हंस अकेला / कल्पतरु / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
हंस अकेला
सुशोभित


परमहंसदेव को समाधि का अनुभव बगुलों की पांत देखकर हुआ था!

ऐसे ही बरखा के दिन रहे होंगे। संध्या थी। नभ में मेघमाला की मेखला। उस पर देव-दुन्दुभी का घोष! चित्त को विकल करने वाले चित्र। उन्मन करने वाले। हृदय के नाम ऐसी पाती भेजने वाले, जिनमें दूर देश का संवाद।

परमहंसदेव अभी युवा ही थे। बंगभूमि के किसी खेत में तन्मय सी तंद्रा में चले जा रहे थे कि बलाका-समूह का शब्द सुनकर ऊपर देखा। धवल श्वेत बगुलों की एक पांत धूममेघ से भरे आकाश में चली जा रही थी- स्याह पर सफ़ेद। कालिमा पर शुभ्र। विपर्यय का बिम्ब! वो दृश्य इतना अपार्थिव था, उस संध्या मन ही इतना निष्कवच था कि पलभर को हठात रह गए। आंखें मुंद गईं। मन डूब गया। समाधि का पहला अनुभव हुआ!

कवि अज्ञेय ने कहा था-

"भाले की अनी-सी बनी

बगुलों की डार!"

वैसा ही कुछ बेधक।

पक्षियों में अवश्य ही कुछ पारलौकिक होता है।

कालिदास का शकुन्त, अगस्त्य मुनि का लोपा, ऋग्वेद के "द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया", "तैत्तिरीय संहिता" के "तित्तिर"। और भी- क्रौंच, कपोत, हारिल, हंस, चातक, शुक! और, सबसे बढ़कर प्राण का "पखेरू"।

ओ अलबेले पंछी तेरा दूर ठिकाना है। किंतु कितना दूर? चल हंसा उस देस। किंतु कौन-से देस?

सहस्र सदी से नभ में बलाका उड़ ही रहे हैं। सहस्र सदी से मेरा प्राण भी पिंजरे में है। और कुछ नहीं तो वैसा मन ही देना प्रभु, कि नभ में पाखी को देख हठात विकल हो रहे। अचेत होकर धरती पर गिर पड़े। मूर्च्छित हो रहे। पुण्यतंद्रा लग जाए।

और जब जागे तो स्वयं से पूछ बैठे-

हंसा जाई अकेला तो देह-चित्त की दुई में कब तक यों दुकेला?