धुन / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
जो सुर को देखता है, वो कुछ और नहीं देखता. वो औरों के लिए अंधा होता है. उसको अलबत्ता सब देखते हैं, जैसे दूर कोई मशाल जलती हो. वो ही किसी को नहीं देखता, जैसे कोई देखता नहीं अपनी पीठ.
सुर के टोही को फ़ुरसत ही कहां? वो हारमोनियम के चरखे पर ज़री का लिबास बुनता है. चांदी के तार का बड़ा बारीक़ काम करता है. उसको तवज्जो के गुलदस्ते हज़ार मिल भी जाएं तो वो रक्खेगा किधर? भले अंदरुन अहाते तमाम सांय सांय करते सूने हों!
सुर को देखना नगीने चुनना है, चैनदारी से टांकना है. मनके की एक माला ख़ुदावंद ने सबके भीतर रक्खी है, आती जाती सांस पर वही दुहरती है. वैसा ही एक नायाब कंठहार वो भी बनाने को बेक़रां है-- ख़ूब ऐहतियात से एक एक गौहर जोड़के. मार्ग संकरा है! जहाँ पाँव उखड़े कि खेत रहे. तलवार पर चलने की ये रीत है. वो मुर्शिद चाहके भी किसी को क्या सोचेगा? उसको ख़ुदी की ख़बर नहीं.
धुन ऐसे ही बंधती है. धुन बांधने के लिए सुर को तसल्ली से परखना ज़रूरी है. जो सुर को नहीं देखता वो कुछ नहीं देखता. जो धुन बांधता है वो उसी की सिद्धि में खटता है. मिट्टी का घड़ा कितना ही खरा हो, कोई उसको भला कितनी दूर ले जाएगा! जो कुछ सुर के ग़ैब में नहीं, मिट्टी के मोल है!
हलक़ में अंगीठी रखना मामूल तो नहीं. दिल में अंगार सजाना दुश्वार बहोत है. मन को बांधे बिना दो-तार की चाशनी नहीं बनती. जो चाकजिगर हो, उसके सुर तब बड़े पक्के लगते हैं. जो सुर को देखता है, वो समंदर में खड़ा रोशनीघर है. सब उसको देखते हैं, वो ही किसी को नहीं देखता. अलबत्ता वो रस्ता सबको दिखलाता है. उसके अपने पास कोई डगर नहीं होती! दरख़्त चलने लगें तो आदमी किसकी छांह सो रहेगा?
पर सच कहूं तो जिसकी धुन बंध गई, एक वो ही ख़शहाल है. एक उसी के दु:ख उजले हैं. औरों के यहां तो बस रंजिशें हैं, उघड़े अहसास हैं, चौक-बज़ार की कनफूसियां हैं. जिसकी लौ लग गई, एक वो ही निहाल है। एक वो ही चश्म-ए-तर है!
"सारा जहान मस्त जहां का निज़ाम मस्त
है तेरी चश्म-ए-मस्त से हर ख़ास-ओ-आम मस्त!"