कल्पतरु / सुशोभित

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कल्पतरु
सुशोभित


रुचिकर गद्य की पोथी

इस पुस्तक में कोमल, सजल और आत्मीय गद्य है। अपनी प्रकृति में यह मेरी पूर्व में आई पुस्तक 'सुनो बकुल' के निकट है। किंतु बकुल में जहाँ देश था, वहीं इसमें देश के साथ ही देशान्तर भी है। इतने स्वर हैं कि एक नन्हा-सा विश्वकोश कह लीजिये। ललित लेख और रम्य रचना, वृत्तान्त और स्फुट-चेष्टा, आत्मकथ्य और वस्तुनिष्ठ पर्यवेक्षण- यानी अंत:प्रक्रियाओं के नानारूपों में नित्य-गति है इसकी। कल्पतरु शीर्षक इसलिए कि जैसे कल्पवृक्ष से जो मांगो मिलता है, इस पुस्तक में भी वो महत्तम वरदान हैं जो भाषा में मुझसे अपने सुधी पाठकों के लिए सम्भव हो सकते थे। कह लीजिये कि इस पुस्तक में वृत्तान्तकार एक वृक्ष बन गया है! जो मित्र अच्छा, सुरुचिपूर्ण, परिष्कृत गद्य पढ़ना पसंद करते हैं, उनके लिए तो यह उत्सव है, उपहार है। अपने साधु-स्वभाव, परिनिष्ठित शिल्प और सुंदर रूप के कारण यह पुस्तक मुझको प्रियकर हो चली है और विश्वास है कि मेरी समस्त कृतियों में- कालान्तर में- इस कल्पवृक्ष को एक विशिष्ट स्थान मिलेगा।

शुभमस्तु।

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