सार्वभौम / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
"मनुष्य सार्वभौम होकर व्यक्ति है, न कि विशिष्ट होकर।"
[ स्वामी विवेकानंद ]
स्वामी जी का यह कथन सुवर्णलिपि में लिखकर रखने जैसा है. इसने मेरा सम्यक परिष्कार किया. वैयक्तिकता और सार्वभौमिकता की कोटियों को एक निमिष में मेरे सम्मुख प्रकट कर दिया.
मैंने अपना पूरा जीवन स्वयं को घोर व्यक्तिवादी कहकर बिताया है. निजता, एकान्तिकता, विशिष्टता-- यही मूल्य माने हैं. मैंने व्यक्ति को एक इकाई की तरह देखा. मनुष्य को एक श्रेणी समझा. सम्पृक्ति के आशयों को त्याज्य कहा, क्योंकि मेरे जीवन में ही कोई सम्पृक्ति नहीं. मैं तो आजीवन अस्तित्ववादी अलगाव में ही रमा रहा.
तब स्वामी जी ने आकर कहा, मनुष्य सार्वभौम होकर व्यक्ति है, विशिष्ट होकर नहीं. यह तो व्यक्ति की सर्वथा नई अभिव्यंजना है. अपनी अर्थछटा से चमत्कृत कर देने वाली है. व्यक्तिवादी वृत्तियों से आविष्ट संसार के लिए तो यह संजीवनी मालूम होती है.
मनुष्य एक सुदीर्घ कोटि है. ह्यूमन. होमो सेपियंस. और उसके पूर्ववर्ती मानुष-बिम्ब, सभी एक श्रेणी में, अपने न्यूनतम सामान्यों के साथ. और व्यक्ति यानी इकाई. निजी, विशिष्ट, पृथक. सभ्यता का इतिहास मनुष्य से व्यक्ति तक की यात्रा है. सामुदायिकता की निरंतर क्षति हुई है. आज व्यक्ति हैं और समूह हैं किंतु सार्वभौम की प्रतिष्ठा करने वाले रूपक नहीं. युवाल नोआ हरारी का मत है कि सामुदायिकता के बिना सभ्यता की यात्रा सम्भव नहीं थी किंतु सभ्यता ने ही व्यक्तिवाद भी रचा है. क्या मनुष्य व्यक्ति होकर सुखी हो सकता है? तब स्वामी जी कहते हैं, हां, किंतु केवल तभी, जब मनुष्य सार्वभौम होकर व्यक्ति हो!
सभ्यता की यात्रा को विवेकानंद ने उलट दिया है और व्यक्ति को सार्वभौम की गरिमा दे दी है. विशिष्ट को तजकर सामान्य की प्रतिष्ठा की है. आगमन के बजाय निगमन रीति अपनाई है. यह आप्तकथन हमारे अवबोध के लिए संक्रांति से कम नहीं!
यह कहना ऐसे ही है कि समुद्र सार्वभौम होकर ही जलबिंदु है!