पैदल चलना / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
पैदल चलना इतना सरल-साधारण नहीं, जितना मालूम होता है। मैं उस पैदल चलने की बात नहीं कर रहा हूं, जो व्यायाम के मक़सद से किया जाता हो। या जो लोकाचार और कुशलक्षेम का एक उपकरण हो। या जैसे आंदोलनकारी एक भीड़ में सम्मिलित होकर तेज़ क़दमों से चलते चले जाते हों, एक परिकल्पित ऊष्मापिण्ड की ओर!
मैं उस पैदल चलने की बात कर रहा हूं, जो पूर्णतया निष्प्रयोज्य हो, पूर्णतया निरर्थक, स्वयं जीवन की तरह। जिसमें पैदल चलने के सिवा कोई और अभिप्रेत ना हो। कि कोई पूछ बैठे किधर चले, तो उत्तर ना सूझे! किंतु पैदल चलना एक सम्मोहन है, एक सीमा के बाद चलने की लय आपको ग्रस लेती है और आपको मालूम होता है कि यह आपके बिना भी घटित हो सकता है। संसार में वैसी चीज़ों की कमी नहीं, जो आपके बिना घटित हो सकती हों! निस्संगता का आरम्भ ऐसे ही होता है। चुपचाप पैदल चलते हुए। बशर्ते किसी दुर्घटना की सूचना देने वाले साइरन की तरह बज ना पड़ें फ़ोन की घंटियां!
दोपहरी है। आप एक कक्ष में बैठे हैं। सहसा आप उठते हैं और दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल जाते हैं। ऊपर से देखने पर मालूम होगा कि आप स्वयं को अपने निजी स्पेस से बाहर निकालकर संसार को सौंप रहे हैं, लेकिन वास्तव में आप स्वयं को संसार के लिए बंद कर रहे होते हैं। एक पैदल चलते व्यक्ति के लिए प्रस्तुत संसार से असम्भव और अगम्य कुछ और नहीं होता। वह जैसे किसी अदृश्य कांचघर के भीतर चल रहा होता है। आसपास के लोगों, स्थानों, घटनाओं का मुआयना करता हुआ, मानो वे किसी स्वप्न में घटित हो रहे हों, और उसके लिए पूर्णतया अपरिचित हों। जैसे वह इस सकल सृष्टि को कभी समझ नहीं पाएगा!
मिशेल फ़ूको ने एक बार कहा था-- "समुद्र में तैरते जहाज़ से बड़ा कारावास और क्या हो सकता है?" ठीक ऐसी ही बात रोलां बार्थ ने भी कही थी-- "यात्राएं स्वयं को बंद कर लेने का सबसे अच्छा तरीक़ा है।" यह सच है। और यात्राओं का सबसे आदिम रूप तो पैदल चलना ही है। जब पहियों की भी ईजाद नहीं हुई थी, तब मनुष्य आशा और स्वप्न के बिना पैदल चलता था। क्षितिज पर दिखाई दे रही धूमिल रेखा तक रात्रि से पहले पहुंच जाना - आप सोच भी नहीं सकते, वैसी परिस्थिति में जीवन का स्थापत्य कैसा होता है। वह आदिम अनुभूति हम सबके भीतर दबी पड़ी है। बस स्वयं को प्रस्तुत संसार के लिए असम्भव बना देने की आवश्यकता है।
वेर्नर हरज़ोग ख़ूब पैदल चलता था। जिन दिनों वो यूरोप का सबसे चर्चित फ़िल्मकार था और म्यूनिख़ से पेरिस की फ़्लाइट उसके लिए घर के आंगन से दहलीज़ तक की चहलक़दमी जैसी थी, तब एक बार वह म्यूनिख़ से पेरिस तक पैदल चला गया। वह समय और स्पेस के दोनों छोर को अनुभव कर लेना चाहता था! निश्चय ही, उड़नखटोले में उड़ने वाले के लिए संसार वही नहीं होता, जो पैदल चलने वाले के लिए होता है। जो यात्रा एक पहर में सम्भव हो सकती हो, वह अगर एक पखवाड़े में पूरी हो, तो समय का यह जो अतिरिक्त दबाव आपके ऊपर टूटे मचान की तरह आ गिरा है, उसे आप कैसे बरतेंगे? इससे उल्टा भी सम्भव है। जिस मनुष्य को चलने के लिए केवल दो पैर नियति ने सौंपे थे, जब उसने रेलगाड़ियों और उड़नखटोलों की मदद से दूरियों को असम्भव बना दिया, तो अनुपातों के भीतर निर्मित हुआ वह शून्य कहां रहेगा?
यात्राएं रहस्यपूर्ण होती हैं। बहुत से लोग इस बात को समझ नहीं पाते कि स्पेस के भीतर तेज़ गति से यात्रा करना वैसी कोई चीज़ नहीं है, जिससे हमारे भीतर और बाहर का अंतरिक्ष सहज रूप से सामंजस्य बैठा सकता है। कहीं यह पाप तो नहीं? कौन जाने। किंतु पैदल चलना अगर पछतावे जैसा पवित्र मालूम हो, और वैसे किसी प्रायश्चित की एक लम्बी मियाद के बाद आप स्वयं से अधिक राज़ी हो सकें तो आपको समझ जाना चाहिए कि आपकी आत्मा में मौजूद सुदीर्घ अंतराल आपसे कुछ कहना चाह रहे हैं। और तब आप कह सकते हैं कि अनेक ऐसे सार्वभौमिक सत्य हैं जो केवल तंद्रा में ही आपके सम्मुख स्वयं को प्रस्तुत करेंगे। पैदल चलना एक दूसरे क़िस्म की तंद्रा है। उसके एकान्त, अवसाद और निस्संगता का कोई ठौर नहीं। एक व्याधि वैसी होती है, जिसमें आप नींद में चलते हैं! किंतु बहुतेरे लोग जीवन की समूची मियाद को नींद में ही उलीच आते हैं। तब अंगुलियों के पोरों पर श्रमसाध्य भारीपन और हृदय में संतोषप्रद ऊष्मा का रक्तसंचार लिए, बिना किसी आशा के पैदल चलते रहना उस वृत्त में जाग उठना है, जिसका कारावास आपके चलने की गति के अनुपात में फैलता चला जाता हो!