वस्त्रों का निर्वासन / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
आलमारी खोली तो अपनी सब कमीज़ें दिखलाई दीं। वही सब जो दैनन्दिन पहनी जाती थीं। अब वो एक पर एक सजी थीं। धुली और तहबंद। सुरुचि का भी एक गूंगा सुख होता है, मैंने सोचा। फिर यह कि ये सब कितनी तो निस्पृह हैं। मेरी देह पर सजकर ही वो व्यंजित होती हैं, यों अव्यक्त हैं। अभिमान उनमें नहीं, मुझमें है, और उन्हीं के निमित्त चला आता है। किंतु इससे भी उन्हें कोई प्रयोजन नहीं।
याद नहीं कर पाया कि इन्हें कब किस बाज़ार से मोल लिया था। किंतु कब-कहां पहना था, ये भली प्रकार याद है। वो एक तंद्रा ही होती है, जब हम कहते हैं कि यह रंग मुझ पर खिलेगा, इसे ले लेता हूं। और यह, इसकी बुनाई तो बहुत सुघड़ है। और यह भी, यह नई काट का पहनावा, आजकल इसी का चलन है। यह सब विश्रांति में होता है, जैसे नींद में। और वस्त्र अपने रहस्यों को कभी भी पूरा-पूरा एक बार में व्यक्त नहीं करते। वो धीरे-धीरे खुलते हैं, कविता के अर्थ की तरह।
मेरे पास इतनी कमीज़ें एक साथ पहले कभी नहीं थीं। कोई एक दर्जन होंगी। बस पहनने का ही इधर अवसर नहीं है। आलमारी में कमीज़ें अलग, पतलून अलग हैं। घर में पहनने वाले कपड़े एक तरफ़, बाहर पहनने वाले कपड़े दूसरी तरफ़। मैं समझता था, जो बाहर पहने जाने वाले कपड़े हैं, वे अपने पर बहुत इठलाते होंगे। अब सोचता हूं, उन्हें पहनकर शायद मैं ही इठलाता था। वो तो निस्पृह हैं। घरबंदी के इतने दिन हुए, एक बार भी उन्होंने नहीं कहा कि धूप लगे अरसा हुआ।
धूप में गंध नहीं होती, ऊष्मा अवश्य होती है। किंतु धुलकर सूखी कमीज़ों में धूप गंध की तरह बस आती है। एक अनोखी पार्थिव गंध। जैसे धूप धरातल से जा लगी हो। छत पर जाकर रस्सियों से उतार लाई कमीज़ें एक-एक कर तह कर ली जाती हैं। उनकी उस धुली-धवल अनुभूति से लगता है, सुथराई का भी एक रूप है, वह निर्गुण नहीं है। भाप में गंध नहीं होती, ऊष्मा अवश्य होती है। किंतु इस्तरी की गई कमीज़ों में भाप गंध बनकर रहती है। वह अपरूप नहीं है।
मुझे याद है, उनमें से एक कमीज़ मैंने एक बार पहनकर रख दी थी। यह तो बहुत ही सुंदर है- मैंने कहा था। मुझे उसके जितना सुंदर होना पड़ेगा। और जिस दिन उसे पहनूं, और उस दिन को भी उतना ही सलोना होना पड़ेगा- तभी पहनूंगा। यों पहनकर व्यर्थ नहीं करूंगा। और अब वही देखिये तो, आलमारी में कैसे निष्प्रयोज्य रखी है। उसमें तो कोई विरक्ति-अनुरक्ति शायद ही रही होगी, किंतु उसकी सुंदरता ने उसको मेरे लिए अनन्य बना दिया था। अभी एक संवेदनशील अंधकार में वो सबके जैसी सुहृद हो गई है।
और एक कमीज़, जो मैंने दिल्ली में पहनी थी। तुग़लक के बाग़ में जिसे पहना घूम रहा था और बड़ा तपता हुआ दिन था। वैसी तपिश, जो कमीज़ों को कॉलर से मैली कर देती है। दूसरी, जिसे पहने था, जब भीमबेटका में सागौन का वो बड़ा-सा पत्ता मिला था। पत्ते पर धूल थी। किंतु मेरी कमीज़ दिनान्त तक अकलंक ही रही। तीसरी, जिसे पहनकर ही रेलगाड़ी में सो रहा था। नींद में उसकी सिलवटें फिर पूरी रात ग्लानि बनकर गचती रही थीं। चौथी, जो एक सुंदर संध्या की इकलौती साक्षी थी। किंतु वो बोल नहीं सकती थी और ऐसे मेरी रक्षा करती थी।
वो तमाम कमीज़ें, जो जब नई-नवेली आई थीं, तो उन्हें पहनकर तस्वीरें उतरवाई गई थीं। उनकी पहली पहनाई ने देह में गौरव भर दिया था। पूरा दिन लगता रहा था कि अभी कोई कहेगा, तुम पर यह ख़ूब जंच रही है। ये तुम पर फबता है। उन्हें घर में नहीं पहना जा सकता था। वो बाहर पहनी जाने के लिए बनी थीं। और अब वे ना घर की हैं, ना बाहर की। बाहर पहने जाने वाले कपड़ों ने स्वयं को बिना किसी उपालम्भ के निर्वासित कर लिया है। उनमें कोई तृष्णा न थी। तृष्णा तो उस मन में थी, जिसने सोचा था कि गर्मियां आएंगी तो इन्हें पहनकर इठलाऊंगा। कि यह रंग मुझ पर कितना सजेगा। और यह कपास मुझ पर सहज खिलेगा।
कबर्ड में रंगबिरंगे वस्त्रों की संगीति थी। बरखा के बाद धनक जैसी निरुद्वेग। वैशाख की मध्याह्न सरीखी निस्संग। इतनी बार उन्हें पहना, मैला किया, उतारा, धोया, सुखाया, किंतु ऐसी आत्मीयता से पहले नहीं देखा था, क्योंकि इतना अवकाश ही कहां था, इतनी दूरी कहां थी और इतनी ललक भी उनकी पहले नहीं थी। त्वचा को ही जैसे उनके स्पर्श की चाहना हो। मुझे लगा वो मेरी बंधु हो सकती हैं। फिर वही सब पहन जाने को दिल अकुला गया, जो नित्यप्रति पहना जाता था- कमीज़, पतलून, कमरपट्टा, जूते और ज़ुराबें। ये सब केवल मेरे ही मन का मनोरथ नहीं है, जानता हूं। अछुए और अकलंक वस्त्रों का वह निर्वासन इन बीते कुछ दिनों की एक निराली ही उपकथा है।