दु:ख मनाने की पात्रता / कल्पतरु / सुशोभित

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दु:ख मनाने की पात्रता
सुशोभित


दु:ख और एकान्त तो कोई अनूठी बात नहीं, इन्हीं में कोटर बनाकर यह लम्बा जीवन बिताया. किंतु निज के दु:ख में लोकमंगल की प्रार्थना भी पार्श्वसंगीत की तरह बजती है. इसी से उसको अपना आकाश मिलता है, अपने पृथक की वैधता मिलती है. संसार अपनी गति से सहज चलता रहे, ये मेरी वेदना की शर्त है, अन्यथा वह निष्प्रभ होगी, उसके संदर्भ अपनी नैतिक वैधता से विरत हो रहेंगे!

वो शाइर ने कहा था ना- 'हरेक चीज़ है अपनी जगहा ठिकाने पे, कई दिनों से शिक़ायत नहीं ज़माने से!' दु:ख वैसा ही गर्वीला होता है, वह वैसे ही अपने लिए हाशिये बांधता है. कहता है पहले तुम चंगे हो जाओ, तब मैं अडोल मन से अपना दु:ख मनाऊं. ये दिन ही कुछ ऐसे हैं कि दिन-दोपहरी पक्षी बोलते हैं. उनके स्वर में राग जोग जैसी उदासीनता भर आती है. सड़कें सूनी और निस्पंद पड़ी रहती हैं. रात के आकाश में कालपुरुष तारामण्डल की कमरपेटी के तीन बटन एक सीध में दमकते हैं. चंद्रमा सदैव की भाँति निस्संग है. एक विश्व की अनुपस्थिति में दूसरा उभर आता है. मैं डूबा हृदय लेकर उनको देखता हूँ. ये दिन ही ऐसे स्पर्श-कातर हैं!

दुःखों की एक लम्बी खेंच के बाद विपदा आती है. संसार में सुख तो न होगा, किंतु क्या संतोष भी न होगा-- आकुल होकर हृदय का पार्थिव पिंड तब यह पूछता है. वह भी न हो तो किससे नालिश करोगे, कहाँ अर्ज़ी दोगे, कैसी कचहरी? किसी ने वायदा तो न किया था कि तुम्हारे मन का ही सब होगा, या कुछ भी तुम्हारे मन का होगा!

आत्मा को ऐसे ही अभ्यास से तब अपरिमित विस्तार मिलता है, उसके आशय व्यापक होते चलते हैं, धैर्य परीक्षा देकर कुंदन बनता है. संसार के संताप में तुम्हारा दु:ख कैसा, उसको अपने में ही छिपा लो, एकान्त में भी उसको निहारो नहीं. उसमें अब ज्योति नहीं है. लोकमंगल का आशीष ही आज विधाता से मांगो. कि बेखटके की भरपूर नींदें सबको फिर मिल जाएं. तभी मैं पूरी रात जागूंगा. दु:ख मनाने की पात्रता इसके बिना नहीं मिलती!