पिता की कविताएं / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
पिता ने किसी को कविता पढ़कर सुनाई हो, याद नहीं आता। लिखते बहुत चाव से थे। बहुत हुआ तो किसी अख़बार में छपने भेज दी। छप गई तो कतरन सहेज ली। लेकिन ये कतरन भी किसको दिखलाएं। कोई हो तो? यों यारलोग कम न थे, किंतु कविता भला कितने मित्र पढ़ते हैं। और जो पढ़ते हैं, उनसे मिलाप किस युक्ति हो?
फिर भी कोई धुन थी कि डायरी लिखते। कभी गाढ़ी स्याही वाली लीड कभी निब वाले फ़ाउंटेन पेन से। बहुत सुंदर उनके अक्षर थे। कविताओं को सजा-संवारकर टांकते। उनके साथ फूल, पेड़, चिड़ियों के चित्र बनाते। उज्जैन के विक्रम पार्क में निरीक्षक की हैसियत से वे कुछ समय रहे थे। वहां पेड़ों से बतियाते। मुझे सिखलाते कि पेड़ों को बांहों में कैसे भरा जाता है। कानों पर बाल रखते। लेनिन को पढ़ते! टिफ़िन लेकर साइकिल से काम पर जाते सर्वहारा। ख़बरनवीस थे तो कान पर रेडियो लगाकर बुलेटिन सुनते। सन् अठासी में कहां दूरदर्शन सबको सुलभ?
और कविता लिखते। लिखकर डायरी झोले में रख देते। इससे भला क्या मिल जाता? कुछ तो मिलता ही होगा। ऐसे वे अकेले नहीं थे। उस ज़माने में जाने कितने लोग डायरियों में कविताएं लिखकर सहेज लेते। किसी को दिखानी न होतीं तो मन की गिरह उसमें खोल देते। बहुतेरी कविताएं अनगढ़ होतीं, किंतु निस्संगता उनमें सच्चाई भर देती। खरी अनुभूति का भी एक शिल्प होता है। उससे कविता में मंजाव आ जाता है। यों बहुत मंजी हुई कविता जो औरों की नज़र को ज़ेहन में रखकर लिखी जाती हों, उसमें फिर वो बात नहीं आती। और तुरंत अनुमोदन के अधैर्य से तो कविता का उजाला क्षीण होता!
जिस मस्तक में वो कविताएं उगीं वो कबका भस्म हो रहा, जिस प्राण में बसीं वो आज जाने कौन पथ किस देश? सत्रह साल पहले दिवंगत व्यक्ति की इकतीस साल पुरानी कविताएं। जीते-जी जो किसी ने देखी नहीं। आज घड़ी-दो घड़ी में देखते देखते हज़ारों ने बांच लीं। कैसे-कैसे अचरज तो हमारे हिस्से आए हैं। ये दिन कैसे तो अजूबे हैं!
सहज मिल जाने वाले संतोष हमारे इन दिनों में क्या कुछ अधिक ही सुगम नहीं? पुराने वर्षों के एकान्त तब क्यूं मन को हांकते? संतुष्टि भी अजब चीज़ होती है। इसे जितना पूर लो, उतनी ही वो दूभर हो जाती। स्वयं को जितना भर लो, उतना ही गड़हा भीतर का गहरा जाता। उथली बातों से वो मिलती नहीं और ना मिले तो ना सही, वैसे असंग चित्त अब रहे नहीं! कुछ तो है हमारी आत्मा में, जिसे इसी से सुख मिलता हो कि उसको किसी ने देखा नहीं, जाना नहीं, चुपचाप एक तारा जलकर टूट गया, किसी ने उसे परखा नहीं।
ये कहा भी किसने था कि ये औरों के लिए है? औरों तक पहुंच जाए, वो और बात है। जंगल की आग किसी को दिख जाए, वो और अचरज है। पर भीतर की खोह उससे पूरेगी ही ये भरमाया भी किसने?