ठीक-बेठीक / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
मृत्यु जीवन के अकाट्य नियमों को केवल निरस्त करती है, उन्हें बदलती नहीं। और निरस्त भी वह तभी करती है, जब जीवन का अंत हो जाता है और, अगर ऐसा कह सकना सम्भव हो तो, मृत्यु का आरम्भ।
यह ठीक वैसे ही है, जैसे आप एक देश से निर्वासित होकर दूसरे में जाएं और सीमा लांघते ही आप पर दूसरे देश के क़ायदे-क़ानून लागू हो जाएं। किंतु जिस देश से आप आए हैं, वहां पर अब भी पुराने क़ानून प्रभावी हैं और जब तक आप उस देश में थे, उन क़ानूनों के अधीन थे।
मौत के साथ मुश्किल यही है कि उसके होने से हमें ज़िंदगी में कोई राहत या रियायत नहीं मिलती।
अकसर साधुभाव से कहा जाता है कि मृत्यु के बाद सब यहीं धरा रह जाएगा, तो आपाधापी का क्या मोल। किंतु सच यही है कि यह जानते हुए भी कि मृत्यु के बाद सब धरा रह जाएगा, आपको जीवन में दौड़ना होता है, क्योंकि जीवन के नियम अनुल्लंघ्य और अकाट्य हैं। जीवन की शर्तें पूरी करने का कोई विकल्प नहीं। यह आपको करना ही होगा।
जिनमें मृत्यु का बोध नहीं है, वे अपनी धुन में जीवन के अपयश में धंसे रहते हैं। जिनमें मृत्यु का बोध है, वे मन मारकर यह हारी होड़ लगाते हैं। किंतु जो भी जीवित है, वह मृत्यु का संदर्भ सामने प्रस्तुत कर जीवन से बच नहीं सकता।
बहुत सम्भव है, हममें से कोई कल का सूरज ना देखे। किंतु हममें से किसी को अभी यह पता नहीं है। और हमें रोज़ की तरह काम पर जाना ही होगा। एक चुटकुला है, जो कहता है, अगर मुझे मृत्यु आना ही है तो सुबह-सवेरे आ जाए, ताकि मैं दफ़्तर जाकर एक दिन का काम करने से बच जाऊं, जिसका यों भी कोई मतलब अब नहीं रह जाना था। सांझ ढले काम करके घर लौटूंगा और मर जाऊंगा तो एक आख़िरी दिन भी अकारथ चला जाएगा।
बात केवल परिहास की नहीं, मैंने सच में ही लोगों को पूरा दिन मन लगाकर काम करने के बाद रात होते-होते मर जाते देखा है। किंतु सच कहूं तो अगर उन्हें सुबह ही ख़बर कर दी जाती कि यह अंतिम दिन है, तो वे भले उस दिन दफ़्तर से छुट्टी ले लेते, किंतु मृत्यु की प्रतीक्षा की यातना उन्हें धरती पर अपना यह अंतिम दिन संतोष से जीने नहीं देती।
दोस्तोयेव्स्की ने कहा था, किसी को मारना इतना बुरा नहीं है, जितना कि किसी को मृत्युदंड देकर समारोहपूर्वक मारना, क्योंकि तब वो जानता है कि उसे मारा जा रहा है। और मारे जाने की चेतना मृत्यु से कम दु:खदायी नहीं होती। सामूहिक रूप से किए जाने वाले पशुवध के विरोध में एक बड़ा तर्क यह भी है, किंतु कोई सुने तब ना।
जीवन इसलिए दु:ख नहीं है कि वह दु:खदायी है। जीवन इसलिए दु:ख है कि यह जानते हुए भी कि एक दिन मृत्यु निश्चित है, आपको कोई छूट जीवन के नियमों से नहीं मिलती। जो जीवन में परास्त होता है, वह कुंठा से भर जाता है। जो जीवन में जीतता है, वह मृत्यु के सामने हथियार डाल देता है। मृत्यु निश्चित है, किंतु कौन जाने आज या कल या परसों तक हममें से सभी जीवित रह जाएं, शायद अगले साल तक, शायद अगले पचास साल तक? ज़ुराबें चढ़ाने, तस्में बांधने, कमीज़ की कॉलर पर इस्तरी करने, चलने, दौड़ने, लौटने, और रोज़ कुंआ खोदकर रोज़ पानी पीने से मुक्ति तो तब भी नहीं मिलने वाली, बंधु।
वो कहते हैं ना- "एक दिन मर जाओगे, सब ठीक हो जाएगा।" इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं निकालियेगा कि तब क्यों ना आज ही सब कुछ ठीक कर लें। सब ठीक तभी होगा, जिस दिन मर जाओगे। और जब तक जी रहे हो, सब बेठीक ही रहने वाला है।