ठहर जाना / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
जीवन समय से नहीं बनता था, जीवन उस गति से बनता था, जिससे आप समय के भीतर चलते थे. या समय को चलने देते थे अपने भीतर!
मैंने स्वयम् से कहा, मैं बरगद से पोखर तक पैदल चलूंगा, भले इक्के का गाड़ीवान ही क्यों ना हांक लगाकर बुलावे. बांसुरी बजाने रुका भी तो वह एक दूसरे क़िस्म का चलना होगा. निःश्वास को कोमल निषाद से बदलना होगा!
मैं पोखर में मुँह धोता और बरगद से पीठ टिकाए बैठ जाता. चींटियां मेरी हथेलियों पर रेंगतीं और मुझे लगता कि मैं कितना ही धीमे क्यों ना चलूं, इन चींटियों से लम्बे डग ही भरूंगा. इस क्षोभ की गति चेतना में कितनी तीव्र थी!
चींटियां नन्ही थीं, तब भी कुचले जाने का भय उनके दुःस्वप्न में कहीं नहीं होता. भय का भार मिश्री की डली से भी कम था! भय कोटर में दुबका रहता, जहाँ बीत रहा था बैसाख.
घास पर बैठा मैं अपना कलेवा चबा रहा था, चींटी हो जाने की आकांक्षा से भी छोटा, लघु, मामूली. एप्रिल की तप्त संध्या मेरी पसलियों में मंज आती थी. किंतु मुझे दौड़कर नहीं चला जाना था ग्रीष्म के गोलार्ध के बाहर.
मुझे दौड़ना ही नहीं था. मुझे चलना था, दिनमान की गति से, समय का सहयात्री बनकर. मुझे केवल बीतना था.
रात के दुकूल पर सितारे टांकते मैंने सोचा-- जो मैं दौड़ रहा होता तो ये आलोक के बिंदु मुझे कैसे बतलाते कि उन्होंने पोखर में छुपा रखे हैं अपने प्रतिबिम्ब. मैं तो सुन ही नहीं पाता उनके रहस्य!
सुनना और देखना उस गति से बनता था, जिससे आप समय के भीतर चलते थे. या समय को बीतने देते थे अपने भीतर!
मुझे नहीं मापना तीन डग में धरती, मुझे चलना है पैदल ग्रीष्म से अनंत तक!
मुझे रुकना है, ठहर जाना है. मुझे दुनिया नहीं जीतना, केवल अपनी पीठ पर अनुभव करना है बरगद का खुरदुरापन!