गहरे दु:ख का गान / कल्पतरु / सुशोभित
सुशोभित
गले में गान हो तो फिर किसी और जीवनराग का उपाय ही क्या करें?
दीये के आलोक को जैसे हाथ से लगाए अंधेरे में बदन चुराए चले जाते हैं बटोही, वैसे ही भीतर के गाने को सम्हाले जीवन की इस लंबी दुपहरी से ना गुज़र जावें।
मैं तो सोचता हूं : जिसके कंठ में गाना नहीं होता, वही बारह बखेड़े और खटकरम करता है। उसकी भरपाई को ही तो। जो गा सकता हो, वो किसी ठौर भला क्यों जावै? अकेले में बैठ गुनगुनावे नहीं? बबूल के नीचे खंजड़ी ना बजावे? तलैया किनारे आलाप ना लगावे?
बहुत पहले से ही गाने की चाहना हमारे मन में रही। पुरानी बंगाली फ़िल्मों में देखते थे बाउल गवैयों को तो जी करता था कि हम भी वैसे ही पटुआ बजाकर बीरभूम की गली-गली में गाते फिरें। या तम्बूरे की टेक पर निर्गुण गाएं। या छोटी लाइन की रेलगाड़ी में रात के समय जब बत्तियां मद्धम हो जाएं तो उस निविड़ अकेलेपन में गाएं गहरे दु:ख का कोई गान।
लेकिन हमारे गले में सुरों का कंठहार कहां!
दु:ख हो यह काफ़ी नहीं है। दु:ख का गाना भी आना चाहिए। और जो गाना ही ना आवे तो फिर काहे का दु:ख, भाई!
तो हम कभी-कभी मन ही मन गाते हैं। गाने को नहीं, गाने के विचार को उचारते हैं। तनहाई में गाते हैं और अपनी आवाज़ को किसी से साझा नहीं करते। कभी खरज, कभी तार, कभी लय, कभी गुंजार - गले में ये तमाम ज़ेवर पहनकर अकेले में इतराते हैं! कि और कोई उपाय भी कहां है!
"पक्का गाना" जो होता है, उसमें कहते हैं कि सुर सही लगना चाहिए, गाना मनभावन हो ना हो। तो पुराने वक़्तों में जो उस्ताद लोग होते थे, वे रुद्रवीणा लेकर कंठस्वर का रियाज़ करते थे और "बीनकार" कहलाते थे। हस्बेमामूल, जितने भी पुराने उस्ताद गवैये हैं, वे सब के सब "बीनकार" भी हैं।
मीठा गाना सुगम संगीत सुनने वालों के लिए है, रियाज़ी गाना "पक्का" सुनने वालों के लिए, लेकिन हमने तो कभी सुर ही ना साधा, क्या कच्चा, क्या पक्का!
ऐसे देखें तो जीवन में कुछ और भी कहां किया? कि ये जीवनघट यूं ही रीत चला है!
कुलजमा एक भाषा का रियाज़ है, किंतु भाषा को संगीत बना सकना तो बहुत ही कठिन है, बंधु!
इसीलिए हम कहते हैं : जो गा सकते हैं, एक वही ईश्वर के सगे बेटे हैं!
बाक़ी सब सौतेले!