प्रेम का निकष / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
प्यार की परख दु:ख से होती है. दु:ख प्रेम का निकष है. उसी की कसौटी पर पता चलता है- कितना खरा, कितना खोटा!
जिससे जितना दु:ख मिले, उससे उतना ही प्यार- ये बराबर का हिसाब गांठ बांधने जैसा है! जिसके बिना जीना मुहाल हो जाए. जीते बने, ना मरते. भीतर की खोखल पाटे न पटे. आत्मा बांझ हो जाए. यों लगे कि अब संसार भी मिल जाए तो क्या है!
और ये कहने का दिल हो कि मुझे सब मिला है और मैंने सब हार दिया तो फिर मुझे मिला ही क्या?
दु:ख मिलेगा, ये सोचके कोई प्यार नहीं करता, लेकिन मजाल है जो प्यार करे और दु:ख ना मिले. जो मैं ऐसा जानती के प्रीत किये दु:ख होय- यही गाना फिर पीछे गाना है.
सुख के फीते से प्यार की जोख नहीं मिलती. सुख छोटी चीज़ है, किसी से भी मिल जाता है. दु:ख बड़ा है. वह वस्तु अमोल है. क्योंकि प्यार से बड़ा जगत में कुछ नहीं.
जिसने दो पल भी प्यार किया, उसी के लिए फिर दु:ख की दैनन्दिनी है!