मां के प्रेम पत्र / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
अभी तक पढ़ी नहीं गई किसी किताब को किसी भी पन्ने से खोलकर कुछ देर पढ़ते रहना मेरे निजी रोमांचों में से एक है। मेरा जीवन वैसी अनेक गोपनीय फ़ंतासियों से भरा हुआ है। तब मैं स्वयं से कहता हूं कि जिसके बारे में एक मिनट पहले तक मैं सोच भी नहीं रहा था, उस पुस्तक का यह जो पन्ना मैंने किसी रहस्यमयी अंत:प्रेरणा से खोला है, उसमें निश्चय ही मेरे बारे में कोई गुप्त सूचना है। वरना मैं आज सहसा इधर क्यों चला आता।
वैसे ही एक दिन मैंने ग्राहम ग्रीन का "ट्रैवल्स विद माय ऑन्ट" उठाया और उसे पढ़ने लगा। ग्रीन का यह नॉवल भला कौन पढ़ता है? अलबत्ता उस पर फ़िल्म बनाई जा चुकी है! ग्रीन का गोल्ड स्टैंडर्ड तो "द एंड ऑफ़ अफ़ेयर" है, "द हार्ट ऑफ़ द मैटर" है, और सबसे बढ़कर "द पॉवर एंड द ग्लोरी" है, जिसे मैं जयपुर में किताबों की एक दुकान पर ख़ूब सोच-विचार के बाद छोड़ आया था, उसके बदले में सोरेन कीर्केगार्द की पुस्तक ले आया था। "ट्रैवल्स विद माय आन्ट" तो ग्रीन का एक माइनर नॉवल है। लेकिन ये मुझे किसी ने तोहफ़े में दिया था। मेरी किताबों की अलमारी में अयाचित ही वह रखा हुआ था।
मैंने जो पन्ना खोला, उसका नम्बर 138 था। तीन पंक्तियां पढ़ते ही मैं कौतूहल से भर उठा। नॉवल में हेनरी नामक व्यक्ति स्वयं एक पुस्तक के पन्ने उलट रहा था और उसका ध्यान एक तस्वीर पर रुक गया, जो उस किताब में सहेजकर रखी गई थी। यह उसके पिता की किताब थी। तस्वीर ऑन्ट अगस्ता की थी, जिनके साथ उसे सैर पर जाना था। तस्वीर में ऑन्ट अगस्ता अठारह बरस की लड़की थीं और बेहद आकर्षक लग रही थीं। जिस पन्ने पर पिता ने तस्वीर सहेजकर रखी थी, उस पर प्रेम का एक विवरण था। शायद ऑन्ट अगस्ता और हेनरी के पिता के बीच प्रेम सम्बंध रहा होगा।
रात की घड़ी थी। हेनरी फ़ोन घुमाता है और ऑन्ट अगस्ता से बात करता है। इस समय फ़ोन क्यों लगाया, पूछे जाने पर वो कहता है, बस यों ही। वह कुछ देर बतियाता है, फिर फ़ोन रख देता है। ऑन्ट अगस्ता, जो पिछली सदी में युवा रही होंगी, उसके पिता से प्रेम करती होंगी, अभी मुझसे फ़ोन पर बात कर रही थीं, इस रोमांच के साथ।
यह विवरण पढ़ते ही मुझे अपनी मां की याद आई, जिनके प्रेम पत्र मैं साल 2002 की एक सन्ध्या को पढ़ गया था। मैंने कुछ पुराने दस्तावेज़ खोजने के लिए लोहे की पेटी खोली थी, और उसमें सहेजकर रखे गए प्रेम पत्रों का वह बंडल मुझको नज़र आया था। एक-एक कर वो सभी मैं पढ़ गया। वो पत्र उन्होंने मेरे पिता को विवाह से पूर्व लिखे थे, उन्होंने प्रेम-विवाह किया था। यों किसी और पुरुष को लिखे होते, तब भी मैं उनके बारे में निर्णय नहीं करता। उनके प्रेम से सुख ही पाता। मैंने उनकी कल्पना प्रेम में डूबी एक युवती की तरह पहले कभी नहीं की थी। जैसे मैंने उन्हें बाद के सालों में देखा था, वो एक बहुत ही भिन्न रूप था- स्कूल की शिक्षिका, जो पति से अलगाव के बाद दोनों बच्चों को पालकर बड़ा कर रही हैं। किंतु मैंने पाया कि उन पत्रों में अपनी अभिव्यक्ति में वे बड़ी बेलौस थीं। यह साल 1980 की बात थी और वे अंतरदेशीय और पोस्टकार्ड नीली स्याही के अक्षरों से भरे थे। तब मेरे पिता झाबुआ के गुलाबचौक में रहते थे और मां उज्जैन के खत्रीवाड़े में। उनके प्रेम के गवाह वे पत्र लेकर डाकिये तब कैसे इन दो पतों के बीच दौड़ते रहे होंगे, यह कल्पना मुझे रोमांच दे गई।
