मोह / कल्पतरु / सुशोभित

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मोह
सुशोभित


सारा शोक मोह से हुआ, नहीं तो हानि ही क्या थी.

संसार में इतने तो आलम्बन हैं, सब तेरे थोड़े हैं. कुछ भी तेरा नहीं है. पोखर में तरंग अपनी ही उद्भावना से बनती है. कुसुम में सुवर्ण है. चंद्रमा में कान्ति. समुद्र में संयम से भरा अधैर्य है. सभी अपने ही स्वभाव में अवस्थित. किंतु इसमें तेरा क्या है?

वह सुंदर था. सुंदरता ही उसका स्वभाव था. उससे मोह हुआ. मैंने कहा तू मेरा है. और उसने भी बतलाया नहीं कि नहीं मैं तेरा नहीं हूँ. एक ही माया दोनों को छलती थी. फिर जब वो गया तो शोक हुआ. उसको तो जाना ही था, शोक तो उस बुद्धि से हुआ जिसने मान लिया था कि यह मेरा है. मोह से शोक हुआ.

इतना कुछ सुंदर है! पोखर में तरंग, चंद्रमा में कान्ति है. किंतु जो सुंदर है वो मेरा हो, मन में ममत्व का यह दोष ही क्यूँ रखना. मोह बिना प्रीति नहीं होती, इसीलिए प्रीति में शोक है. एक दिन यह जाएगा, स्वयम् से यह कहकर मोह करो. स्वयम् को छलो. हारकर मुस्कराओ. रोना है रोओ. और क्या कर सकोगे?

एक दिन तो वह जाएगा. फिर ढूंढे ना मिलेगा. भोर का तुहिन है, वह तो लुभाएगा ही. पर तुम क्यूँ भूलते हो? तुम्हें क्या बाधा है? मन में मध्याह्न का बोध रखो.

कभी ऐसे भी प्रेम करो, जैसे कोई करता हो, टूटते तारे से.

कि देखो तो, वो कितना सुंदर है! किंतु देखो ना, वो मर रहा है! आज है किंतु कल को नहीं रहेगा!