जिसने दु:ख भोगा / कल्पतरु / सुशोभित

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जिसने दु:ख भोगा
सुशोभित


प्रलय का होना तो ठीक है, किंतु जिसने इस आशा में जीवनपर्यन्त दु:ख भोगा कि कभी तो उसके भाग्य में उजली भोर होगी, उसका न्याय कैसे होगा? और, जिसने हृदय को शुष्क बनाकर सुख जीता, जो निष्ठुर था, जिसके मन में परायी पीर की हूक ना थी, उसके निर्णय का अवकाश भी फिर कब रहेगा?

कितने ही तो मन थे, जो इस आशा में जीते थे कि कभी तो दृश्य बदलेगा- जिसने दु:ख भोगा, उसे मिलेगी सान्त्वना। जिसने सुख छका, उसको ग्लानि। और जाने कितने थे टूटे-उखड़े- जो दु:खों के एकान्त में खटते रहे, अकेले में रोते रहे। फिर स्वयं को सम्हाला, उठे, खड़े हुए, अपने लिए एक आलम्बन चुना- हारे जीवन का एक सुदूर प्रयोजन- क्या इसीलिए कि एक दिन उसे कह दिया जाए- इसे रहने दो, अब चलना है?

संसार में दु:ख तो था, दु:ख से बड़ा शोक किंतु यह था कि दु:ख की कोई तुक ना थी। इसका कोई प्रयोजन नहीं दीखता था। कोई बतला नहीं सकता था, किसी ने क्यों दु:ख भोगा? उस दुखियारे को लगता था, उसकी आत्मा पर इसके अमिट निशान हैं, एक दिन उघाड़कर दिखलाएगा। किंतु वह तो निकली रेत की लिपि।

वो कहते हैं- आज प्रलय होगा। होता हो, हो रहे। पर न्याय की यह जो भूल है, वह कैसे खटेगी? संसार में न्याय ना था तो क्या प्रलय में भी ना होगा?

काश कि कोई आकर दिलासा दे और कहे- यह इकलौता संसार नहीं। हो रहे यह नष्ट, आज या फिर कल! किंतु एक दूसरी दुनिया भी है।

और वहां किरनों का किरीट सजेगा उनके सिर, दु:खों ने जिनकी आत्मा को ख़ूब मांज उजेरा!