो - खुलाया यह कि मौलवी साहब सरन-पनाह बहादुर पागलखाने में हैं।
1 - वल्लाह! (बहुत हँस कर) अच्छी हुई!
2 - (बहुत हँस कर) भई, आखिर यह हुआ क्या?
3 - अरे मियाँ, दिल्लगी करते हैं।
जो - खैर दिल्लगी ही सही। अफसोस है कि तुममें से कोई साथ न था। वर्ना वल्लाह, वहीं होता दाखिल दफ्तर!
1 - अब सब मौलवी साहब थोड़ा ही हैं।
2 - हम होते, तो जोती परशाद से हमसे बिगड़ जाती।
जो - घर में बैठे हो, जो चाहे डींग उड़ा लो! मौलवी साहब को जब पागलों के कटहरे में बंद किया है, तो सैकड़ों गालियाँ दीं। साहब हमसे पूछें, क्या बोलता है? तो मैं कहूँ, कहता है कि इसका बाप भी सिड़ी था। और साहब सुपरिंटेंडेंट यह सुनके कहें कि -ओ! यह पुश्तैनी सिड़ी है। और जब मौलवी साहब झल्लाएँ, तो साहब कहें - वल, जमादार, इस पागल से चौकसी रखना।
इस पर कहकहा पड़ा; और इस जोर से आवाज बुलंद हुई कि उनके चचा को बहुत नागवार मालूम हुआ, कि लड़का तो आज पागलखाने भेजा गया और ये अफसोस करने के बजाय कहकहे लगा रहे हैं।
चचा - (खिदमतगार से) ये आज कहकहे क्यों पड़ रहें हैं?
खि - लाला छोटे भैया तो चले आए।
च - (अचंभे से) कौन? जोती परशाद?
खि - जी हाँ।
च - (कमरे का दरवाजा कोठे पर से खोल कर) जोती परशाद!
जो - आदाब अर्ज करता हूँ, किबलओ-काबा!
1 - जनाब आपको तकलीफ तो जरूर होगी, मगर जरा यहाँ आइए।
च - अच्छा, और मौलवी साहब कहाँ हैं?
1 - हजूर यहाँ तशरीफ लाएँ तो सब हाल बयान हो!
च - (कोठे से उतर कर) मौलवी साहब कहाँ हैं?
भाई - पागलखाने में।
च - अजी नहीं; बताओ तो!
भाई - यही कहते हैं कि पागलखाने में रह गए।
च - हमारी कुछ समझ में नहीं आता। आखिर साफ-साफ क्यों नहीं बताते!
भाई - बोलो, भई जोती परशाद!
जो - जोती परशाद ने तो एक दफा कह दिया कि-
शुद गुलामे कि आबे-जू आरद,
आबे-जू आमद-ओ गुलाम बबुर्द!
च - मालूम होता है, मोलाना पर कोई चकमा चल गया!
भाई - हाँ, है कुछ ऐसा ही।
1 - यह तो कहते हैं कि साहब ने पागलों की एक बारक में मौलवी साहब को भी कोठरी में बंद कर दिया, और वह झल्लाए और गालियाँ देने लगे तो साहब को और भी यकीन हो गया और जमादार से कहा - इस पागल की बड़ी चौकसी करना।
2- (हँसते हुए) - लाहौत बिला कुव्वत!
च - क्यों जी, जोती परशाद?
जो - है तो ऐसा ही जनाब वाला!
च - मौलवी साहब क्यों कर पागल बनाए गए?
जो - हुआ यह कि मौलवी साहब ने पागलखाने के पास बग्घी रोकी और मुझसे कहा कि इसमें एक नुजहतबार बाग है और इस काबिल है कि इन्सान दो घड़ी दिल बहलाए, और इसमें मलकाय-मलकाते-आलम हजूर शहंशाह बेगम तशरीफ लाती थीं।
इस जुमले पर सब हँस पड़े।
जो - और मैने कहा, मैं अभी आता हूँ। यह कह कर मैंने साहब सुपरिंटेंडेंट के पास चुपके से कार्ड भेजा। उन्होंने बुला लिया। टोपी उतार कर हाथ मिलाया, और कुरसी पर बैठे।
च - और मौलवी साहब अब कहाँ हैं?
