मन में प्रतिमा / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
मन में जो प्रतिमा हो, उसकी रक्षा करने स्वयं के विरुद्ध भी जाना होता है।
वैसा नहीं है कि सच को उघाड़ा नहीं जा सकता। वैसा भी नहीं कि आत्मवंचना की कोई विवशता ही ठहरी। या प्रत्यक्ष में उसका कोई लाभ ही है! किंतु कभी-कभी कोई सम्पृक्ति इतनी गहरी हो जाती है कि आप हरसम्भव उसकी रक्षा करते हैं। कि एक वह रूप भी नष्ट हो गया तो क्या शेष रह जाएगा?
प्रेम की एक व्याख्या यह है कि- संसार और प्रेम के बीच तक़रार में भरसक प्रेम का साथ दो। यह एक अर्थ में अपना साथ देना भी है, यह एक दूसरे अर्थ में अपने से लड़ाई करना भी है। अपने से लड़ाई इसलिए कि युक्तिसम्मत संसार मेरे भीतर गहरे पैठ गया है, वो मेरे विवेक का सारथी है! अपना साथ इसलिए कि चाहकर भी संसार इतने भीतर नहीं आ सकेगा कि मुझी को अपदस्थ कर दे।
और जहां संसार प्रवेश नहीं करता, अंतःकरण के उन्हीं कोनों-अंतरों में तो वह प्रतिमा विराजी है। उसके सिराने की कोई तिथि नहीं, मन में भले मावस हो, उसकी लौ-लपट बुझती नहीं।
सच बोलकर भला कब कौन प्यार कर सकता है? ख़ुद से हज़ार झूठ भलीभांति बूझकर बोलने और जागी आंखों से हज़ार सपने भलीभांति जानकर देखने का आत्मनाश भी मन को बांधे रखने का उद्यम है।
जो सोचते हैं कि स्वयं को अनभिज्ञ रखने का वैसा सचेत सुविज्ञ चयन सर्वनाश है, उनको एक बार उस मृत्यु का साक्षात करना चाहिए, जो प्यार को नष्ट करने पर हमारी आत्मा में अनुभूत होती है! और आत्मघात तो वो भी नहीं करता, अपनी आत्मीयता की रक्षा करने जो जीवनपर्यन्त खटता है!
वो कौन सा गीत है--
"अपना मन / छलने वालों को / चैन कहां! "