टेसू के फूल / कल्पतरु / सुशोभित

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टेसू के फूल
सुशोभित


मार्च में आख़िरी बार घर से बाहर क़दम रखा था। यों तब जानता नहीं था कि अब बहुत दिनों तक लौटना नहीं होगा। ये बातें किसी को मालूम नहीं होतीं। बोर्ख़ेस ने कहा है, मैं जब आख़िरी बार उस दरवाज़े से बाहर निकलूंगा, तब मैं जानूंगा नहीं कि यह अंतिम था। अगर सच में ही जानता तो ठहरकर उसको विदा ना कहता‌?

मार्च की उस बीसवीं तारीख़ को भी शहर की सड़कें सूनी हो चली थीं। एक निस्पन्द मौन सब तरफ़ झुक आया था। ज्वर था। चित्त को शंका-कुशंकाएं घेरे थीं। दवाई की दरकार थी, अस्पताल जा रहा था। पूरे रास्ते यहां से वहां तक पलाश के पेड़ सुलगे पड़े थे। भर-भरकर टेसू उनमें लदा था। मैं देखता रह गया। इस बरस ऐसा मालूम हुआ, जैसे बहार तड़पकर आई थी, झूमकर खिली थी। आम के बाग़ भी सुग्गों के जूठे फलों से भरे होंगे।

देर शाम जब उस रास्ते से लौटा, तो अंधकार घिर आया था। सड़क के दोनों तरफ़ टेसू के गुच्छों की ठंडी आंच खिंची है, वैसा कल्पना में उभरा। फूल विवर्ण हो चुके थे, किंतु उद्भावना में दमकते थे। आठ दिनों की दवाई लेकर घर जा रहा था।

बीती रात, पंद्रहवीं एप्रिल थी, और मैंने एक फ़िल्म देखी। बहुत सुंदर फ़िल्म थी, इतनी कि उचटा हुआ मन उसमें मंज गया। राग-खटराग के सजीव चित्र उसमें थे। बहुत महीन उसकी बुनावट थी। दिलफ़रेब रचाव था। फ़िल्म का नाम था- आविष्कार। परदे पर राजेश और शर्मिला की जोड़ी।

कानु रॉय के संगीत में एक गीत चल रहा था कि तभी कैमरा टेसू के फूलों पर जाकर ठहर गया। चौंककर जैसे तंद्रा से जागा होऊं, बीस मार्च के वो टेसू याद हो आए। क्या वो अब तक वहीं होंगे? क्या अब तक झड़ नहीं गए होंगे? मुझको बिलकुल भी याद करते होंगे? मोरपंख जैसा पुस्तक में रखकर भूला वह दिन सहसा आंख के सामने झिलमिला गया। वो दिन, जब यही सोचता था कि जीता तो रहूंगा ना, यह नहीं कि अब लौटकर आऊंगा या नहीं।

जीवित रहना भर तो काफ़ी नहीं, सिवाय उसके लिए, जो मर रहा है। मरना कोई नहीं चाहता, पर जो जीता है, उसके लिए जीते रहना भी विष है। यही तो पहेली है। मनुज का मन अकुलाना ही जानता है।

बीस मार्च से पंद्रहवीं एप्रिल- मैंने अंगुलियों पर गिना कि छब्बीस दिन हुए, उम्र के मंज़र पर एक झाईं-सी पड़ गई। इतने दिनों के बाद अब सोचता हूं, शायद दु:ख यह नहीं है कि यह सब ख़त्म हो जाएगा, दु:ख यह है कि हम अब शुरू ना कर सकेंगे। रंज इस बात का नहीं है कि सपने टूट जाएंगे, रंज ये है कि सपने हम संजो ना सकेंगे।

और तब मन ही मन कहा, जानता हूं, यह नष्ट होगा। फिर भी मुझको एक बार फिर यह नष्ट करने की चेष्टा दो ना।

[ यह तालाबंदी के दिनों में लिखा गया था ]