जो - जी, वह गाड़ी पर बैठे हैं।
भाई - उनको यह खबर ही नहीं कि तुम कहाँ हो!
जो - बिलकुल नहीं। मैंने कहा, मैं एक पागल को साथ लाया हूँ।
च - अच्छी हुई।
जो - साहब ने कहा, बुलाइए। मैंने कहा, वह इस किस्म का पागल है कि सबको पागल समझता है।
इस पर फिर बड़ा कहकहा पड़ा।
जो - मौलवी साहब बुलाए गए। मुझे जो साहेब के पास बैठे देखा तो मुस्कराए और कहा - आप पहले ही से डट गए? मैंने अपने दिल में कहा - घड़ी-दो में मुरलिया बाजेगी। साहब से कहा - कुछ आपसे अर्ज करना है। साहब ने मुस्करा कर अलैहदा ले जा कर कहा - कहिए। कहा। हजूर यह एक रईसजादा है, मगर पागल हो गया है, और साहब मजिस्ट्रेट का खत भी हजूर के नाम दिया है। खत ढूँढ़ने लगे। वह वहाँ कहाँ?
च - क्यों? खत तो उन्हीं के पास था।
भाई - खत तो मौलवी साहब को दे दिया था।
जो - वह मैंने जेब ही से निकाल लिया।
इस पर और कहकहा पड़ा।
च - ओफ्फोह! तो मौलवी बेचारे बन ही गए।
1 - मारे हँसी के बुरा हाल है।
2 - भई यह तो वल्लाह काबिल-दर्ज नावेल है!
3 - जरूर, वल्लाह इसी काबिल है।
4 - वह खत साहब की मेज पर था, और वह पढ़ चुके थे।
भाई - और इधर तुम जड़ ही चुके थे, कि सबको पागल समझता है।
जो - जी हाँ। जैसे ही मौलवी साहब ने कहा, यह पागल है, साहब मुस्कराने लगे।
गरजे कि कुल हाल मौलवी साहब की परेशानी और मुसीबत का कह सुनाया, और सुननेवालों की यह कैफियत थी कि मारे हँसी के पेट में बल पड़-पड़ गए। जब मौलवी साहब को कमरे में छोड़के बाहर आए और उनके आते ही जमादार ने ताला डाल दिया और मौलवी साहब कुरान की आयतें पढ़ने लगे, तो इस कदर कहकहा पड़ा कि कान पड़ी आवाज नहीं सुनाई देती थी।
जो - एक बार फरमाया - जनाब, इस नहीफ को तो अब्बल मुकद्दमए-जनून यानी कुतरफब यानी कुतरफब भी नहीं हुआ।
जिसने सुना लोट गया, और देर तक हँसी रही।
1 - भई वल्लाह, मौलवी साहब खूब बने।
2 - बस पूरे बन गए।
3 - क्या वाकई अभी पागलखाने ही में हैं?
जो - आपका भी नाम लिख लीजिए।
च - हाँ साहब, फिर।
जो - फिर मौलवी साहब ने फरमाया कि बंदा हाफिज मुल्ला अलवारुलहक साहब सब्जवारी का जिला रुबा-साहब बार-बार पूछें, कि अब क्या बोलता हैं? मैंने कहा - हजूर अपने वालिद को बुरा-भला कहता है। कभी कहा करता है कि उसका नाना भी इसी पागलखाने में भरा था।
बड़ा कहकहा पड़ा।
1 - आखिर हुआ क्या?
जो - वहीं बंद हैं।
2 - और साहब सुपरिंटेंडेंट को फौरन यकीन हुआ कि पागल है?
जो - कमरे को सर पर उठा लिया। पागल सब जोश में आ गए। और एक पागल ने गुल मचा कर कहा - ओ सरकसवाला! इस भालू को छोड़ दे, हम उससे लड़ेगा!
च - सरकसवाला कौन?
जो - जमादार को सरकसवाला समझा।
च - और भालू कौन?
जो - जनाब मौलवी साहब को समझा।
इस पर और भी जोर से कहकहा पड़ा, और तमाम मकान गूँज उठा।
1 - पागलखाना देखने के काबिल चीज है,
2 - भई किसी तरकीब से चलना चाहिए।
3 - लाला जोती परशाद साहब के साथ जाय।
इस पर भी कहकहा पड़ा।
च - हमको रंज होता है कि मौलवी साहब खाहनकाही धर लिए गए।
भाई - खुदा जाने, बिचारे का क्या हाल होगा!
