ज्वर हुआ / कल्पतरु / सुशोभित

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ज्वर हुआ
सुशोभित


ज्वर हुआ। तीन दिन तक देह को मथता रहा। तीन दिन देह मलिन रही। यों स्नान तो प्रतिदिन ही किया। किंतु हर बार की भांति दवाई लेने की जल्दी नहीं की। कष्ट सहा। गर्म जल पिया। सुपाच्य भोजन लिया। रात्रि को स्वाध्याय नहीं किया। जल्दी सोया। देह को विश्रांति मिली तो नीरोग हुई। वाक् में प्राण झरता है, किंतु उसका संयम नहीं रख सका। फ़ोन पर लम्बी वार्ता कर बैठा। फिर पीछे पछताया।

ज्वर में हठ नहीं था। कदाचित् इसीलिए तीन दिन में छूट गया। नियम-संयम से ही बात बन गई, दवाई नहीं लेना पड़ी। दूध में हल्दी मिलाकर पी लिया। उस वैष्णवी के रूप को निहारकर आशीष दिया। कंठ अवश्य मंद्रसप्तक में मंज गया। स्वर भारी हो गया। किंतु देह में पूर्व की अवस्था चली आई। तो संतोष हुआ।

जब तक देह में बल है, वह स्वयं का उपाय कर ही लेगी। जब बल न होगा, तब किसी आलम्बन पर टिकेगी। जब प्राण ही चुक जाएगा, तो फिर कहां रहेगी? अभी तो अपनी अवस्था में लौटी है, सदैव थोड़े ना लौटेगी। अभी का यह सुख है। किंतु एक दिन तो उसे अलग होना है। उसी दिन की उद्भावना करता हूं।

तीन दिन से गांधी नहीं पढ़ा। पुस्तक खुली रही, किंतु चित्त नहीं जुड़ा। नदी बहती रही, निर्मल नहीं हुआ। अद्वैत आश्रम की पुस्तक खोलकर परमहंसदेव के चित्र देखता रहा। ठाकुर के वृत्तांत पढ़े। देखा कि उस देह में भी रोग-शोक थे किंतु वह देह तो उत्सव थी। जैसे देह नहीं अग्निशलाका हो। जैसे हृदय में दीपक जलता हो। बराबर एक लौ थी। उसी से परमहंसदेव इतने आत्मविभोर हो रहे थे।

और एक मैं था : शीत से शुष्क और निरुपाय। तीन दिन का रोग छूटा तो देह में लौट आया। किंतु देह मेरी कहां थी? देह से अधिक असम्भव क्या? देह है गेह नहीं जो छूटेगा नहीं। तब गेह भला कहां है?