हज़ार कंठ का एक कोरस / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
ईश्वर ने किसी को इतना गहरा सुर लगाने को भेजा, कि वो पातालभेदी हो। किसी को इसलिए कि वो धरती पर कान लगाकर सुने और पदचापों को अपने भीतर तरंगायित होने दे। एक की आवाज़ में उसने कम्पन रख दिया, दूसरे की आवाज़ में गांठ लगा दी, तीसरे के कंठ में सारंगी का रुदन भर दिया। सम्भवतया, सभी स्वरयोजनाओं की परख उसको करना थी, इसलिए कोलाहल के प्रेत भी रचे, उलाहनों और कटाक्षों के गंधर्व भी। किसी के भीतर दम्भ की भैरवी रची, किसी के भीतर संकोच का मालकौंस। और उसने किसी के कानों में यह नहीं बतलाया कि तुम्हें यह गाना है। तब मालूम होता है, इस पूरे जीवन का प्रयोजन अपने गाने की तलाश भर है, अपनी आवाज़ का अन्वेष। और यहां जिसने तारसप्तक की आत्मा लेकर मंद्रसप्तक का स्वर लगा दिया, पाप तो उसने भी नहीं किया, ईश्वर की सृष्टि में पाप जैसा तो कोई प्रत्यय ही नहीं, किंतु निर्वासन उसने अवश्य भोगा है! जिसके पास अपना गाना, अपना कंठ नहीं, वो विस्थापित हो रहेगा। जबकि, जगत इसीलिए तो बनाया गया था ना कि सांझ होते ही सभी पाखी नीड़ में लौट आएं, और उनके कलरव से भर जाए सम्भावनाओं का क्षितिज। हज़ार कंठ का एक कोरस!