ईयरप्लग / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
कान में ईयरप्लग लगाकर आँख मूंद लेना और अदृश्य हो जाना- पहले तो संसार के लिए, फिर समय के लिए, और फिर स्वयं के लिए. धुन की भी चिलमन होती है, झीनी ही सही. आप और दूसरे के बीच कांच की दीवार. एक गीत भी अंधेरे का बित्ता होता है. सुनते सुनते किंतु गा नहीं बैठना, वो सब जिसका विलोप किया था, प्रकट हो आएगा. कोई कंधा झकझोरकर देकर तंद्रा तोड़ देगा. आँख खोलते ही चेहरे साकार हो जाते हैं. मन में गुनगुनाना. बेखटके गुम जाना.
कान में ईयरप्लग लगाना अनुपस्थित हो जाना है. गाना भी पहले मस्तक में ख़ूब गूंजता, फिर गूंगा हो जाता. मन कहीं और चला जाता. वैसी क़ुरबत भी किस काम की जो यों बरज दे. कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है, के जैसे तू मुझे चाहेगी उम्र भर यूं ही. साहिर के बोल कान पर बजते. दिल उचट जाता. हिरन बन चरने चला जाता, अब उसका क्या ठौर? इससे तो बेहतर है अंधकार में निरंक चलते रेडियो पर किसी पुराने गीत की कड़ी सुनकर ठिठक जाना. गिरफ़्त में बंध जाना. वही गीत अब नए कान से सुनना, जो कान पर बजता था तो बिसर गया था. वैसी क़ुरबत भी किस काम की, जो यों बरी कर दे?
फ़ासला चाहिए. बहुत तवील फ़ासला. इतने तारे हैं, जो मुझको दीखते. तारे को तारा कहां दिखता. जिस धरती पर मैं चलता हूं, उसको वो पिंड नीला तारा कह बैठे तो और बात है. सब दूसरे को देखते हैं. जो दूसरा है, वही दिखता है. मैं स्वयं के लिए दूसरा कैसे बनूं, जो स्वयं को देख सकूं. मेरे और दूसरे के बीच कांच की दीवार है. मैं दृश्य में कैसे आऊं कि खिड़की खुले. पहले मैं प्रकटूं, फिर समय, फिर संसार. एक एक कर लौट आएं सब संदूक़ से गुमी चीज़ें. बीच में ही बंद कर दूं गाना. आँख खोल लूं. थिगा रहूं सुदूर पर दीठ में समाऊं. कि ज़ेहन पर पूरे का पूरा नक़्श उतर आए!