नाम जितना सुंदर / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
किसी ने मुझसे कहा, आपका नाम बड़ा सुंदर है. मैंने कहा, ये सच है. मैं हमेशा अपने नाम जितना सुंदर लगना चाहता हूँ. ये नाम एक निकष बन गया है. मेरे सम्मुख एक मर्यादा. मैं क्यूँ इस पर दोष लगाऊं?
फिर किसी ने कहा, आँखें तो बड़ी करुण. मैंने कहा, ये सच है. मैं ऐसी करुण आँखें लेकर मुस्करा नहीं पाता, मुझे संकोच होता है. मैं क्यूँ ये सम्मोहन तोड़ूं? ये आँखें मेरा निकष बन गईं. मेरे सम्मुख एक लक्ष्मणरेखा.
फिर कोई कह बैठा, तुम्हारी आवाज़ में जैसे एक गूंज है, मौन है! तुम कुछ बोलते क्यों नहीं, स्वयम् को छिपाते क्यों हो? मैंने कहा, ये सच है. पर मैं किसी को अपनी आवाज़ सौंपने से सकुचाता हूँ. जैसे कुछ भी कहना एक पर्वत लांघना हो!
इतनी सुंदर भाषा- यह तो रोज़ ही सुनता हूँ. यह भी सच ही तो है. पर यह भाषा एक शीशमहल बन गई है, इस जीवन की तरह. पूरी की पूरी पार्थिव, भंगुर, नश्वर, निष्कवच. तिस पर मैं इतने अवरोध अपने पर लादे लिए चला हूँ.
मेरा कोई और नाम होता तो? कोई और चेहरा, कोई और आवाज़? मैं कोई और भाषा लिखता तो? इन चार चीज़ों से ज़्यादा मुझे कोई जानता नहीं, और यही तो मेरी कन्दरा है. मेरा सुख.
"छलनामयी संसार है", किसी ने कहा. "छलना को तब सुंदर होना चाहिए ना", कह बैठा मैं.
अपने नाम जितना सुंदर, नेत्रों जितना करुण.