नवम्बर / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
ये वो दिन हैं जब अपराह्न को पेड़ों की छांव में जाओ तो शीत लगता है।
जो मेरे रक्त में धूप से भरे दिनमान न होते तो मैं भी किसी अनाम पेड़ की छांव होता, नवम्बर की किसी अपराह्न।
धूप देह में आलस भर देती। त्वचा पर तैलचित्र की तरह कुनमुनाती। और भीतर लौटती सांस में कुतरकर छोड़ दिए गए खीरे की बास।
जहां जहां शीत है, वहां वहां है मृत्यु। जहां जहां ऊष्मा है, वहां वहां जीवन। फिर मृत्यु को जीवन की इतनी चाहना क्यूं रहती है कि आंखें मूंदे जी ले कुछ और क्षण?
नवम्बर एक विदा है। किंतु वैसी विदा जो कहती हो अभी थोड़ा ठहरो।
जैसे और एक बार जीभरकर निहार लेने से कुछ वैसा मिल जाएगा, जिसे पहले ही पाया नहीं जा सकता था। जिसे खोया नहीं जा सकता था कभी।
तुम्हारी अंगुलियां कितनी ठंडी पड़ गई हैं- मैंने कहा था- आओ, इन्हें सहला दूं। और तुम्हारी नाक जैसे बर्फ़ का एक टीला। इसे चूम लूं। एक अलाव जलाऊं।
और तब तुमने कहा था- फिर मुझसे नवम्बर में मिले ही क्यों? नवम्बर में जाड़ा पड़ता है। ये लम्बी परछाइयों का मौसम है।
और लहू में तैरती नावें भी डूब रहती हैं एक-एक कर।