दु:ख के दिनों में भाषा / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
दु:ख के दिनों में भाषा का सजीव अनुभव किया था। एक बहुत गहरी, तीखी, निजी अनुभूति!
जब दम्भ से भरा था तो भाषा में औद्धत्य था। जब उद्वेग से तो भाषा में असंयम। जब राग से तो भाषा में उत्कंठा! किंतु भाषा त्वचा है, यह उक्ति भूल गया था। भाषा को कंटक लगे तो निजत्व को पीड़ा होती है, यह याद ना रहा।
तब दु:ख के दिन आए और भाषा में जैसे संध्या का सम्मिलित आलोक भर गया। शब्दों में गूंज चली आई। वज़न आया! आत्मकथ्य रूपायित हुआ।
इतना क्लेश था, इतना एकान्त, और मैं हारकर भाषा के पास गया। भाषा दु:ख को उलीच नहीं सकती थी, किंतु एक वही दु:ख को कहने को उद्यत थी। मैं उससे बातें करता, जैसे कंठ में सुरों को सम्हालता हो कोई रियाज़ी, और इसी अभ्यास के रचाव में खटता। जब सब ठहर गया तो भाषा ने कहा- मैं तुम्हारी आत्मा के विहाग से मिला लूंगी अपने होने का तानपूरा। मुझमें रमो। मुझी से रचो। मुझमें ही, तुम्हारी मुक्ति।
और तब मुझे लगा कि भाषा ही मेरी इकलौती संगिनी है, वही मेरी प्रेयसी है। वह मुझे कभी अकेला ना छोड़ेगी। तो उसी को क्यूं ना सौंपूं अपनी निष्ठाएं!
बहुत दिन बीते, और दु:ख विरल हो गया, जैसे कि वह सदैव हो जाता है। मैंने स्वयं से कहा कि यह सुंदर है, जो वो अब बीत रहा, किंतु सुख और संतोष और उल्लास भाषा को जैसे असंयम और उद्वेग से भर देते हैं, कहीं मेरी भाषा भी तो अब उससे कलुषित ना हो जावैगी?
मैं यह नहीं कहना चाहता था कि आओ दु:खो, लौट आओ, किंतु दु:खों ने मेरी भाषा को जैसे आत्मनिष्ठ बना दिया था, उस एक सत्व को मैं खोना नहीं चाहता था।
भाषा को अवमानित करने का पाप अतीत में बहुत किया है, अब उस अपयश में नहीं पड़ना चाहता। क्योंकि औरों का नहीं मालूम, किंतु मेरा तो भाषा के सिवा कोई ठौर नहीं, यह जानता हूं। सो अब यही प्रतिज्ञा कि जीवन चाहे जैसे बीते, भाषा को उसके गौरव से वंचित ना होने दूं। स्वयं को भरसक ज़ब्त करूं। यों दुर्बल मन के संकल्प का क्या मोल, जो स्वयं अडोल नहीं, किंतु जो है, अब वही सही।
जो कुछ निज को प्रिय था, सभी तो एक-एक कर छूट गया। तब यह उपालम्भ भी है कि सबसे प्रिय तो मुझे भाषा ही है, अब इसको भी मुझसे विलग करके बतलाओ तो जानूं!