जो - हाल? सीखचे तोड़े डालते थे। और साहब कहें कि वल, हम उसकी आँख से पहचान गया कि पागल है। मैंने कहा, क्यों नहीं। आपने हजारों ही पागल चंगे किए हैं, एक दो की कौन कहे। खुश हो गए। और जब मौलवी साहब के फिकरे मैं दोहराऊँ तो मौलाना बोटियाँ बस नोच-नोच लें। मैंने कहा - मौलवी साहब! क्या नुजहतबार बाग है। और वह दाँत पीसके रह जायँ। और मेरी इस छेड़ और उनके बिगड़ने से सबको और भी यकीन हो गया कि मौलवी पागल है, और मुझे अपना दुश्मन समझता है और मुझते जलता है।
1 - कायदा होता है कि सिड़ी, एक न एक को अपना जानी दुश्मन समझता है।
2 - भई, दिल्लगी काबिलदीद है।
3 - अब मौलवी साहब के छुड़ाने की भी कोई तरकीब है?
1 - हमसे कहो, हम चले जायँ इसी वक्त?
च - अब इस वक्त कुछ नहीं हो सकता।
भाई - लाहौल विला कुव्वत! तीन कोस जमीन जाना तीन कोस आना। फिर वहाँ इस वक्त किसको जगाएँगे। कोई बात भी है।
जो - सुबह को फिक्र की जायगी।
भाई - (मुस्करा कर) लाहौल विला।
जो - एक और भी दिल्लगी हुई है।
भाई - वह क्या?
च - वह क्या, भई?
जो - न बताएँगे। घड़ी-दो में मुरलिया बाजेगी।
च - कल सवेरे मालूम हो जायगी। शायद आज ही मालूम हो जाय।
भाई - दिल्लगी की बात है?
जो - खुलासा इतना कहे देता हूँ कि मौलवी साहब को गोरे पकड़ ले गए।
दूसरे दिन मौलवी साहब का खत, नज्म में लिखा हुआ, लास जोती परशाद के चचा के नाम आया (खत और अर्जी वगैरह नज्म में लिखने का कायदा जो नवाबी जमाने में आम था, बहुत बाद तक चलता रहा।) जिसका थोड़ा-सा हिस्सा यहाँ दिया जाता है -
बाद तसलीमों-बंदगी ओ-सलाम
ब-शुमा मी रसानद ई पैगाम।*
(आप को यह पैगाम भेजता हूँ।)
कज इनायाते-जोतीए परशाद -
पागल! पागल! मुबारकबाद!*
(जोती परशाद साहब की इनायतों से मैं अब 'पागल' ही हूँ।)
डर खुदा से जो कारे-बद तू कर,
औ न कर, तो भी तू खुदा से डर।
मुझ-सा अल्लामा और मुजस्तीख्वाँ,
मेरा सा फलसफी, उलूम की जाँ*, (विद्वानों में अग्रणी)
मगर अज दस्ते-चर्खें-दू परबर* (यानी, आसमान की गर्दिश से।)
हो गया पागलों से भी बदतर...
हैं दरोगा यहाँ के जो अंग्रेज,
करते हैं पागलों में वह भी गुरेज* (पागलों के से काम करते हैं।)
अक्ल पर उनके हैं पड़े पत्थर
उल्लू का पट्ठा है - नहीं यह बशर
आदमीयत से क्या उसे सरोकार
वक्कना! रब्बना! अजाबुन्नार!* (उस पर खुदा का कहर और आग!)
जाने अल्लाह, क्या मैं बकता हूँ,
मौत की राह कबसे तकता हूँ -
कैद कब तक रहूँ, खुदा जाने
हाले आयंदा कोई क्या जाने
मुश्किल आसाँ करो खुद के लिए
मेरे काम आओ, किब्रिया के लिए!
