सगाई की मेहंदी/ कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
उसने सगाई की मेहंदी लगाई तो उसको दिखाई और पूछा, अच्छी रची है ना! वह मुस्कराया और बोला, बहुत सुंदर है! उसे लगा, खट् से भीतर कुछ टूटा है लेकिन ज़ाहिर करना उसके लिए मुनासिब नहीं.
वो सोचता रहा, यह सब कैसे हुआ. वह कितनी मासूम थी, यों सहज होकर उसे मेहंदी का रचाव दिखाने वाली! किंतु वह क्यूँ कर नादान बना? और तब, अपने बचाव में उसने कहा, जो इतना ही सयाना होता तो प्यार करता?
बाद उसके, फिर उसने बहुत सारे रंग पहने, और केवल मेहंदी का ही नहीं! केवल हथेली पर ही नहीं. फिर वह बहुत बार टूटा, और केवल मुस्कराकर ही नहीं, केवल नादानी से ही नहीं.
वह कठिन समय था और अंत का आरम्भ हो रहा था. यह आरम्भ कौतूहल, मुस्कराहट, धैर्य और संयम से हुआ. दु:ख का स्वाद कच्चा था. जब उसने पाया कि इससे भागने का कोई रास्ता नहीं तो दुःख गांठ की तरह पका. वह मीठा था. जब दु:ख का घाव फूटा तो वह अकेला था. वह उसको तीता लगा!
तब उसने हताशा से कहा, फिर से वैसे मुस्कराओ ना, मेहंदी रचा हाथ दिखलाकर! मैं दु:ख को स्वीकार करता हूँ, बशर्ते तुम यहां रहो. मेरी आँख के सामने. होंठों को बेसब्री से भींचे हुए, जैसे स्कूल की उस बरसों पुरानी तस्वीर में भींचे हुए थी!
किंतु मन चाहा दु:ख मिल जाए, एक जीवन में यह कहां होता है!
जब वो मुस्कराहट की खिड़की को लांघकर बाहर चली गई, तब जाकर वह रोया. अकेले में रोने की मोहलत होती है. उसने कहा- तुम क्यूँ कर इतनी बड़ी हुई? स्कूल की वह तस्वीर क्या तुम्हारे रहने को छोटी जगह थी?
दु:ख का आरम्भ कठिन था. अकेलेपन का उससे भी कठिन. फिर दु:ख पुराना हो गया. अकेलापन उसके मन का आकार बनाकर उसके भीतर रहने लगा. इसमें समय लगा, पर यह हो गया.
दु:ख ने जैसे उसे मारा, किंतु उसने दु:ख की वैसे हत्या नहीं की. उसने बड़प्पन दिखाया. दु:ख को जिलाए रखा, जैसे कोई पेड़ के नीचे दीया रख आता है. और छाँव करता है कि बुझे ना. और तैल से सींचता है कि जलता रहे.
दु:ख का रंग गहरा था. उसने अपने लिए फिर कोई और रंग नहीं चुना.
देखो, तुम्हारी मेहंदी का रंग भी उतर गया है अब तो, उसने कहा, और विडम्बना से मुस्कराया.
फिर बोला, कम उम्र के लोग करते हैं नादानी, लेकिन नादानी की उम्र सबसे लम्बी होती है!