गाना आना चाहिए / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
लिखे से दिल की खोह पूरती नहीं, गाना आना चाहिए।
लिखना तो दु:ख का बखान करना है, चित्र खींचना है। कितनी ही सुघड़ रेखाओं से बनाओ, चित्र बनते ही वह आपसे विलग हो जाता है। आप अकेले छूट जाते हैं।
अकेले ही तो नहीं होना है!
काव्य के कितने ही चित्र हों, दु:ख की सम्पदा चुकती नहीं!
किंतु गान में ऐसा है कि बांध की तरह मन बंध जाता है। चेतना के मानचित्र पर सभी रेखाएं एकमेक हो जाती हैं। हृदय बिंध जाता है। तन्मयता का राग मन पर छा जाता है। कंठ में जैसे दीप बला हो, वैसी आंच हृदय पर लगती है।
स्वर में कुछ नित्य है, जो कभी मरता नहीं। अनुगूंजों के देश में उसकी यात्रा चलती रहती है। शब्द वैसा अक्षय कहां?
आत्मा का इकतारा धुनों से भर जाए तो फिर हज़ार दु:ख भी बौने हैं। दु:ख का गाना सुख देता है। किंतु गाना ना आता हो तो फिर दु:ख का यह मरुथल देशव्यापी है बंधु, कहन से उसको उलीच ना पावौगे।
और दु:ख को जितना लिखोगे, उसकी मोहिनी मन को उतना ही बांधेगी, मुक्त ना करेगी।
कवि के कपाल पर शाप का चिह्न यों ही तो नहीं होता!
ओ मेरे दाता, उसी के हृदय में दु:ख की क़लम रोप, जो गा सकता हो! कवि को समुद्र पर मत भेज, रेत-कछार पर सूर्यास्त की खोह में डूबने दे उसको!
कि कहन में दुःख का बखान बड़ा दूभर है!