पत्रों को पढ़ने के बाद मैंने उन्हें उसी तरह सहेजकर रख दिया, जैसे वे पहले थे। लोहे की पेटी अपनी जगह पर रखी दी। किसी को ख़बर नहीं हुई। मां के प्रेम पत्र छुपकर पढ़ना एक अपराध तो था, किंतु शायद इसके लिए मुझे क्षमा किया जा सकता था। कौतूहल मुझ पर हावी हो गया था। हममें से कोई भी अपने माता-पिता को नौजवान प्रेमी जोड़े की तरह विकल और आवेग से भरा देखेगा तो वैसे ही अचरज से भर जाएगा।
अगले दिन मैं बाज़ार गया तो जाने क्या सोचकर लाख के दो चूड़े ले आया। चूड़ीवाले ने उन्हें रद्दी के अख़बार में गोल-गोल लपेट दिया। मैं घर आया तो किंचित संकोच के साथ मां को उन्हें दिया और कहा ये आपके लिए हैं। उन्होंने खोलकर देखा तो आश्चर्य किया। मैं घर में चुप्पा ही रहता था। जैसे वहां होकर भी अनुपस्थित और अगम्य होऊं। आज बेटे को क्या सूझी कि भेंट में लाख के चूड़े लेकर आया? उन्होंने आश्चर्य से कारण पूछा। मैंने कहा, कुछ भी तो नहीं, बस यों ही। कारण कुछ था भी नहीं। मेरे मन में पच्चीस बरस पुरानी उस लड़की की तस्वीर सघन हो उठी थी, जो इतनी उत्कटता से प्रेम पत्र लिखती थी। मैं उसी की स्मृति को सजल रखने के लिए बड़े अनुराग से वे चूड़े ले आया था।
ग्राहम ग्रीन के नॉवल के पेज नम्बर 138 पर ठहरा मैं यही सोचता रहा। मुझे लगा इस सफ़हे पर हेनरी उसी मनोदशा से ग्रस्त होकर ऑन्ट अगस्ता को फ़ोन लगाकर उनसे कुशलक्षेम पूछ रहा है, और कारण पूछे जाने पर कुछ भी तो नहीं कह रहा है, जिसके वशीभूत होकर आज से सोलह साल पहले मैंने वे चूड़े मां को भेंट किए थे। मनुष्य के हृदय की वर्णमाला में कहीं कुछ तो साम्य होगा। यों ही नहीं, ये सुदूर-देशों के क़िस्से हमें अपने रहस्य में बांध लेते हैं।
वो प्रेम पत्र लिखने के बाद मेरी मां बहुत दिन जीवित रही थी। मेरे द्वारा उन प्रेम पत्रों को पढ़ लिए जाने के बाद भी। लेकिन इस लम्बी उम्र में प्रेम पत्र के प्रसंग एक-एक कर सभी मर गए थे। मैंने अपने स्वयं के मृत प्रेम पत्रों के बारे में सोचा, और मन ही मन मुस्करा दिया। मैंने उन्हें छुपाया नहीं है, उनका रूप बदलकर उन्हें अपनी किताबों में प्रकाशित कर दिया है। मेरे रहस्य किसी के लिए अचरज की तरह शायद अब ना खुलेंगे। मेरी आने वाली पीढ़ी के लिए तो निश्चय ही नहीं। उलटे उन्हें पढ़कर किसी को सुख ही मिले। शायद उनमें से कोई उन अफ़सानों को पढ़कर उस जगह पर एक सूखा फूल रखने चला आए, जहां लेखक का जीवन अकारथ ही रीत गया था। शायद उनमें से कोई किसी ऐसे दरवाज़े पर दस्तक भी दे, जो अब कभी खुलेगा नहीं। या शायद, कोई किसी अनजान किताब के किसी एक सफ़हे पर खड़ा यों ही ठिठक जाए, जैसे चीज़ों के होने के सच में ही कोई कारण रहे होंगे!