कितने जोड़ी पैर / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
कितने जोड़ी पैर धरती पर चले होंगे? कीच में कितनी छापें, धूल में कितने चिह्न? और मरुथल में दिशासूचक दो पांवों की लीकें कितनी?
रेत पर पांव का निशान बनता था, पानी में नहीं। और हर पांव की छाप हो ही यह भी निश्चय नहीं था।
कभी-कभी ऐसा भी होता कि धरती पर पदचिह्न नहीं बनते, किंतु जूते के तलुओं पर चिपक जाती मिट्टी में लिथड़ी घासें। एक घास ही सदैव अमर थी, पांव तो अन्तत: हो ही जाते ओझल।
मैंने मापा नहीं कितने मील चला हूं, किंतु तंद्रा सी लय में आहिस्ता-आहिस्ता विलीन होती रहीं समस्त सड़कें। कहां से चलकर यहां तक आया, यहां से अब कहां? मैं तो वैसा सिकन्दर भी नहीं कि यह सोचकर गर्व से इतराऊं- जिस जिस धरती पर चला जीता उसी को।
आज की मध्याह्न स्कूल से आया था बेटा, पांव दुख रहे थे। मैं गोद में लेकर सहलाता रहा पिंडलियां, घुटने, टखने, तलुए। मेरे भीतर वो निश्चिंत पैर बनाते रहे गहरा निशान।
शायद चलने के लिए नहीं बने थे पैर, चलने को तो पिंड, ग्रह, नक्षत्र भी चलते। दौड़ने को नहीं कि दौड़ने को तो कल्पनाएं सबसे सुदूर तक दौड़ आतीं। सुस्ताने को भी नहीं जैसे वर्षा की संध्याओं में रक्त में सुस्ताती जिजीविषा।
मृत्यु से कम्पायमान पैर भी देखते होंगे एक ही स्वप्न कि सौंप दे स्वयं को, वैसे सुघड़ अधिकार के साथ कि स्पर्श की ऊष्मा मांगते संकोच ना हो!