मन की गतियां / कल्पतरु / सुशोभित

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मन की गतियां
सुशोभित


मन की गतियों का ठौर नहीं।

जहां बंध जाए, वहां गुण खोजता है। जहां से उखड़ जाए, उसी के गुण फिर उसको खटकते हैं! तब वो चाहता है कहीं जाके मन की वो परख ही हेरा आए, जो गुणों को चीन्हती।

जब दु:ख में हो तो अचल हो जाता है। दु:ख शब्दों में मौन भर देता है। मौन मन को बड़े विकल रूप से सुंदर बनाता है। जब सुख में हो तो हुलसता है। तपाक से बढ़ता है। औरों तक चलकर जाता है। मेले में मिल गए विद्वेषी से हाथ मिला आता है। फिर एकान्त में ख़ुद को कोसता है कि मैं भी कैसा अधीर।

जब उद्वेग में हो, तो बड़ी देर क्लान्त रहता है। लड़ने को अकुलाता है। माने नहीं मानता। उलटे मनाए जाने पर बिगड़ता है। जिस सबको बड़े मनोयोग से संजोया था, उसी को फिर एक दिन नष्ट कर डालता है। फिर इस सर्वनाश पर ऐंठी भावना लेकर इठलाता है।

स्नेह मिले तो चुराता है बदन।

गिरह खोल नहीं आता। गुत्थी बूझ नहीं पाता। स्वयं से लड़ता, हारता है। इस एक जीवन में और कितने कोस, और कितने धाम, यही सोच दुबलाता है।

मन बहुत ही दुरंगी है।

और अपने सिवा उसका कोई संगी भी तो नहीं।