तुम्हें स्कूल छोड़कर आना / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
[चुनु के लिए]
तुम्हें स्कूल छोड़कर आना संसार को सौंप आने जैसा करुण है। स्कूल की सीमा जहां शुरू होती, वहीं से मेरी सामर्थ्य के चुकने का आरम्भ होता।
स्कूल संसार की देहरी था। यहां से संसार शुरू होता है। यहां पर घर समाप्त होता है। मैं तो यही चाहता कि तुमको घर में अपने पास रखूं सदैव। संसार को भी सौंपूं तो यों बरजकर नहीं। ये दुनिया अगर मेरी गोद बन जाए तो क्या बुरा है? कोई हानि है अगर पृथ्वी मेरा कंधा हो, जिस पर सिर टिकाओ तुम। जिस धरती पर जलते हैं जंगल, उसमें तुमको यों छोड़ आने का दिल नहीं करता। स्कूल तो जंगल नहीं, भले काठ की मेज़ें वहां क्रम से सजी हों। स्कूल धरती भी नहीं, भले खेल-प्रांगण में इतनी रेत। स्कूल की अपनी धुरी, पर वो पृथ्वी तो नहीं। अपने धनक और तारे, पर वो आकाश भी कहां?
तब भी अनमना ही लौटता हूं तुमको स्कूल छोड़ आने के बाद। जैसे रिक्त होकर। एक बड़ा-सा परिसर है वहां, जिसमें एक बिंदु पर वो आपको रोक देते हैं- बस्ता अब बच्चे को दे दीजिए, आप इससे भीतर नहीं जा सकते। तो इतनी दूर क्या तुम ये बस्ता उठाकर चलोगे? मैं तुमको बस्ता टांगते देखता हूं। मैं देखता हूं तुम्हारी पीठ, मुझसे दूर जाती हुई। क्या दुखने नहीं लगेंगे कंधे? मैं घर पर होता तो यों बस्ता उठाने देता? गोद में ना उठा लेता जो दुखने लगते पांव। रात को तुम सोते तो पैर दबाता। आंख पर झुक आए बाल संवारता।
एक सीमा के बाद मनुष्य अनवरत आशीष बनता है। एक सीमा के बाद अविरल स्नेह। एक सीमा के बाद चिंतातुर मन। जिस सीमा के बाद घर स्कूल बन जाता, वो सीमा किसकी है? मेरे संसार की सीमा क्या है, अगर उसमें तुम नहीं?
तुम्हें स्कूल छोड़ आना संसार को सौंप आने जैसा करुण है। ये संसार अगर तुम्हारे चेहरे पर मेरे हाथ का कोमल स्पर्श बन जाए तो कोई हानि है?