जूठे बरतन / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
मैं उनके घर मेहमान था. उन्होंने लंच बुलवाया. चीनी मिट्टी की तश्तरियों में लेकर खाना खाया गया. स्टील की चम्मचें प्लेट से टकराती रहीं. सूने घर में उनकी कोमल धात्विक ध्वनियां आश्वस्ति के सम्मोहन सी रच बस गईं. सब कुछ नपा तुला और परिमार्जित था. खाने के बाद कॉफ़ी भी पी गई.
फिर वो उठीं और जूठी तश्तरियां और प्यालियां रसोईघर में ली गईं, उन्हें सिंक में रखा और लगीं मांजने. मैं तुरंत असहज हो गया. सारा सम्मोहन छीज रहा. वो मुझसे बड़ी थीं. ये आप क्या कर रही हैं, मैंने कहा, आप मेरे जूठे बरतन मांज रही हैं! उन्होंने कहा, यह कोई बड़ी बात नहीं, किंतु सिंक में जूठे बरतन रखे हों, ये मुझे वितृष्णा से भरता है. कुछ खा-पीकर तुरंत ही बरतन मांज लिए जाएं तो बेहतर. नहीं तो ढेर लगता जाता है. वो बहुत अरुचि से भरता है.
जिन दिनों मैं घर पर अकेला होता हूँ, तब इस बात को अनुभव करता हूँ. कुछ पकाया और लगे हाथ कड़ाही मांज ली, चाय पी और तुरंत प्याली धो ली. जहाँ उसे सिंक में जूठा छोड़ा, वह काम अधूरा रह जाता है. ढेर लग जाता है. फिर समय निकालकर उसे मांजना होता है. लगे हाथों साफ़ करते चलो तो मालूम ही न हो.
जूठे बरतनों का ढेर कितना विकल भी तो करता है!
जीवन की यही गाथा है. जीवन का संताप यही. ये जूठे बरतनों के ढेर से भरा पड़ा है. मन को एक निमिष संतोष नहीं मिलता. कहीं आधे मन से जुड़े, कहीं अनमने होकर टूटे. कितना सोचा था, कुछ सधा नहीं. हज़ार सपने देखे और सब अधूरे रह गए. फिर वहां से आगे बढ़ गए. या कहें, वहां से आगे धकेल दिए गए. कितनी चीज़ें यों ही छूट गईं. कितनी बातें मंजी नहीं.
फिर लगता है और जीवित रहने का क्या लाभ, और बरतन जूठे करने का, जब कल के ही जूठे बासन अभी धुले नहीं! नया आरम्भ करें या पहले जो छूट गया, उसे पूरा करें. यही प्रश्न विकल करता है.
बहुत पहले कविता लिखी थी--
"मैं मणिकर्णिका का शव हूँ
जल और अग्नि ने जिसे
आधा खाकर छोड़ दिया!
यह जीवन अधजिये
और अनजिये का
शोक है!"
और, एक ज़ेन गुरु ने भी तो अपने उत्सुक शिष्य से यही कहा था--
"सत्य को जानना है? ठीक बात है. पर पहले अपने जूठे बरतन तो मांज आओ!"