विलम्बित / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
वायुयान से घास की पत्तियां नहीं दिखतीं। रेलगाड़ी से चींटियों की पंक्ति नहीं। मैं जिस गति से चलता था, वही मेरा संसार था। कभी-कभी इत्मीनान से बैठकख़ाना बुहारना भी एक ख़ामोश तरन्नुम से भर देता। दूसरे कमरे में फ़ोन की घंटी घुटी हुई आवाज़ के साथ बजती। वह एक ऐसी दुनिया से आई चिट्ठी थी, जिसका डौल मुझसे फ़र्क़ था। मैं उससे कैसे मिलता, भाषा जानने के बावजूद। निर्जन कमरे प्रकाश से भर जाते थे, जैसे चीज़ों और लोगों की मौजूदगी में तिमिरछाया की व्याप्तियां हों। एक सुई भी अपनी जगह से पृथक नहीं थी। चम्मचें चुपचाप सोचती रहतीं। आधी रात के बाद उठकर रसोईघर में जूठे बासन मांजना कदाचित् करुण है, किंतु किसी सिनेमा में ही। या यों तो सकल एकान्त में ही कुछ कोमल तरह से वेदनामयी होता है। समय की गति से मनुष्य की आत्मा का निश्चय ही कोई तारतम्य होगा। परदे खिंचे होते और शीशे की खिड़की के बाहर संसार झड़ रहा होता। टेलीविज़न मुर्दनी शांति से सहमा रहता, जैसे नींद में डूबा कोई बनैला पशु। आज तो समाचार पत्र भी नहीं आया था और एकबारगी समय उतना ही प्रागैतिहासिक मालूम होने लगा, जैसा कांस्य युग में रहा होगा। वह वैसी ही आदिम तरंगों से भर उठता था। मैं मन ही मन सोचता- यह जीवन है, यह जीवन की ऊष्मा। सब कुछ स्थिर है, इतना कि मैं अपनी धमनियों में लहू की आवाज़ को सुन सकता हूं। सुदूर, किसी अरण्य में, पोखर पर कोई पीला पत्ता गिरता होता, बिना आवाज़ किए, बेखटके। मेरे विलम्बित के प्रसार में एक पूरा तारामण्डल चला आया था।