जल्दबाज़ सुबहें / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
क्लॉक टॉवर के गजर-सा बज उठता था बेटे के स्कूल जाने का समय।
कलाईघड़ी में मिनटों के कांटे ज्यूं सेकंड के कांटों में तब्दील हो गए हों, यों एक अफ़रातफ़री समूचे माहौल को अपनी गिरफ़्त में ले लेती।
जो अपनी ठीक जगह पर हों, वो ज़ुराबें ही क्या? जो कम्पास के भीतर मिल जाय, वो पेंसिल कैसी? समय पर बन जाए तो नाक ना कट जावे टिफ़िन की?
पापा का काम था बेटे को स्कूल छोड़ने जाना, जो अभी तो सोए थे पूरी रात जागकर।
रातों को जागने वालों को सुबहें किसी दूसरी दुनिया की रौशनी से भरी मालूम होती हैं।
चश्मा पहना जाता, टोपी लगाई जाती, सर्दियां हों तो स्वेटर। आंख पर नींद की झिल्ली अभी थिगी होती। गली के मोड़ उनींदे से लगते। कोई दोपहिया समीप से हॉर्न बजाकर निकलता तो एक सुराख़ हो जाता नींद में।
स्कूल पहुंचकर बेटा हाथ हिलाकर बाय कहता। सफ़ेद चूने के रोग़न वाली दीवार पर बने फूल के चित्र सचमुच के फूलों से हिले-मिले होते। लाल सितारे धरती पर उग आते! दुनिया का क़ारोबार बस्तों के भीतर सिमट जाता।
फिर लौट आना होता घर, कटे पेड़ की तरह गिर जाना होता अधूरी नींद के लिहाफ़ में। नींद और जाग के धब्बे एक-दूसरे में घुल जाते, ज्यूं बरखा रुत में जल-थल।
घंटा-दो घंटा बीतते कि अब यह स्कूल से बेटे को लिवा लाने का समय है। रास्ते से कभी टॉफ़ी, कभी दूध, कभी भाजी-तरकारी ले आने का भी।
माना कि स्कूल भले हैं, किंतु नींद भी तो कम नेक नहीं।
गर्मियों की छुटि्टयां पड़ीं तो बेटे के बजाय यह पापा के लिए बड़ी ख़ुशी, और केवल इसीलिए नहीं कि सुबह के अढ़ाई घंटों में भी अब घर के कोने-अंतरे चहक से भरे होंगे।
बल्कि इसलिए भी कि नींद एक क़र्ज़ है, इसका सूद दिनभर सिर पर लिए चलना ठीक बात नहीं।
और पूरी रात जागकर देर से उठने वाले ही जान सकते हैं वो राहत, जो ज़िंदगी की धुन के मद्धम हो जाने पर मिलती है। कि जल्दबाज़ सुबहों के पास वो चैनदारी वाला इकतारा कहां?