हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्में / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
हृषिकेश मुखर्जी की बहुत फ़िल्में लड़कपन में देखी थीं। संयोग से कई वर्षों के बाद इधर फिर देखना हुआ। एक टीस के जैसी गहरी भावना उमगी। अतीत-मोह का मीठा शोक और उसके दु:ख का वैभव अस्थियों में गूंज उठा। एक सुरुचिपूर्ण विषाद, जिसके अन्वेष में हृदय हिरन की तरह भटकता है। उन फ़िल्मों में ऐसी सरलता थी, ऐसा भोलापन कि मेरा मन उनमें गुंथ गया। कच्चे घड़े-सा दरक गया। अपने इस लोक में फिर लौट आने का दिल नहीं हुआ, जैसे कंकालों के देशकाल में! फ़िल्म समाप्त हुई तो चौंककर जागा। वह स्वप्न सुघड़ था। वह ख़त्म क्यूं कर हो गया?
क्या सच में ही वह फ़िल्में इतनी सुंदर थीं या यह मेरा विलाप से भरा मन था, जो उनके रचाव में मंज गया। लड़कपन में कितनी तो बार देखी थीं। संवाद रट गए थे। फिर अभी ऐसे क्यूं उन पर रीझा हूं। उम्र चीज़ों में एक परिप्रेक्ष्य भर देती है, यह सच है। तजुर्बों से पका दिल सार को और गम्भीरता से गहता है। तब क्या एक जी चुके जीवन को फिर से जीना होगा कि जान सकूं जिसे पहले कच्चे मन से जिया था, उसमें क्या कुछ खो गया था? फिर से प्रेम और दु:ख और कोमलता और शोक के अनगिन रेखाचित्र?
राजेश खन्ना मुझे इतना प्रिय और आत्मीय पहले कभी नहीं हुआ था। स्त्री को रिझाने वाला मीठा मन तो उसके पास सदैव से था किंतु हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्मों में वह एक और ही आलोक में दीखता है। उसके अभिनय की कोमल भावना दिल में भर गई। वो मन का मित्र मालूम हुआ! ख़ूब रोने को दिल होता रहा। देरी तक गाने गुनगुनाता रहा। उनको सोचता रहा। फिर हठात ही लौटकर स्वयं पर आ गया, जैसे कोई मृत्यु से जीवन में लौटता हो।
ईश्वर ने फ़रवरी का महीना विलाप करने के लिए बनाया है। सुख में भी शोक का पार्श्वसंगीत होता है। कृति को तब इतना प्रगल्भ होना चाहिए कि वह संगीत उसमें बज सके। मैंने पाया कि उन फ़िल्मों में यह सम्भव हो पाया था। उन्होंने उसके लिए जगह बनाई। और उन्होंने मेरे भीतर जगह पाई! यह उम्र थी या मन ही ऐसा था? पाने और खोने और कभी ना खोकर कभी ना पाने की भावनाएं! क्या वो समुद्र फिर सम्भव नहीं हो सकता? क्या संध्या के वो किनारे नहीं? क्या फिर से मरा नहीं जा सकता? जो अधूरा जिया, उसे तो रेत पर चलकर लौटना ही होगा? क्या फिर से लौटना सम्भव नहीं?