चुप्पे लोग / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
पुराने दिनों में लोग कितने चुप्पे रहते थे। कितने ख़ुदख़ुश! ख़ुद को कितना जज़्ब करने वाले। पुराने दिनों के लोग चुप्पे थे, या उनके पास कहने को कुछ होता न था? या यह उलझन कि किससे कहें और किस उपाय से? बहुतेरी कहन तो इसीलिए उपज आती हैं क्योंकि सुनने वाले मौजूद रहते हैं। जो कोई सुनता नहीं तो वो भला किससे कहते?
मुझे एक गाना सुनने की तलब हुई तो मैं यूट्यूब पर चला गया। गाना सुनते सुनते उस पर आए कमेंट्स पढ़ने लगा। कितने लोगों ने कितनी बातें कही थीं। कितने ज़मानों को याद किया था कितनों ने। सबको कितना कुछ मालूम था। पुराने दिनों में जब लोग गाना सुनते थे तो क्या करते थे? किसी के पास जा बैठते थे और ख़ूब तड़प के साथ उसको बतलाते थे कि इस गाने में कितने पहलू हैं? ख़त लिखते थे? रिसाले लिखते थे? किसको वो ये बतलाते कि यहां रफ़ी साहब की आवाज़ देखिये तो कैसे पिघले शीशे सी ढल गई है, और देखो ना, जॉय मुखर्जी पर उनकी शोख़ी कैसी फबती है, जैसे फूलों की डाल लचक आई हो। देव आनंद, शम्मी कपूर और जॉय मुखर्जी- इन सभी के रफ़ी साहब फ़र्क़ हैं। वे एक नहीं।
आज सबों के पास सचमुच ही बहुत सीझे हुए कान हैं। बहुत पकी हुई आंखें। बहुत उजले ज़ेहन। कितने तो ऑब्ज़र्वेशंस हैं। कैसे संजीदा होके वो उनका बयान करते हैं। पता नहीं पुराने लोग इतना सोचते होंगे या नहीं। कहते तो हरगिज़ न थे। कहने के हाशिये ही कहां थे? मैंने अपना एक्टिविटी लॉग चेक किया तो पाया कि मैं ही दिनभर जाने कितनी जगहों पर बात-बेबात बोल उठा था। बेसबब की बतरस। मेरे पास कहने को ख़ूब सारी बातें थीं। सभी के पास थीं। सभी बातूनी हो गए थे। पुराने दिनों में लोग इतना सब कैसे संजोकर रखते होंगे?
गाना सुनकर कुछ ना बोलें, फ़िल्म देखकर चुप रह जाएं, ख़बर पढ़कर मशविरा ना दें, मौसम का बयान ना करें, बाल कटवाकर इत्तेला ना दें, नए चश्मे का मुज़ाहिरा नहीं- पुराने लोग भी वैसे तो नहीं ही होंगे। चार जन को तो बतलाते ही होंगे। ये पंद्रह-बीस साल में कितनी बदल गई है दुनिया। पंद्रह-बीस साल पहले हम सब अपने ख़यालात के साथ कितने तनहा थे। आज तो तमाम वाक़िये, मंज़र और इबारत के नीचे एक कमेंट बॉक्स का नज़्ज़ारा है। उसमें लोग आते हैं, बोलते हैं। उनके साथ मैं भी बोलता हूं। हम सभी इधर कितना बोलने लगे हैं।
जिस गाने को सुनने की तलब उठी थी, वो तलब बहुत पुरानी थी। वो गाना भी नया नहीं था। पुराने दिनों में उसको सुनकर चुप रह जाता था। इस कसक से मचलता न था कि इसका ख़ूब बयान भी करूं। पुराने दिनों में लोग ना केवल चुप्पे थे, वे चुप रहने पर राज़ी भी हो रहे थे। इतना बोला जा सकता है, इसका उनकाे गुमान न था। और जब हुआ तो देखिये, सभी के पास से कितनी सारी बातें बरामद हुई हैं। ये इन्होंने कहां छुपाकर रखी थीं इतने सालों से?
ये बातों के हाशिये जो नुमायां न होते तो दुनिया ने गूंगी ही रह जाना था। ये डाकघर ना होते तो हज़ार तरह की सतरें नहीं बनतीं। लतीफ़े बेघर हो जाते। क़हक़हों का क्या होता? इतनी इत्तेला कहां गुम रहतीं। इतने नज़रिये।
मैं ये बात मायूसी से नहीं कह रहा, अचरज से कह रहा। मैं एक बदले हुए ज़माने का तज़किरा कर रहा हूं। पुराने दिनों में लोग कितने ग़ून्ने हुआ करते थे। कोई जान नहीं सकता था किसी के दिल में क्या है। आज तो सबों ने अपने को उघाड़ दिया है। ये मौजूदा दौर के ग़ुसलख़ाने हैं। जो बोलता नहीं वही संगीन है। उसी को लेकर अफ़वाहें हैं। तफ़्तीशें हैं। कि आप साहब कुछ बोलते क्यों नहीं?
एक-एक कर तमाम कमेंट्स पढ़ गया, गाना तो सुना ही नहीं। वो गूंगे दिन भी क्या ख़ूब थे, जब गाना सुनकर गिरह बांध लेता था। रात को नींद में करवट बदलता तो मेरी पीठ पर वो गिरह गचती थी। मैं जाग जाता और गाने की तहें दुरुस्त कर सो रहता। ये मेरा उससे राब्ता था। उन दिनों में हज़ार क़िल्लतें हों, कम-अज़-कम ये अंदेशा तो न था कि इतना कुछ बोलने को है, कहीं बिन बोले तो मर न जाऊंगा। इतनी वज़नी गठरी लेकर दूसरी दुनिया के पहाड़ कैसे चढूंगा? क्या सच ही इतना सब बोलने को हम सबके पास था? या बातों के मौसम ही इस दौरे-नौ में कुछ ज़्यादह सरसब्ज़ हो चले थे?