यह सब पढ़ कर जोती परशाद के चचा ने मौलवी साहब के छोटे लड़के को बुलवाया, और कुल हाल कह सुनाया, और कहा - और कहा - दो-चार पागलपन की हरकतों के सबब से वह बेचारे पागलखाने भेज दिए गए। चलो, चलके उनके छुड़ाने की कोशिश करें।
मौलवी साहब के लड़के को पहले यकीन नहीं आया। कहा - आपने तो बाराबंकी भेजा है। चचा ने जवाब दिया - जी नहीं, बाराबंकी नहीं भेजा है। उस वक्त तुमसे कहना मुनासिब नहीं समझा। मगर घबराओ नहीं। उनको छुड़ा लाएँगे। लड़का आँखों में आँसू ले आया, और थोड़ी देर के बाद मौलवी साहब के जीते-जी उनका हाल-चाल दर्याफ्त करने के लिए जोती परशाद के चचा और मौलवी साहब के साहबजादे पागलखाने गए। मगर जमादार ने अंदर नहीं जाने दिया।
कहा - हमको हुक्म नहीं है कि बिला खास इजाजत के किसी को भी अंदर जाने दें! इन्होंने बहुत इसरार किया कि मौलवी साहब को देखना चाहते हैं, मगर उसने एक न मानी। छोटे मौलवी साहब ने पूछा - क्या सचमुच पागल ही हो गए!
उसने कहा - और झूठ-मूठ के पागल कैसे हुआ करते हैं जनाब? मौलवी साहब तो और सब पागलों से ज्यादा नंबर लिए हुए हैं!
छोटे मौलवी साहब रोने लगे।
जोती परशाद के चचा ने जमादार को अलैहदा ले जा कर कहा - अगर कुछ इनाम की जरूरत हो तो ये दो रुपए हाजिर हैं।
उसने जवाब दिया - कि जनाब, इन दो रुपयों की लालच दे कर क्यों मेरी रोटियों के दुश्मन हुए हैं? मुझे हुक्म ही नहीं है। मैं मजबूर हूँ।
लाचार वहीं से खाली हाथ आए, और इसके बाद कई दिन बाद दौड़-धूप करके, बड़ी मुसीबतों के बाद, मौलवी साहब को पागलों की मजलिस से नजात दिलवाई। बाहर आते ही जोती परशाद के चचा से लिपट गए। लड़के से मिले। दोनों ढाड़ें मार-मारके रोए। इतने में एक सिपाही इनाम तलब करने लगा। और मौलवी साहब के आग लग गई। कहा -
बजा इरशाद हुआ! ऐसा ही बड़ा इनाम का काम आपने किया है ना?
गाड़ी पर सवार हो कर चले। रास्ते में अपनी मुसीबत का हाल बयान किया। मगर उनकी बातों से मालूम हुआ कि ये वाकई अपने आप को अस्ल में पागल ही समझने लगे थे।
मौलवी - खुदाय-जिल्शाना को यही मंजूर था!
चचा - अब इसका जरा भी खयाल न फरमाइए!
लड़का - अब्बा, यह वही मसल है कि - कर तो डर, और न कर तो खुदा के गजब से डर! वल्लाहलम, किस गुनाह के पादाश में यह सजा मिली, अफसोस!
मौलवी - कोई अपना, न पराया। तोबा, तोबा।
चचा - हम लोग तड़पते थे, जैसे पानी के बाहर मछली।
मौलवी - क्या शक है! लारैब-फीः!
लड़का - बड़े जद्दो-जहद किए। बहरकैफ, यही शुक्र है कि सूरत तो देखी!
मौ - कभी-कभी तो तबीअत का रुझान खुदकुशी की तरफ होता था मगर फिर अल्लाह की तरफ से कोई मना करता था। और मैं बाज आता था।
चचा - खुदा हर आफत से बचाए! खैर, अब जो हुआ सो हुआ! बजुज अफसोस से के और क्या हो सकता है?
कई रोज तक मौलवी साहब ने अपने घरवालों और दोस्तों से पागलखाने के हालात बयान किए, और जरा भी किसी दिन लाला जोती परशाद की शिकायत न की, क्योंकि परेशानी और रंज के सबब से दिमाग बिलकुल सही न था, और भूले हुए थे। लाला जोती परशाद के बारे में कई बार दरियाफ्त किया कि उनसे मुलाकात नहीं हुई। लोगों ने कहा - वह कहीं सैर और तफरीह के लिए गए हैं। मौलवी साहब ने घर से निकलना हमेशा के लिए छोड़ दिया।