सभागार / कल्पतरु / सुशोभित

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सभागार
सुशोभित


जॉर्ज बर्नार्ड शॉ कहता था किसी की हत्या करने का सबसे बुरा तरीक़ा है, उसे मंच पर मार देना, क्योंकि इसमें दर्शकों की भी मौन सम्मति होती है।

सभागारों में रची जाने वाली विडम्बनाएं ऐसी ही होती हैं।

ये ख़याल सबसे पहले रोमनों को आया था कि बड़े और भव्य एरिना बनाए जाएं, जिनमें हज़ारों की संख्या में श्रोता और दर्शक आकर बैठें और खेल देखें। ये खेल बहुधा द्वंद्व युद्ध भी हुआ करता था, जिसमें रक्तरंजित ग्लैडिएडर्स लड़ते थे। इन्हीं एरिना की तरह फिर एम्फ़ीथिएटर्स बने, जिनमें लोकनाट्य होते थे। थिएटर का विस्तार समय के साथ हुआ तो मंच-सज्जा पर नानारूप रंग-युक्तियां साकार हो उठीं- मुक्ताकाशी मंच से लेकर अंतरंग सभागार तक। सिनेमा ने इसमें यह जोड़ा कि दर्शक और प्रदर्शक का सजीव-परस्पर समाप्त हो गया। फ़िल्में पहले ही फ़िल्मा ली जातीं। दर्शक अंधेरे कक्ष में बैठकर उन्हें देखते। किंतु उसे देखकर वे यही मानते कि यह उनके सामने घटित हो रहा है। अकसर तो यह भी कि यही सच है।

नए ज़माने की मेधा हमें सिखलाती है कि कैमरे के सामने जो कुछ भी हो रहा हो, उस पर भरोसा मत करो, बशर्ते कैमरा ख़ुफ़िया न हो। पुराने ज़माने में इसको वो कहते होंगे कि मंच पर जो कुछ भी हो रहा है, उससे मन-बहलाव चाहे जितना हो, उसे कभी पूर्ण सत्य नहीं माना जाय।

यह क्या इकलौता मैं ही हूं, या औरों को भी ऐसा लगता है कि सभागारों से अधिक "सिनिस्टर" चीज़ें मनुष्य ने कम ही आविष्कृत की होंगी। विपुल जनमैदिनी के समक्ष उपस्थित कोई दृश्य और उस पर त्वरित प्रतिक्रियाएं, जो निजी विवेक और नैतिकता से कम और सार्वजनीनता के दबाव से अधिक मूर्तमान हो रही हों! इतने लोगों की उपस्थिति के इतने कोण और उनका विराट विभ्रम। मंच पर जो घटित होता है, और वो जो तरंगें सभागार में रचता है, उसमें एक चुम्बकत्व आ जाता है। इसके दुर्निवार आकर्षण के बावजूद यह सत्य, शिव और सुंदर ही हो, यह आवश्यक नहीं। ध्वनिमत के भी अपने व्यामोह होते हैं। करतलध्वनियों के अपने संभ्रम। बहुधा तो कोलाहल से ही सत्य स्वयं को प्रमाणित कर लेना चाहता है। किंतु कोई भी ईमानदारी से अपने भीतर झांके तो मालूम कर लेगा कि अतिरंजनाओं के लोकनाट्य मन को विषाद से ही भरते हैं। उनसे लौटकर आप रिक्त ही होते हैं। स्वयं को छिछला अनुभव करते हैं। सुख और परितृप्ति दूर छिटक जाती है। अभिमान के अवसर चाहे जितने मिलें।

मैं अपनी ही बात कर रहा हूं, औरों का नहीं मालूम। किंतु इसी अरुचि के कारण सिनेमाघर में फ़िल्में नहीं देखता। सार्वजनिक सभाओं में जाने से कतराता हूं। रंगमंच देख नहीं सकता। इसको मैं औरों को समझा नहीं सकता, जो मुझसे निरंतर सार्वजनिक भूमिका के निर्वाह की अपेक्षा रखते हैं। किंतु जहां-जहां जनसमूह है, किसी दृश्य को उपभोक्ता की तरह ग्रहण करता हुआ, जो उसकी अपेक्षाएं हैं और जैसे मंच से उनकी प्रत्याशाएं पूरी की जाती हैं, वहां किसी प्रेशर कुकर जैसी विस्फोटक और भयाकुल भावदशा मुझे अनुभूत होती हैं। वैसी दृश्यरतियों और शोरगुलों से कुछ सुंदर उत्पन्न नहीं हो सकता।

सच यही है कि मनुज के सभी मूल्यवान कृत्य निपट अकेले और नीरस हैं- खेत में अन्न उपजाना, रसोई में भोजन पकाना, भवन बनाना, संवाद करना, पुस्तक पढ़ना और स्वप्न देखना। ईश्वर भी- जहां तक मैं उसको जानता हूं- एक बहुत उबाऊ व्यक्ति है, वो कोई बहुत छबीला नायक नहीं है। ईविल फिर भले बहुत सेडक्टिव और सजीला हो। ईविल और सेडक्टिव जैसे शब्दों का ठीक-ठीक स्थानापन्न मुझको हिंदी में मिलता नहीं, इसके लिए क्षमा ही मांगूंगा।

उत्सव के बजाय व्रत, कोलाहल के बजाय मौन, आवेग के बजाय संयम, पूर्वग्रह के बजाय प्रबोध, सभा के बजाय एकान्त- मेरे देश में न्यूनतम का एक महागायक हुआ था, जिसके समक्ष इन युतियों में से किसे चुनना है, इसकी दुविधा कभी नहीं रही। उसके लिए सभी मूल्य एक सुचिंतित मौन का नवनीत थे। मुझे उसके निर्णयों से अधिक उसकी प्रविधियों में रुचि है, उसके अवदान से अधिक उसके प्रयोगों में।

वो आज होता तो एक सौ पचास साल का होता। और हमें भरसक समझाता कि उस रंगमंच से सचेत रहो, जो आत्मोन्मत्त बनाता हो, पुण्यशाली नहीं। विषाद से भरता हो। उथला और उदग्र बनाता हो। अनुगूंजों से निर्मित वैसे सभागार से सचेत रहो।