दु:ख के भीतर घर / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
चेक भाषा का एक कवि दु:ख के भीतर घर बनाकर तीन सौ सालों तक उसमें रहना चाहता था। वो कहता, जो मुझे हर तरफ़ से घेरे हुए है, उसके भीतर मैं तीन सदी अकेला रहूंगा और किसी के लिए दरवाज़ा नहीं खोलूंगा। उसके वैसा चाहने में कुछ अचरज नहीं। वो एक काव्योचित दु:ख की बात कर रहा है। दु:ख कविता में सुंदर होता है। कविता में दु:ख का बखान पढ़कर कवि को सांत्वना नहीं दीजिएगा, उस पर करुणा न जताइएगा, वो उस पर दरवाज़ा नहीं खोलेगा। कवि ने दु:ख का सुघड़ चित्र खींचा हो तो उसके डौल का मुआयना ज़रूर कीजिए। उम्दा लगे तो उसकी कहन को सराहिए। कहिए कि मैंने इसे पहले इस तरह से नहीं देखा था। कि दु:ख के भीतर वैसा भी एक गलियारा हो सकता था क्या, अनंत की ओर मुड़ता हुआ? दिलासा तो कवि की शिकस्त होगी। वह स्वयं को इस नाकामी के लिए माफ़ न कर सकेगा। यों दिलासा अपने में बुरी चीज़ नहीं, वो उस मनुज के लिए सांत्वना है, जो भोग रहा हो दु:ख। कवि भी दु:ख भोगता है तो उसकी बनैली अनुभूति को कह नहीं सकता। कहेगा तो उसको सुंदर होना होगा। दु:ख जब झीना हो जाएगा, तभी ना कहने बैठेगा। बाढ़ का पानी उतरेगा, तभी ना सीढ़ी से कीच धोएगा। दु:ख की कहन भी सुंदर न हो तो कवि किस ठौर जाएगा, कहां जाकर रहेगा? कविता में दु:ख सुंदर होता है। कवि और पाठक के बीच वैसी मित्रता का सम्बंध नहीं कि दोनों एक-दूसरे को दिलासा दें। यह वैसे परस्पर का सम्बंध है, जो कहता हो-- रोज़ ही यह मुझको भी स्पर्श करता था, किंतु इसे ऐसे कहा जा सकता था, ये ऐ कवि, मुझको तुझ ने ही बतलाया!