निकृष्ट में प्रतिभा / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
यह पूरी तरह सम्भव है कि एक बड़ी प्रतिभा एक निकृष्ट चरित्र के व्यक्ति में स्वयं का अभिनिवेश कर डाले। ना केवल सम्भव है, बल्कि यह उससे अधिक मर्तबा हो चुका है, जितनी बार आप आपदधर्म समझकर ही उसको स्वीकारते!
किंतु उसके बाद "व्यक्ति", जिसका आलम्बन चेतना है, और "रचनाकार", जिसका आलम्बन प्रतिभा है, की अंत:क्रियाएं किन अंशों में परस्पर का वितान रचेंगी, कितना एक-दूसरे को बदलेंगी, इसका कोई सर्वमान्य सिद्धांत आपको नहीं मिल सकता।
यह अवश्य हो सकता है कि सतही लिप्साओं और थोथे विनोद में आकंठ डूबी चेतना अपने को वरदान में मिली प्रतिभा को भी कलुषित कर डाले। और उस प्रतिभा के जो फल हों, वो चमकीले और चकित कर देने वाले होने के बावजूद आस्वाद के उस संतोष से विरत हों, जो एक श्रेष्ठ रचना की अंतर्वस्तु होता है।
भारत का लोकमानस कुछ ऐसा है कि वह साधु, अध्यापक और कवि को निकृष्टता के नायक की तरह देखने को राज़ी नहीं ही होता। वह परम्परा से इन्हें युगबोध से अलंकृत लोकचेता की तरह ही देखता आ रहा है! त्याग, संकल्प, धैर्य और प्रतिभा के प्रति सम्मान को व्यक्ति के प्रति सम्मान से अलगाना भी उसने अभी सीखा नहीं।
तब यह भी हो सकता है कि बड़ी प्रतिभा वाला लघुमानव उसे विकर्षित करे, और इसके साथ ही जो रस के लोभी हैं, वो उसके व्यक्तिगत दोषों की उपेक्षा करते हुए उसके पास यदा-कदा रचना के सुख की प्राप्ति भर के लिए जाते रहें।
और हालांकि, गहरा आत्मसंघर्ष कोई लोकसम्मत मूल्य नहीं है, किंतु वैसे किसी आभ्यंतर के समर में डूबी प्रतिभा अगर अपने सांसारिक स्वरूप में निरपेक्ष, अन्यमनस्क और गम्भीर मालूम होनी लगे तो लोक उसके समक्ष भी सिर नवाने से हिचकिचाएगा नहीं!
जबकि जिस कवि में गरिमा ही नहीं, आत्मचिंतन नहीं, केवल उपहास और अवमानना है, दम्भ और दर्प है, और बालकों सरीखा उद्धत अपयश है, उसकी कृति भी, अपने समस्त शुभचिंतकों की मंगलकामनाओं के बावजूद, अधिक दिनों तक इस आत्मनाश से स्वयम् की रक्षा नहीं कर सकेगी, यह बात तो निजी अनुभव से कहता हूं।