मन में रखना / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
बोल देने की ललक बीज जैसी होती है, सुनने वाले कान मिल जाएं तो यही बीज से बरगद बन जाती है. पर इतने असंख्य शब्द लिख-बोल लेने के बाद मेरा तजुर्बा ये कहता है कि शायद कुछ नहीं कहना ही बेहतर. या हर किसी से हर कुछ कहना ठीक नहीं. कहना भी तो सीधे नहीं कहना. बात के दिल में रस्ते की एक करवट रख देना, नदी की एक बांक, जिससे पूरा मंज़र ना दीखता हो. एक ओट बनी रहती हो!
यह कठिन है. कहने से मुक्ति मिलती है. किंतु जो कह दिया, वह बहुत बांधता भी है. हज़ार अर्थों में सम्प्रेषित भी होता है. भाँति भाँति के रूप लेता है. वह बहुरुपिया है. मन में रख लो तो वहां भी यक़सां तो नहीं रहता, पर तब वो मन का मोती है, जंगल का मोर है, किसने देखा है? एक मीठा रहस्य बनकर हृदय में रहता है.
फिर, बोलने से कुछ बदलता भी तो नहीं. मन हलका हुआ है, यों लगता ज़रूर है, पर वह भी कहां होता है. बोलना मायावी है. बोली बात में बायोस्कोप से ज़्यादा चित्र रहते हैं. सभी ने बोलना है और फ़ौरन बोलना है. एक पूरी सदी जीकर मर गई, जो मन में रखती थी, भीतर ही भीतर घुटती थी. फिर उससे अकुलाकर दूसरी सदी आई, जिसने सब ज़ाहिर कर देना है, कुछ बचाके नहीं रखना. बड़बोला ज़माना!
ये दो सदियां हैं. मैं दो सदियां जीया हूँ. उम्रदराज़ हूँ, सयाना हूँ. चुप रह जाना ही बेहतर. यह सबक़ भी बहुत बोलके ही सीखा है. वो होता है ना- मन में रखने वाला ग़ून्ना. चुप-चतुर. कोई पूछे तो मुस्कराकर टाल देने वाला. कोई उलाहना दे तो चुपचाप सुन लेने वाला. कठोर खोल वाला- कच्छप!
जीवन में इतनी परीक्षाएं हैं, एक और सही. इतने सबक़ हैं, एक और. दूसरी विपदाओं से यह तब भी सहल है. रक्षा करता है. मन में चैन बना रखता है.
जिसको सुकून चाहिए, उसके लिए ये नुस्ख़ा काम का है. जिसको नहीं चाहिए, उसका क्या?
उसको नहीं चाहिए!