समुद्र में सितार / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
समुद्र में सितार बजती हो, वैसी एक धुन मन में चलती।
इस धुन का एक ही मनोरथ होता कि संसार असम्भव हो जाय। कि करने को कुछ शेष ना रहे, या जो किया जा रहा हो, वह मन से यों पृथक हो जाय, जैसे नाग से केंचुल। जीवन एक कांपती हुई तरंग बन जाय, एक गूंज भरी प्रत्यंचा, और मैं उसका धनुष। तब जाने कहां से कोई यायावर विचार चला आता। अतिथि की तरह, सूचना दिए बिना। वो एक शब्द-रूप धारण करके आता या शब्द-रूप धारण करने को ही मुझको चुनता, ये पता न चल पाता। प्रादुर्भाव के बिंदु सदैव बहुत सूक्ष्म होते। मथे जा रहे मन को यों भी कोई सुध कहां?
विकलता के राग-सा एक पार्श्वसंगीत आत्मा में बजता। घड़ी भर का अवकाश ना हो तो सीप के मोती-सा खटकता। तब एक यही मन होता कि चीज़ों की तहें दुरुस्त कर उन्हें आलों में सजा दिया जाए, खिड़की पर खींच दिए जाएं गहरे रंगों के परदे और चिटि्ठयों को बिन पढ़े रख दिया जाए दराज़ों में, आने वाले कलों से पीली पड़ने को।
चेतना में जो रूप उभर आता, उसे स्वयं को कहना होता, और आपका होना उस कहने का प्रयोजन बन जाता। यह अधिकार तो आपसे बहुत पहले ही छीन लिया गया था कि बाधा बनें।
एक-एक शब्द पर वेदना होती। एक-एक वाक्य ताप से भर जाता। मन में उभरी हर बात कहने योग्य नहीं होती, और जो कहने योग्य होती, वो कहे जाने के सम्मोहन से ग्रस जाती। एक सुघड़ वाक्य अगर बन जाता तो देर तक मन में उसकी मोहिनी बंधी रहती। वर्तनी की गोलाइयों पर चेतना का अवधान स्वयम् को दोहराता, और फिर उससे पृथक कर लेता।
तब उस सुंदर वाक्य के यश से भी वितृष्णा ही होती। भाषा का गौरव हृदय में खलता। जिसे कहने का संकल्प इस देह ने धारा था, उसे कहने के बाद आंखभर देखने से पुण्य का क्षय होता। आत्मा में कहे के बाद का निर्वात चला आता।
कदाचित् कल फिर भोर का तारा डूबेगा और मेरे प्रारब्ध में लिखे वाक्य मुझसे सम्भव होंगे!
मुझे केवल इसका उपकरण बन जाना है, समुद्र में डूबी नौका जैसे समय का तारवाद्य होती है, सिरहाने सुनती सितार!