किसी एक गीत की मोहिनी / कल्पतरु / सुशोभित

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किसी एक गीत की मोहिनी
सुशोभित


कभी कभी किसी एक गीत की मोहिनी आपकी आत्मा को सम्मोहन की तरह ग्रस लेती है।

वह एक धुन, वह एक तराना, कड़ियों की वह एक करवट आपकी चेतना का पार्श्वसंगीत बन जाती है, दिवसपर्यन्त मन में दुहराने लगती है। उस पर से आपका नियंत्रण छूट रहता है!

कोमल, कातर और निष्कवच क्षणों में वह गाना आपके अंत:करण के आत्मीय प्रसंगों का यशभागी बन जाता है। किन्हीं स्मृतियों के साथ रूढ़ हो जाती है उसकी धुन!

टूटा मन ऐसे ही किसी भी साधन या प्रयोजन से अपनी नियति को जोड़ लेता है, मेले में किसी अपरिचित का भी हाथ थाम लेने वाले बालक की तरह।

उससे पूछो कि संसार क्या है, तो वह कहता है- वह जो इस तीन मिनट के गीत के बाहर एक निष्प्राण खोखल की तरह छूट गया है।

तीन मिनट, केवल तीन मिनट!

एक मुखड़ा और दो अंतरे। अंतरालों में संगीत के टुकड़े और कोरस का आर्तनाद। बस इतने में सिमट जाती है उसकी सृष्टि, इतने पर एकाग्र हो जाते हैं उसके प्राण, यों तीन मनवंतर भी कम थे, अगर मापने बैठते सारा पसारा।

आप उस गीत को सुनते हैं, फिर सुनते हैं, फिर सुनते हैं और इस शोक से भर जाते हैं कि अब यह चुक रहेगा, जबकि अभी तो दूसरी कड़ी शेष है।

गीत को सुनने के सुख से गीत के चुक जाने का दु:ख बड़ा हो जाता है।

तब यह भी कि कितनी बार एक ही गीत को सुनियेगा? बारम्बार सुनने से गीत का सत्व मर जाता है। वह जो स्फुरण आपकी आत्मा के भीतर उसे पहली बार सुनने पर अनुभव हुआ था, वह एक दोहराव के क्रम में रीतिबद्ध हो जाता है।

तब यह विषाद घेर लेता है कि जो यह गीत भी चुक गया तो किस ठौर जाकर बैठूंगा, किस तरुवर की छांह? कि एक यही तो अंत:करण का आश्रय था।

ओह, इस जगत में कोई भी दु:ख एक कहां था!

संसार के लोकनाट्य में हर दृश्य दु:ख का ही तो मुखौटा था।

और सुख के प्रसंग भी अंतत: दु:ख के ही प्रतिरूप निकले! जैसे कि संगीत!