स्वर्णनगरी / कल्पतरु / सुशोभित

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स्वर्णनगरी
सुशोभित


श्रीरामकृष्ण ने सबसे पहले नौका से वाराणसी में प्रवेश किया था। प्रवेश करते ही भावनेत्रों से देखा कि यह नगरी तो स्वर्णनिर्मित है, इसमें मिट्‌टी-पत्थर का पूर्ण अभाव है। वह प्रसंग सुनकर मैं सोचने लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि भावराशि ही सुवर्ण होती है, क्योंकि मुझको तो काशी में जल और घाट, मार्ग और चौराहे ही दिखते हैं? तब वैसी सुवर्ण दृष्टि कैसे मिले?

वह मिलना फिर सरल नहीं। एक जीवन की यह सिद्धि नहीं। परमहंसदेव को प्रथम दिव्योन्माद आकाश में बगुलों की पांत देखकर हुआ था। दूसरा दिव्योन्माद रानी रासमणि के देहत्याग के बाद, जब वे भैरवी ब्राह्मणी से तंत्र-साधना सीख रहे थे। दक्षिणेश्वर में उनको चिन्मयी-मूर्ति का दिव्य-दर्शन हुआ था। केदारनाथ में सोने की अन्नपूर्णा दिखीं। बिश्नुपुर में कटि तक मृण्मयी देवी के दर्शन हुए। कलकत्ते में यदु मल्लिक के निवास पर टूटे घर में भी सिंहवाहिनी का मुखमण्डल प्रदीप्त था।

वृन्दावन में सब तरफ़ श्रीकृष्ण दिखलाई दिए थे। कामारपुकुर से शिहोड़ के रास्ते में तप्तकांचन वर्ण के दो सुंदर बालकों में निमाई और निताई दिखे। श्रीचैतन्य की प्रेरणा साकार हुई। यह प्रतीति भी मिली कि वास्तविक नवद्वीप तो अब बालुकामय तट के नीचे दब गया है। नौबतख़ाने में एक चौदह वर्ष की कन्या में उनको जगदम्बा की उद्दीपना हुई। बकुलतला घाट पर तो एक गणिका में माता जानकी दिखलाई दी। कलकत्ते के क़िला-मैदान में एक यूरोपियन बालक त्रिभंग मुद्रा में दिखा तो श्रीकृष्ण की उद्दीपना हुई। चिड़ियाख़ाना में सिंह को देखकर लौट आए। फिर आगे नहीं बढ़े। कहा जगदम्बा का वाहन देख लिया, अब क्या देखना है? पूजा के फूल लेने गए तो रिक्त हाथों लौट आए। कहा कि फूल के गुच्छे वृक्ष पर यों सजे थे, जैसे विराट् की वन्दना कर रहे हों। फिर फूल कैसे तोड़ें?

वैसे कण-कण में दिव्य-दर्शन कौन करता है?

परमहंसदेव की भावसमाधि दूर-दिगन्त तक विख्यात थीं। निमिषभर में उन्हें उद्दीपना होती, सत्वर ही दूसरे लोक में चले जाते। आंखें मुंद जातीं। ईष्ट का नामोल्लेख भर ही इसके लिए पर्याप्त था। और भारत में तो घाट-घाट पर देवस्थान हैं, व्यक्ति-व्यक्ति के नाम में देवता का आभरण है। सकल विश्व और सर्वभूतों में ही जब दैवी दर्शन हो तो फिर कोई विकल्प नहीं रह जाता। फिर परमहंसदेव तो सर्वपंथी थे।

भारतभूमि के इतने सिद्धपुरुषों में ऐसा भाव-वत्सल कोई दूसरा ना हुआ। वैसा आनंद-गह्वर हृदय ईश्वर ने किसी और को ना दिया। मैं तो निरीश्वरवादी हूं, किंतु निरा भौतिकवादी ठूंठ भी नहीं। निसर्ग में एक महान प्रयोजन दिखता तो है। वह प्रयोजन मनुष्य की मेधा को समझ आ सके, वैसा नहीं है। गुणातीत है। मैं उसी के आश्चर्य में रहता हूं। निर्गुणोपासक कह लीजिए। उपासना की मेरी रीति अबोध विस्मय है।

परमहंसदेव जिस भाव में रहते थे, उसे समझने का यत्न करता हूं। मन ही मन उसकी वन्दना ही कर पाता हूं।

फिर सोचता हूं कि काशी स्वर्णनगरी हो न हो, भावराशि तो निश्चय ही सुवर्ण होती है। भाव में खोट नहीं होती। तब सोने का वह हंस भीतर कहां है, जो बाहर के लोक में भी कंचन और कुंदन ही देखता है, मोती ही चुगता है? इस भावदृष्टि से उस भाववस्तु का कोई तो मेल होगा। नहीं तो मुझी को काशीपुरी में ईंट-गारा क्यूं दिखता, मुझको क्यों नहीं दिखती वैसी सोनार-नगरी, जैसी कामारपुकुर के सौभाग्य को दिखती थी?